किरदार- 4 Priya Saini द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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किरदार- 4

माँ: अंजुम….अंजुम, उठ जा अब जल्दी। भोर हो गई।

सारे रिश्तेदार आ चुके हैं। घर में बहुत चहल-पहल है, कोई नाश्ता कर रहा है तो कोई हँसी-ठिठोली कर रहा है तो कुछ लोग कामों में लगे हैं और बच्चे खेल रहे हैं।

अंजुम अपने कमरे में अकेली बैठी हुई है। तभी उसकी फुफेरी बहन रेखा उसके पास आती है।

रेखा: क्या हुआ जीजी? ऐसे तुम अकेले क्यों बैठी हो। कुछ खाने को लाऊँ तुम्हारे लिए?

अंजुम: नहीं, रहने दे। भूख नहीं है। तू बता कैसी है? और पढ़ाई कैसी चल रही है तेरी?

रेखा: जीजी पढ़ाई तो अच्छी चल रही है और तुम्हें पता है अगले महीने हम स्कूल की तरफ से घूमने जा रहें हैं।

अंजुम: ये तो बहुत अच्छी बात है। मजे करना और ध्यान भी रखना अपना।

रेखा: हाँ ठीक है। अच्छा जीजी ये बताओ मैं जीजू से जूते चुराई में क्या माँगू?

अंजुम: जब मैं ही कुछ नहीं माँग पाई तो तू क्या माँगेंगी।

रेखा: मतलब?

अंजुम: कुछ नहीं, तू माँग लेना जो तुझे चाहिए हो। शायद तुझे मिल जाये।

रेखा: जीजी तुम बहुत खुशकिस्मत हो, मामा जी ने तुम्हारी शादी में कितना पैसा खर्च किया है और जीजू का घर भी कितना बड़ा है।

अंजुम: बड़े घर से खुशियां नहीं आतीं, खुशिया आतीं हैं घर के लोगों से। खेर तू ये सब छोड़ और बाहर जाकर बच्चों साथ खेल।

रेखा वहाँ से चली जाती है।

सारे रीति-रिवाज निभाते हुए शाम हो गई, सब लोग शादी के लिए तैयार होना शुरू करतें हैं।
अंजुम को सजाने के लिए पार्लर से लड़की आई है।

थोड़ी देर में माँ अंजुम के कमरे में आतीं हैं और अंजुम को देखती ही रह जातीं हैं। आज अंजुम बेहद खूबसूरत लग रही है।

माँ: कितनी सुंदर लग रही है मेरी बिटिया, इसे काला टीका जरूर लगा देना। किसी की नजर न लग जाए। (माँ की आँखों में खुशी के आंशू हैं।)

तभी अंजुम के पिता की आवाज आती है।

अरे बारात आ गई, कहाँ हो सब लोग जल्दी आओ।

माँ: बारात आ गई है, मैं स्वागत के लिए जाती हूँ। तू तैयार रहना, पंडित जी के कहते ही मैं तुझे लेने आ जाऊंगी।

अंजुम के माता पिता बारात के स्वागत सत्कार में लग जाते हैं। कुछ ही देर में पंडित जी अपने विधि-विधान शुरू करते हैं।

पंडित जी: आगे के रिवाजों के लिए वधु को बुलाईये।

माँ: जी पंडित जी, अभी बुलाती हूँ।

माँ अंजुम को लेने उसके कमरे में जाती हैं।
अंजुम दुल्हन के रूप में तैयार होकर बैठी है।

माँ: अंजुम, चल पंडित जी बुला रहें हैं।

अंजुम माँ का हाथ पकड़ लेती है। समीर से शादी के इतने करीब आकर वह टूट रही है, डर रही है अपने आने वाले कल से।

अंजुम: माँ प्लीज, मत करो ऐसा। मत करो मेरी शादी समीर के साथ। मैं उससे प्यार नहीं करती हूँ। मेरे सारे सपने टूट जाएंगे। मैं टूट जाऊंगी। तुम्हारा सपना मुझे दुल्हन बनते देखना मेरा घर बसना था, ये तो नहीं कि समीर से ही शादी हो।

पर माँ, अंजुम की बातों को ऐसे अनदेखा करती हैं जैसे उसने कुछ कहा ही नहीं और अपने साथ लेकर चली जाती हैं।
मजबूरियों की साकड से बंधी अंजुम माँ के साथ चल देती है।

अंत में शादी सम्पन्न हो जाती है। विदाई का समय आता है।