पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 25 - अंतिम भाग Pragati Gupta द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 25 - अंतिम भाग

पूर्ण-विराम से पहले....!!!

25.

प्रखर और शिखा को एक दूसरे के लिए जो भी करना अच्छा लगता वही करने की कोशिश करते| शिखा अभी घर से बाहर बहुत कम निकलती थी| दोनों फोन पर ही आपस में छोटी-बड़ी सभी बातों को साझा कर लेते थे| दूसरे शहरों में रहने वाले प्रेमियों को जैसे फोन का सहारा रहता है पड़ोसी होने के बाबजूद वही हाल प्रखर और शिखा का था| दोनों का आपस में बात कर लेने से, न सिर्फ़ मन बदली होता था बल्कि दोनों को ही अकेलापन नहीं सताता था| अब किसी भी कीमत पर वो एक-दूजे को खोना नहीं चाहते थे| अब शिखा भी काफी संभल चुकी थी|

सवेरे की चाय बनाते ही शिखा और प्रखर फोन पर आ जाते थे| दिन में भी कई-कई फोन कर लेते| कुछ इस तरह से एक साल धीमे-धीमे करके गुजर गया| जब भी दोनों के बीच आखिरी बात होती....उसके बाद अगर अगला फोन या मैसेज आने में देरी हो जाती तो दोनों का दिल घबराने लगता| दोनों को एक दूसरे के खोने का डर और भी बहुत करीब लेकर आ गया था| बढ़ती उम्र के साथ बढ़ते डर एक दूसरे के साथ को बेशकीमती बना गए थे|

आज सवेरे गुड मॉर्निंग फोन के बाद चार-पाँच घंटे गुज़र गए थे पर शिखा की तरफ से कोई फोन या मैसेज नहीं आया| प्रखर को चिंता हुई|

प्रखर ने शिखा को विभिन्न अंतराल से छः-सात फोन लगाए पर फोन उठा नहीं| घंटी पूरी-पूरी गई| अब तो जब भी कभी ऐसा होता तो प्रखर न जाने क्यों बहुत जल्द ही बुरे-बुरे ख्यालों से घिरने लगता| उसके दिमाग में न जाने कितने ऊलजलूल ख्याल उसकी सारी सोच-समझ पर कब्जा कर लेते| प्रीति के जाने से जिस निर्वात को प्रखर महसूस कर चुका था.....उसके वापस भरने के बाद किसी भी कीमत पर वो शिखा को खोना नहीं चाहता था| ऐसा सिर्फ़ प्रखर के साथ नहीं था बल्कि यही डर और भाव शिखा का भी आजकल पीछा करते थे|

आज जब प्रखर खुद पर काबू नहीं रख पाया तो शिखा के घर लगभग दौड़ते हुए पहुंचा.. शिखा न जाने किन ख्यालों में खोई थी और फोन एक तरफ पड़ा हुआ था| प्रखर घबराहट में जोर से बोला..

“यह क्या तरीका है शिखा..कितने फोन किए तुमको| कम से कम फोन तो पास रखना चाहिए| इतनी घबराहट हो गई थी मुझे.. तुम्हारी वजह से ही मुझे लगभग दौड़ते हुए आना पड़ा| काका और काकी घर में नहीं थे......नहीं तो मैं उनको भेज देता| पर तुम्हारे हालात देख कर कुछ भी ठीक नहीं लग रहा..क्यों इतनी बैचेन हो शिखा|”

प्रखर की घबराहट और उसका रुहासा हो जाना इस समय शिखा को भी रुला गया| शिखा बोली कुछ भी नहीं बस उसने सुबकना शुरू कर दिया|

“घर के दरवाज़े भी खुले हैं| कोई भी अंदर आ सकता है| आजकल घर के दरवाज़े खुला छोड़ना तुमको बहुत सेफ लगता है क्या| शिखा हजार बार बोल चुका हूँ अब मर जाऊंगा तुम्हारे बगैर..अगर तुमको कुछ हो गया|”

प्रखर के कुछ इस तरह नाराज होने से शिखा को अपनी गलती का एहसास हुआ....वो कैसे अपने ख्यालों में इतना खो गई कि उसको प्रखर का ख्याल भी नहीं आया|

“मैं ठीक हूँ भी और नहीं भी हूँ प्रखर| पर क्या हो गया है प्रखर तुमको| बाई काम कर रही थी| अभी-अभी गई है कुछ सामान लाने| गलती से हुआ होगा|.. ..आज एक अरसे बाद मेरे घर में आए हो एक बार भी गले नहीं लगाओगे| तुमको महसूस करना चाहती हूँ| फिर तुमको कुछ दिखाना है जिसको पढ़ते-पढ़ते में खो गई थी| तुम पढ़ोगे तो तुमको भी समीर पर बहुत प्यार आएगा|” बोलकर शिखा प्रखर की ओर एकटक देखने लगी|

शिखा ने फिर अपने दोनों हाथ फैला दिए..सब कुछ भूलकर प्रखर ने शिखा को अपनी बाहों में समा लिया| न जाने कितनी देर तक दोनों एक दूसरे की बाहों में बंधे रहे|

जैसे ही दरवाज़े पर बाई के आने की आहट हुई वो कुछ सामान खरीद कर लाई थी उसने रसोई में रखा और वो चली गई| दोनों ड्रॉइंग रूम में जाकर बैठ गए| तब शिखा ने कहा..

“प्रखर कुछ समय पहले समीर की डायरी के बारे में मैंने बताया था तुमको| उसमें लिखी कुछ बातें साझा भी की थी| आज काफ़ी समय बाद उसी डायरी के जब अंतिम पृष्ठों को पढ़ रही थी तो खो गई मैं| यही वजह थी तुम्हारा फोन नहीं सुन पाई| पहले तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ| फिर चाहती हूँ तुम भी मेरे साथ उसके कुछ बातें पढ़ो जो हम दोनों से जुड़ी हुई हैं| पढ़ना चाहोगे प्रखर|”

“शिखा तुम पढ़ कर बता देना मुझे अच्छा नहीं लगेगा| समीर तुम्हारा पति था तुम्हारा पढ़ना तो जायज है.. मेरा नहीं| अब मुझे तुमसे मतलब है तुम खूब खुश रहो बस|”

शिखा ने प्रखर से कहा..

“थोड़ी देर बैठो प्रखर| तुम्हारे सामने ही पढ़ूँगी..” जैसा कि मैंने तुमको बताया था डायरी के शुरू के पृष्ठों में माँ-बाऊजी से जुड़े वाकये हैं| फिर मेरे आने के बाद माँ-बाउजी जो भी बोलते थे उसका विवरण है| समीर ने जीवन में जो-जो हासिल किया जो खोया सभी कुछ लिखा है|

आज समीर के लिखे हुए अंतिम पृष्ठों ने मुझे रुला दिया प्रखर..समीर बहुत अच्छे इंसान थे यह तो मैंने ताउम्र महसूस ही किया था| पर प्रखर सुनो समीर अंत के पृष्ठों में क्या लिखते हैं..

आगरा में शिफ्ट होने के बाद मित्र प्रखर से मिलना जीवन की सबसे खूबसूरत घटना थी| उसने मुझे बोलना सिखाया| शिखा की हमेशा से शिकायत रही मैं उससे बातें कम करता हूँ..पर प्रखर से मिलने के बाद मुझे एहसास हुआ शिखा जैसी पत्नी के इतना करने के बाद मैं उसकी तारीफ़ में जो बोलना चाहिए था वो भी नहीं बोल पाया| मेरे माँ-बाऊजी हो या भाई, सभी को उसने बहुत प्यार दिया| कमाने के बाद भी कभी रुपये का कोई रौब नहीं दिखाया|

जब प्रीति के जीते जी प्रखर अपनी पत्नी को बोल सकता था तो मेरे कभी भी न बोलने से शिखा कितनी आहत हुई होगी इसका अंदाजा मैं लगा सकता हूँ| मुझे इस बात का हमेशा ही बहुत अफसोस रहेगा| पर प्रखर के सानिध्य में अब मैं खुद को काफ़ी सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ| इतनी बड़े औहदे पर होने के बाद भी मुझे प्रखर में अहम कहीं दिखाई नहीं देता|

बस मुझे बहुत बोलना नहीं आता था| शिखा के साथ अहम भी किस बात का रखता| वो तो मेरे साथ हर सोपान पर खड़ी थी| उल्टा उसने मुझ से ज़्यादा किया| जब भी मौका मिलेगा उससे शीघ्र ही माफी माँगूँगा| अब मैंने शिखा को बहुत प्यार देना और बताना चाहता हूँ|

किसी की भी ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है| प्रीति ने भी बहुत जल्दी प्रखर का साथ छोड़ दिया| कभी मुझे कुछ हो गया तो शिखा का क्या होगा दिन-रात अब मुझे यही चिंता सताती है| मेरे सभी भाई शिखा की बहुत इज्जत करते हैं पर उनके साथ चलने वालों का क्या?

न जाने क्यों मुझे प्रखर से हर बार मिलने के बाद आभास होता है कि उसने जिस लड़की से कॉलेज के समय में प्रेम की बात स्वीकारी थी वो शिखा ही है| गुज़रे सालों में मैंने दोनों को बहुत करीब से महसूस किया है| हालांकि प्रखर या शिखा ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसी की गरिमा खराब हो पर मेरा दिल कहता है| दोनों को साथ देखता हूँ तो मुझे दोनों के बीच के असीम जुड़ाव का आभास होता है|

अपने बेटे पर मुझे बिल्कुल भरोसा नहीं| पर प्रखर पर मैं आँख मूँद कर भरोसा कर सकता हूँ कि वो किन्हीं भी हालातों में शिखा को नहीं छोड़ेगा|..

डायरी का अंतिम पृष्ठ समीर ने जाने से दो दिन पहले ही लिखा था| ज्यों-ज्यों शिखा अंतिम पृष्ठ पर लिखी बातें वापस पढ़कर प्रखर को सुनाती गई.. उसकी आँखों से आंसुओं की झरी लग गई| कितना विश्वास था समीर को उस पर..और प्रखर पर भी|

दूसरी ओर प्रखर शिखा को डायरी पढ़ते हुए देख कर महसूस कर रहा था कि सही कहता था समीर| शिखा ज्यों-ज्यों डायरी पढ़ रही थी.....प्रखर समीर को अपने ही पास ही बैठकर लिखता हुआ महसूस कर रहा था| शिखा का डायरी के पृष्ठों को पढ़कर सुनाना एक बार फिर दोनों को भावों के सागर में बहाकर ले गया|

प्रखर ने बगैर कुछ सोचे तेजी से उठकर शिखा को जोर से गले लगा लिया और दोनों के कंधे एक-दूजे के आंसुओं से भीगने लगे|

तब प्रखर ने कहा..

“शिखा! मैं तुमको कभी नहीं छोड़ूँगा| समीर का अपने मित्र पर विश्वास कभी नहीं टूटेगा| मेरे मरते दम तक तुमको अपने करीब रखना चाहता हूँ| हालांकि हम दोनों में से ही किसी को नहीं पता कितना जीवन शेष है पर मेरे जीते जी तुमको कभी रोने नहीं दूंगा| तुम मेरे साथ चलोगी न शिखा..” बोलकर प्रखर ने शिखा के दोनों हाथों को कसकर थामकर उसकी ओर देखा..

“प्रणय का क्या रिएक्शन होगा प्रखर....”

“यह सब तुम्हें नहीं मुझे सोचना है शिखा..हम दोनों को एक दूसरे की जरूरत है.. अब तुमको पाकर खुद के जीते जी खोना नहीं चाहता|.. जीवन के पूर्ण-विराम से पहले.. एक बार फिर से जीना चाहता हूँ.. उसी शिखा के साथ जो हमेशा ही मेरी ज़िंदगी बनी...और मेरे साथ-साथ चलती रही..मैं जीवन के पूर्ण-विराम से पहले स्वयं को उस पूर्णता से भरना चाहता हूँ जिसकी कमी हम दोनों के जीवन में हमेशा रही.....”

शिखा ने सहमति से अपना सिर हिलाकर प्रखर को गले लगा लिया|

आज एक बार फिर गले लगी हुई शिखा के मन-मस्तिष्क में खुद की लिखी हुई वो कविता बार-बार दस्तकें देने लगी.....जो कभी दोनों का स्वप्न था......

“आज तुम्हारे एक स्वप्न को/क्यों न मैं विस्तार दे दूं.../किसी झील के किनारे/बैठ तेरे संग तेरे स्वप्न में/मेरे स्वप्न को भी पिरो दूँ..../निःशब्द शांत,/आस -पास का वातावरण हो/ओढ़कर तेरी कुछ कही-अनकही/बातों का चोला/मैं झील की शांत हल्की-हल्की लहरों-सा/अपने मन ही मन में तुझे गुनु.../रख तेरी गोद में सिर/बंद नयनों से तेरी धड़कनों की/तेरे से मुझ तक आती/पदचापें महसूस करती चलूँ.../दूर कहीं से आती/कोयल की कुहुक हो या/झील में मछलियों का विचरण/सब उन स्पंदनों-सा ही महसूस हो,/जिनके होने की परिकल्पना/तेरे स्वप्न से होकर/मेरे स्वप्न से जा मिली हो.........और स्पर्श तेरी उंगलियों की पोरों का/मेरे बालों की तहों तक/मेरे नयनों की उन अश्रु बूंदों से बंधा हो/जिनका विलग होना/एक दूजे के निर्वात को महसूसता हो.../ जिनका विलग होना/एक दूजे के निर्वात को महसूसता हो...निर्वात को महसूसता हो.. |||

प्रगति गुप्ता