Jindagi mere ghar aana - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

जिंदगी मेरे घर आना - 12

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – १२

उदास चेहरा लिए वह घर भर में घूमती रहती है... पर किसी को कोई गुमान ही नहीं। सब समझते हैं एग्जाम की टेंशन है. सिक्के का दूसरा पहलू देखने का कष्ट किसी को गवारा नहीं। चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती है, तकिया, आँसुओं से गीला होता रहता है। इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया, जीवन में। घर की नए सिरे से साज-संभाल होती देख खीझ कर रह जाती है और कोसती रहती है, खुद को... हाँ! ठीक कहती है, स्वस्ति, बिल्कुल ठीक कहती है, बहुत बदल गई है, वह। अभी पहले वाली नेहा होती तो सीधा जाकर कड़क कर पूछती...

‘क्या हो रहा है, यह सब?‘ - और फिर चीख-चीख कर आसमान सर पर उठा लेती।

पर, अब तो कदम उठते ही नहीं। जबान तालू से चिपक कर रह जाती है। हुँह! अंगारे की चमक दिखाएंगी? अंगारे पर राख क्या पानी पड़ गया पानी... और बिल्कुल बुझ गया है, वह... अब मात्र कोयले का एक टुकड़ा रह गया है -, बदसूरत, बेकाम का।

बेबसी और गुस्से से सर पटक-पटक कर रह जाती... ये शरद भी जाने कहां मर गया... दो महीने से सूरत नहीं दिखाई उसने। लेकिन ये अचानक, शरद का नाम कैसे आ गया, होठों पर। शरद से क्या मतलब इन सब बातों का... हाँ कोई मतलब नहीं.. उसका तो कब से कुछ पता भी नहीं, बस कभी कभार फोन आ जाता है. पहले तो महीने में तीन-तीन बार आकर बोर करेगा। जाने क्यों लगता... अभी शरद होता तो सारी समस्या हल हो जाती। शायद उससे कह पाती - ‘शरद समझा दो इन लोगों को। उसे नहीं करनी शादी-वादी।‘ भले ही चिढ़ाता, सह लेती पर काम तो बन जाता।

किंतु वह तो मीलों दूर ‘इम्फाल‘ में बैठा है... नयी-नयी पोस्टिंग है, ‘प्रिंस-स्टेज‘ छोड़कर क्यों आने लगा? क्या जाने कभी आए ही नहीं। कितने सारे दोस्त तो बनते हैं, भैय्या के और बिछड़ जाते हैं। पर शरद महज भैय्या का दोस्त ही तो नहीं... मम्मी-डैडी भी तो कितना मानते हैं उसे। कम से कम एक बार तो उसे आना ही चाहिए। लेकिन क्या पता तब तक सब कुछ खत्म हो जाए... सुबक उठी वह।

अपने कमरे में पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश कर रही थी.इतना डर लग रहा था, बिलकुल भी नहीं पढ़ पा रही थी और

ऐसे में में जब बुआ बड़े शौक से गहनों की डिजाइन पसंद कराने उसके कमरे में आईं तो सुलग उठी वह।

‘देख तो नेहा, कौन-कौन सी पसंद है तुझे?‘

‘मेरी पसंद का क्या करना है?‘- किसी तरह गुस्सा दबाते सपाट स्वर में बोली।

‘तो और किसकी पसंद का करना है। बंद कर लिखना, आ कर देख तो.. कितनी सुंदर-सुंदर है...‘ पलंग पर करीने से सजा रही थीं वह।

‘मैं जेवर पहनती भी हूँ ' - कलम चलाना जारी रखा।

‘तो, अब जो पहनना होगा... जल्दी कर जैमिनी ज्वेलर्स का आदमी बैठा है बाहर।‘

‘क्यों अब क्या खास बात हो गई भई जो पहनना होगा... मुझे नहीं पहनना जेवर-फेवर।‘

‘ओह! नेहा, मेरा दिमाग मत खराब कर... चल आ कर देख ले चुपचाप‘ - खीझ गई बुआ।

और एकदम तैश में आ गई वह -‘दिमाग तो मेरा खराब कर रखा है, तुमलोगों ने... एक मिनट चैन से रहने भी दोगे या नहीं। मैंने हजार बार कह दिया है... मुझे शादी नहीं करनी है, नहीं करनी है... फिर भी जेवर पसंद कर लो तो साड़ियाँ पसंद कर लो... क्यों आज डिजाईन पसंद कराने क्यों आई... एक ही बार ‘इन्वीटेशन कार्ड‘ लेकर आती कि ‘नेहा, कल तेरी शादी है‘ - उस समय अड़ जाती न तो बहुत अच्छी इज्जत बनती, डैडी की। एकदम गूँगी गाय ही समझ लिया है, लोगों ने। जिसके खूँटे बाँध देंगे, चुपचाप चली जाऊँगी... तो नेहा, ऐसी लड़की नहीं है... साड़ियों और जेवरों में तो पसंद पूछी जा रही है, पर जहाँ जिंदगी का असली सवाल है... सब मौन हैं... जिस लूले-लँगड़े के जी में आएगा... गले मढ़ देंगे।

बुआ आवाक् देख रही थीं... उसे, अब हँसी फूटी उनकी... ‘बाबा, वह लूला-लंगड़ा नहीं है... क्यों परेशान हो रही है तू।‘

‘ना सही, साक्षात् कामदेव ही सही... लेकिन कह दिया न... ये राह मेरे लिए नही ंतो नहीं, और अब मेरे कमरे में ये सब आया न तो सब उठा कर फेंक-फांक दूँगी, नहीं देखूँगी हीरा है या सोना।‘ बात खत्म करने के अंदाज मे कही उसने और किताबें समेटने लगी।

बुआ ने भी हँस कर माहौल हल्का करने की कोशिश की... ‘अच्छा, अच्छा बंद कर अपना ये भाषण, किसी डिबेट के लिए संभाल कर रख, खूब तालियाँ मिलेंगी... अभी चुप कर प्राईज की जगह डैडी की डाँट ही मिलेगी। बाहर कुछ लोग बैठे हैं... क्या सोचेंगे।‘

‘सोचेंगे... पत्थर - जी में आया कहे, किंतु बिल्कुल थक गई थी। निढाल हो, सर टिका दिया, मेज पर।

***

चेहरे पर पानी के छींटे मार लौट ही रही थी कि बुआ और मम्मी की बातचीत का स्वर कानों में पड़ा... बरामदे में ही रूक गई।

‘कमाल है, भाभी, जवाब नहीं आप लोगों का भी, कहाँ तो भैय्या कहते थे कि नेहा की पसंद के लिए कोई जाति, धर्म, देश... कोई बंधन नहीं मानेंगे और बिचारी को आज यह भी पता नहीं कि अगर शादी हो रही है तो किससे हो रही है। आज कल साधारण घरों में भी खानापूर्ति ही सही, पूछ तो लेते हैं, बता तो देते हैं।‘

‘ये क्या कह रही हो सुधा?? नेहा, अच्छी तरह उसे जानती है, भई। बल्कि हमलोग तो यही समझ रहे हैं कि, आपस में तय है, इन लोगों का.... उधर से ही प्रपोजल आया है।‘‘

‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता... बार-बार वही पुरानी रट- ‘मुझे शादी नहीं करनी-शादी नहीं करनी‘

‘हे भगवान! तब तो ये लड़की परेशानी खड़ी कर देगी। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है।‘

‘हुंह!!‘ - मुँह बनाया उसने। बात तुमलोग बढ़ाओ और परेशानी खड़ी करूँ मैं। लेकिन ये काम है किसका, जरूर वो चश्मुद्यीन होगा। इतना सीनियर होने पर भी आगे-पीछे घूमता रहता है -‘नेहा तुम्हें नोट्स, चाहिए होंगे या बुक्स, तो बताना मुझे।‘ लाइब्रेरी बंद हो गई है जैसे... दुनिया का आखिरी आदमी होता न तब भी उससे लेने नहीं जाती, नोट्स...

रंग-ढंग तो बहुत दिनों से देख रही थी - लिफ्ट नहीं दी तो यहाँ तक बढ़ आया। आई. ए. एस. में क्या सेलेक्ट हो गया। यहाँ तक अधिकार समझ बैठा तो बैठे रहे जिंदगी भर। मिला तो था उस दिन शर्मिला की पार्टी में -‘नेहा, मुझे कांग्रेचुलेट नहीं किया न...आपको खान मेरा ख्याल होगा ? पर मिठाई तो आ कर खा लीजिए किसी दिन‘ - जरूर उसी के यहाँ से प्रपोजल आया होगा और मम्मी-डैडी तो सातवें आसमान पर पहुँच गए होंगे। घर बैठे, आई. ए. एस. लड़का मिल गया। अभी-अभी जमीन पर आ जाएंगे वे।

अजीब मन की हालत हो गई है। पढ़ भी कहाँ पाती है, इतना डिस्टर्ब रहती है। फाइनल सर पर आ गया है... फेल-वेल हो जाएगी तो बहुत खुशी होगी, इन लोगों को।

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