गोधूलि - 3 Priyamvad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गोधूलि - 3

गोधूलि

(3)

जिस दिन वह गांव में आता सारे जानवर इकट्‌ठा किए जाते थे। उत्साह होता था। जानवर उसे पहचानते थे। भागते थे, पर पकड़ लिए जाते थे। घोड़े, सुअर, मुर्गे, बकरों के अंडकोश से राजाओं की दावतें होती थीं। इन्सान ने अपने सुख के लिए दूसरों के अंडकोशों तक का इस्तेमाल किया है। उन्होंने बताया कि इस जानवर के अंडकोश से औरतों के लायक हमेशा बने रहने की दवा बनती है। बाजार मे उसकी लाखें रूपए की कीमत है। पता नहीं कैसे, पर यह बात यह जानवर जानता है। जैसे ही किसी शिकारी को देखता है, पूरी ताकत से भागता है। कुछ देर तक तो बहुत तेज, बहुत दूर भाग लेता है फिर थक जाता है। शिकारियों से बचने के लिए यह खुद ही अपने अंडकोश निकाल कर फेंक देता है। शिकारी उसका पीछा छोड़ देते हैं। कुछ देर चुप रहने के बाद भय्यन बोले थे ‘मैं सोचता था आत्मा नहीं होती, पर एक इन्सान की शापित या हारी हुयी आत्मा उसे पूरा जीवन इसी तरह दौड़ाती है। इसलिए अच्छा है कि वही करो जो यह जानवर करता है। अंडकोश की तरह आत्मा को काट कर फेंक दो। फिर जीवन में कोई डर नहीं रहता‘। वह जानवर उन्हें यही याद दिलाता रहता था। बाद में उन्होंने यही किया भी। एक सुबह मैं चाय लेकर गया। देर तक कमरे का दरवाजा नहीं खुला। कमरे की एक चाभी मैं रखता था। अंदर गया, तो भय्यन पलंग पर खून से लथपथ नंगे लेटे थे। पास में इंजेक्शन, ब्लेड और कटे हुए अंडकोश पड़े थे। सिरहाने मेन्डोलिन रखा था। बिटानी और तुम्हारी तस्वीर भी‘‘ आका बाबा चुप हो गए थे। बहुत देर तक चुप रहे थे। उनकी गोद में राख का कलश था। उसके चमकते ताँबे की नक्काशी पर उनकी उँगलियां घूम रहीं थीं। कुछ देर बाद फिर बोले '' भय्यन बुरे नहीं थे। वह ऐसे क्यों हो गए, कोई नहीं समझ सका। सब सोचते हैं उनकी माँ अचानक धोखे से मरीं। पर ऐसा नहीं था। भय्यन ही उनकी मौत का कारण थे। उन दिनों शहर में गोगिया पाशा आया हुआ था। उसके जादू का शोर मचा था। भय्यन स्कूल से लौटे थे। खाना छोड़ कर जादू देखने की जिद पकड़े हुए थे। माँ ने कहा, अगर वह खाना खा लें, तो वह गोगिया से अच्छा जादू दिखा सकती है। भय्यन ने खाना खा लिया। उस दोपहर बहुत तेज धूप थी। लू भी चल रही थी। कुँओं में पानी बहुत नीचे चला गया था। गोगिया जैसा अंधेरा करने के लिए माँ ने बत्तियाँ बंद कर दीं। खिड़कियों के मोटे पर्दे खींच दिए। दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। उनके बाल घुटनों तक आते थे। कोने की उस नीली रोशनी में, खुले बालों से ढके चेहरे को डरावना बना कर डायन की तरह झूमने लगीं। भय्यन ताली बजा कर हँसने लगे। माँ ने हवा से दस पैसे का सिक्का निकालने का दावा किया। भय्यन को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने भय्यन को अपनी दोनों खाली हथेलियाँ दिखायीं। वे बिल्कुल खाली थीं। पर इससे पहले वह दस पैसे के तीन सिक्के मुँह में रख चुकी थीं। उस समय दस पैसे का सिक्का बड़ा और भारी होता था। उसकी गोलाई खाँचों मे कटी होती थी... चक्र की तरह। भय्यन को सामने बैठा कर उन्होंने हवा में खाली हथेलियाँ लहरायीं फिर एक हथेली अपने गले पर रख ली। गला उठा कर हाथ धीरे धीरे ऊपर ले जाते हुए, होठों तक ला कर उन्हें सिक्के हथेली पर गिरा देने थे। पर उनकी गर्दन थोड़ी ज्यादा उठ गयी। एक सिक्का खिसक कर सांस की नली में चला गया। वह चीखीं और मछली की तरह जमीन पर तड़पने लगीं। मरते हुए, दर्द से फटी आँखों से उन्होंने हँसते हुए भय्यन को देखा फिर मर गयीं। भय्यन ने इसे भी जादू का हिस्सा समझा। गोगिया के जादू में जैसे होता था, भय्यन को लगा माँ अभी उठेगी, हँसेगी और हवा से दस पैसे का सिक्का निकालेगी। जब ज्यादा देर हो गयी, तब भय्यन ने उन्हें हिलाया। वह मर चुकी थीं‘‘। आका बाबा ने साँस ली और चुप हो गए। सूखी, भूरी, कत्थई, पीली, नसों वाली पत्तियों के बीच पड़े एक काले जूते को घूरते रहे। फिर कुछ देर बाद बोले ‘‘भय्यन को जीवन भर विश्वास नहीं हुआ कि जादू दिखाते हुए उनकी माँ मर गयी। वह बचने के लिए जब दरवाजे की तरफ भाग रहीं थीं, भय्यन ने उनके पैर पकड़ लिए थे। उन्हें पूरी ताकत से मौत की तरफ खींच लिया था। उस दोपहर को वह जीवन में कभी नहीं भूले। उन्हें विश्वास था कि मौत अचानक नहीं हुयी थी। आकारण नहीं हुयी थी। कोई था जिसने सब पहले से रच रखा था। वही, जो उस समय भी उन्हें और माँ, दोनाें को देख रहा था। यह वही था, जिसकी ताकत में सब कुछ है। पूरी दुनिया, ब्रह्‌मांड, सबके जीवन—मृत्यु। वह शैतान था। वर्ना कोई कारण नहीं था कि वह गोगिया पाशा का जादू देखने की जिद करते.....इसका भी नहीं, कि माँ जादू के लिए वह दस पैसे का सिक्का चुनतीं, और इसका तो बिल्कुल भी नहीं, कि सिक्का सांस की नली में चला जाता। जिस रात भय्यन माँ के बगैर सोए, उन्हें अच्छाई पर, नैतिकता पर, पुण्य पर और ईश्वर पर भी, पहली बार संदेह हुआ। अगर ये सब थे, तो माँ को मरने से बचा लेते। पर इनमें से कोई उसे नहीं बचा पाया। जब वह फर्श पर मछली की तरह तड़प रहीं थीं, भय्यन हँस रहे थे। जब वह दरवाजे की तरफ भागीं, भय्यन ने उन्हें पकड़ लिया। अगर ये सब होते तो भय्यन की उंगलियों को तोड़ देते। पर जो हुआ, उसकी ही ताकत असली थी। वही जीती। वही हुआ जो वह चाहती थी, और वह शैतान की ताकत थी। बुराई की थी, पाप की थी, मौत की थी। उस दोपहर, कमरे के अंधेरे में, हर ओर उसका ही नंगा नाच था। उसका ही साम्राज्य था। भय्यन के साथ वह भी तालियाँ बजा रहा था। हँस रहा था। भय्यन का भाग्य लिख रहा था। ईश्वर कहीं दुबका था। नैतिकताएं कहीं लिथड़ रही थीं। धर्म और पुण्य मकड़ी के जाल में फँसे कीड़े की तरह बेबस झूल रहे थे। उस दोपहर के काले जादू ने, उनके सामने एक दूसरे जीवन के सारे रहस्य, सारे दरवाजे खोल दिए। कुछ नए सच नंगे करके सामने रख दिए थे, जो घने बालों वाले, छाती पीटते गुरिल्लों से भी भयानक थे। बिना ज्यादा सोचे, बिना कुछ समझे भय्यन शैतान की गोद में चले गए। उसने भय्यन का फिर कभी अपने से अलग नहीं होने दिया‘‘। आका बाबा चुप हो गए। कुछ देर बाद फिर बोले ‘‘बाबू ने उन्हें अपने से दूर भेज दिया। भय्यन देश के सबसे बड़े स्कूल में पढ़े। वहीं घुड़सवारी सीखी, मेन्ड़ोलिन बजाना सीखा, तैरना सीखा, अंगे्रजी नाच, तौर तरीके सीखे। ढे़र सारी किताबें पढ़ीं। पहाड़ों के बीच, नीली झील के किनारे स्कूल था। छुटि्‌टयाँ होने पर मैं उन्हें लेने जाता था। घर आने पर भय्यन चुपचाप कमरे मे बैठे कुछ पढ़ते रहते। बाजा बजाते। माँ के कमरे में कभी नहीं जाते। बाबू से उनकी बातें बहुत कम होती थीं। बाद में उन्होंने घर आना भी कम कर दिया। मैं जाता तो मुझे अपने पास ही रोक लेते। शुरू में बाबू के बारे मे पूछते भी थे। बाद में पूछना भी छोड़ दिया था। बाबू ने उस दोपहर के बारे में कभी उनसे एक शब्द नही कहा। फिर भी भय्यन उनसे आँख चुराते रहे। स्कूल की पढ़ाई खत्म होने के बाद बाबू चाहते थे कि भय्यन उनके साथ रहें। उनका इतना बड़ा काम देखें, समझें, सम्हालें। सब भय्यन का ही था। उन्होंने मुझसे भय्यन को समझाने को कहा। अगली बार मैं गया, तो झील पर, नाव में घूमते हुए मैंने भय्यन से बातें कीं। ‘बाबू अब थकने लगे हैं‘ मैंने कहा। वह मुझे चुपचाप देखते रहे। ‘अकेले पड़ रहें हैं। चाहते हैं तुम उनके साथ रहो। सब देखो... सम्हालो। एक दिन तो करना ही होगा‘। भय्यन कुछ नही बोले। चप्पू की आवाज आ रही थी। उससे उछलतीं बूँदों को देखते रहे। मैंने फिर कुछ नही कहा'' आका बाबा थक गए थे। जेब से कपड़ा निकाल कर उन्होंने होठों के किनारों के थूक को साफ किया। कपड़ा वापस रख कर सर झुका लिया। उनका झुका हुआ सर छाती तक आ गया... जैसे ऊँघने लगे हों। कुछ देर बाद उन्हाेंने झटके से सर उठाया। चौंक कर चारों ओर देखा। मुझे देखा, फिर बोलने लगे ‘‘बीस साल की उमर में मैंने बीच चौराहे पर अपने शहर के सबसे बड़े गुंडे का सर गंड़ासे से उड़ा दिया था। जेल की कोठरी में सलाखों से गिरती चाँदनी वाली वह रात मैं कभी नही भूला। तुम्हारे दादा मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझसे पुछा था कि मैं तुम्हें अगर जिन्दगी वापस दूँ, तुम मुझे क्या दोगे? मैंने कहा था ‘यही ज़िन्दगी। यह आपकी रहेगी मेरी नही‘। उन्होंने मुझे छुड़ा लिया था। मैं हमेशा साए की तरह उनके साथ रहा। मरते समय उन्होंने मुझसे वचन लिया था कि कभी भय्यन को कोई दुख नहीं होने दूंगा। उन्हें कभी छोड़़ूगां नहीं। मैंने यही किया। भय्यन से कभी अलग नहीं हुआ। बिटानी के घर छोड़ने के बाद भय्यन मुर्शिदाबाद की एक पतुरिया के पास जाने लगे थे। जब जाते गाड़ी की डिग्गी में नोटों से भरे सूटकेस ले जाते। दुनिया में सब अपना स्वार्थ समझते हैं, पर औरत से ज्यादा साफ तरीके से दूसरा कोई नही समझता। सब अपने स्वार्थ के लिए लड़ते हैं पर औरत से ज्यादा छल छद्‌म से कोई दूसरा नहीं लड़ता। इसीलिए वह अपने स्वार्थ की लड़ाई कभी नही हारती। कोई भी औरत, चाहे, तो सिर्फ दो हथियारों से दुनिया जीत सकती है। झूठ और अपना शरीर। उस औरत ने इन दोनों से भय्यन का पैसा, शरीर सब सोख लिया था। जैसे नागिन धरती से चिपक कर चलती है, अपनी हर नस से मिट्‌टी को छूती रहती है, उसी तरह वह भय्यन से चिपक गयी थी। उनकी हर सांस, सुधबुध को डस रही थी। भय्यन के पास सब खत्म हो गया। एक दिन वह खाली हाथ उसके घर गए। मैं नीचे गाड़ी में बैठा था। कुछ देर बाद ही भय्यन लौट आए। उनके कपड़े फटे थे। माथे से खून बह रहा था।आकर चुपचाप बैठ गए। कुछ देर बाद उन्होंने मुझे देखा। इस तरह उन्होंने सिर्फ माँ की चिता जलते समय मुझे देखा था। मैं गाड़ी से उतरा। डिग्गी से तलवार निकाली। ऊपर गया। नशे मे झूमती वह औरत कमरे मे नंगी खड़ी होकर पेशाब कर रही थी। उसकी टाँगाें से चिपक कर बहता हुआ पेशाब पलंग के पास गिरी भय्यन की खून की बूँदों को छू रहा था। मैंने उस पेशाब करती औरत के उसी जगह तीन टुकड़े कर दिए‘‘। आका बाबा ने एक हाथ मेरी हथेली पर रखा ''सारी बुराइयों के बाद भी मैं भय्यन के साथ रहा, बिटानी के नहीं। मैने वचन दिया था‘‘ उन्होंने अपनी हथेली हटा कर फिर कलश पर रख ली ‘‘जब मैं बिटानी से मिलने आता, वह भय्यन के बारे में एक शब्द नहीं पूछती थी। उसने उनसे कभी कुछ लिया भी नही। बस, तुम नेक आदमी बनो। पढ़ो, लिखो यह उसका प्रण था। आखिरी समय में वह इस बात से सुखी थी कि जैसा वह चाहती थी, तुम्हारे अंदर भय्यन का कोई अंश नही आया। बिटानी की चिता जलने के बाद लौट कर मैंने भय्यन को उसकी मौत के बारे मे बताया था। वह कुछ नहीं बोले थे। पर बाद में, उस रात, मुझे नींद से उठा कर कहा था, कि जब वह मरें तो उनकी राख मैं तुम्हें दे दूँ। तुम ठीक समझो तो अपनी माँ की राख के साथ मिला देना...वर्ना जैसा तुम चाहो‘‘ आका बाबा ने गोद का कलश मेरे हाथों में दे दिया था। ‘‘मुझे रोकना मत'' उन्होंने धीरे से कहा

‘‘कहाँ जाएगें''?

‘‘सोचा नहीं। जिन्दगी में हर बार लगता रहा कि बहुत कुछ बदल जाएगा। पर कुछ नही बदला। सब वैसे ही चलता रहा। अभी भी सब ऐसे ही चलेगा। सब अपनी अपनी मजबूरियों में डूब जाएगें। कोई नफरत की, कोई डाह की, कोई इच्छाओं की। मैं भी वापस अपने उस जीवन में लौट जाऊँगा, जो आज तक मेरा नहीं था। पर अब होगा। मैं भी डूबूँगा, पर मजबूरियों में नहीं। गहरे संतोष और शांति में, कि किसी को दुख नहीं दिया। किसी का सुख नही छीना। किसी को धोखा नहीं दिया। हमेशा ईमानदार रहा, जब जैसा समझा। मैंने भय्यन को राख होने तक नहीं छोड़ा‘‘ वह उठ गए। सर झुकाया ,मेरी तरफ पीठ की और चुपचाप सूखी पत्तियों पर पाँव रखते हुए चले गए।

उनके जाने के बाद मैं देर तक बैठा रहा। सामने टूटी पत्तियों पर कोई पाँव रखता तो उनकी नसें चिटकतीं। नसों के चिटकने से एक गंध निकलती। वह गंध मेरे चारों ओर मँडरा रही थी। आई एम दाय फादर्स स्पिरिट ..कोई फुसफसाया था। कोई था। कोई पेड़ के तने के पीछे था... कोई ऊपर शाखों में छुपा था... कोई सूखी पत्तियों की टूटती नसों की गंध में था, कोई परिंदाें की फड़फड़ाहट में था, धूप से छिटक कर गिरती स्लेटी छाँह में था। कौन है, कौन? मैंने पूछा था। ‘आई एम दाय फादर्स स्पिरिट' किसी ने उत्तर दिया था।

कलश ले कर मैं घर आया था। मैंने उसे माँ के कलश के पास रख दिया था। पर कुछ देर गहरी बेचैनी के बाद, मैंने उसे माँ के कलश से दूर दूसरे कमरे की अलमारी में रख दिया था।

माँ के साथ घर छोड़ने से पहले वाली रात मुझे हमेशा याद रही। वह साल की आखरी रात थी। हम लॉन की आग के चारों ओर कुर्सियों पर बैठे थे। पिता, माँ और मैं। पिता से थोड़ा पीछे, कुर्सीेेेेे पर आका बाबा थे। मेज पर उबली मटर और कुकुरमुत्ते के साथ भुनी हुयी मछली रखी थी। पिता रेमी मार्टिन की कोन्याक पी रहे थे। घड़ी की सुइयाँ मिलने का समय पास आ गया था। इसी के साथ रात, नए साल के पहले दिन में उतर जाती थी। यही माँ का जन्म दिन भी था। इसलिए हमेशा इस रात उत्सव मनाया जाता था।

आग के पास होने पर भी मुझे सर्दी लग रही थी। कुर्सी से उठ कर मैं माँ से चिपक गया। उसने मुझे देखा। वह समझ गयी। अपनी शाल के अंदर लपेट कर उसने मुझे चिपका लिया। मेरा माथा सूँघा फिर प्यार से बोली।

‘‘ मेरे बेटे के बदन से पके हुए दूध की गंध आ रही है। यह देवताओं कि तरह पवित्र है ‘‘। कोन्याक पीते हुए पिता लकड़ी से उछलती चिंगारियों को देख रहे थे। कुछ क्षण बाद ठंडी आवाज मे बोले ‘‘कोई देवता कभी पवित्र नहीं रहा। वैसे भी पवित्रता हमेशा दुख देती है। इसे सुखी देखना चाहती हो, तो इसे पाप करना सिखाओ। शैतान हमेशा हँसता है, ईश्वर कभी नही‘‘।

मै माँ से और चिपक गया। कोन्याक का गिलास खाली हो गया था। जिस हथेली में पिता उसे पकड़े थे, उसी हथेली की उंगली से माँ कि तरफ इशारा करते हुए बोले ‘‘मुझे सबसे ज्यादा चिंता तुम्हारी तरफ से है। तुम इसे वह सब सिखाओगी, जो इसे जीवन भर दुख देगा''

‘‘जैसे''? कुछ क्षण बाद माँ ने पूछा था। माँ को आवाज की तल्खी और तेजी को मैंने महसूस किया था। आका बाबा ने भी। वह कुर्सी से उठ गए। पिता के हाथ से उन्हाेंने पतला, छोटा गिलास ले लिया।

‘‘भय्यन ...छोड़ो अब...जरूरी नहीं है कि बारह बजे तक जागा जाए। वैसे भी आग बुझने वाली है। ठंड भी बढ़ रही है‘‘ उन्होंने पिता के कंधे पर रखे शाल को ठीक किया।

‘‘चलो बिटानी अंदर चलते हैं'' उन्होंने माँ से कहा।

‘‘नहीं अक्का... इनका गिलास पूरा भर दो, फिर तुम भी सुनो और इनका बेटा भी‘‘, लपट के पार उन्होंने पिता को देखा ‘‘तो... जैसे''? बात जहाँ छूटी थी, वहाँ से फिर उठायी उन्होंने। आँच में उनका चेहरा चमक रहा था। उनकी इतनी ठंडी, ठहरी आवाज मैंने पहली बार सुनी थी।