बात बस इतनी सी थी - 17 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 17

बात बस इतनी सी थी

17.

मंजरी की बातों से मुझे उस पर हँसी भी आ रही थी, गुस्सा भी आ रहा था और प्यार भी आ रहा था । इसके साथ ही उसकी सोच पर दया भी आ रही थी कि इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी वह न तर्कसंगत सोच सकती है न तथ्यात्मक ! न तो उसको मेरा सच बोलना रास आता है और न ही मेरे झूठ बोलने पर उसको चैन आता है । उसकी अपनी ही सबसे न्यारी एक छोटी-सी दुनिया है, जिसमें वह अकेली विचरती रहती है ! न वह अपनी विचारों की उस छोटी-सी संकरी दुनिया से खुद बाहर निकलना चाहती है और न ही अपनी उस दुनिया में वह किसी दूसरे को प्रवेश देती हैं ।

शाम को ऑफिस से निकलने से पहले मैंने एक बार फिर मंजरी को कॉल करने की कोशिश की, लेकिन तब भी उसका मोबाइल स्विच ऑफ था । अगले दो दिनों में भी जब तक मैं शहर से बाहर रहा, उसके मोबाइल पर मेरी कॉल नहीं लगी । चौथे दिन मैं घर लौट कर आया, तो घर पर ताला लगा हुआ था । मंजरी को कॉल की, तो अब भी उसका मोबाइल स्विच ऑफ था ।

थोड़ी देर तक मैं सोसायटी के पार्क में टहलते हुए उसका इंतजार करता रहा । टहलते-टहलते अचानक मेरे मन में विचार आया कि उसके मौसेरे भाई अंकुर को कॉल करके देखूँ ! हो सकता है, घर में अकेलेपन से परेशान होकर वह अपनी मौसी से मिलने के लिए चली गई हो ?

मैंने उसी समय अंकुर का नंबर लगाया । तुरंत ही उसने कॉल रिसीव कर ली । मैंने अंकुर से मंजरी के उनके यहाँ जाने के बारे में पूछा, तो उसने मुझे बताया कि मंजरी घर की चाबी पड़ोस वाली आंटी को देकर दिल्ली लौट गई है । अंकुर से मंजरी के दिल्ली लौटने के बारे में पता चलने के बाद मैंने पड़ोस वाली आंटी से चाबी लेकर घर का ताला खोला, तो घर के अंदर घुसने का मेरा मन नहीं हुआ । मैं सोचने लगा -

"पहले माता जी गाँव चली गई और अब मंजरी दिल्ली लौट गई है ! उन दोनों के बिना इस घर की इन निर्जीव दीवारों के बीच रहने से तो अच्छा है, मैं अपने किसी दोस्त के साथ उसके कमरे पर जा रहूँ !"

सोचते-सोचते मैंने दरवाजे पर वापिस ताला डाल दिया और उल्टे पाँव वापिस लौटने लगा । उस समय मेरा मन बहुत उदास था । मायूस नजर से एक बार मैंने फिर पीछे पलटकर घर की ओर देखा । ऐसा लग रहा था कि अब तक जो कुछ मेरे पास था, वह धीरे-धीरे मेरी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है । जितना मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ, उतना ही पीछे कुछ छूटता जा रहा है !

अगले एक सप्ताह तक मैं हर रोज मंजरी को कॉल करके उससे बात करने के लिए उसका मोबाइल नंबर मिलाने की कोशिश करता रहा, परंतु एक बार भी उससे मेरा संपर्क नहीं हो सका । हर बार उसका मोबाइल स्विच ऑफ ही मिला । एक सप्ताह बीतने के बाद मैंने मंजरी की मम्मी का नंबर डायल किया । अपनी मम्मी के मोबाइल पर भी मेरी कॉल मंजरी ने ही रिसीव की थी । कॉल रिसीव करते ही वह मुझ पर हावी होती हुई सपाट और रूके लहजे में बोली -

"मिस्टर चंदन ! अभी से डर गये क्या ? आखिर आ ही गई तुम्हें मंजरी की याद ! लगता है, अब तुम्हें औरत की ताकत का एहसास होने लगा है ? अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है ! अभी तो आगे-आगे देखना, जल्दी ही तुम्हें पता चल जाएगा कि क्या-क्या हो सकता है ! मंजरी की असली याद तो तुम्हें तब आएगी, जब तुम्हें तुम्हारी गलतियों की सजा भुगतनी पड़ेगी !"

मंजरी की बातों का कुछ भी अर्थ मुझे समझ में नहीं आ रहा था । न ही मुझे यह समझ में आ रहा था कि उसकी बातों का उसको क्या जवाब दूँ ? फिर भी बातचीत लगातार जारी रखने के लिए मैंने उससे कहा -

"यह सब छोड़ो तुम कि मुझे तुम्हारी याद आ रही है ? या नहीं ? या कब तुम्हारी याद आएगी ? कब नहीं आएगी ? तुम मुझे यह बताओ कि पूरा एक सप्ताह बीत चुका है, तुमने अपना मोबाइल स्विच ऑफ करके क्यों रखा है ?"

"नहीं तो ! मैंने मेरा मोबाइल स्विच ऑफ करके नहीं रखा है ! मेरा मोबाइल ऑन है ! मेरा जो कॉन्टेक्ट नंबर तुम्हारे पास है, मैंने बस वह सिम कार्ड अपने मोबाइल से निकाल दिया है !"

"अरे यार ! मंजरी तुम्हारी नाराजगी मुझसे है ! उस बेचारे सिम पर क्यों अपनी नाराजगी निकाल रही हो ? यह तो सरासर गलत है ! क्या यह अव्वल दर्जे की नासमझी नहीं है ? तुम्हारे पास मुझसे इंपॉर्टेंट कोई दूसरी कॉल भी तो आ सकती है, जो सिम निकाल कर रखने के कारण मिस हो जाएगी !"

"मिस्टर चंदन ! तुम्हें इसकी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है ! फिर भी तुम्हारी जानकारी के लिए मैं तुम्हें बता देती हूँ कि मेरा यह नंबर सिर्फ तुम्हारे लिए था । अब, जब तुम्हें मेरी ही जरूरत नहीं है, तो इस नंबर की या किसी दूसरे कांटेक्ट नंबर की भी क्या जरूरत है ? हम जल्दी ही मिलेंगे ! बाकी बातें मिलने पर करेंगे !"

यह कहकर मंजरी ने कॉल काट दी । कॉल कटने के बाद मैं मंजरी की बातों का अन्तर्निहित अर्थ तलाशने की कोशिश करने लगा । लेकिन कुछ समझ में नहीं आया । हारकर निराश होकर मैं सारी समस्याओं और सवालों का जवाब समय पर छोड़कर आँखें बंद करके कुर्सी पर बैठा गया । मुझे बैठे हुए कुछ ही मिनट हुए थे, तभी मेरे पास एक अनजान नंबर से कॉल आई । मैंने "हैलो " बोला, तो दूसरी ओर से बोलने वाले व्यक्ति ने मुझे बताया -

"सर,पोस्टमैन बोल रहा हूँ ! आपके नाम से एक रजिस्टर्ड लैटर है, उस लैटर को देने के लिए मैं आपके घर के दरवाजे पर खड़ा हूँ !"

मैंने पोस्टमैन से कहा -

"अभी मैं घर से बाहर हूँ । शाम तक मैं खुद पोस्ट ऑफिस आकर उस लैटर को रिसीव कर लूँगा !"

भले ही मैंने पोस्टमैन से कह दिया था कि शाम को लैटर ले लूँगा, लेकिन मेरे मन में यह जानने की इच्छा बढ़ती ही जा रही थी कि आखिर रजिस्टर्ड लैटर कहाँ से आया है ? किसने भेजा है ? उसी इच्छा से संचालित होकर शाम होने से पहले ही मैंने पोस्ट ऑफिस से वह लैटर रिसीव कर लिया ।

लैटर कोर्ट से किसी वकील ने भेजा था । मैंने जल्दी-जल्दी उस लैटर को खोलकर देखा । पता चला, मंजरी ने मेरे ऊपर जिला कोर्ट में घरेलू हिंसा का एक केस कर दिया है । उस लैटर को पढ़कर मुझे यह भी समझ में आ गया कि सुबह मंजरी ने जितनी बातें कही थी, वे सब बातें इसी लैटर के संदर्भ में कही थी । उसका अनुमान रहा होगा कि कॉल करने से पहले ही मुझे वह लैटर मिल चुका है । लैटर को पढ़ने के बाद बहुत देर तक मेरे कानों में बार-बार मंजरी के वे शब्द गूंजते रहे, जो उसने सुबह मेरी कॉल रिसीव करते ही सबसे पहले कहे थे - "अभी से डर गये क्या ?"

सुबह मैंने मंजरी की मम्मी के मोबाइल पर कॉल इसलिए की थी कि मंजरी के मन में पनप रहे शक के कीड़े को निकाल सकूँ ! मैंने कॉल इसलिए भी की थी कि मंजरी को घर में अकेली छोड़कर अचानक शहर से बाहर जाने के अपराध बोध से मुझे जो ग्लानि हो रही थी, उससे माफी माँगकर शायद मुझे अपने अंदर की उस ग्लानि से मुक्ति मिल सकेगी ! लेकिन, मंजरी मेरी शराफत को डर का नाम देकर अपनी जीत के अहंकार में खुद को ही गुमराह कर रही थी ।

मंजरी की सोच और उसके व्यवहार ने आज फिर मुझे एक बार उससे एक और कदम दूर कर दिया था । केवल खुद तक सीमित रहने के उसके स्वभाव और संस्कार से परेशान होकर अपने जिस निश्चय को मैं अब से पहले भी कई बार दोहरा चुका था, आज फिर मैंने वही निश्चय एक बार फिर दोहराया -

"मंजरी के साथ रहना मेरे लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है !" और आज फिर एक बार मेरा यह निश्चय दृढ़ से दृढ़तर हो गया था ।

कोर्ट में केस शुरू हुआ, तो मंजरी के वकील की ओर से मुझ पर घरेलू हिंसा के तहत आरोप लगाया गया था कि मैंने अपने पति-धर्म और कर्म का ठीक से पालन नहीं करके अपनी पत्नी का मानसिक उत्पीडन किया है ! उस दिन मेरे लिए संतोष की बात यह रही थी कि कोर्ट में मंजरी से मेरा आमना-सामना नहीं हुआ था । यदि ऐसा होता तो वह समय मेरे लिए कठिन परीक्षा की घड़ी होती । मैंने वकील द्वारा लगाए गए मंजरी के आरोप को सही मानते हुए स्वीकार कर लिया कि मैंने अपने पति-धर्म को ठीक से नहीं निभाया है और इसके लिए मुझे कोर्ट जो भी सजा देगी, मैं उसे भुगतने के लिए तैयार हूँ ! साथ ही मैंने यह भी कह दिया था कि अब मैं मंजरी के साथ नहीं रहना चाहता और भविष्य में भी मेरे लिए इस जिम्मेदारी को निभाना मुमकिन नहीं होगा ।

पहले ही दिन मुझे अपनी औकात का भी पता चल गया था कि कोर्ट में तारीख पर जाना कितना कठिन काम है ? साथ ही मेरे लिए उससे भी कठिन काम था, कोर्ट में मंजरी के विरुद्ध खड़े होना और मंजरी को अपने विरुद्ध खड़े हुए देखना ! कोर्ट में हम दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाएँगे, यह सोचकर मुझे मंजरी पर कभी गुस्सा आ रहा था, तो कभी दया ! दोनों ही भावों को अंदर ही अंदर आँसुओं के साथ पी जाना और बाहर से मजबूती के साथ मैदान में डटे रहना मेरी नियति बन गई थी । उस दिन बार-बार मेरे मन में उठने वाला एक ही प्रश्न मुझे बेचैन किये जा रहा था -

"जिस रिश्ते को हम दोनों ने जोड़ा था और किसी तीसरे की उपस्थिति के लिए जहाँ कोई जगह खाली नहीं थी, उस रिश्ते में हम दोनों के बीच आज कोर्ट या अन्य कोई तीसरा कैसे जगह पा सकता है ? कोर्ट इस रिश्ते को लेकर कोई निर्णय कैसे दे सकती है ? क्या मंजरी यह सब करके खुद को और मुझे गुमराह नहीं कर रही है ? यह सब उसके द्वारा खुद उसको और मुझको धोखा देना नहीं है, तो क्या है ? जरूर यह धोखा है ! शत-प्रतिशत धोखा है !"

कोर्ट में केस चलते-चलते लगभग सात महीने बीत चुके थे और अभी तक हमारे केस में बहस भी शुरू नहीं हो पाई थी । इस दौरान ज्यादातर समय कोर्ट की हड़ताल ही रही थी । जब हड़ताल नहीं होती थी, तब मैं तारीख पर कोर्ट में जाकर अटेंडेंस रजिस्टर पर साइन करके अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता था । इस पूरे समय अंतराल में मेरी और मंजरी की आपस में कोर्ट में या किसी दूसरी जगह एक बार भी मुलाकात नहीं हुई थी ।

हमारी इस दूरी से मेरे इस पक्ष को तो बल मिलता था कि यदि मैं पिछले सात महीने से मंजरी के साथ नहीं रह रहा हूँ, साथ ही इस दौरान हमारी एक बार भी मुलाकात भी नहीं हुई है और आगे भी मैं मंजरी के साथ नहीं रहना चाहता हूँ, तो कोर्ट से मुझे अलग रहने की अनुमति मिल जाएगी ।

लेकिन इन सात महीनों में मैंने मंजरी के स्वभाव और व्यवहार में कितनी बार कितने दोष ढूँढे, इसका शब्दों में वर्णन करना मुश्किल था । इन सात महीनों में मेरी मानसिक हालत ऐसी हो गयी थी कि मेरी नजर जब भी मेरे मोबाइल की डीपी पर जाती थी, हर बार मुझे वहाँ मंजरी का फोटो मिलता था । अपने मोबाइल की डीपी में हर बार मंजरी का फोटो लगा हुआ पाकर मेरा अतृप्त-अहंकारी पुरुष-मन पागल हो जाता था और मैं गुस्से और तिरस्कार से उसका फोटो एक ही झटके में डीपी से हटा देता था । इन सात महीनों में मैंने हजारों बार अपने मोबाइल की डीपी बदली थी । उस समय मेरे अहंकारी मन को यह महसूस होता था और एक झूठी-खोखली तसल्ली होती थी कि मेरे ऐसा करने से मंजरी को मेरे साथ किए गए अनुचित व्यवहार की सजा मिल रही है ! उसको भी ऐसी ही पीड़ा का अहसास होगा, जैसा उससे दूर रहकर मुझे हो रहा है !

आश्चर्य की बात यह थी कि अगली बार जब फिर मेरी नजर मेरे मोबाइल की डीपी पर जाती थी, मेरे हटाने के बावजूद तब फिर वहाँ पर मंजरी का ही फोटो होता था । अंतर केवल यह होता था कि अगली बार डीपी में मंजरी के उस फोटो की जगह उसका ही कोई दूसरा फोटो लगा होता था । फुर्सत के पलों में जब मैं इसके बारे में सोचता था, तो मुझे ऐसा लगता था, जैसेकि मन में मंजरी का विचार आते ही मेरे शरीर के एक-एक अंग पर से मेरा नियंत्रण छूटकर किसी दैवी शक्ति का अधिकार हो जाता है । मेरे मोबाइल की डीपी से मंजरी का फोटो हटाते समय भी मेरे ऊपर उसी दैवी शक्ति का नियंत्रण होता था ।

मैं यह भी महसूस करता था कि यह दैवी शक्ति कोई बाहरी शक्ति नहीं है, मेरे ही अंदर का मेरा अचेतन मन है, जो डीपी पर लगे मंजरी के फोटो को एक ऐसे सूत्र, ऐसे धागे के रूप में पकड़े रखना चाहता है, जिसके एक छोर से मंजरी बँधी है और दूसरे छोर से मैं बँधा हूँ ! मैंने यह भी महसूस किया था कि मेरा अचेतन मन हर-पल इस अबूझ डर से जूझता रहता था कि मोबाइल से डीपी हटते ही धागे का वह छोर उसके हाथ से छूट जाएगा, जिस छोर से मंजरी बँधी है ! उस छोर के छूटते ही मंजरी हमेशा-हमेशा के लिए दूर, बहुत दूर चली जाएगी ! इतनी दूर, जहाँ मेरा पहुँचना और उसका लौटना शायद मुमकिन न हो ! लेकिन मेरा चेतन पुरुष-मन अपनी झूठी अकड़ और मिथ्या अहंकार को छोड़ने के लिए अब भी तैयार नहीं था ।

क्रमश..