भाग 5/14: पुराने यार
अब तक दिवाकर पूरे सुरूर में आ चुके थे, बोले, “अबे कहाँ चल दिए...पूरा खाना बन गया है....शाम जवाँ हैं ....हमारे अन्दर आग लगा कर कहाँ चल दिए, वैसे भी कल सन्डे है मंदार....चुपचाप पेग बनाओ...हमारा जन्मदिन अभी ख़त्म नहीं हुआ है|”
वैसे मंदार का जाने का मूड भी न था, वो तो पत्नी को दिया वादा था सो निकल रहा था पर जब कहानी इतने अच्छे मोड़ पर हो और रात पूरी बची हो तो कौन हिलता है भला| मंदार मुस्कराते हुए वापस सोफे पर आया, बोतल उठाई और पेग बनाने लगा|
छठा पेग तैयार था और टेबल पर खाना भी लग चुका था, दोनों ने हिलते हाथों से खाना प्लेट में डाला और निवाला मुहं में डालने लगे|
मंदार ने एक घूँट वापस खींचा और बात बढ़ाते हुए बोला, “बड़े-बाबू तो उसके बाद से कभी नहीं मिले...?कभी फ़ोन पे बात तो हुई होगी....वैसे हैं कहाँ हमारी न हो सकीं भाभी जी ? कोई खोज खबर?”
दिवाकर ने निवाला मुंह में डाला और बोले, “कहाँ मंदार, अब तो बस यादों में है| उस हादसे के बाद तो हमने सबसे रिश्ता ही तोड़ दिया था| बस अपने में ही जीते रहे....दोस्त, तुमने सही कहा था, उसको तो हम कभी भूल ही नहीं पाए थे ...हाँ दुनिया ज़रूर भूल बैठे है|”
इस बार दिवाकर की आखें नम थीं, अपना दर्द छुपा न सके...इतनी शराब में कौन भला अपना दर्द रोक सकता है| ऐसा लगा बरसों का दर्द आज मंदार के सामने छलका हो|
मंदार खुद को संभालते हुए दिवाकर के करीब आया और हौसला दिलाने लगा, फिर बोला, “चलिए फ़ोन लगाइए, ऐसा भी क्या रूठना...पता तो चले कैसी हैं, कहाँ हैं....किस हाल मैं हैं...कहीं आप की तरह वो भी देवदास बनी न बैठी हों...लाइए नंबर दीजिए हम फ़ोन मिलते हैं|
दिवाकर कुछ संभले और मंदार को संभालते हुए बोले, “चलो खाना खाओ....उस समय के बाद से न नंबर है न पता....बची है तो बस पुरानी यादें|”
मंदार ने ग्लास दिवाकर को पकड़ाई और बोला, “और आपके वो दोस्त...क्या नाम था...हाँ दिलीप और फ़िरोज़...उनको तो पता होगा| उन्होंने थोड़े सन्यास ले रखा है दुनिया से...पूछिए तो सही किसी को तो पता होगा|”
दिवाकर समझाते हुए बोले, “अरे अब कोई टच में नहीं है....उस हादसे के बाद हमने हर उस शक्स को अपनी ज़िन्दगी से अलग कर दिया जो जाने या अनजाने उसकी याद दिलाता|”
मंदार नाराज़ होते हुए बोला, “बहुत बढियां बड़े-बाबू, जिन दोस्तों के साथ एक घर सा रिश्ता था उनको एक पल में भुला दिया....मज़ाक है क्या बड़े-बाबू| सच्ची किसी के टच में नहीं हैं...?"
दिवाकर ने सर ना में हिलाया और एक घूँट खींच लिया, चेहरे पर अफ़सोस के भाव साफ़ नज़र आ रहे थे, मानों सोच रहे हों...काश वो दोस्त साथ होते|
मंदार कुछ सोचता रहा फिर जेब से मोबाइल निकालते हुए बोला, “बड़े-बाबू आपके कालेज का नाम तो बोलिए|”
“महेश्वरी कॉलेज! पर क्यूँ?” दिवाकर ने पूछा
“बैच बताइए....किस सन में पास किया था और आर्ट्स था या साइंस”
“बीएससी, 2002, क्या कर रहा है मंदार?” दिवाकर ने फिर पूछा
“दिलीप मिश्रा...जोधपुर, मंडोर....छरहरा बदन, सांवला रंग, मोटी मूंछे और सर पर कम बाल....देखिए यही है क्या?” मंदार ने अपने मोबाइल के फेसबुक पर एक फोटो ढूँढ कर दिखाई|
दिवाकर ने मोबाइल हाथ में लिया तो देखते ही रहे, फिर कुछ देर बाद बोले, “हाँ यही है...साला..कितना बदल गया है, पहले तो मूंछे नहीं थी पर बाल शुरू से कम थे|” न जाने क्या सोच कर मोबाइल पर पूरी प्रोफाइल पढ़ने लगे|
मंदार ने जोर दे कर फ़ोन माँगा और बोला, “लाइए तो ज़रा आज तो राम –भरत मिलाप कराते ही हैं” इतना कहते ही उसने प्रोफाइल पर दिए नंबर पर फ़ोन लगा दिया|
“क्या कर रहा है मंदार? टाइम तो देख....”
“अरे रुकिए बड़े-बाबू, आज ही तो सही टाइम है, हम आपसे न मिलते तो आपको दोस्त से कौन मिलाता....आप तो बस ग्लास खाली कीजिए,....हलो.....हलो दिलीप भाई साहब बोल रहे हैं?”
उधर दिलीप चौकते हुए बोले, “कौन बोल रहा है भाई....रात के साढ़े दस बज रहे हैं...बोलिए दिलीप बोल रहा हूँ|”
मंदार के चेहरे पर रौनक बढ़ गई थी, चहकते हुए बोला, “याद कीजिये जब आप ग्रेजुएशन में थे तो आपका एक साथी था...आपके साथ ही रहा करता था...आप, फिरोज़, बंटी और ....”
“हाँ था एक बेवकूफ....दस साल से लापता है....एक लड़की के चक्कर में साला दोस्तों को भूल गया....पर तुम कौन हो भाई, और इतनी रात पहेली क्यूँ बुझा रहे हो?.....नशे में हो क्या?” दिलीप बोले
मंदार के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान थी, बोला, “अब अगली आवाज़ आपके उसी प्यारे दोस्त की....लीजिये बात कीजिये...” बोलते ही मंदार ने फ़ोन दिवाकर को थमा दिया|
“दिवाकर के हाथ काँप रहे थे, पहले तो कुछ देर सन्नाटा रहा फिर बोले, “....हेलो....दिलीप...” आवाज़ में भारीपन साफ़ झलक रहा था|
“अबे कुत्ते...कमीने...साले कहाँ हो बे....कितने साल हो गए तुमको ढूढ़ते हुए, न कोई पता, न कोई खबर....अबे ऐसे कोई अपने दोस्तों को भूलता है क्या?” दिलीप का भी गला रुंध सा गया था|
भारी आवाज़ में दिवाकर बोले, “सॉरी यार....माफ़ कर दो....न हम तुम सब को कभी भूल पाए....न उसको....”इतना कहना था की फफ़क कर रो पड़े|
मंदार ने दिवाकर को संभाला और फ़ोन लेते हुए बोला, “दिलीप भाईसाहब, आपको बड़े- बाबू का नंबर अभी मैसेज कर देता हूँ, फिर चाहे जब जी आए गालियाँ निकालते रहिएगा.....और पीटने का मन करे तो जयपुर आ जाइएगा, स्टेशन से घर हम ले आएंगे...अभी तो आप एक मदद कीजिए.....”
दिलीप ने अपने आप को संभाला और बोले, “हाँ बोलो भाई, तुमने तो एक बिछड़े दोस्त को मिलाया है...क्या कर सकते हैं तुम्हारे लिए...”
मंदार बोला “बस भाईसाहब...ये काम भी इन्ही का है...कुछ अंदाज़ा है आपकी वो भाभी, जो भाभी न बन सकीं आज कल कहाँ हैं? और क्या कर रही हैं?”
दिलीप थोड़ा नाराज़ होते हुए बोले, “अरे अब तक बुखार उतरा नहीं क्या उसका...बात तो कराओ...उसकी तो शादी हो गई कब की ...अब तो जोधपुर के आस पास रहती है कहीं|”
“मतलब आपके ही शहर में....वैसे शहर तो हमारा भी है....पर आज कल हम जयपुर में रहते है...एक हेल्प कर दीजिये प्लीज...कोई नंबर है क्या उनका?” मंदार बोला|
“क्या कर रहा है मंदार....सुना नहीं क्या....उसकी शादी हो चुकी है...” दिवाकर ने लगभग मंदार को डांटते हुए कहा| लेकिन दिल कुछ और कह रहा था....काश नंबर मिल जाए और एक बार उसकी आवाज़ सुन ले|
“अरे रुकिए बड़े-बाबू, आपकी प्रेम कहानी है....ऐसे ही थोड़े ख़तम हो जाएगी.....मजाक है क्या....दिलीप भाई साहब....कुछ बोलिए, यहाँ आपके दोस्त देवदास बने पड़े हैं, और आप हैं की मौनी बाबा हो गए हैं|”
उधर से दिलीप बोले, “हमारे पास तो नहीं है....पर बंटी को पता होगा....लेकिन हम नहीं पूछेंगे, साला फिर लड़ाई –झगड़े की नौबत आ जाएगी|”
मंदार शराब के सुरूर में बोला, “अरे ऐसे कैसे झगड़ा हो जाएगा दिलीप भाईसाहब, वो भी हमारे रहते...मज़ाक है क्या....वो तो हम नहीं थे आप लोगों के साथ वरना ये नौबत ही न आने देते....कुछ भी करते पर दोनों को मिलवा कर ही दम लेते, भले लाठी –बंदूक चल जाती| अरे हमारे बड़े-बाबू का प्यार है... मजाक है क्या...”
वापस अपना आपा काबू में लाते हुए बोला, “खैर छोड़िए, हम कुछ करते हैं...आप अपना खयाल रखियेगा दिलीप भाईसाहब....और मौका मिले तो जयपुर आइए...वरना हम कभी आते है जोधपुर, आपके घर, अपनी मिसेज़ के साथ| चलिए मिलते हैं....गुड नाईट|” इतना कहते मंदार ने फ़ोन काट दिया|
उधर दिवाकर मंदार का सिर्फ मुहँ ताक रहे थे , बोले, “अरे ये क्या?...फ़ोन तो देते...बात तो करने देते...तुमने तो...”
स्वरचित कहानी
स्वप्निल श्रीवास्तव (ईशू)
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भाग 6/14 : ग्यारह बीस की बस