इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(14)
उस समय कामना को मैनापॉज का अर्थ पता ही नहीं था। उसे यह भी नहीं पता था कि एक उम्र के बाद रक्त़स्त्राव रुकता भी है और उससे पहले इस तरह खून बहता है। उसे कुछ भी तो नहीं सूझ रहा था।
उसने अपनी सूती चुन्नियां फाड़ीं और अम्मां को इस्तेमाल के लिये दे दी थीं। उन दिनों पैड्स प्रचलित नहीं हुए थे। मिलते भी होंगे तो कामना को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। वह भी मलमल की सूती साड़ियों के टुकड़े ही इस्तेमाल करती थी।
तभी ये शुरू हुआ था। कुछ दिनों से अम्मां सुबह उठते ही छ: बजे से बोलना शुरू कर देतीं। एक बार जो बोलना शुरू करतीं, तो दिन भर बोलती ही रहती थीं। वह तो सुबह के काम निपटाकर कॉलेज के लिये निकल जाती थी। पिताजी को यह सब दिन भर सुनना पड़ता था।
उनका यह बोलना एक दिन का नहीं, सप्ताह भर का होता था। बोलते बोलते उनका मुंह लाल हो जाता था...होंठ सूखने लगते थे। उन्हें पिताजी पानी का गिलास देते थे..कभी ग्लूकोज़ डालकर, तो कभी नींबू शर्बत बनाकर। उसे पीकर शायद अमां को कुछ ठंडक मिलती थी और वे सो जाती थीं। लेकिन थोड़ी देर बाद ही वे फिर जाग जाती थीं और बोलना शुरू कर देती थीं। जब कामना शाम को घर पहुंचती थी तो पिताजी थके थके शब्दों में दिन भर का हाल बताते थे। जब पिताजी से नहीं सहा गया तब कामना से बोले – ‘कामना, तुम एक दिन कॉलेज मत जाओ। अम्मां कों लैकें डॉक्टर के पास चली जाऔ।‘
समय की नजाकत को देखते हुए उसने हामी भर ली थी। दूसरे दिन सुबह वह अम्मां को लेकर पास के अस्पताल में गई थी। पहले तो अम्मां जाने को ही तैयार नहीं थीं। उनको लगता था कि वे बिल्कुल ठीक थीं। उन्हें पता ही नहीं चलता था कि वे कितने दिनों से लगातार बोल रही थीं।
फिर भी कामना का कहना वे कभी नहीं टालती थीं और चप्पल पहनकर चल दी थीं। डॉक्टर के यहां जाने पर आधे घंटे बाद तो उनका नंबर आया। डॉक्टर ने उनके चेहरे की रीडिंग की और कुछ सवाल पूछे थे।
अम्मां कुछ देर तो खामोश रहीं और फिर से धाराप्रवाह बोलने लगीं। डॉक्टर डर गये या पता नहीं, क्या हुआ...उन्होंने अम्मां को सीधे पागल करार दे दिया। वह तो डॉक्टर थे, अम्मां से बात कर सकते थे।
कामना को ज्य़ादा जानकारी नहीं थी, पर वे तो जानकार थे। उन्हें अपनी फ़ीस से मतलब था। वे बोले – ‘यानां इलेक्ट्रिकल शॉक द्यायला पाहिजे। मानसिक संतुलन बिगड़लेला आहे। आत्ता इलाज नाहीं केला, तर तुमची आई खरच वेडी (पाग़ल) होऊन जाईल।‘
इस पर कामना घबरा गई और बोली थी - तुम्हीं डॉक्टर आहात, तुम्हाला जे करेक्ट वाटते, ते करून घ्या। मला तर काहीच कळत नाहीं (आप डॉक्टर हैं..आपको जो सही लगता है, कीजिये। मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है)।‘
‘घाबरू नका। आपण यानां सात इलेक्ट्रिक शॉक देऊ या। सद्या इतकेच, नंतर ग़रज पड़ली तेव्हां आपण बघू (अपन इनको सात इलेक्ट्रिक शॉक देते हैं, फिलहाल इतने ही....बाद में ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे)।‘
अम्मां तड़पती रह गई थीं और डॉक्टर ने नर्स की सहायता से उनको पहला इलेक्ट्रिक शॉक दे दिया था और साथ ही डेढ़ हज़ार का बिल भी पकड़ा दिया था। इतने सारे रुपये तो उस समय कामना के पास नहीं थे।
उसने डॉक्टर से कहा – ‘अभी तो मेरे पास इतने रुपये नहीं हैं.....घर जाकर लेकर आती हूं... आई को लेकर जाती हूं। यहां इनको अकेला नहीं छोड़ सकती। चूंकि डॉक्टर ने कामना से घर का पता पूछ लिया था। तो पैसा मार लेने वाली बात नहीं थी।
वह अपनी अम्मां को घर ले आई और उसी समय पिताजी से डेढ़ हज़ार रुपये लेकर वापिस डॉक्टर के यहां चल दी थी।
इस राशि के बदले में अम्मां का दिमाग़ निस्तेज हो गया था। काम ही नहीं करता था। एक शॉक का यह असर था, तो सात शॉक में क्या हाल होगा, यह सोचकर ही कामना डर जाती थी। वे मशीनवत काम करती थीं और पिताजी मदद कर देते थे।
पेटीकोट अब भी खराब होते थे, पर अब वे चुपचाप रहने लगी थीं। उसने अम्मां के लिये गहरे रंग के दो पेटीकोट खरीद लिये थे। हर हफ्ते उनको इलेक्ट्रिक शॉक लगते रहे।
एक ओर पिताजी की जेब खाली हो रही थी और दूसरी ओर अम्मां की ज़िंदगी रीती हो रही थी। यह सब कुछ अनजाने में हो रहा था। कुछ सोचकर कामना ने गायत्री को पत्र लिखा और अम्मां की सारी हालत बताई। यदि वह न बताती तो गायत्री बहुत नाराज़ होती।
उसका पोस्टकार्ड आया – ‘तुम चिंता मत करो। मैं आती हूं और उनकी हालत देखकर उनको साथ लेकर इटारसी आ जाऊंगी। सचमुच वह तीन दिन बाद मुंबई आ गई थी और अम्मां की हालत देखकर उसने निर्णय लेते हुए पिताजी से कहा –
‘मैं अम्मां को अपने साथ ले जाऊंगी। उन्हें चेंज की बहुत ज़रूरत है। सचमुच वह तीन बाद ही अम्मां को लेकर चली गई थी...पहली बार वह इतने कम समय के लिये आयी थी और साथ में वापसी के दो टिकट लेकर आई थी।
जाते जाते बोली – ‘पापा, अम्मां मेरे साथ वहां दो तीन महीने रहेंगी। वहां किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाऊंगी। चिंता मत करना।‘ अब कामना की जिम्मेदारी बढ़ गई थी। वह सुबह उठकर बर्तन मांजती थी, खाना बनाती थी।
वे सारे काम उसे बहुत जल्दी पूरे करने होते थे कि कहीं सुबह की आठ बजकर चालीस मिनट की ट्रेन न छूट जाये। उस ट्रेन के छूटने का मतलब था...पूरे दिन का शेड्यूल का बिगड़ जाना। यह शहर अनुशासन और पूरी शिद्दत मांगता है...तब जाकर दो समय की रोटी और एक अदद छत का जुगाड़ हो पाता है।
इटारसी से गायत्री का पत्र आया था। अम्मां के हालचाल लिखे थे। साथ ही बताया था कि उसने वहां के सबसे बड़े डॉक्टर को अम्मां को दिखाया था। डॉक्टर ने बताया कि यह अम्मां के मेनोपॉज होने की प्रक्रिया थी। वे हाइपर हो जाती थीं और लगातार बोलती रहती थीं।
उनके अंदर जो घुटन थी वह इस समय निकल रही थी। अब वे पहले से ठीक हैं। बात भी करती हैं और हंसती भी हैं। हां, डॉक्टर ने एक इंजेक्शन लिखकर दिया है, जो उन्हें हर महीने आधा लगवाना होगा।
इससे उनका मानसिक संतुलन बना रहेगा और किसी भी प्रकार की दवाओं की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। तबीयत ठीक होने के बाद ही वे मुंबई आयेंगी और वह उन्हें छोड़ने आयेगी। उनका बाकी जीवन उस आधे इंजेक्शन पर आधारित होकर रह गया था।
साथ ही विरार के उस सायक्रेटिस्ट पर बहुत गुस्सा भी आया था कि बिना किसी प्रकार की जांच और ढंग से बात किये बिना ही सीधे इलेक्ट्रिक शॉक दे दिये थे। ये तो अच्छा था कि सात ही शॉक दिये थे।
कहीं और ज्य़ादा इलेक्ट्रिक शॉक दे देता तो अम्मां ‘बेचारी’ बन कर ज़िंदगी भर चलती फिरती लाश की ज़िंदगी जीतीं और पिताजी क्या करते? मन तो हुआ कि वह विरार के डॉक्टर पर केस ठोक दे…पर पिताजी ने कहा –
‘इससे क्या होगा? अपना तो जो नुक़सान होना था, वह हो चुका। पैसे की और टाइम की मार क्यों सहें? दोनों ही अपने पास नहीं हैं।‘
पिताजी और अम्मां बीते दिनों की, घर की खूब बातें करते थे और समय बिताते थे। उनकी की यदि ये हालत हो जाती तो पिताजी कैसे समय बिताते...अकेलापन आदमी को कहीं न कहीं तोड़ता है।
बहुत कम लोग हैं, जो अकेलेपन को सह पाते हैं और जीवन की नाव को मझदार में छोड़े बिना खेकर ले जाते हैं। और जो कन्सर्न हैं, जो उसकी ज़िंदगी में अपने होने की उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं, उनकी परेशानी पहले उसकी परेशानी बन जाती हैं, बाद में किसी और की।
अम्मां तो फिर भी उसकी जननी थीं, जिनकी कोख़ से उसने जन्म लिया था। वे जन्म ही न देतीं...लड़की देखकर भ्रूण हत्या करवा देतीं, तो क्या कर लेती वह? कहां की कामना और कैसी कामना...
वह दुनिया में आने से पहले ही मार दी गई होती। पर अम्मां और पिताजी ने कभी ऐसा नहीं होने दिया था....पैसे की कमी से बच्चों को गर्भ में नहीं मारा...।
पिताजी की सहनशक्ति को मानना होगा। इतनी परेशानियों के बाद भी वे टूटे नहीं थे और न किसी के सामने मदद के लिये हाथ पसारा था। उस दिन वह सब्जी काट रही थी। पिताजी ने कहा था –
‘अच्छा सुन बेटा, कल बैंक मैनेजर प्रभु ने अपने चपरासी से कहकर हमें बुलाया है। अब तौ तुमाई अम्मां थोड़ी ठीक हैं, इतैं हैऊं नांय, तौ हम मिल आते हैं। बैंक की दलाली का कुछ काम है। ये चिट्ठी भेजी है। क़रीब तीस हज़ार कौ काम है जायैगौ।
....बड़ा भला आदमी है। .....नियमित काम तौ रहौ नांय...लेकिन जब कभऊं काम आय गऔ तौ हमें ही बुलाते हैं। हमाई ईमानदारी हमें भूखौ तौ नहीं रहने देगी।‘ कहकर वे तैयार होने लगे थे। अब वह काफी कुछ समझने लगी थी। वक्त़ सब कुछ सिखा भी देता है और समझा भी देता है।
वह कॉलेज बिना नागा जाती थी...अंतिम वर्ष था। अच्छे नंबर लायेगी, तभी तो कोई नौकरी मिल पायेगी। पापा भी आखिर कितनी मेहनत करेंगे? सोचती जाती थी और काम करती जाती थी। मुंबई भी अब बदलने लगी थी। लोग पहले जैसे मिलनसार नहीं रहे थे। खुदगर्ज़ और आत्मकेन्द्रित होते जा रहे थे। किसी भी शहर या देश का लोकल आदमी खुद को औरों से अलग रखता है। यही मानसिकता मुंबई के लोकल आदमी की भी थी।
आप किसी का दरवाज़ा खटखटायेंगे तो वे दरवाज़ा खोलकर उसके कब्जे पर ही हाथ टिका देंगे। इसका साफ मतलब होता है कि जो भी कहना है, बाहर रहकर ही कहा जाये। कब्जे पर हाथ रखना इशारा है घर के अंदर न आने का।
दरवाज़ा तो इतनी ज़ोर से बंद करते हैं कि सामने वाला खुद को अपमानित महसूस करने लगे। एक बार कामना ने अपनी सहेली से पूछा कि लोग ऐसा क्यों करते हैं, तो वह बड़े आराम से बोली थी - अग, आमची सवय (आदत) झाली आहे। हम लोग को कुछ नहीं लगता। आता
....आमची मधली आहे, समजून घ्या च (अब तू हममें से एक है, समझाकर)।‘ यह सुनकर कामना चुप हो गई थी। यही आदत कब कामना के व्यक्तित्व में आ गई थी, उसे पता ही नहीं चला था।
इस बीच गायत्री का ख़त आया था – ‘अम्मां मुंबई वापिस जाना चाहती हैं। तुम जैसा कहो, वैसा करती हूं। मुझे कोई दिक्कत नहीं है। तुम्हारे जीजाजी भी ध्यान रखते हैं।‘
इस पर कामना ने उत्तर दिया था – ‘ठीक है। अम्मां को एक महीने बाद वापिस छोड़ जाना। मेरे मासिक पेपर हैं और एक असाइनमेंट भी तैयार करना है। उसके लिये लाइब्रेरी में बैठना पड़ता है। ज़रा उससे निपट लूं। आख़िरी साल है न
....अम्मां हम सबको याद आती हैं। उनसे हमारी नमस्ते कह देना।‘ इधर पिताजी पर सोसाइटी के कमेटी मेंबर्स पर दबाव था कि वे जल्दी से फ्लैट का अपने नाम रजिस्ट्रेशन करवा लें। यानी तीस चालीस हजार रुपये का सीधा फटका।
पिताजी का कहना था कि जब तीसरा माला ही ग़ैर कानूनी है तो किस बात का रजिस्ट्रेशन? कल को यह माला गिरा दिया तो? यहीं आकर मामला अटक जाता था। दोनों ओर चुप्पी छा जाती थी। धीरे धीरे महीना पूरा होने को आ रहा था।
अंततः गायत्री अम्मां को लेकर मुंबई आ गई थी। वे अपने घर आकर बहुत खुश हुईं और वह खुशी उनके चेहरे पर देखी जा सकती थी। वे क्या आयीं, घर में रौनक आ गई थी। वे पहले से बेहतर दिखाई दे रही थीं।
गायत्री पांच दिन रुककर वापिस चली गई थी और जाते जाते कह गई थी कि कोई परेशानी हो तो तार कर देना। यह वही गायत्री थी जो शादी से पहले बहुत ज़िद्दी और अपने मन की बात पूरी करने वाली थी।
जब उसकी सहेली मीना की शादी हुई थी तो मीना ने भेंटस्वरूप ड्रैसिंग टेबल चाहा था दिया भी गया था। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि इन रुपयों का इंतज़ाम कैसे होगा। उन दिनों 500 रुपये भी बड़ी बात माने जाते थे।
उस गिफ्ट को पाने के बाद मीना का व्यवहार गायत्री के प्रति बदल गया था। वह पंजाबी थी और पंजाबी बड़े मतलबी होते हैं, अपना काम पूरा हुआ और चुपचाप पतली गली से निकल लेते हैं। वही गायत्री शादी के बाद इतनी किफ़ायती हो गई थी कि वह एक एक पैसा दांत से पकड़ने लगी थी...नौकरी जो करती थी।
जब औरत खुद कमाती है, तो पैसे की कीमत पता चलती है। पति की कमाई पर जीना और हर वक्त एक एक पैसे के लिये उन पर आश्रित रहना गायत्री और कामना के स्वभाव में था ही नहीं। इसलिये शादी के बाद भी नौकरी जारी रखी।
क्या ससुराल वाले विरोध नहीं करते? बिल्कुल करते थे। गायत्री और कामना की ससुरालवालों ने भी किया था, गायत्री तो चुप रह गई थी लेकिन कामना ने साफ कह दिया था - सरकारी नौकरी हरगिज़ नहीं छोड़ूंगी। बड़ी मुश्किल से पायी है।
घर ऐसी जगह लिया जाये जहां आसपास बाज़ार हो, लोगों के आने-जाने की रौनक हो। बड़े घर में उनका दिल घबरायेगा....अब यह आप पर निर्भर करता है कि आपकी प्रमुखता में पहले क्या है।
डॉक्टर ने बड़े सहज शब्दों में अपनी बात कह दी थी और अब पिताजी को तय करना था। अब तो घर खोजना और बदलना बहुत ज़रूरी हो गया था। कुछ दिनों में वसई में ओनरशिप में वन रूम ठीक ठाक दामों में मिल गया था।
पिताजी ने प्रॉपर्टी एजेंट से कह रखा था कि यदि ढंग का फ्लैट दिखे तो बताये। वे घर बदलना चाहेंगे। इटारसी के डॉक्टर के अनुसार – ‘माताजी को बड़े घर के बजाय छोटे घर में रखा जाये ताकि उन्हें खालीपन न लगे।‘
पिताजी ने अम्मां, कामना, रमेश, नरेश और गायत्री, सबसे राय ली थी। वे राय तो सबसे लेते थे और बेटियों की राय को कभी नहीं टालते थे। मामला चाहे शादी का हो या घर बेचने/खरीदने का।
सारे हालात को देखते हुए वसई शिफ्ट होने का मन बना लिया था। एक बार फिर शिफ्टिंग। तीन कमरों का फ्लैट एक बार फिर घाटे में बेचा गया। अब वे चाल में नहीं, वरन् वन रूम किचन के फ्लैट में शिफ्ट हो रहे थे, कुछ सुविधाओं से सज्जित
...वॉश बेसिन, दरवाज़े वाला छोटा सा बाथरूम व टायलेट। छोटी सी बाल्कनी और बाल्कनी के बाहर कपड़े सुखाने की रस्सियां होती थीं। हर फ्लैटवाले ने अपने घर के आगे शेड लगवा रखे थे ताकि ऊपरवाले माले से वहां गंदा पानी न आये
...जो वे अपनी बाल्कनियां धोते समय उस पाइप से बाहर बहाते थे। सोचती थी कि रोज़ बाल्कनी का क्या धोना? ये लोग रात को बाल्कनी में करते क्या हैं? एक किशोर मन की जिज्ञासा थी। वहां पानी की तंगी थी।
कामना आज भी बाल्कनी पन्द्रह दिनों में एक बार धुलवाती है और खिड़कियां गीले कपड़े से पुछवाती है। कई बार बारिश ही नहीं होती और पानी में कटौती चालवालों की होती है। उसकी वर्तमान कॉलोनी में चौबीसों घंटे पानी आता है।
पानी की तंगी होने पर उसके घर काम करने वाली बाई पीने के पानी की पांच-पांच लीटर के दो केन भरकर ऑटो से ले जाती है और ऑटो का किराया कामना देती है। क्या जाता है बीस रुपये देने में?
उसने भी ग़रीबी देखी है और वह जानती है कि जब पैसे की तंगी होती है तो एक एक रुपये की कीमत होती है और बदले में मिलती हैं बाई के परिवार और बच्चों की दुआएं। वह दुआओं में विश्वास रखती है।