निगोड़ी
रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी|
उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों पर अपने शोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप की रोगिणी के रूप में कराया गया था|
मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में|
अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते|
स्मृति के बाहर वह स्वेच्छा से निकली थी| शीतलताई की खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था|
क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी|
(१)
“किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने|
“कैसे? किससे?” वह हक-बकायी थी|
किरणमयी रूपकान्ति की बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथ बेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले|
“मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलाल तनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था|
“मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जो अभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था|
“वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था|
“बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी|
जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था|
“उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| और दामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहता था|
“उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है.....”
“मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी.....”
“देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्ति ने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे|
(२)
“जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था|
रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी|
कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी|
चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखें विशाल तथा और चमकीली हो आयी थीं| नाक और नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित|
सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी|
“मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी|
जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा|
रूपकान्ति अभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापा जोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थीं और सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है.....’
“यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था|
“नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी|
“काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझे इस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?”
“जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था|
“मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी|
“बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयी डहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तो उसने आपत्ति जतलायी थी, मुझे इस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घर में एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की दूसरी गाय है| या फिर तीसरी भैंस| या फिर तुम्हारे मछली-कुण्ड की तीसवीं मछली| या फिर तुम्हारे चिड़िया खाने की चालीसवीं चिखौनी| इसे इसके साथ कस्बापुर से लिवा लायी गयी इसकी टहलिन पालेगी| तुम हमेशा की तरह मग्न रहना| अपना रेडियो सुनना| रिकॉर्ड बजाना| किताब पढ़ना| पत्रिका देखना.....
“बक मत, क्षोभ व क्रोध के बीच भूल रही रूपकान्ति, दोबारा गरज ली थी,” सच बोल| अपना पाप बिसाते समय उस पातकी ने तुम्हें क्या लोभ दिया था? जो तुम्हें उसका पाप-कर्म मेरे हड़के से ज्यादा गवारा रहा.....”
“जीजा ने कहा था वह मुझसे शादी करेंगे.....”
“क्या-या-या-या?” एक के बाद एक चिनगारी उसके पेट में छूटी थी और वह बोल पड़ी थी| उसे कै व पेचिश देते हुए| जिस पर फिर विराम लगाया था उसकी मूर्च्छा ने|
मेरा अनुमान है रूपकान्ति पर हमारे मनोचिकित्सकों द्वारा परिभाषित 'जेनरल अडैप्टेशन सिन्ड्रोम’, व्यापक अनुकूलन संलक्षण, का वही पहला आक्रमण था| और उसी के बाद में ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से उपजे मनोविकार का रूप ले लेना था| तीन चिन्हित चरणों समेत|
सिन्ड्रोम के पहले चरण में रोगी रूपकान्ति ही की भांति अलार्म, संत्रास, की ‘फाइट और फ्लाइट’ (लड़ो या भागो) वाली अवस्था से दूसरे चरण, रिसिस्टेन्स, प्रतिरोध से होते हुए तीसरे चरण, एग्ज़ीस्शन, निःशेषण पर जो ‘रेस्ट एन्ड डाएजेस्ट’ (विराम तथा पाचन) की अवस्था है| जिसके अन्तर्गत आक्रान्त व्यक्ति की चेतना के लोप हो जाने की सम्भावना प्रबल रहा करती है| बेशक अस्थायी रूप ही में| ताकि चेतना के लौटने पर उसका शक्ति संतुलन पुनः स्थापित हो सके|
(३)
चेत में आने पर रूपकान्ति ने हिम्मत बटोरी थी और पिता के नाम पर ‘अरजेन्ट कॉल’ बुक करवा दी थी| उस समय एस.टी.डी. न तो उसके अपने बस्तीपुर ही में उपलब्ध रहा था और न ही पिता के कस्बापुर में, मोबाइल तो दूर की बात थी|
बेटी का टेलीफोन पाते ही सेठ सुमेरनाथ ने अपनी मोटर निकलवायी थी और ड्राइवर के साथ बस्तीपुर पहुँच लिए थे|
कुन्दनलाल भी कान में रुई नहीं डाले था| अवसर मिलते ही ससुर के पैरों पर जा गिरा था|
“आप मुझे जो भी दंड देंगे मैं काट लूँगा| किन्तु दंड देने से पहले मेरी बात ज़रूर सुन लीजिए| सन्तान की इच्छा-पूर्ति के लिए किसी दूसरी स्त्री के पास जाने की बजाए मैं किरणमयी के पास इसलिए गया था क्योंकि वह आपके परिवार से थी| हमारी सजातीया थी| सवर्ण थी| और फिर जब रूपकान्ति ही ने उसे अपनी बेटी कभी नहीं माना था तो मेरे लिए भी बेटी कभी नहीं रही थी| केवल रूपकान्ति की बहन थी, आपकी भांजी थी.....”
“किरणमयी से पूरी बात मैं पहले पा लूँ फिर मैं देखता हूँ मुझे क्या करना होगा,” सेठ सुमेरनाथ जान रहे थे दामाद ढोंग बाँध रखे था किन्तु वह भी टाप मारना जानते थे| सांप-छछूंदर की उस दशा से बेटी को बाहर निकालने के लिए किरणमयी को अपने साथ कस्बापुर लौटा ले जाने का मनसूबा बाँध चुके थे| दामाद को पापमुक्त करना तो असम्भव था ही, लेकिन साथ ही उसे अपने हत्थे पर टिकाए रखना भी अनिवार्य था|
“यह बलानसीब आपसे एक वादा चाहता है,” कुन्दनलाल ने ससुर के पैर छोड़े नहीं थे, “मेरी सन्तान को आप सुरक्षित रखेंगे| उसे आप मुझ तक पहुँचने ज़रूर देंगे| बाकी किरणमयी आपकी है| आप उसे कहीं भी रखिए, कहीं भी ब्याहिए, मुझे कोई रोष नहीं| मैं वादा करता हूँ उससे अब मेरा कोई लेना-देना नहीं रहेगा.....”
“ईश्वर से प्रार्थना करो, वह हमें मार्ग दिखाए,” सेठ सुमेरनाथ दामाद को असमंजस की स्थिति में अड़ा-फँसा कर जाना चाहते थे, “हम मानुष-जात का दशा-फल उसके हाथ में है, हमारे हाथ में नहीं.....”
“पाप की गठरी साथ ले जाएंगे?” रूपकान्ति ने पिता को विदा देते समय आश्वासन चाहा था, “उसे भाड़ में झोंकेंगे नहीं?”
“तुम निश्चिन्त रहो,” सेठ सुमेरनाथ ने बेटी के सिर पर हाथ फेरा था, “दांव ताकती रहो| दांव लेना मैं जानता हूँ| समय आने पर दोनों को ठिकाने लगा दिया जाएगा| उस पापिन को उसके गर्भ समेत तथा इस दुष्ट को इधर ही ऐसा सबक दिया जाएगा कि यह दांतों ज़मीन पकड़ने पर मजबूर हो जाएगा.....”
(४)
सेठ सुमेरनाथ का दंड-विधान चौथे महीने प्रकाश में आया|
दुधारा|
पहली धार पर रखी गयी किरणमयी तथा दूसरी पर बाँधा गया कुन्दनलाल|
कस्बापुर से अपनी मोटर में साथ लायी एक नयी बच्ची को कुन्दनलाल की गोद में उतारते समय बोल दिए, इसे जन्म देते समय किरणमयी जान से गुज़र गयी|
झूठ को सच बनाते हुए|
सच उन्होंने बेटी के सामने खोला|
अपनी जेब से एक फोटो और एक डेथ सर्टिफिकेट रूपकान्ति के सामने रखते हुए|
फोटो किरणमयी के शव की थी| उन्नत गर्भाधान की अवस्था में|
सर्टिफिकेट नौ दिन पहले की तिथि में था| कस्बापुर की एक निजी डॉक्टर का, जिसमें मृतका व उसके गर्भ के विवरण दर्ज थे|
मृतका की आयु, लगभग सोलह वर्ष|
गर्भ की आयु, आठ महीना, चार दिन|
दोनों की मृत्यु का कारण पीलिया बताया गया था|
“हम बाप-बेटी को जश्न मनाना चाहिए,” सेठ सुमेरनाथ ने अपने विजय-भाव में बेटी की साझेदारी मांगी थी,” अब की बार कुन्दनलाल ने दूसरी यारी गांठी तो उसको गरदन नापने में किरणमयी वाली तस्वीर और सर्टिफिकेट कारामद रहेंगे.....
(५)
उत्तरवर्ती दिन नयी झांकी लाए थे|
पिता का दरजा पाते ही कुन्दनलाल उसी एक कोली पर सवार हो लिया था|
उसी केन्द्र-बिन्दु पर स्थापित|
कहाँ वह घर से बाहर निकलने के लिए हरदम आतुर रहा करता था और कहाँ अब वह सिनेमा-घर तक जाने की बात पर भी किसी हीले-हवाले से आगे-पीछे हो लिया करता था|
यह जानने में रूपकान्ति को अधिक समय न लगा था कि भाजन केवल वह नयी बच्ची ही नहीं थी, बल्कि उसकी नयी टहलिन पंखी भी थी| बीस-वर्षीया| मांसल कुंवारी| और जिसे कुन्दनलाल अपने पुराने पड़ोस से बच्ची की टहल व सम्भाल के नाम पर इधर लिवा लाया था|
रूपकान्ति जान गयी थी कि बच्ची की चें-चें, ठिन-ठिन व पिन-पिन तथा कुन्दनलाल के हुंकारे के बीच पंखी अपनी तुरही भी बजाने लगी थी|
पंखी के दिखाव-बनाव व नखरे-तिल्ले में भी नित नए चुनन जुड़ते जा रहे थे| चुनौतीपूर्ण|
रूपकान्ति को क्रोध व अवसाद, हताशा व विपण्णता, एकांकीपन व प्रत्याहार के बीच डूबते-उतारते हुए|
उसकी सत्ता को सेंध लगाते हुए|
उसे बारम्बार कै-पेचिश देते हुए| मूर्च्छावस्था में पहुँचाते हुए|
यत्रतत्रिक|
कभी अनियमित रूप से तो कभी उत्तरोत्तर|
‘जेनरल अडैप्टेशन सिन्ड्रोम’ के अन्तर्गत|
भंग हो रहे अनुशासन को वापिस लीक पर लाने का काम फिर सेठ सुमेरनाथ की सुपुर्दगी में लाया गया था|
लेकिन इस बार न उनके साधन काम आए थे, न साध्य|
कुन्दनलाल के सामने उस नयी बच्ची का सच जब खोला भी गया था तो हचका खाने की बजाए वह बाप-बेटी को हचका खिला गया था|
निमिष मात्र के लिए भी विचलित न हुआ था|
बोला, “आप जब चाहें उस बच्ची को वहीं पहुँचा सकते हैं जहाँ से आप उसे लाए थे| मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला| पंखी गर्भ धारण कर चुकी है और पिता बनने की मेरी साध पूरी होने वाली है| इस बार न तो पंखी आपकी कोई ज़िम्मेदारी है और न ही किरणमयी जैसी नादान जो आप उसे कुछ फुसला-बुझा सकें.....”
“और उस बार जो तुमने जाति-वाति की बात बनायी थी, वर्ण-विवर्ण का वास्ता दिया था, वह क्या था? दोमुंहापन?” सेठ सुमेरनाथ आपे से बाहर हो लिए थे और उनका हाथ कुन्दनलाल के चेहरे की ओर बढ़ लिया था| उसे तमाचा जड़ने के इरादे से|
“दोमुंहा मैं नहीं, आप हैं,” कुन्दनलाल ने ससुर का हाथ बीच ही में रोक दिया था- बिना किसी हिचर-मिचर के- “मुझसे बात मुंह-देखे ही करते हैं और बेटी से मुंह जोड़कर कुछ और ही बोल जाते हैं.....”
“मुंह संभाल अपना,” सेठ सुमेरनाथ ने लाल आँखें दिखायी थीं, धमकी दी थी, "तू जानता है मैं इसी पल तुम्हें इस हवेली से बाहर कर सकता हूँ, अपने सिनेमा-घर से अलग कर सकता हूँ, अपनी बेटी से तुम्हें, तलाक दिलवा सकता हूँ.....”
“नहीं चाहिए फटीचर वह सिनेमाघर मुझे,” कुन्दनलाल ने भी लाल-पीली आँखें निकाल ली थीं, “नहीं चाहिए मनहूस निपूती यह हवेली मुझे| नहीं चाहिए बेडौल यह बाँझ कुबड़ी मुझे|”
“निकल यहाँ से,” सेठ सुमेरनाथ चिल्लाए थे, “बहुतेरी बुरी कर ली तुमने| बहुतेरा पाप चढ़ाया तूने| बहुतेरा बुरा-भला किया और करवाया तूने| अब और नहीं| एक शब्द और नहीं| एक सांस और नहीं|
“जा रहा हूँ,” कुन्दनलाल हंसा था और चल दिया था|
उसकी हंसी ने रूपकान्ति पर एक अगिन गोले का काम किया था|
और बताना न होगा यही वह पल था जब रूपकान्ति ने स्मृति से बाहर आने का निर्णय लिया था|
जो कूबड़ उसके मांगे का न था, जो कूबड़ कष्टकर था, फिर भी जिसके साथ रहने के लिए रूपकान्ति में समांतराली धैर्य की जो एक ज़मीन तैयार कर रखी थी वह जमीन उसने उसी पल खिसक जाने दी थी|
एक कै की थी और मूर्च्छा ओढ़ ली थी|
(६)
पिता उसे अपने साथ कस्बापुर लिवा लाए थे|
अपनी चिड़ियों, मछलियों, किताबों, रिकार्डों व फिल्मों की ओर अब उससे देखे न बनता था|
तुच्छ अनुकल्प थे वे.....
मात्र आडम्बर.....
अपर्याप्त निरूपण.....
सतही दिलासे.....
भव्य अनुकल्प तो पातकी उस कुन्दनलाल ने चुना था.....
मानुष जात की बानगी लिए जीती-जागती हाड़-मांस की स्पन्दमान अपनी प्रतिकृति.....
एकल अपनी इकाई को गुणा करने की धुन में.....
एक ही झटके में सारे जवाब-सवाल जिसने खत्म कर दिए थे और रूपकान्ति के शेषांश को शून्य के तल पर ले आया था|
ऐसे में रूपकान्ति को अपना आपा खो देने में ही अपना गौरव नजर आया था और वह अपने बाकी दिन अस्पताल में गुज़ार लेने के लिए तैयार हो गयी थी|
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