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मुक्ति-धाम

मुक्ति-धाम

कहते हैं, एक बार मुक्ति ने भगवान से प्रार्थना करते हुए प्रश्न किया कि ‘ हे गोपाल! हे कृष्ण ! मैं सबको मुक्ति दिलाती हूँ, लेकिन मेरी मुक्ति का कोई उपाय बताओ । भगवान ने कहा, ‘ मुक्ति! वृन्दावन की गलियों में पड़ी रहो, वहाँ से जो साधु सन्त जायेंगे, उनके चरणों की रज- कण से ही तुम्हें मुक्ति मिल जायेगी।

‘ पड़ी रहो या गैल में, साधु सन्त चली जाहैं

उड़ी उड़ी रच मस्तक लगे, सहज मुक्ति हो जाये’

धुँधली होती हुई दृष्टि से, अपनी पलकों पर हथेली का छाता सा बनाते हुए, निस्तेज आँखों से अस्सी साल की विद्या ने चारों तरफ़ नजरें घुमा कर उस मुक्ति धाम को देखा। कितना समय बीत गया है। पन्द्रह साल गुजर गये हैं, मुक्ति की प्रतिक्षा करते करते। जब विद्या के नाती- पोते उसे यहाँ छोड़कर गये थे, तब उसकी उम्र पैंसठ साल की थी।पतिविहिन स्त्री का उनकी गृहस्थी में क्या काम! उन्हें तो भगवान के चरणों में रहकर, भजन कीर्तन में मन लगाना चाहिए, और फिर बार बार के इन जन्मों के जंजाल से भी मुक्त होना है या नहीं? यही सब ज्ञान की बातें समझाकर उसके दोनों पौत्र, उसे वृन्दावन के इस आश्रम में छोड़ गये थे।

जहाँ उसके जैसी अनेक विधवाएं मोक्ष प्राप्ति की आशा में, रात दिन हरे राम- हरे कृष्ण का मन्त्र जाप करती हुई नरक से भी बदतर जीवन व्यतीत कर रही थीं। वृन्दावन में ऐसे कई आश्रम थे जहाँ सात सात आठ आठ घन्टे तक भजन करने के बाद उ विधवाओं को मिलते थे दो- दो रूपये और मुठ्ठी भर चावल। केशविहिन मुँडे हुए सिर,सूती सफ़ेद धोती और हाथों में मंजीरे। पहले दिन ये सब देखकर विद्या सहम गयी। बड़ी दयनीय स्थिति थी। कोई वृद्धा भजन गाते गाते झपकी लेने लगती, तो वहाँ खड़ा आश्रम का तथाकथित सेवक अपनी आँखों से कोड़े बरसाने लगता,

‘ ऐ माई, भजन गा, नहीं तो भात नहीं मिलेगा।’

कल्याण आश्रम की असंख्य कोठरियों में रहती थीं, अधिकांश परिवार की त्यागी हुई वृद्ध विधवाएं। किसी को भगवान से कुछ खास लेना- देना नहीं था। दो मुठ्ठी चावल और दो रूपये के नोट के लिए भजन कीर्तन करना उनकी विवशता थी। वहीं एक कुटिया में रहने लगी विद्या। आश्रम के कुछ नियम, कायदे कानून थे। वह विधवा थी इसलिए प्याज लहसुन, तली भुनी चीजें खाना, उसके लिए वर्जित थी।

माई! किसी ने आवाज़ दी तो जैसे नींद से जागी विद्या।

हरिप्रिया थी। अभी अभी आयी है, एकदम जवान । शायद बीस इक्कीस बरस की।आश्रम में कोई कुटिया खाली नहीं थी, इसलिए विद्या के साथ ही रहती है। बंगाल के किसी छोटे से गाँव से, उसका देवर उसे छोड़ गया था। दो साल पहले अकस्मात में जब उसके पति की मृत्यु हुई थी तब वह हरिप्रिया नहीं, मल्लिका सेन थी। विवाह को सिर्फ आठ दिन ही हुए थे। मल्लिका ने अभी तो जी भरकर उसे देखा भी नहीं था। मायके में गरीब वृद्धा माँ के अलावा कोई नहीं था। कहाँ जाये वह? ससुराल में रहकर ही सारे घर का काम करते हुए, ताने उलाहने सुनते हुए एक कोने में पड़ी रहती। एक दिन वैशाख की तपती दुपहरी में, किसी बात पर छोटे देवर के साथ बात करते हुए मुक्त कंठ से जब वह खिलखिला कर हँस रही थी, तब आँगन के पार खिड़की की झिरी में से दो आँखे उसे आँखों ही आँखों में निगल रही थीं। घर का काम निपटा कर जब वह एक कोने में सोने का प्रयत्न कर रही थी, गालों पर किसी का स्पर्श पाकर उसने आँखें खोल दीं। झुके हुए ससुर के पेट पर लात मारकर उसने घर भर को इकठ्ठा कर लिया। जहाँ ससुर पेट पकड़कर लज्जित सा बैठा था, सास हतप्रभ थी। दो दिन बाद वही सखा मित्र सा छोटा देवर भरे मन से उसे वृन्दावन छोड़ गया था। केश कटवाकर, माथे पर चंदन का बड़ा सा टीका लगाकर, गले में तुलसी की कंठी और जाप की माला लेकर, अब वह मल्लिका सेन नहीं- हरिप्रिया वैष्णवी थी ।

चलो माई, प्रिया ने उसे झकझोरा तो वह वर्तमान में लौट आयी। कुटिया की ओर वापस जाते हुए, यमुना की गीली रेत में पैर धँसे जा रहे थे। माघ महीने की ठंडक हवा में फैली हुई थी । कुछ बूढ़े स्नानार्थी यमुना में नहा रहे थे।कुछ वीभत्स नग्न साधु रेत पर लोट रहे थे। खुले मुँह से विचित्र ध्वनि निकल रही थी। विद्या के मन में वितृष्णा पैदा हुई। सब कुछ कितना वीभत्स है, कितना ड़रावना ।विद्या समझ नहीं पा रही है, भगवान से साक्षात्कार करने का ये कौन सा मार्ग है।दो जवान साधु आपस में भद्दी मजाक कर रहे थे। हरिप्रिया को देखते ही उनमें से एक ने अपनी आँख की एक डिब्बी बन्द करके खोल दी।घृणा से विद्या का मन सिहर उठा।विद्या ने प्रिया का हाथ पकड़ा और आश्रम आ गयी। पूजा के बाद दोनों मन्दिर गयीं। मन्दिर के प्रांगण में सभी औरतें गा रही थीं ‘ मन्हे चाकर राखो जी, श्याम मन्हें चाकर राखो जी ‘

विद्या को हँसी आ गयी। दो मुठ्ठी भात ऐर दो रूपये के लिए वह एक प्रकार की चाकरी ही तो कर रही हैं जो उन्हें अब श्याम की चाकरी भी करनी है।

विद्या ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि भाग्य एक दिन उन्हें यहाँ ऐसे पटक जायेगा । कभी कभी उसे पति, उनके प्रेम, स्पर्श की याद आ जाती है और वह क्षण उसके लिए बेहद कष्टपूर्ण हो जाते हैं। श्याम की चाकरी खतम हुई और वह कोठरी की तरफ़ चल दी। प्रिया पहले ही जा चुकी थी।

कुटिया में पहुँचते ही उसने देखा प्रिया आँखों में काजल, माथे पर छोटी सी बिंदिया, होटों पर हल्की सी लिपस्टिक लगाये मल्लिका सेन बनी खड़ी है ।

विद्या जड़वत रह गयी। पागल हो गयी है क्या प्रिया! किसी ने देख लिया तो । काँपते हाथों से उन्होंने दरवाजा बन्द किया। कहाँ से लाई होगी प्रिया ये सब? आशंका से विद्या का मन काँप उठा।

‘ कुछ भी गलत मत सोचो माई, रात दिन गा- गाकर, गला फ़ाड़कर, जो दो रूपये मिलते हैं, उसी से लाई हूँ ये सब। अब मैं बाल भी नहीं कटवाऊँगी। अब मैं शादी करूँगी।

विद्या का मुँह खुला रह गया। क्या कह रही है ये लड़की। लालटेन की टिमटिमाती रोशनी में विद्या ने देखा, उसका चेहरा एक अनोखी परितृप्ति से भरा हुआ था। प्रिया ने फ़िर विद्या से कुछ नहीं छिपाया । जिस चेतन ने एक दिन उसे आँख से वीभत्स इशारा किया था, वह दोनों एक दूसरे को कब चाहने लगे, पता ही नहीं चला। आज रात को ही दोनों आश्रम छोड़ कर चले जायेंगे।

विद्या का मन भर आया । चलो श्याम ने एक चाकर को तो मुक्त किया । पर वह ? वह फिर से अकेली रह जायेगी । खिड़की में से पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलह कलाओं के साथ मुस्कुरा रहा था। मल्लिका की आँखों में भी असंख्य स्वप्न झिलमिला रहे थे।

‘ तू जा बेटी, मैं पीछे सब सँभाल लूँगी। विद्या ने मल्लिका को विदा दी।

सुबह के चार बजे हैं। एक बूढ़ी कृशकाया यमुना में स्नान के लिए जा रही है।उसके साथ-साथ एक आकृति और चल रही है। अरे यह कौन हैं! निरजंन ! विद्या की धुँधली दृष्टि में तो वह आज भी जीवित हैं। मोक्ष की आशा में यहाँ आयी थी। कब मिलेगी मुक्ति? वह काया अपने आप से ही सवाल करती है।

कैसी मुक्ति? कोई पीछे से हँसता है और वह बूढ़ी आकृति एकदम चौंक जाती है। अपनी ही धुन में वह यमुना में बढ़ती जाती है—- गहरे और गहरे। कुछ शेष नहीं बचा है अब। सुनायी दे रही है सिर्फ बांसुरी की उन्मत्त कर देने वाली धुन ।

अपनी देह से परे होकर विद्या ने देखा, यमुना जल में उसकी देह के पास खड़े हैं राधा और कृष्णा। ओह ! तो इस पावन मुक्ति - धाम में आखिर उसे मुक्ति मिल ही गयी......।

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