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बड़े बाबू का प्यार - भाग 4 14: तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई..... शिकवा, तो नहीं....



भाग 4/14: तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई..... शिकवा, तो नहीं....

“बड़े-बाबू? क्या बात है.....आज से पहले तो कभी नहीं.....” मंदार अचम्भे में बोला, फिर जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल एक सिगरेट उसने दिवाकर की ओर बढ़ा दी|

दिवाकर ने ग्लास खाली की और ग्लास मेज़ पर रख सिगरेट जलाते हुए बोले, “बनाओ अगला....आज तो फिर वही दिन जीने को दिल कर रहा है....वैसे थैंक्स मंदार....तुम न होते तो शायद ये यादों का पिटारा कभी खुलता ही नहीं|”

मंदार ने झट अपनी सिगरेट जलाई और सिगरेट मुहं में रखते हुए दोनों की ग्लास तैयार करने लगा|

“फिर क्या मंजन मिला?..... बड़े-बाबू....” मंदार चुटकी लेते हुए बोला|

दिवाकर भी हल्का सा मुस्कुराए और बोले, “बिलकुल मंजन भी और आँखें भी....” फिर हँसते हुए बोले, “ वो मुस्कुरा कर बोली और कुछ चाहिए....फेश वाश, क्रीम, पाउडर....उसके मूड से लगा मज़े ले रही हो पर हमने ज़ाहिर न होने दिया, बोल दिया ज़रुरत होगी तो मांग लेंगे, अभी के लिए तो फिलहाल टूथपेस्ट|”

“फिर सबने मिल कर नास्ता किया और उमेद नगर की यात्रा शुरू, एक घंटे में हम शादी के घर में थे| हम दोस्तों ने मिल कर सामान उतारा और मौका देख हमने भी थैंक्यू बोल दिया, पलट कर जवाब आया, इट्स ओके....क्रीम , पाउडर चाहिए हो तो बता देना, फिर धीरे- धीरे हँसने लगी, मानों चुटकी ले रही हो|”

“गाँव की शादी और शादी का घर, हम सब काम में ऐसे लगा दिए गए जैसे घर की ही शादी हो, कभी हलवाई के साथ बैठना, कभी कुर्सियां उतरवाना तो कभी रज़ाई गद्दे| आते जाते नज़र उसे ही ढूँढ़ती रहती, पर पूरा दिन बीत गया, न दर्शन हुए न आवाज़ सुनी, लगा हाथ से गई| अब सीधे –सीधे बंटी को बोल भी नहीं सकते थे|”

“फिर क्या हुआ बड़े-बाबू...?” मंदार ने ग्लास हाथ में उठाते हुए पूछा|

दिवाकर ने भी अपना ग्लास उठाया और उसे देखते हुए बोले, “फिर शाम हुई तो सभी रिश्तेदार गाने बजाने में लग गए, तभी बंटी आया और बोला, मेहँदी कॉम्पटीशन है और उसने हमारा नाम दे दिया है| हमने कहा भी कि भाई, पेंट-ब्रश चलता हूँ...मेहँदी थोड़े ही..पर जवाब मिला कलाकार तो हो ना , वो भी कॉलेज के अव्वल, जीतना ही होगा|”

“अच्छा! तो आप आर्टिस्ट भी है बड़े-बाबू...क्या बात है....ज़ारी रखिए” मंदार पनीर मुहं में डालते हुए बोला|

दिवाकर मुस्कुराए और बोले, “किस्मत देखो, मेहँदी लगाने मिली भी तो कौन....”

“अच्छा..क्या बात है....वाकई...” मंदार बोला|

“जी हाँ, हमारी किस्मत में जो हाथ आया वो उसका ही था| फिर क्या, इम्प्रेशन ज़माने के चक्कर में जो कलाकारी की कि मेहँदी वाले भी भौचक्के रह गए....| इस बार थैंक-यू बोलने की बारी उसकी थी, और जैसे ही उसने थैंक-यू बोला हमने पलट कर हिसाब पूरा कर लिया, बोल दिया कि कभी मेहँदी- वेहंदी लगवाना हो तो बोल देना| वो भी मुस्कुरा कर चली गई पर बोल गई, “ज़रूर”|”

“अब तो धड़कन और भी बढ़ गई थी, निगाहें उसे ही ढूँढती रहती, कभी छत, तो कभी आँगन, बस यही लगता की अब दिखी कि तब|”

“ऊपर वाले की दुआ से रात जब सब खाने बैठे तो नज़र मिल ही गई, अब तो उसकी मुस्कराहट भी इज़हार कर रही थी| खाना खाने के बाद हाथ धोने के बहाने एक दूसरे के करीब आए तो हमने पूछ ही लिया की टहलने चलोगी क्या? वो पहले तो हड़बड़ाई फिर बोली, इतनी रात...सर्दी बहुत है| हमें लगा बात ख़तम, पर जैसे ही मुड़े पीछे से आवाज़ आई, गेट पर रुकना, शाल ले कर आती हूँ| हमारे मन में संजीव कुमार और सुचित्रा सेन का गाना आ गया|”

“हा..हा..हा, आंधी फिल्म वाला...”, मंदार जोर से हँसा, “फिर बड़े-बाबू....”

दिवाकर ने एक लम्बा घूँट लगाया और हिलते हुए खड़े हो गए, बोले, “अबे, बड़े-बाबू के बच्चे....ऐसे ही बहकता रहेगा तो पूरी रात निकल जाएगी, चल पहले खाना तैयार करते है|” इतना बोल हिलते कदमों से दिवाकर किचन की ओर चल दिए|

मंदार ने एक और सिगरेट जलाई, अपनी और दिवाकर की ग्लास उठाई और आ खड़ा हुआ किचन के दरवाज़े पर| जली हुई सिगरेट दिवाकर को पकड़ाते हुए बोला, “बड़े-बाबू आगे तो बताइए क्या हुआ....”

दिवाकर ने सिगरेट का एक लम्बा कश खींचा फिर एक घूँट मारते हुए बोले, “फिर क्या, शादी को दो दिन थे और मिलने को एक अंजान गाँव और बड़ा सा घर| कोई न कोई बहाना देख हम दोनों मिल ही लिया करते थे| वहां से जो सिलसिला शुरू हुआ तो जयपुर तक चला, उसने हमारे ही कॉलेज में एडमीशन ले लिया था, हमारी ही जूनियर थी| बंटी को छोड़ पूरा कॉलेज जानता था|....फिर एक दिन बंटी ने भी हमें देख लिया|” दिवाकर बोलते- बोलते रुक सा गए|

मंदार भी दिवाकर की चुप्पी भांप गया था...कुछ न बोला|

एक गहरी सांस ले कर दिवाकर बोले, “फिर वही मेरे दोस्त, जात-पात, ऊँच-नीच और मार पीट, अपना ही जिगरी यार अपना दुश्मन हो गया| सोचा आज नहीं तो कल मामला ठंडा होगा और बात बन जाएगी पर एक बार जो बात बढ़ गई तो बढ़ गई| राजे –रजवाड़े चले गए पर राजपूतों की अकड़ न गई....”

“अरे क्या बड़े-बाबू...हम भी तो राजपूत है, लेकिन सोच एकदम मॉडर्न....सोच-सोच का फ़रक होता है बड़े-बाबू...भाग जाना चाहिए था आप लोगों को.....भाग कर शादी कर लेते....लोग चार दिन छाती पीटते फिर सब नार्मल हो जाता|” मंदार समझाते हुए बोला|

“कहना आसान है दोस्त....ऐसा नहीं कि हमने कोशिश नहीं की थी पर जब पता चला कि इतनी सी बात पर घर में मार पीट हो रही है तो भागते पकड़ी जाती तो उसके साथ क्या -क्या होता...साला उसकी हालत सोच कर हिम्मत ही नहीं हुई|”

“अरे क्या बड़े-बाबू, कोई अपने प्यार को ऐसे छोड़ देता है क्या?....देखिए हमारी तो अरेंज मैरिज है फिर भी इतना प्यार करते है कि उसके लिए पूरी दुनिया से लड़ जाएं....क्या बड़े-बाबू..” मंदार के भाव में गुस्सा और हताशा साफ़ नज़र आ रही थी|

दिवाकर कुछ बोल न पाए, एक घूँट लगाया और सब्जी चलाने लगे|

मंदार जैसे कुछ सोच रहा हो, बोला, “फिर क्या हुआ बड़े-बाबू.....आगे क्या हुआ?”

दिवाकर चेहरे पर हताशा को मुस्कुराहट से छिपाते हुए बोले, “फिर क्या, हमारी वज़ह से इतनी मार पीट, हम कैसे बर्दाश्त करते, आखिर बोल ही दिया भूल जाओ....और....”

“और क्या बड़े-बाबू....मज़ाक है क्या... बड़े-बाबू....आपका प्यार...अपनी हालत देखी है आपने...बोलते तो हैं भूल गए हैं पर असलियत यही है कि उनकी याद में आप दुनिया भूल गए हैं बड़े-बाबू...” मंदार बीच में टोकते हुए बोला|

मंदार ने गुस्से और हताशा में एक ही झटके में ग्लास खाली कर दी थी, दोनों पांच-पांच की बराबरी पर थे और शराब अपना असर दिखने लगी थी|

मंदार ने घड़ी पर नज़र डाली, रात के दस बज चुके थे, हिचकिचाते हुए बोला, “बड़े-बाबू बहुत लेट हो गया है चलते हैं, कल आफिस भी जाना है|”

स्वरचित कहानी
स्वप्निल श्रीवास्तव (ईशू)
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