डर HARIYASH RAI द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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डर

डर

बहुत परेशान से लग रहे थे धनंजय नागर यहाँ आकर। जब-जब वे जामनगर आते तब-तब बहुत उत्साहित और प्रफुल्लित रहते। वे उन गलियों में जाते जहाँ वे अपने बचपन में गुल्ली-डंडा खेला करते थे। उन मैदानों में जाते जहाँ धमाचौकड़ी मचाते थे, अधेड़ हो रहे बचपन के अपने तमाम दोस्तों से मिलते, घंटों उनसे गपियाते, बचपन के किस्से याद करते और अपने आज पर बात करते, अपने बच्चों की दिनचर्या की तुलना वे अपने बचपन से करते और खुश होते। बचपन में लगाए गये बाग में जाते, एक-एक पेड़ को स्पर्श करते। उसकी ऊंचाई को महसूस करते। उनकी छाया की ठंडक को महसूस करते और उल्लसित होते, पर इस बार ऐसे उत्साह का संचार लेशमात्र भी उनमें नहीं हो रहा था, वे उद्विग्न और चिन्तित थे।

उनकी चिन्ता का कारण एक छोटा-सा बाग था। उसमें आम, अमरूद के पेड़ थे। बहुत छोटे थे वह उस समय जब उनके पिता ने यह बाग लगाया था। बहुत मेहनत की थी उन्होंने अपने पिता के साथ। पौधे लगाए थे बाग में, उनकी परवरिश की थी, बाग में उग आये झाड़ काटे थे। भरी दोपहरी में घूम-घूमकर पक्षियों को उड़ाया था, अपना पसीना बहाया था। इसे सींचा था। इसकी रखवाली की थी। पिछले कई सालों से इस बाग के प्रति उनके मन में अजीब-सा मोह था। इस बाग की आमदनी से ही वे पढ़-लिखकर शहर में नौकरी कर रहे थे। शहर में रहकर भी उन्हें यही चिन्ता लगी रहती कि कोई बाग के पेड़ तो नहीं काट रहा। कोई उसे उजाड़ तो नहीं रहा। कोई उस पर अपना कब्जा तो नहीं कर रहा।

आज इस बाग को लेकर एक तूफान-सा उठ खड़ा था। इस तूफान से उन्हें खुद ही निकलना था। अपनी भावनाओं को काबू में रखना था। जामनगर से उनका कोई संवाद नहीं था। पर एक मोह ता जो उन्हें लगातार रोक रहा था।

दरअसल आज घर में इस बाग को बेचने की बातें हो रही हैं। उनका छोटा भाई नितिन नागर चाहता है कि इस बाग को बेच दिया जाये और जो पैसे मिलें उससे शहर में नर्सिंग होम खोला जाये। इस बाग से उसका कोई जुड़ाव नहीं था। उसे तो यह भी नहीं पता था कि यह बाग कैसे बना। कौन-कौन सी दिक्कतें आइंर् इसे बनाने में। मुसीबतों के कौन-कौन से समन्दर पार किए हैं उन्होंने इस बाग की खातिर। वह तो बहुत छोटा था उस समय। जब वे अपने पिता के साथ बाग में पौधे रोपते थे, बाग का बाड़ा बनाते थे, रात-रात वे और उनके पिता बारी-बारी जागकर बाग की रखवाली किया करते थे। उसे तो कुछ भी नहीं पता यह बाग कैसे बना, कैसे पला, कैसे इस बाग की आमदनी से दोनों की पढ़ाई हुई? आज वह इसे बेचकर नर्सिंग होम खोलना चाहता था। नर्सिंग होम खोलने का सपना नितिन को उसकी पत्नी नीलम बाला ने दिखाया था जो खुद डाक्टर थी और शहर में नर्सिंग होम खोलना चाहती थी। नर्सिंग होम खोलने के लिये चाहिए थे पैसे और पैसे उनके पास थे नहीं। वे बाग को बेचना चाहते थे, जो उनके लिये सूना, वीरान और एकाकी था। नितिन ने सोचा था कि यह बाग उसके लिए अलादीन का चिराग साबित हो सकता है। बाग बेचने से उसकी सारी मुरादें पूरी हो सकती हैं। नर्सिंग होम उसे रुपयों की खान जैसा लग रहा था और रुपयों की खान बनाने के लिए यह जरूरी था कि बाग को बेच दिया जाये। वह धनंजय की सहमति चाहता था। कई बार वह चिटि्ठयों में इस बात का संकेत कर चुका था पर धनंजय या तो इस तरह की चिटि्ठयों का जवाब देते ही नहीं थे और यदि देते भी थे तो इस सवाल पर मौन रहते थे।

इस बार जब छुटि्टयों में जामनगर आये तो नितिन ने सब्र की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। प्रस्ताव उनके आते ही उसने रका था, ‘‘क्यों न हम बाग को बेच दें, हमारे किसी काम नहीं।’’

चौंक पड़े थे धनंजय उसकी बात सुनकर, जैसे किसी ने उन्हें पाताल में फेंक दिया हो। जो बात अभी तक संकेतों में थी वह एकाएक सामने आ गई, वे डर से गये। विश्वास न हुआ कि क्या सुना है। अतंभे से पूछा, ‘‘क्या...? क्या कहा?’’

‘‘हाँ भइया, उस बाग को बेच देते हैं।’’ उन्हें लगा कि डर का आकार बड़ा हो रहा है।

‘‘क्यों, क्यों बेचें?’’ उन्होंने हैरानी से पूछा।

‘‘अब वह हमारे किसी काम का नहीं रहा। पिताजी नहीं रहे। कौन उसकी देखभाग करेगा। बेचना ही ठीक रहेगा।’’ नितिन ने अपना प्रस्ताव दोहराया।

‘‘क्यों? काम का क्यों नहीं है? फल तो अभी भी देता है।’’ उन्होंने तर्क दिया।

‘‘पर हम कहाँ फसलें उगाते हैं? हमारे पास कहाँ टाइम है यह सब करने का?’’ नितिन नागर ने अधीरता से कहा।

‘‘तो पड़ा रहने दो।’’

‘‘पड़े रहने से तो हमें नुकसहान हो रहा है, इसे बेचना ही ठीक रहेगा।’’ उसने प्रणता से कहा था।

डर धीरे-धीरे फैल रहा था। यह छोटा-सा वाक्य उनके दिल में गहरे उतर गया। वाक्य का मर्म समझने में उन्हें काफी वक्त लगा। उनके लिये यह बाग केवल बाग का नहीं था। पिता की स्मृतियाँ थीं, अपने बचपन को बेचना था। इस बाग से उनका संघर्ष जुड़ा हुआ था। उसे देखकर वे अपने पिता को याद करते थे।

‘‘पर यह माँ-पिता की निशानी है। उनकी धरोहर है। इसी के सहारे हम पले-बड़े हुए हैं।’’ उन्होंने कहा।

‘‘पर इस निशानी को कहाँ तक सम्भालते रहें। हमारे लिये फालतू है।’’ नितिन ने आवेश में आकर कहा।

वे खामोश हो गये नितिन के आवेश को देखकर। इससे पहले वे कुछ कहते नितिन फिर बोल पड़े, ‘‘बेचने से काफी फायदा हंोगा। आपको भी काफी पैसे मिल जायेंगे।’’

वे पचा नहीं पाये इस वाक्य को। दहल से गये। गहरी चोट की पीड़ा महसूसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘जरूरत क्या है बेचने की?’’

‘‘जरूरत। पैसे की किसे जरूरत नहीं होती। शहर फैल रहा है, बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही हैं। कोई भी बिल्डर अच्छे-खासे पैसे दे देगा। और फिर पैसों की जरूरत आपको भी तो है।’’ नितिन ने कहा।

अवाक् रह गय.े नितिन से यह बात सुनकर। ऐसा नहीं है पैसों की जरूरत उन्हें नहीं है। जरूरत उन्हें भी थी। शहर के छोटे से किराए के घर में रहते थे। कई बार चाहा बड़ा घर खरीद लें लेकिन खरीदने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। शहर में घरों की कीमतें इतनी ज्यादा थीं कि यदि वे अपने दफ्तर से कर्ज भी लें तब भी घर नहीं खरीद सकते। इसलिये विवश थे। उनके साथ काम करने वाले लोगंो के पास बड़े-बड़े घर थे, मारुतियाँ थीं, जिन्हें वे सड़कों परप अन्धाधुन्ध दौड़ाते थे। उन्हें वे देखते थे और अपनी समर्थता का एहसास करते थे। एक बार उनके साथी राकेश ने कहा भी ता उनसे, कब तक फटीचर बनकर रहोगे। अच्छी तरह रहा करो। गाड़ी-वाड़ी खरीदो।

उसकी बात उन्होंने अनसुनी कर दी थी। पर मन में उनकी इच्छा थी कि शहर की अच्छी कॉलोनी में बड़ा सा घर ले लें। गाड़ी ले लें। पर पैसे कहाँ से आयेंगे। एक बार पत्नी ने कहा भी था कि जामनगर वाला बाग बेच दें तो सारी समस्याएँ हल हो जायें। पर यह विचार केवल अन्तश्चेतना की गहराइयों में ही समाया रहा। कभी मुखर रूप से सामने नहीं आया। आज नितिन ने बाग को बेचने की बात कही तो यह विचार एक डर की तरह उछलकर सामने आ गया। उनकी कल्पना में शहर में बड़ा-सा घर घूम गया। जिसका भाव जानने के लिये एक बार बिल्डर के पास गये थे। पर भाव सुनकर वे पीछे हट गये। फिर कभी उस ओर नहीं गये। आज उनकी कल्पना में वह रास्ता सामने आ गया।

वे बाग को बेचकर अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते थे। उनके सामने एक अवसर आया है लेकिन मन की बातों को दबाते हुए बोले, ‘‘और कोई रास्ता नहीं है नर्सिंग होम खोलने का?’’

‘‘नहीं और कोई रास्ता नहीं है। केवल यही रास्ता है।’’ नितिन ने जोर देकर कहा।

वे हताश से हो गये थे। उन्होंने उसकी आँखों में सपने देखे थे, सपने अमीरी के थे। सपने प्रतिष्ठा के थे। उसके सपनों में बाग के पेड़ों पर नोट थे। वह इसे तोड़ लेना चाहता था। बातचीत के दौरान उन्हें घुटन भी महसूस हो रही थी और खुशी भी। उन्हें लग रहा था उठकर खिड़की खोल दें। थोड़ी ताजा हवा आये। उनके भीतर एक हूक सी उठी। इस बाग से उनकी स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं। बचपन की स्मृतियाँ, बचपन से जवानी तक की स्मृतियाँ। वे इन स्मृतियों को हमेशा संजोये भी रखना चाहते थे और अपनी जरूरतों को भी पूरा करना चाहते थे। बोले, ‘‘अच्छा देखते हैं कि क्या किया जा सकता है?’’ उस समय उन्होंने बात खत्म कर दी थी।

नितिन चुप रह गये थे। कमरे में सन्नाटा छा गया था। उस सन्नाटे में उन्होंने भाई के चेहरे को देखा था। उसका चेहरा लाल हो रहा था। भीतर का गुस्सा उफन रहा था।

एक गहरी उदासी उन पर छा गई थी। क्या करें वे। बेच दें बाग को। एक इच्छा हुई बेच दें तो उन्हें भी आराम हो जायेगा। कुछ पैसे हाथ में आयें तो वे भी बड़ा घर ले लें। जरूरतों की कई सारी चीजें ले सकते हैं। पैसे बचे तो गाड़ी भी ले सकते हैं। दिल के कोने से यह इच्छा भी जागृत हुई। पर तुरन्त अपने आपको नियन्त्रित किया। रह-रहकर बार-बार उनके मन में बड़े घर की कल्पना सिर उठाने लगी।

शाम को घूमने निकले। अकेले। पैदल। पहले इस शऱ्हर में खामोशी रहती थी। खाली-खाली सड़कें। सड़कों पर सन्नाटा रहता। माल रोड, पार्क रोड, अम्बा पार्क, सब सूना रहता था। लेकिन आजकल खूब चहल-पहल रहती है। कोई सड़क सूनी नहीं। कोई पार्क वीरान नहीं। सड़कों पर मारूतियाँ दौड़ रही हैं। पार्कों पर लोग भरे हुए हैं। शहर बढ़ता जा रहा है। काला धुआं शहरों पर छा रहा था। सर्द हवा थी। उन्हें अच्छा लग रहा था। एक लम्बे अर्से बाद वे जामनगर की सड़कों पर घूमने निकले थे। पहले जहाँ खाली जमीन थी वहाँ अब बिल्डिंगें बन रही थीं। सड़क के किनारे के पेड़ों को काटकर चौड़ा किया जा चुका था। खेतों में शॉपिंग कॉम्पलेक्स बन रहे थे। घर दुकानों में बदल रहे थे। रास्ते में मिल गये लखनपाल। लखनपाल उनके पिता के पुराने दोस्तों में थे। रिटायर्ड थे। पहले वे हमेशा प्रसन्नचित और शान्त रहते थे। एक बड़ा-सा घर था उनके पास। लड़कों ने बेच दिया और दूकान ले ली। जब से उनका घर बिका था तब से वे अशान्त रहते। उनका विश्वास धीरे-धीरे खण्डित हुआ था। अपना घर बिक जाने से लगभग साल भर तक वे उदास रहे। वे सोचते ऐसा क्योंकर हुआ, कहीं गड़बड़ी हुई थी लेकिन कोई सन्तोषजनक उत्तर वे तलाश न कर पाते। दिन का ज्यादा समय वे कभी किसी के यहाँ बैठकर बिताते तो कभी किसी के यहाँ। दुआ-सलाम के बाद बोले, ‘‘सुना है अपना पुराना बाग बेच दिया।’’

सन्न रह गये धनंजय उनसे यह सुनकर। यह खबर उन तक कैसे पहुँच गई।

बोले, ‘‘नहीं, बेचा तो नहीं।’’

‘‘पर नितिन तो चाहता है बेच दिया जाये।’’ लखनपाल ने कहा।

‘‘उसकी बातों से कुछ-कुछ लगता तो है।’’ उन्होंने धीरे से कहा।

‘‘अब वह भी क्या करे। बाजार में आग लगी है। पता नहीं कहाँ से बिल्डर आ गये हैं। नई-नई कम्पनियाँ आ रही हैं शहर में। बाग तो बाग, हरे-भरे खेतों को भी वे बाजार में बदल देना चाहती हैं।’’ लखनपाल ने चिन्तित स्वर में कहा।

‘‘पर, मैं तो नहीं चाहता हूँ।’’ उन्होंने अपने आपको तटस्थ रखते हुए कहा।

‘‘अब तुम्हारे चाहने से थोड़े ही कुछ होगा। आँखों के सामने रुपए दिखाई दे रहे हैं तुम्हारे भाई को। अब तुम उसकी आँखों को तो बन्द नहीं कर सकते।’’ लखनपाल ने कहा।

‘‘जिस बाग को बनाने में बरसों लग गए, उसे वे किसी चिड़िया की तरह उड़ा देना चाहते हैं।’’ उन्होंने अवसाद भरे स्वर में कहा।

‘‘वह इस बाग को भूखे बाघ की तरह देख रहा है। तुम कब तक उसे दूर रख सकोगे।’’ लखनपाल ने अपने मन की चिन्ता प्रकट की।

‘‘बाघ यूँ ही तो नहीं आ गया, किसी ने रास्ता तो दिखाया होगा।’’ उन्होंने आशंका व्यक्त करते हुए कहा।

‘‘आज बाजार तेज है। आज उन्हें लगता है ज्यादा पैसे मिलेंगे इसलिए बेचने की बात कह रहे हैं। कल मिलें न मिलें।’’ लखनपाल ने कहा।

‘‘पर बाग तो पहले भी बिका करते थे। यह बाग भी तो बाबू ने किसी से खरीदा ही था।’’ उन्होंने अपने आपको निर्दोष बताने की चेष्टा करते हुए कहा।

‘‘तब की बात और थी बेटा। तब बाजार नहीं था। इतने पैसे नहीं मिलते थे, जितने आज मिलते हैं। सपने नहीं थे। आज बड़े-बड़े सपने हैं, सपनों में लम्बी-लम्बी छलांगें हैं।’’ लखनपाल ने चिन्ता व्यक्त की।

‘‘हाँ, हम लोग बाप-दादाओं की जमीनों को सम्भाल कर रखते थे। आज सब बेचते जा रहे हैं। क्या करें माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है।’’ उन्होंने कहा।

‘‘आज हर आदमी बाजार की तरफ दौड़ा जा रहा है, बाजार लोगों के घरों में पहुँच गया है। ड्राइंग रूम में विराजमान है बाजार। लोगों की कल्पना में झाँक रहा है। संवेदनाओं को मार रहा है। आदमी को कायर बना रहा है।’’ लखनपाल ने कहा।

थोड़ी दूर तक वे चुपचाप चलते रहे। फिर लखनपाल ने कहा, ‘‘अच्छा बेटा, पर इसे न ही बेचो तो अच्छा है।’’

लखनपाल उन्हें यह सीख देकर अपन घर के रास्ते की ओर मुड़ गए।

धनंजय नागर मन ही मन बड़े घर की कल्पना कर रहे थे, वे सोच रहे थे यदि बाग बिकता है तो उनके पास भी बड़ा घर हो सकता है। हो सकता है गाड़ी भी हो। तब दफ्तर में उन्हें हेय दृष्टि से नहीं देखा जाएगा। अपने साथियों में वे सम्मानपूर्वक जाने जाएँगे। कुछ बैंक बैलेंस भी रख सकते हैं। न हो तो पत्नी को सोना भी खरीदकर दे सकते हैं। लेकिन साथ ही एक उदासी की रेखाएँ भी उनके चेहरे पर थीं। बाग बिक जाएगा इसका अफसोस भी हो रहा था।

वे अकेले चलते-चलते उस बाग तक पहुँचे। वहाँ पहुँचकर वे अपने आपको हल्का महसूस कर रहे थे। उस बाग से उनके सपने जुड़े हुए थे। अकेलेपन में वे अपने अतीत की ओर मुड़ गए। उनके पिता इस बाग के फलों को तोड़ते थे, वे इकट्ठा करते थे, कच्चे-पक्के फलों को अलग-अलग करते थे। बाजार में बेचते थे। छोटे थे वे उस समय, वे पिता को ये सब करते कौतूहल से देखते थे।

वे दिन अब हवा हो गए।

वे हाथ से पेड़ों की पत्तियों को छूकर देखते। पेड़ों की पत्तियाँ उन्हें ऐसा रोमांचित करती थीं जैसे छोटे-छोटे बच्चों को छू रहे हों। यह बाग उन्हें कितना अच्छा लगता है। वे सोच रहे थे। इस बाग के प्रति उनका प्रेम गाढ़ा हो गया। पर अगले ही क्षण विचार आया कि इसे हमेशा के लिए बेच देना कैसा रहेगा? इस बाग में, जिसमें उन्होंने तरह-तरह के पेड़ लगाए थे, उन पेड़ों को बड़ा किया था जब वे उस बाग को बिकते और धीरे-धीरे नष्ट होते देखेंगे।

वे उदास हो गए, उदासी लिए घर आए। यह भी सोच रहे थे कि यह जंजाल कहाँ से आ गया। उस रात वे ठीक से सो नहीं पाए। उनकी अंतश्चेतना में बाग घूमता रहा। नितिन और लखनपाल के संवाद उनके कानों में गूँजते रहे। रात को सोते समय अचानक उठकर बैठे जाते। रातभर पिता से जुड़ी स्मृतियाँ उनके सामने आती रहतीं। कभी-कभी बड़ा घर भी उनकी अंतश्चेतना में उभरता।

अगले दिन नितिन ने फिर पूछा, ‘‘भइया क्या सोचा है, बात करूँ किसी प्रोपर्टी डीलर से? मेरी जान पहचान के कई लोग हैं।’’

‘‘अभी क्या जल्दी है? बाद में देखेंगे।’’ कहकर धनंजय ने किस्सा खत्म करना चाहा था और वापस लौट आए थे अहमदाबाद।

लेकिन किस्सा खत्म नहीं हुआ था। जामनगर से बार-बार चिटि्ठयां आती थीं। जल्दी आइए। फैसला करके जाइए। हर दूसरे तीसरे दिन टेलीफोन आता। नितिन जल्द-से-जल्द फैसला चाहता था। उसे लग रहा था आज भाव बढ़े हुए हैं। कल कम होंगे तो? तब बेचने से क्या फायदा होगा? उसके लिए एक-एक दिन भारी हो रहा था।

अगली बार जब वे जामनगर गए तो पूरे घर में एक तनाव था। सन्नाटा था। नितिन के व्यवहार में फूहड़ता और अशिष्टता थी। वह उनकी कोई बात नहीं सुनना चाहता था। केवल अपने फैसले पर उनकी सहमति चाहता था। नितिन ने बाग की बात छेड़ते हुए कहा था। ‘‘आज बिल्डर खरीद रहा है। अच्छे दाम मिल जाएँगे।’’

‘‘कितना मिल जाएगा।’’ उन्होंने दबे स्वर में पूछा।

‘‘यह तो मैंने नहीं पूछा पर काफी मिल जाएगा।’’ नितिन ने आशा भरे स्वर में कहा।

‘‘एक छोटा-सा बाग है। पड़ा रहने दो।’’ उन्होंने फिर प्रतिवाद किया।

उन्हें लग रहा था कि यदि यह बाग बिक जाता है तो जामनगर से उनका नाता हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। वे आते ही यहाँ थे इस बाग की खातिर। जब शहर से उनका जी उचट जाता था तब यहाँ आते थे लेकिन अब जी उचटा तो कहाँ जाएँगे, वहीं शहर के होकर रह जाएँगे।

‘‘आप नहीं मानेंगे तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।’’ नितिन ने थोड़ा गुस्से में कहा।

‘‘मुश्किल। कैसी मुश्किल?’’ उन्होंने धीरे से कहा।

‘‘मुझे अपने हिस्सा बेचना ही पड़ेगा। तब न मेरे हाथ में कुछ आएगा और न आपके ही हाथ में।’’ नितिन ने धमकाने के अन्दाज में कहा।

नितिन से यह सुनकर वे भीतर तक हिल गए। लगा कि कोई डर उनके भीतर समा रहा है। वे चुप रहे।

‘‘और फिर हर्ज क्या है बेचने में। सूना और वीरान बाग है। हमारे किसी काम का नीहं।’’ लोभ नितिन के सिर पर चढ़कर बोल रहा था।

उन्होंने महसूस किया कि उनके छोटे भाई की नजरें गिद्ध की तरह इस बाग पर लगी हुई हैं। वे इस गिद्ध के सामने नहीं खड़े हो पाएँगे। बुझे स्वर में बोले, ‘‘ठीक है किसी से बात करके देखो।’’ कहते हुए उनकी आँखें नम हो गइंर्। उन्हें लगा कि यह बाग किसी मछली की तरह उनके हाथ से फिसल जाएगा।

उनसे सहमति मिलते ही नितिन के चेहरे पर उल्लास छा गया, अपार खुशी उनके चेहरे पर टपकने लगी। दिल में उमंगें उठने लगी थीं। बोला, ‘‘बात करके देखता हूँ।’’

‘‘हाँ, ठीक दाम मिले तो बेच देना।’’ उन्होंने भारी मन से कहा और कहकर वहाँ से उठ गए।

उनके मन में धीरे-धीरे छल समा रहा था। लगा कोई भारी पत्थर सीने से हट गया। जनते थे कि यह अच्छा नहीं किया लेकिन कहीं न कहीं राहत महसूस कर रहे थे। वे बेचैन भी थे कुछ-कुछ। सोच भी रहे थे कि पिता की स्मृतियों के रूप में शहर का घर उनके पास रहेगा। बाग के रूप में न सही घर के रूप में ही सही। वे उनकी स्मृतियों को अपने पास रख सकेंगे। खुश भी थे। डर से उन्हें मुक्ति भी मिल गई थी।

उसी शाम वे जामनगर छोड़ अहमदाबाद चल पड़े। रास्ते में ट्रेन में बैठकर सोच रहे थे, ‘अब जब अगली बार जामनगर आएँगे तो वह बाग नहीं होगा, उनका अपना पुराना घर नहीं होगा। नितिन शायद उसे छोड़कर कहीं और चला जाए। नर्सिंग होम के पास ही कोई घर ले ले। वे भी शायद बड़ा घर ले लें। यह भी विचार उनके मन में आ रहा था कि अब शायद हर साल जामनगर न भी आएँ और आएँ भी तो पता नहीं कब? वे कल्पना कर रहे थे जिन आम के पेड़ों की वे रखवाली किया करते थे उन्हें आरे से चीर दिया गया। उनकी लकड़ियों को बेच दिया गया। जिन अमरूदों के पेड़ से उन्होंने सैकड़ों अमरूद तोड़े थे, अपनी शादी में फलों का टोकरा सजाया था उन्हें कुल्हाड़ी स काट दिया गया। बाग की जिस जमीन को उन्होंने समतल किया था, उसमें बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर सीमेंट और लोहा भर दिया गया है।’ इन्हीं प्रकार के ख्यालों में वे देर तक डूबते-उतरते रहे।

धनंजय नागर ट्रेन में बैठे-बैठे ऐसी ही बातें सोच रहे थे और अपने आपको पराजित-सा महसूस कर रहे थे.

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