उलझन - 1 Amita Dubey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उलझन - 1

उलझन

डॉ. अमिता दुबे

एक

नीचे के फ्लैट में जब से अंशी यानि अंशिका रहने आयी है तब से सोमू यानि सौमित्र का जीवन ही बदल गया है। इससे पहले सोमू तो केवल ‘बोर’ होता था। घनी आबादी के बड़े से मकान में बाबा-दादी, चाचा-चाची और मम्मी-पापा के साथ रहते हुए जब सोमू इस बहुमंजिली इमारत में तीन बैड रूम वाले फ्लैट में रहने आया तो शुरू-शुरू में उसे बहुत अच्छा लगा। इसे सहारागंज के ‘होम टाउन’ से खरीदकर स्टाइलिश बैड, वाॅडरोब, स्टडी टेबिल और बड़े से टेडी बियर से सजाया था। गृह प्रवेश की पूजा के बाद जब उसने अपना कमरा देखा तो खुशी से पागल हो गया। ऐसे कमरे का ही सपना वह देखा करता था। मम्मी-डैडी कितने प्यारे हैं जिन्होंने उसके सपने को सच कर दिया जबकि उसने कभी अपना सपना उन्हें बताया ही नहीं। शायद हर बच्चे का यही सपना होता होगा।

सोमू ने एक जोरदार किस्सी मम्मी के गाल पर दी और डैडी के गले में झूल गया। उसी समय डैडी ने शर्त रख दी- ‘सोमू बेटा! नेक्स्ट इयर तुम्हारा फाइनल इयर है यानि बोर्ड। जरा मेहनत से पढ़ाई करना। आई वाण्ट नाइंटी फाइव परसेंट नाॅट लेस देन। हाँ अगर इससे ज्यादा लाये तो तुम्हें मनचाहा गिफ्ट मिलेगा।’ सोमू ने कल्पनालोक में खोते हुए पूछा था- ‘चाहे जो मागूँगा मैं वह आप दिलायेंगे।’ ‘हाँ मिलेगा पर पहले नम्बर तो लाओ।’ मम्मी ने चपत लगायी थी।

बहुत जल्दी सोमू इस दुनिया से ऊबने लगा। सुबह-सुबह स्कूल बस से स्कूल जाना। दोपहर ढाई बजे तक लौटना और अपनी चाभी से घर खोलना। डाइनिंग टेबिल पर लगा लगाया खाना खुद निकालो खुद खाओ। चाहे टी0वी0 चलाओ चाहे कोई भी पर पिक्चर देखो लेकिन रहना अकेले ही है। चार बजे आया आण्टी आयेंगी बरतन धोने। उनके जाने के बाद सो सकता था वह लेकिन फिर पाँच बजे उसे ट्यूशन के लिए निकलना होता। रात आठ बजे लौटना और फिर ढेर सारा होमवर्क स्कूल का भी और ट्यूशन का भी। देखा जाय तो मम्मी और डैडी से उसकी मुलाकात अच्छी तरह से सण्डे को ही हो पाती थी। मम्मी प्राइवेट बैंक में काम करती थीं और पापा मल्टी नेशनल कम्पनी में। मम्मी का बैंक घर से दस किलोमीटर दूर था और पापा का आफिस पन्द्रह। मम्मी को पापा बैंक छोड़ते हुए जाते और लौटने पर भी साथ-साथ आते।

जब वे लोग दादी के घर में रहते थे तब सोमू की मौज रहती थी। मम्मी तब भी बैंक जाती थीं लेकिन स्कूल से लौटने पर उसे अकेला नहीं रहना पड़ता था। दादी-चाची दोनों रहती थीं। मम्मी खाना तब भी बना कर जाती थीं उसके लिए क्योंकि उसे चाची के हाथ का खाना तो अच्छा लगता था लेकिन उनका अनिच्छा से खाना परसना पसन्द नहीं आता था उसने मम्मी से अपना दोपहर का खाना बनाने की रिक्वेस्ट की थी जिसे उन्होंने मान लिया था अब वे टिफिन के साथ दोपहर का खाना भी बना देती थीं। शाम को मम्मी-पापा के साथ गरमा-गरम खाना खाने में बहुत मजा आता था। मम्मी फूली-फूली रोटी सेंकती थीं और खूब सारा घी लगाकर उसे देती थीं। दाल में भी खूब सारा घी पड़ा होता था। तब दादी अक्सर कहती थीं- ‘मैं तो रोज कहती हूँ दोपहर में चाची दाल बनाती हैं खा लिया करो लेकिन सुनता ही नहीं। बस जो रखा होता है वही खाता है हाँ अचार खूब खाता है। बस मिर्च का मसाला-‘मसाला।’ अधिकतर ऐसे मौकों पर मम्मी हँसकर बात टाल देती थीं उन्होंने कभी भी छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई नहीं की। हमेशा मुस्कुराते हुए बात करतीं और बातों को पचा जातीं। इसलिए कभी भी लड़ाई की नौबत नहीं आयी।

दादी चाची से कहतीं - ‘बड़ी होशियार है मुग्धा। मुस्कुराकर मेरे बेटे को बुद्धू बनाती रहती है। कैसा पीछे-पीछे लगा रहता है नौकरों की तरह। उसी की हँसी हँसता है उसी के आँसू रोता है।’ एक दिन सोमू ने मम्मी से पूछा था- ‘मम्मी क्या पापा की आँख से आपके आँसू निकलते हैं। मैंने तो उन्हें कभी रोते नहीं देखा।’

पूरी बात जानकर मम्मी खूब हँसी थीं। उन्होंने सोमू को समझा दिया था इन बातों में मत पड़ा करे। दादी जो कहती हैं वह प्यार में कहती हैं। सोमू दादी की सभी बातें सुनता रहता लेकिन जब चाची अपनी तरफ से कुछ का कुछ जोड़ती तो सोमू को बहुत गुस्सा आता। शुरू-शुरू में तो वह कुछ उल्टे-सीधे जवाब भी दे देता लेकिन बाद में उसने मम्मी का फार्मूला अपना लिया। जब वे इस तरह की बातें करतीं तो वह रेडियो की आवाज तेज कर लेता या घर से बाहर खेलने चला जाता जिसकी शिकायत अक्सर मम्मी-डैडी से की जाती। मम्मी कभी टोंक देतीं और कभी टाल जातीं।

फिर परिस्थितियाँ बदलीं। दादी ने एक दिन सोमू के मम्मी-डैडी से अपना इन्तिजाम कहीं और करने को कहा। वे घर का वह हिस्सा जिसमें सोमू का परिवार रहता था को किराये पर उठाना चाहती थीं। चाचा की नौकरी में कुछ परेशानी आ गयी थी जिसकी वजह से वे डिपे्रशन में आ गये थे ऐसा डाॅक्टरों का मानना था। उन्हें आराम करने और दिमाग पर बोझ न लेने की सलाह दी गयी थी। दादी और चाची को डाॅक्टरों ने यह अच्छी प्रकार समझा दिया था कि यदि चाचा का तनाव कम नहीं हुआ तो उन्हें गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

सोमू की चाची ने इतने वर्षों बाद नौकरी के लिए घर से बाहर कदम निकाला था। एक डिपार्टमेण्टल स्टोर में उन्हें नौकरी मिली थी जिसके लिए वे सुबह 9.00 बजे घर से निकलती थीं और रात को आठ-साढ़े आठ बजे तक घर आ पाती थीं। अब घर के कामों की बहुत कुछ जिम्मेदारी दादी पर भी आ गयी थी। मम्मी के साथ उन्होंने कभी कोई सहयोग नहीं किया हमेशा ऐसे काम किये जिससे उन्हें परेशानी हो या उनके काम में रुकावट आये। लेकिन चाची के साथ उन्हें तालमेल बैठाना पड़ रहा था।

सोमू की चाची जब से बाहर निकलने लगी थीं तब से बहुत चिड़चिड़ी हो गयीं थीं। चाचा सारा दिन दवा खाकर घर में ही रहते। उनके दोनों बच्चे शैतानियाँ किया करते और डाँट खाया करते। सोमू सोचता मैंने तो कभी ऐसी शैतिनियाँ की ही नहीं लेकिन डाँट इससे भी बुरी तरह खायी।

दादी के कहने पर पापा ने वह घर छोड़ दिया और पास ही किराये का मकान लेकर रहने लगे। मम्मी और पापा नियम से शाम को दादी के पास जाते। वहाँ जाते समय उनके हाथ में कुछ न कुछ सामान दादी और चाचा के परिवार के लिए होता। सोमू भी स्कूल से लौटकर कुछ देर दादी के पास हो आता। ज्यादा देर रुकने का उसका मन नहीं होता क्योंकि दादी के घर पर अब माहौल अच्छा नहीं रह गया था। हमेशा लड़ाई-झगड़ा होता रहता। चाचा-चाची को डाँटते रहते, चाची पहले तो खूब झगड़ा करतीं। एक की जगह दो बातें सुनातीं, अपनी किस्मत को कोसतीं और बाद में रोते-रोते बच्चों को पीटना शुरू करतीं। फिर बच्चे चिल्लाते और एक अजीब सी चिल्ल-पों मच जाती।

जहाँ तक सोमू ने समझा है और दादी ने जो कुछ पापा को बताया है उसके अनुसार वास्तव में चाचा को पापा-मम्मी की सफलता से चिढ़ होने लगी थी। उन्हें पापा-मम्मी की शक्ल देखकर या उनकी उपस्थिति से अपनी असफलता का आभास ज्यादा होता था।

बाद में मम्मी-पापा के साथ सोमू इस फ्लैट में आ गया। यह घर दादी के घर से काफी दूर था इसलिए अब सोमू का रोज दादी के घर जाना नहीं हो पाता है हालांकि उसे उस घर की याद जरूर आती थी लेकिन अब उसे यहीं मन लगाना था। कुल मिलाकर सोमू ने फ्लैट में आकर राहत की साँस ली थी। शाम को काॅलोनी के छोटे-छोटे बच्चे पार्क में खेलते। कुछ बच्चे साइकिल चलाते और कुछ दौड़ भाग करते। सोमू अक्सर अपनी बालकनी में दूध का गिलास लेकर खड़ा हो जाता और बच्चों को खेलते देखता। जब तक नवीं कक्षा में था शाम को बालकनी में खड़े होकर मम्मी- डैडी का इंतजार करना उसे बहुत अच्छा लगता था लेकिन जब से वह दसवीं में आया है शाम की ट्यूशन की वजह से वह उनका इंतजार नहीं कर पाता। मम्मी-पापा के आने के बाद ही वह लौटता है।

नीचे के फ्लैट में रहने वाली अंशिका को पहली बार सौमित्र ने एक बर्थ डे पार्टी में देखा था। अनुज अंकल के बेटे की पहली बर्थ डे थी। उन्होंने बहुत बड़ा टेडीबियर के आकार का केक मँगवाया था। कालोनी के पार्क को झिलमिलाती रोशनी की झालरों से सजाया गया था। बहुत बड़ा सा गुब्बारा जिस पर ‘हैपी बर्थ डे टू उमंग’ लिखा था, बहुत दूर से देखा जा सकता था। अंकल की उस पार्टी में बच्चों के लिए बहुत से झूले भी थे। उमंग की बुआ की बेटी थी अंशिका। उमंग खुद तो केक काट नहीं सकता था इसलिए अंशिका ने उसे गोदी में लेकर उससे केट कटवाया था। अंशिका ने बहुत प्यारा लंहगा सूट पहन रखा था जो उसके गोरे रंग पर खूब खिल रहा था। अंशिका के बाल कमर तक लम्बे थे और उसने उन्हें खुला छोड़ा हुआ था। हर कोई अंशिका की तारीफ कर रहा था और अंशी मुस्कुरा-मुस्कुरा कर सबको नमस्ते या हैलो कर रही थी। फिर अंशिका से दूसरी मुलाकात तीन महीने बाद कालोनी के पार्क में हुई जहाँ वह उमंग के साथ खेल रही थी। सौमित्र ने अंशिका से बात करनी चाही लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। सोमू को बहुत बुरा लगा कि यह लड़की अपने को समझती क्या है ?

डाॅ0 अमिता दुबे (शब्द संख्या-1516)