नश्तर खामोशियों के - 4 Shailendra Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नश्तर खामोशियों के - 4

नश्तर खामोशियों के

शैलेंद्र शर्मा

4.

किसी स्कूटर के स्टार्ट होने के स्वर से जैसे में नींद से जगी. मरे हुए लम्हों को बार-बार अपने भीतर जिंदा करते हुए,मैं प्रिंसिपल ऑफिस पहुच गई थी. कैशियर के कमरे में पँहुची, उसने खड़े होकर नमस्ते की और कुर्सी पेश की.

तनख्वाह रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद उसने मुझे छोटे से काम का अनुरोध किया, जो प्रोफेसर भारद्वाज ही कर सकते थे.प्रिन्सिपल ऑफिस से बाहर आते हुए मैं सोच रही थी जब मैं इनसे यह बात करूंगी तो ये क्या कहेंगे! झुक आएंगे मेरी तरफ, और आंखों में अजीब सा भाव लाकर(जो कभी शरारत लगता था, मगर अब लगता है, जैसे इनकी लार टपकी आ रही हो.) कहेंगे, "हुजूर, अगर आपका कहना है तो ... करना ही पड़ेगा, मगर यह बताइए, बदले में आप हमें क्या देंगी?"

और एक अजीब-सा, लिजलिजा-सा एहसास होने लगा, जिसमे प्रोफेसर साहब के होंठ मुझ पर दौड़ रहे थे, उनकी कुचलती- त्रस्त करती हथेलियों की तरह, कि कोई पोर निचुड़े बिना न रह जाये! और में पड़ी थी पाताल में, आग में बिना चले, आग से निकलती हुई, पत्थर की तरह.

प्यार मेरी जिंदगी में उस रूप में नही आया, जब सिनेमा के पर्दे पर हो रहे फूहड़पन को देखकर लोग सीटियां बजाने लगते है. उस रूप में भी नही आया, जब आंखों और होठों एक गुलाबजल का स्रोत फूट पड़ता है, जो छोटे-छोटे बस्तों, नन्ही-नन्ही किलकारियों, और छोटे-छोटे मखमली जूतों को साथ लेकर आता है, और शक्कर की सी मिठास लिए निष्पाप आंखें जन्म लेती हैं. उन लोगों के लिए यह एक सहज आवश्यकता है, जो शरद की धूप को जन्म देती है. और मेरे लिए! आवश्यकता तो है मगर सहज नही. एक असहज अनुभूति...जिसमे ग्लानियां जुड़ी हुई हैं, अपराध-बोध जुड़े हैं, किसी के प्रति वफादार न रह पाने की स्वीकारोक्ति न कर पाने की छटपटाहटें और तिलमिलाहटें जुड़ी है.

कभी-कभी सोचती हूं कि बीवियों को अपने पतियों की कितनी चिंता रहती है...क्या खाते हैं, क्या खाना चाहिए; क्या पहनते हैं, क्या पहनना चाहिए! और यहाँ मेरे पत्नीपन का अहसास…

हाँ, कोई एहसास नही- कि मेरी भी शादी भी हुई है. मैं भी किसी की ब्याहता हूं...अर्धांगिनी, गृह लक्ष्मी! बिना कुछ करे, न करने की इच्छा ही लिए, एक मजबूरी-सी निभाना...अव्वल तो निभाती ही क्या हूं! घर की बैठक में रखी एक बेजान चीज , सुंदर लेकिन अर्थ हीन. सुंदर को और सुंदर बनाने, देखने, पाने की इनकी सारी कोशिशें भी सिर्फ इसलिए होती हैं कि जब गृहस्वामी का तनाव शोले भड़का रहा हो, तब वह अपने-आपको तश्तरी में पेश करे. जब भी उस शरीर में मई-जून की दोपहर भभक उठे, तो नत होकर,समर्पिता बन कर...और सबसे ज्यादा गलाने वाली बात यह है, कि मुझसे यह उम्मीद की जाती है, कि केवल उन ज्वालामय क्षणों के अपने 'उपयोग' से ही अपना अस्तित्व जस्टिफाइ करूँ.

प्रोफेसर साहब अक्सर कहते हैँ मजाक में (जो कि वस्तुतः उनके निकट मजाक नही है) कि, "औरत को तो दो ही जगह अच्छा होना चाहिए, एक रसोई में, दूसरा पति की बाहों में." मगर मैं कैसे मानूँ इसको, क्योकि दिमाग के रोशनदान खोलने बाले उस इंसान ने सिखाया था,कि एक और भी जरूरी दुनिया है, जहां सारा आसमान, पूरा-का-पूरा...आंखों में फैलने लगता है.

एक बार मैने इनसे पूछा था कि आपने इतनी देर में, तैतीस वर्ष की उम्र में क्यों शादी की, तो इन्होंने हँसते हुए ( खींसे निपोरते हुए?) जबाब दिया था, "जब बिना ब्याह के ही आपकी जरूरतें पूरी हो जाएँ तो ..."

और इस अंधेरे के दूसरे छोर पर अना मुझसे कह रहा था, "विनी, मैं कभी यह सुनना नही चाहता, कि तुम्हे लड़की होने की वजह से ही इतना क्रेडिट और एप्रिसिएशन मिला. चाहता हूं कि अपने अंकों को तुम अपने ज्ञान से जस्टिफाई कर सको. तभी शायद तुम इस तथाकथित 'नोबुलेस्ट प्रोफेशन' की राजनीति से अलग खड़ी हो कर चमक सको... शायद वही हमारे सुकून का साधन बने... नहीं तो हमे तो पार्टी पॉलिटिक्स ने पटक-पटक कर तोड़ डाला है.

बदन के बारे में सोचते हुए अचानक वो दुलारी-सी शाम आंखों में तैरने लगी, जब दिसंबर के महीने में बेमौसम बारिश हो रही थी, और मैं और अना बैठक वाले दीवान पर खेस ओढ़े हुए बैठे थे. उसके हाथों में चाय का गिलास था और मेरे हाथों में किताब थी, जिसमें मैं उसकी बताई हुई जगहों पर निशान लगा रही थी. चूंकि हम दोनों तभी रसोई से आये थे, और वहाँ फर्श गीला था, इसलिए दोनों के पैर बर्फ हो रहे थे.उसके पैर के अंगूठे ने मेरे पैर के तलुए को छुआ, तो मैने धीरे से पैर हटा लिया था. उसने दोबारा हौले से अपने पूरे अंगूठे और अंगुलियों का दबाव मेरे पैर पर डाल दिया था और... मैं जड़ हो आयी थी, घबराहट के मारे. किताब पर मेरी स्थिर हो गई अंगुलियों को देखकर वह फुसफुसाया था,"सुनो, क्या मेरी सीमा सिर्फ यही है? कभी थोड़ा और पास आने दो न! थोड़ा और!"

मेरी सांस गले मे ही रुक गयी थी. गर्दन से बड़े-बड़े गुड़हल गालों से होते हुए कानों तक तैरते जा पहुचे थे. दिल कानों में धड़कता महसूस हो रहा था, कान गरम हो आये थे. मेरी दशा देखकर वह शरारत से हँसा था, "अरे, तुम तो मर ही गयीं बिल्कुल! यार घबराओ नही, तुमसे बिना पूछे कुछ नही होगा...और वैसे भी मुझे इंतज़ार करना आता है."

वह बारिश भारी शाम जैसे-जैसे आंखों में तैरती गयी, वेसे-वैसे अना के बाद वाली, प्रोफेसर साहब वाली वह दोपहर मुझे धीरे-धीरे तोड़ने लगी... तिल-तिल करके. उसे कुचलने की कोशिश में मैंने अपने कदम तेज़ कर दिए.

वापस डिपार्टमेंट पहुँच कर देखा, घड़ी चार से ऊपर बजा रही थी. डिसेक्शन हॉल की खिड़की से अंदर का सब दिख रहा था. सब कुछ वैसा ही पूर्ववत चल रहा था. बाहर एक डेमोंस्ट्रेटर, कागज हाथ में लिए किसी चपरासी से बात कर रहे थे. मुझे देख कर बोले,"डॉ.साहब, यह चपरासी सर्जरी से आया है. जरा इसे अपने म्युज़ियम से बोन्स का नया वाला सेट, और इस कागज़ पर लिखे कुछ स्पेसिमेन निकाल कर दे देंगी आप? मैं बीच मे डेमोंस्ट्रेशन छोड़ कर आया हूं." और उन्होंने कागज और चाबियां पकड़ा दीं.

म्युज़ियम खोलकर मैं वहाँ रखी मेज पर बैठ गयी. चपरासी सब सामान गिनने लगा. मैं उसे बताने लगी कि क्या-क्या चीजें उठानी है. फिर यूँ ही पूछ लिया," किसने मंगाया है यह सब?"

"मैडम, कल एम.एस.का इम्तहान है ना, उसी खातिर डॉ.कुमार साहब ने मंगाए हैं."

एम.एस.सर्जरी का इम्तहान! मैंने मेज के किनारे को कस कर पकड़ लिया... इसी इम्तहान ने तो मुझसे मेरी जिंदगी छीन ली थी! मैं हल्के से मेज से उठ कर कुर्सी पर बैठ गयी. चपरासी सर्जरी में हो रही कल की तैयारियों के बारे में बताने लगा.

लेकिन मुझे सब कुछ अस्पष्ट-सा सुनाई दे रहा था...जैसे बहुत शोर मच रहा था. मैं बहुत से लोगों की भीड़ मे से गुजर रही थी, और सब लोग चीख-चीख कर मुझसे कुछ कह रहे थे, लेकिन कुछ समझ में नही आ रहा था. शायद मेरे अंदर का सन्नाटा उससे ज्यादा तेजी से दहाड़ें मार रहा था, जो लोगों की उन चीखों को मुझ तक पहुचने नही दे रहा था. लोगो की नजरें मुझे चीर रही थी... देखो! ये अभागी औरत जिसके साथ जीने का ख्वाब देख रही थी, उसने खुद अपनी जिंदगी खत्म कर दी है, देखो-देखो!!