अपने-अपने इन्द्रधनुष - 10 Neerja Hemendra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 10

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(10)

आज सायं कई दिनों के पश्चात् छोटी का फोन आया। उससे बातंे कर के मन में नवस्फूर्ति को संचार होने लगता है। मुझसे बातंे करते समय वह सदा प्रफुल्लित रहती है। मेरा हृदय उसे सदैव आशीर्वाद देता है। वह इसी प्रकार खुश रहे। दुःख कर परछाँई उसे छू तक न सके। बातों बातों में मैंने उसे पूछा, ’’ इस समय वह क्या कर रही है। ’’ उसने हँसते हुए वही हास्य से भरा उत्तर दिया, ’’ आपको फोन। ’’

’’ अरे हाँ...वो तो कर ही रही हो.....किन्तु अभी क्या-क्या किया..... और इसके बाद क्या करोगी? ’’ मैंने हँसते हुए पूछा।

’’ आफिस से घर आ कर मैंने अपने व पतिदेव के लिए भोजन तैयार किया है। अब कुछ देर विश्राम करूँगी। तत्पश्चात् हम दोनों चाय पीयेंगे कुछ देर टी0वी देखेंगे ततपश्चात् भोजन करेंगे।......और बताइये...? ’’ हँसते हुए छोटी ने कहा।

’’ बस...बस....इतना बहुत है। शेष बाद में बताना। ’’ मैंने भी हँसते हुए कहा।

छोटी से बातें करके मन हल्का हो रहा था। मैं सोच रही थी कि वे स्त्रियाँ जिन्हंे हम गृहणी कहते हैं वे घर गृहस्थी के उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में अपने दिन-रात लगा देती हैं। किन्तु वे स्त्रियाँ जो नौकरी में हैं वे घर और बाहर दोनों स्थानों पर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कुशलता पूर्वक करती हैं। वे दोहरे उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती हैं। ये स्त्रियां किसी पुरूष से कमतर नही हैं।

छोटी जो कि प्रशासनिक अधिकारी है। कार्यालय से आकर घर के उत्तरदायित्व का वहन अच्छी प्रकार कर रही है। यह स्त्री समाज के लिए गर्व का विषय है। स्त्री ही क्यों यह तो समस्त पुरूषों तथा समाज के लिए गर्व का विषय है।

आज मैं प्रसन्न थी अतः मैंने एक अधूरा लेख पूरा किया। कोई भी कार्य जो हमारा अभिष्ठ है यदि वह पूरा हो जाता है तो मन कितना हल्का व प्रफुल्लित अनुभव करता है। एक लेख पूर्ण होने के पश्चात् मुझे ऐसा ही अनुभव हो रहा था।

काॅलेज में स्वप्निल से बातें करना मुझे अच्छा लगता। तब मैं स्वप्निल से मिलती तो चन्द्रकान्ता द्वारा बताई-समझाई गयीं सभी बातें विस्मृत हो जातीं। मैं स्वप्निल के साथ बातों में......उसके व्यक्तित्व के आकर्षण में गुम होने लगती। जी चाहता कि बस वह मेरे समझ बैठा रहे और बातों का तारतम्य यूँ ही चलता रहे।

कभी-कभी मैं सोचती कि यदि मैं पुनर्विवाह करना चहूँगी तो किससे करना चाहूँगी.? मेरी कल्पनाओं में स्वप्निल जैसी छवि वाला जीवन साथी साकार हो उठता। वह कदाचित् स्वप्निल ही होता। स्वप्निल समझदार, गम्भीर व संवेदनशील है। अपने परिवार के प्रति समर्पित है। अपने बच्चों का आदर्श पिता......आदर्श पति.....एक अच्छा बेटा। किसी के व्यक्तिगत् जीवन में न रूचि, न हस्तक्षेप। ऐसा ही है स्वप्निल का जादुई व्यक्तित्व जो मुझे सम्मोहित करता है।

विक्रान्त के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने के कारण माँ मुझसे थोड़ी-थोड़ी रूष्ट रहतीं। किन्तु अधिक देर तक नही मैं उन्हे मना लेती। अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी भाँति उन्हें आश्वस्त कर देती एक न एक दिन मैं उनकी इच्छा अवश्य पूरी करूँगीं। किन्तु कब ? ये तो मैं भी नही जानती।

महुआ मुझसे मिलती रहती। अपने दुख-सुख मुझसे बाँटा करती। अपने घर परिवार की बाते, कमियों, अच्छाईयों से मुझे अवगत् कराती। में उसकी बातें सुनती। उसकी भावनाओं को समझती। उसके साहस को प्रोत्साहित करती। जब भी वह मिलती यह कहना न भूलती कि, दीदी आपसे बातें करके बड़ी हिम्मत मिलती है। मन हल्का हो जाता है।

दिन व्यतीत होते रहे। समय आगे बढ़ता रहा। गति का नाम ही तो जीवन है और मैं जीवन में गतिशीलता का अनुभव कर रही थी। मैं प्रथम बार अनुभव कर रही थी कि मुझमें जीवन अंकुरित हो रहा है। नव-अंकुरण की हरीतिमा मेरे चेहरे पर परिलक्षित हो रही थी। तभी तो माँ-बाबूजी मुझे देखते तो उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव आ जाते। कभी-कभी वे खुलकर हँसने भी लगे थे। घर का वातावरण तनावमुक्त हो चला था। आज अवकाश था और मेरा मन कहीं जाने का हो रहा था, किसी से बातें करने का हो रहा था। ऐसे में चन्द्रकान्ता के अतिरिक्त और कौन हो सकता था मेरे लिए जिसके पास मैं जाती। उसके घर गये मुझे अरसा हो भी गया था। अकस्मात मुझे अपने घर देख कर चन्द्रकान्ता कितनी प्रसन्न होगी। आज मैं उसे विस्मित् कर दूँगी, यही सोच कर अपने आने की सूचना दूरभाष द्वारा मैंने उसे दी नही है। दरवाजे की घंटी बजाकर मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगी। मैं जानती थी कि दरवाजा खोलने वाली चन्द्रकान्ता होगी अथवा उसका बेटा। दरवाजा खुलते ही सामने चन्द्रकान्ता के पति को देख कर मेरे मन की प्रसन्नता निराशा में तब्दील हो गयी। अपने भावों को मैंने चेहरे पर प्रकट होने से राके रखा। उसने अभिवादन के साथ मुझे ड्राइंग रूम ले जा कर सोफे पर बैठने का संकेत किया तथा स्वंय घर के अन्दर चला गया। कुछ ही क्षणों में चन्द्रकान्ता ने ड्राइंग रूम में प्रवेश किया।

आज चन्द्रकान्ता को क्या हो गया है? ये तो काॅलेज वाली चन्द्रकान्ता से अलग दिख रही है। उसके चेहरे की वो चिरपरिचित मुस्कराहट कहीं विलुप्त हो गयी है। मैंने उसे इतना निराश कभी नही देखा। प्रसन्नता का छद्म आवरण ओढ़े चन्द्रकान्ता मुझसे बातें करती रही किन्तु उसके मन की निराशा मुझसे छुप नही पा रही थी। अधिकांश समय तो वह चुप-सी रही। जब कि ड्राइंग रूम में उसके और मेरे अतिरिक्त कोई नही था। घुटन भरे सहमे हुए माहौल में मैं अधिक देर तक रूक नही पायी। शीघ्र ही वहाँ से चली आयी। मार्ग में सोच रही थी कि सचमुच चन्द्रकान्ता के घर में उसके पति की मौजूदगी उसके घर में दमघोंटू वातावरण का करण है जैसा कि चन्द्रकान्ता बहुधा कहती है। आज से पूर्व उसके पति के न रहने पर जब भी वह चन्द्रकान्ता के घर आयी है, चन्द्रकान्ता उससे खुलकर प्रफुल्लित हृदय से मिली है। आज जैसा कड़वा अनुभव उसे कभी नही हुआ।

दूसरे दिन काॅलेज में चन्द्रकान्ता मुझे ढूँढती हुई आई। वह मुझसे ढेर सारी बातें करना चाहती थी। ?

’’ तुम कल अति शीघ्र चली आई मेरे घर से ? ’’ उसने बात प्रारम्भ करते हुए कहा।

’’ क्या करती? मैं तो गयी ही थी तुम्हारे घर देर तक रूकने के उद्देश्य से। तुमसे बातें करने..... कुछ गपशप करने। किन्तु तुम कुछ उदिग्न थीं। क्या करती मैंने घर आना ही उचित समझा। ’’ मेरी बातें सुन चन्द्रकान्ता ने लम्बा साँस ली और खामोश रही।

कुछ देर चुप रहने के पश्चात् उसने कहा, ’’ क्या बताऊँ नीलाक्षी! हमारे साथ तो यही विडम्बना है कि घर के उत्तरदायित्व के साथ-साथ नौकरी भी करनी है। इन सबके बाद प्रताड़ना व अपशब्द भी सुनाना है। अपने पैसे भी घर की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में व्यय करना है। इतना सब करके यदि हम कुछ पैसे बुरे समय के लिए बचा लेते हैं तो उसे भी हमारे पास नही रहने देना चाहते। साधारण तरीके से रहती हूँ। घर की आवश्यकताओं का प्राथमिकता देती हूँ।

इस बार मेरे पति ने मेरे सभी बैंक खातों की पास-बुक मंगा कर देखना चाहा। मेरे यह कहने पर कि, ’’ यदि तुम्हे पैसों की आवश्यकता है तो मुझसे कहो मैं तुम्हे दूँगी, किन्तु इस प्रकार मेरे खातों का विवरण देखना मुझ पर संदेह करने जैसा है। ’’......

.......’’ इस बात पर वह मुझ पर क्रोधित हुआ। स्त्रियों को देने वाली एक आसान-सी गाली बदचलन कहने में तनिक भी विलम्ब नही किया। जब तक रहा वह मुझे तनाव देता रहा। जब कि तुम जानती हो नीलाक्षी कि उसने मेरी आवश्यकताओं पर आज तक एक पैसा भी व्यय नही किया है। इन सबके विपरीत वह मुझसे मेरे पैसे ले लेता है। एक पत्नी होने के अधिकार से ही सही आज तक मैंने उसकी कमाई व उसके खर्चोंं के बारे में कभी नही पूछा। इस बार उसने सभी सीमायें तोड़ दी हैं। ’’ चन्द्रकान्ता की आँखें भर आयी थीं। वह सूनी आँखों से आसमान की ओर देख रही थी।

मैं चुपचाप चन्द्रकान्ता की बातें सुन रही थी तथा सोच रही थी कि नौकरी करने वाली स्त्रियों के साथ दोहरा ही नही कई स्तरों पर शोषण होता है। नौकरीपेशा स्त्री के साथ होने वाले इस अन्याय से मैं प्रथम बार परिचित हो रही थी, तथा स्तब्ध थी इस प्रकार की दोहरी मार झेल रही स्त्रियों की पीड़ा के साथ। मुझे चन्द्रकान्ता के लिए पूरी सहानुभूति हो रही थी। मन पीड़ा से भर गया था।

’’ मेरा बेटा बड़ा हो रहा है। वो मेरे व अपने पिता के मध्य होने वाली तनाव भरी बातचीत......झगड़ें को खामोशी से सुनता है। इन सब उसे अच्छा नही लगता है। वह कातर दृष्टि से मुझे देखता है। उसके अनकहे भावों में यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके पिता से मैं कुछ न कहूँ। चुपचाप उसके पिता की प्रताड़ना सहन कर लूँ। ऐसा इसलिए भी कि वह घर में तनाव नही शान्ति चाहता है। इस बार तो मैं अपने बेटे की तरफ से भय में हूँ कि बड़ा हो कर इन सब के लिए कहीं वह मुझे न उत्तरदायी मान ले। मेरे विरोध में न खड़ा हो जाये। ’’

’’ ऐसा किस आधार पर कह रही हो चन्द्रकान्ता? उसके किस व्यवहार से तुम्हे ऐसा लगा ? मैंने चन्द्रकान्ता से जानना चाहा।

’’ जब भी मेरे पति के साथ मेरा विवाद हुआ है, वह मुझे ही चुप कराता है। मैं डरती हूँ कि धीरे.....धीरे....कहीं वह मेरे प्रति अपने मन में ग़लत धारण न बना ले। इन सबके लिए मुझे उत्तरदायी नसमझ ले। ’’ चन्द्रकान्ता के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें स्पष्ट हो रही थीं।

’’ नही चन्द्रकान्ता ऐसा नही होगा। बेटा तो तुम्हारे साथ ही रहता है। तुम्हारे साथ रहते हुए वह भावनात्मक रूप से तुमसे जुड़ा होगा। अतः तुम इस बात को ले कर फिक्र न करो। ’’ मैंने चन्द्रकान्ता को सान्त्वना देते हुए कहा।

’’ नही नीलाक्षी, ऐसा नही है। यह सत्य है कि मेरा बेटा मेरे पास रहता है। मेरा सब कुछ मेरे बेटे का है। एक ही तो बेटा है मेरा जिसके लिए मैं जी रही हूँ। फिर भी मेरे मन का यह भय यूँ ही नही है। नीलाक्षी! पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों को सर्दव हासिए पर रखा गया है। मैंने अनेक घरों में देखा है कि पति-पत्नी के बीच के मनमुटाव में बच्चों का माँ की अपेक्षा पिता की ओर अधिक झुकाव पाया गया। यहाँ तक कि तलाक की स्थिति में भी माँ के पास पलते बच्चे बड़े हो कर पिता के साये में जाना चाहते हैं। ऐसा नही की बच्चे माँ से प्रेम नही करते किन्तु हमारे समाज की संरचना पुरूषवादी साच पर आधारित है। ’’ मैं चन्द्रकान्ता की बातें गम्भीरता से सुन रही थी।

’’ इसीलिए मुझे भय लगता है कि बडा़ होकर वह मुझ से दूरी न बना ले। ’’ चन्द्रकान्ता ने अपनी बात पूरी की। उसके स्वर में चिन्ता स्पष्ट थी।

मुझे स्टाफ रूम में कार्य करते देख विक्रान्त मेरे पास आ गया। कुशलक्षेम पूछने की औपचारिकता के पश्चात् वह कुछ देर तक अपने माता-पिता के बारे में चर्चा करता रहा। जिनका स्वस्थ्य आजकल ठीक नही चल रहा है। उसके पश्चात् उसने मेरी माँ व बाबूजी का हालचाल पूछा। उसके पश्चात् वह सीधे अपनी बात पर आ गया- बताइये नीलाक्षी जी ! आपने क्या सोचा है? कृपया मुझे निराश न कीजिएगा। ’’ विक्रान्त ने मुझसे कहा और मेरी ओर आशा भरी दृष्टि से देखता रहा। अपनी बात पूछने के विक्रान्त के इस स्पष्ट और बेबाक ढंग से मैं अचम्भित थी।

उत्तर तो देना ही था, दिया ’’आपने मेरी इच्छा भी पूछी और अपनी बात मानने के लिए मुझे बाध्य भी कर दिया। ’’ अपना कार्य करते हुए विक्रान्त की ओर देखे बिना मैंने कहा।

’’ नही नीलाक्षी जी ! मैं ऐसा दुस्साहस आपके साथ कैसे कर सकता हूँ? मैं आपका आदर करता हूँ। आपसे अत्यन्त प्रेम करता हूँ। आपके बिना मेरा जीवन अधूरा है। मैं आपके साथ कोई गुस्ताखी कैसे कर सकता हूँ? मैंने आपकी इच्छा ही पूछी है। मैं अपनी इच्छा मानने के लिए आपको बाध्य कदापि नही कर सकता। मेरी बात से आपको पीड़ा पहुँची है तो मुझे क्षमा कर दीजिए। ’’ अपनी बात पूरी करते-करते विक्रान्त अत्यन्त निरीह लग रहा था कदाचित् उसकी आँखें भी भर आयी थीं।

’’ आप मुझे क्षमा करें विक्रान्त जी। अभी मैंने इस विषय पर विचार नही किया है। कृपया आप काॅलेज में इस प्रकार की बातें भी न किया करें। कोई सुन लेगा तो बिना किसी कारण के बातें होने लगेंगी।ये सब मुझे पसन्द नही है। अतः इस विषय पर पुनः बात न करें। ’’ मेरे लहजे में तल्ख़ी थी या नही ये मैं नही जानती किन्तु कुछ देर तक खमोश हो कर बैठने के उपरान्त विक्रान्त अपनी क्लास की ओर चला गया। कुछ देर में मैने भी अपना कार्य समाप्त किया और स्टाफ रूम से बाहर आ गई।

शाम को काॅलेज से विक्रान्त सीधे मेरे घर आ गया। मेरे प्रति विक्रान्त का ये कैसा लगाव था? मैं समझ नही पा रही थी। विवाह प्रस्ताव अस्वीकार करने के उपरान्त भी माँ बाबूजी से मिलने मेरे घर तक आना मेरा समझ से परे था। क्या सचमुच विक्रान्त मुझसे सच्चा प्रेम करता है? विक्रान्त का यह लगााव मेरे प्रति था या वह परिस्थितियों के वशीभूत वह मेरे साथ विवाह कर अपना कोई हित साधना चाहता था। अभी तो पुनर्विवाह करने की मेरी इच्छा नही है। भविष्य में यदि कभी इच्छा होती भी है तो विक्रान्त मेरा आदर्श पुरूष या प्रेमी कभी नही हो सकता।

’’ मैं नीलाक्षी जी से विवाह करना चाहता हूँ। आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मेरी ओर से इनको कभी कोई तकलीफ नही होगी। आपको शिकायत का कोई अवसर नही दूँगा। ’’ माँ-बाबू जी की ओर देखते हुए विक्रान्त ने अत्यन्त विनम्रता पूर्वक कहा।

विक्रान्त की बातें सुन कर चाय पीते हुए बाबू जी सहसा मेरी ओर देखने लगे। उसकी बातें सुनकर वे तनिक भी अचम्भित नही हुए क्यों कि उससे पूर्व भी उनके समक्ष वह मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रख चुका था। इस बार का अतिरिक्त उतावलापन मेरी समझ से स्पप्निल के साथ मेरी बढ़ती मित्रता का कदाचित् उसका समझ जाना था। जिसकी मुझे कोई चिन्ता नही थी।

’’ बेटा! हम भी तो चाहते हैं कि नीलाक्षी कर घर बस जाये। नीलाक्षी समझदार, स्वावलम्बी व विचारवान लड़की है। अपने पहले विवाह के कटु अनुभवों से वह थोड़ी भयभीत है। पुनर्विवाह का कटु अनुभव वह स्वंय लेगी। किससे और कब करनी है यह भी वह स्वंय निश्चित करेगी। उसकी इच्छा अभी विवाह करने की नही है तो हम प्रतीक्षा करेंगे। ’’ चाय समाप्त कर प्याला मेज पर रखते हुए विक्रान्त की ओर देखते हुए बाबूजी ने कहा।

’’ जैसी उसकी इच्छा होगी हम उसका साथ देंगे। वह समझदार बच्ची है। हम जानते हैं वह सही समय पर सही निर्णय लेगी। ’’ कुछ क्षण का विराम देकर कर बाबूजी ने अपनी बात पूरी की।

’’ तो क्या उसकी सहमति की और हाँ की मैं प्रतीक्षा कर सकता हूँ। ’’ विक्रान्त ने कहा।

’’ नही बेटा ! न जाने वह निर्णय करने में कितना समय ले। यह भी हो सकता है कि वह पुनर्विवाह न करे। अतः हम तुम्हे रोक नही सकते। तुम नीलाक्षी की प्रतीक्षा न करो। ’’ बाबूजी ने स्पष्ट किया।

विक्रान्त हत्प्रभ था। विचारमग्न था। चुप था।

’’ मैं जानता हूँ कि तुम नीलाक्षी के लिए योग्य वर हो, किन्तु हम तुम्हे रोक नही सकते। ’’ कुछ क्षण रूक कर बाबूजी ने अपनी बात पूरी की।

मैं बाबूजी व विक्रान्त के मध्य हो रही बातचीत सुन रही थी। निःशब्दता ही इस समय मेरे लिए बेहतर विकल्प था। मैंने उस विकल्प का चयन कर लिया था।

कुछ देर तक बैठने के पश्चात् विक्रान्त चला गया। मैंने उसे जाते हुए देखा, हँसमुख स्वभाव व आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी विक्रान्त खामोशी की चादर ओढ़े सुस्त कदमों से मेरे घर से चुपचाप चला जा रहा था। गेट तक मैं उसे छोड़ने आयी। अभिवादन करते समय जिस प्रकार उसने मुझे जिस प्रकार देखा वैसी कातर व पीड़ा भरी दृष्टि मैंने आज तक उसकी नही देखी थी। एक क्षण के लिए उसके प्रति मेरे हृदय में करूणा के भाव उत्पन्न होने लगे। किसी प्रकार मैंने स्वंय को नियंत्रित किया। उसके प्रति सहानुभूति से भरी भावनाओं को अपने हृदय से विलग किया।

कुछ देर में सब कुछ सामान्य हो गया। जीवन की दिनचर्या पूर्ववत् चलने लगी। समय अपनी गति से आगे बढ़ने लगा। ऋतुयें परिवर्तित होने लगीं। मेरे जीवन में भी परिवर्तन के संकेतों की अनुभूति मुझे हो रही थी। ये परिवर्तन आभासी थे या वास्तविक ये मुझे ज्ञात नही।

आसमान पर मेघों ने डेरा डालना प्रारम्भ कर दिया था। ग्रीष्म की तपिश कुछ कम होने लगी थी। अषाढ़ की ऋतु ने दस्तक दे दी थी। भूमि से मिलने के लिए व्याकुल श्यामल मेघों के टुकड़े प्रेम की घनी वेदना से तरल हो कर रिमझिम फुहारों के रूप में परिवर्तित हो भूमि को तृप्त करने लगे थे। धूल-धूसरित सम्पूर्ण सृष्टि धुलकर नवीन हो उठी। पीतवर्णी नन्ही दूब व पत्ते हरे वस्त्र पहन कर झूमने लगे थे। जल भरे खेतों में धान रोपते कृषकों के साथ नृत्य करते मयूर व श्वेत वगुलों के झुण्ड प्रकृति में अद्भुत दृश्य व आनन्द का सृजन कर रहे थे। शनैः शनैः सावन की ऋतु भी आ गई। बारिश से भूमि जल मग्न रहने लगी है। शीतल हवाओं के झोंको से वृक्ष, लतायें लहरा-लहरा कर धरा का मुख चूम लेना चाह रहे हैं। चारों ओर स्वतः उग आये नन्हें बिरवों के फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ने लगी हैं। सावन ऋतु के आकर्षण में बद्ध वे भी न जाने किस दूर देश से आ गयी हैं।