गोधूलि - 2 Priyamvad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गोधूलि - 2

गोधूलि

(2)

फिर तीन साल के लिए मैं दूसरे शहर चला गया। उससे कोई सम्पर्क नहीं रहा। लौटा, तो उसी तरह, रात शुरू होने के पहले होटल डी. कश्मीर चला गया। बारिश हो कर चुकी थी। मिट्‌टी से गंध उठ रही थी। क्यारियों में सफेद नारंगी हरसिंगार टूटे थे। ऊपर अंधेरा था। सन्नाटा भी । पाँचों कमरों में जाने वाली दूब की पगडंडी पानी में डूबी थी। उस पर नींबू के टूटे फूल और पत्तियाँ तैर रहीं थीं। कमरों वाले हिस्से में अंधेरा था। खिड़कियाँ बंद थीं। दरवाजे बंद थे। मैं थोड़ा और आगे आया। दरवाजे के कांच से अंदर झाँका। अंदर हॉल में सब कुर्सियां खाली थीं। कोने में एक छोटा बल्ब जल रहा था। मैंने दरवाजे पर हाथ रखा। दरवाजा खुला था। मैं अंदर आया। दरवाजा खुलने और पाँवों की आहट सुन कर, अंदर के किसी कमरे का पर्दा हटा कर वह बाहर निकला। एक क्षण मुझे देखा फिर लिपट गया।

‘‘ कब आए''?

‘‘कल...यह सब क्या है''? मैने अपने को छुड़ाते हुए पूछा।

‘‘ बैठो तो‘‘ उसने दरवाजे के कांच से बाहर लॉन की तरफ देखा फिर मुस्कराया ‘‘बाहर गीला है...यहीं बैठते हैं''

उसने एक कुर्सी खींच ली। मै भी एक कुर्सी खींच कर बैठ गया।

‘‘देखो...आज शाम के लिए मैंने बियर की आखरी बोतल बचा कर रखी है। सोचा था जाने के पहले पिऊँगा। क्या खूबसूरत इत्तिफाक है कि तुम आ गए। अब साथ पिएंगे‘‘ ‘‘वह उठा। फ्रिज से उसने बियर निकाली। अल्मारी से दो मग निकाले। उनमें बियर पलटी। थोडी सी बोतल में बच गयी। मग और बियर की बोतल ले कर वह आ गया। सब कुछ मेज पर रख कर वह कुर्सी पर बैठ गया।

‘‘क्या है यह सब''? मैंने फिर पूछा। उसने बियर का घूँट लिया। नक्काशीदार अखरोट की मेज के कोेने पर उखड़ी कील पर कुछ देर उंगली फेरते हुए धीरे धीरे बोलने लगा।

‘‘मेरे ऊपर काफी कर्ज हो गया था। सच तो यह है कि होटल कभी फायदे में चला ही नहीं। फिर भी मैं खींचता रहा। सोचा था कुछ करके कर्ज चुका दूँगा। कुछ नहीं हुआ, तो लॉन की जमीन ही बेच दूँगा। मैं यह कर भी लेता। पर एक दिन अजीब घटना घट गयी। मैं अपने कमरे के दरवाजे से देख रहा था। बिल्ली का एक छोटा बच्चा धूप और गर्मी से बचने के लिए एक कार के नीचे दुबका हुआ था। पास में एक घर की दीवार से सटे पाइप से साबुन का झाग गिर रहा था। ऊपर कोई कपड़े धो रहा होगा। यह झाग पानी के साथ धीरे धीरे चारों ओर फैल रहा था। झाग को देख का वह बच्चा भौचक्का था। झाग के बुलबुले बन रहे थे। फूट रहे थे। झाग एक बड़े जंतु की तरह था जिसकी कोई आकृति नहीं थी। गंध नहीं थी। आवाज नहीं थी। वह चारों दिशाओं में एक साथ सरक रहा था। दुबका हुआ बच्चा भय, हैरत और परेशानी में था। उसके जन्मजात बोध और चेतना में ऐसी कोई चीज नहीं थी। वह कान खड़े करके उसकी आहट, नाक से उसकी गंध पकड़ने की कोशिश कर रहा था। झाग धीरे धीरे उसकी ओर आ रहा था। उसके आगे बढ़ने से डरते हुए, सतर्क हो कर वह धीरे धीरे पीछे हट रहा था। बेचैन और आशंकित पीछे हटते हुए, वह कार से बाहर निकल गया। वह इतना घबराया हुआ था कि समझ ही नहीं पाया कि कब मौत उसके पीछे आ गयी थी। एक झपट्‌टे में खूंखार कुत्ते ने उसे मुँह में दबा लिया‘‘। वह चुप हुआ एक गहरी साँस ली। बियर का एक बड़ा घूँट लिया। फिर बोलने लगा'' मैंने कुत्ते को बहुत पहले देख लिया था। बच्चे को बचा भी सकता था। पर मैंने ऐसा नहीं किया। क्यों, मुझे नहीं पता। शायद मैं देखना चाहता था कि मौत कैसे आती है, कैसे झपटती है। शायद बच्चे की आखरी चीख सुनना चाहता था। तड़प देखना चाहता था। जीवित रहने की ललक और संघर्ष को दम तोड़ते देखना चाहता था। मैने यह सब देखा भी। मुझे हैरानी हुयी कि मै सब शांति के साथ देख गया। मुझे कुछ नहीं हुआ। मेरे अंदर कोई पश्चाताप नहीं था। दुख नहीं था। एक निरपराध, अबोध जीवन की हत्या हो जाने पर मुझे क्रोध नहीं आया। बाद में मुझे समझ मे आया कि वहाँ, उस हरे भरे लॉन में बैठ कर, कबाब और बियर के बीच सुनी, पढ़ी या लिखी गयीं जिन कविताओं में हमने जीवन के सूत्र ढ़ूँढ़े थे, वास्तव मे वे इस तरह मारे जाने के विरूद्ध लिखी गयीं थीं। चुपचाप, मूक हत्या देखने के आन्नद के लिए नहीं। उसी क्षण मैने सोच लिया कि यहाँ से निकलना है। अगर रह गया, तो उस कुत्ते की तरह हो जाऊँगा। अगर नहीं भी हुआ, तो उसी सोच के साथ, वही जिन्दगी जीने लगूँगा। बस...मैने होटल बेच दिया। उन रूपयों से सारे कर्ज चुका दिए। अभी कुछ देर में यह सब छोड़ देना है ‘‘एक साँस ले कर वह चुप हो गया। उसने बियर के कुछ घूँट लिए फिर धीरे धीरे फुसफुसाते हुए बोला'' तुम कभी ध्यान दो। जिंदगी के बड़े फैसले हम अक्सर बिना बहुत सोचे हुए करते हैं। उसी तरह, जिस तरह जिदंगी का एक बड़ा हिस्सा बिना सोचे हुए जीते चले जाते हैं। जो सामने आता है, उसी के अनुसार अपने को बदलने चलते हैं। यह सब इतनी तेज गति से, और इतनी बार होता है कि हम अपने मूल चरित्र, मूल स्वभाव के बारे में सब कुछ भूल जाते हैं। तुम अगर किसी से अचानक पूछ लो कि वह अपने बारे में कुछ बहुत निश्चित बातें बताए, तो वह नहीं बता पाएगा। वह सोचने लगेगा, ढ़ूँढ़ेगा। कितना अजीब है सब? हम अपने बारे में, बिना कुछ जाने, बिना कुछ सोचे, इतना बड़ा जीवन जी लेते हैं ‘‘वह चुप हो गया।

बियर कम थी, इसलिए वह धीरे धीरे पी रहा था। इसलिए भी, कि मैं खत्म कर लूँ तो बोतल की बची बियर मुझे दे दे। मैं चुपचाप घूँट लेता रहा। वह काँच के बाहर देख रहा था। बारिश के बाद आसमान साफ हो गया था। बरगद के पीछे चाँद दिखने लगा था। लॉन के हिस्से पर सफेद रौशनी गिर रही थी। उसने एक झटके से सर घुमाया। मेरी ओर देखा फिर हँसा।

‘‘आज तुमसे कविता सुनाने के लिए नहीं कहूँगा। पर उधार रही‘‘

‘‘कहाँ जाओगे''? मैने पूछा।

‘‘पता नहीं

‘‘मेरे साथ चलो। मै अभी जहाँ चार साल और रहूँगा, वह छोटा, शांत और सुन्दर कस्बा है। पहाड़ाें के बीच, कच्चे पक्के मकानों, नीम, पीपल के पेड़ों और उपजाऊ खेतों वाला है। वहाँ कुछ दिन रहो। सब कुछ नए सिरे से सोचो, फिर जो करना हो करना‘‘।

‘‘नहीं, वहाँ भी जीवन का कोई अर्थ नहीं मिलेगा। यह कहीं और छुपा है। अलीबाबा की गुफा के खजाने की तरह। बस गुफा को खोलने का कोडवर्ड नहीं मिल रहा है। पर कभी, कहीं मिलेगा जरूर। शायद किसी बड़ी लड़ाई में या ईश्वर में या फिर मृत्यु में'' उसने बियर खत्म कर दी। मैंने भी।

‘‘आओ...चलें... इसका मालिक आता होगा‘‘ वह उठ गया। मैं भी। हॉल का दरवाजा खोल कर हम बाहर निकल आए। दूब की पगडंडी, किनारों पर लगी बेले की हैज और पाइन वृक्षों की कतार के नीचे से होते हुए, हम गीली सड़क पर आ गए। उसने मुझे गले लगाया, अलग हुआ फिर होटल और मेरी तरफ पीठ करके चुपचाप, कंधे झुकाए सड़क के एक ओर चला गया।

चाय बन गयी थी। चाय ले कर मैं कमरे में आया। मैंने प्याले मेज पर रख दिए। कुर्सी से टिक कर वह ऊँघ रहा था। मेरी आहट से उसने आँखें खोलीं फिर सीधा हो गया।

‘‘पूछो क्यों आया हूँ?‘‘ प्याले को प्लेट से हटा कर उसने प्याला अपनी तरफ खींच लिया। फिर प्लेट भी। पॉलीथीन के थैले से रबर बैंड हटाया। उसका मुँह खोला। चटनी में भीगे दोनों समोसे प्लेट पर पलटे। इसी तरह फिर मेरा प्याला प्लेट से अलग करके प्याला मेरी तरफ खिसका दिया। अपनी प्लेट से एक समोसा उठा कर मेरी प्लेट पर रखा। प्लेट मेरी तरफ खिसका दी।

‘‘मैंने तुम्हे रास्ते में दो तीन बार देखा...रोकना चाहा, पर यूँ ही... रूक गया। आज सुबह इधर से गुजर रहा था। अचानक याद आया तुम्हारे ऊपर मेरी एक कविता उधार है। पता नहीं क्यों, पर वह कविता, जो तुम अक्सर सुनाते थे.. ‘कौन हो तुम, दिए को आंचल की ओट किए अकेली जा रही हो‘... वही सुनने की तड़प पैदा हुयी, इसीलिए चला आया''

मैं कुछ क्षण चुप रहा। फिर सर झुका कर धीरे से बुदबुदाया।

‘‘कौन सी कविता''? शब्द मेरे होठाें से अलग अलग गिरे।

वही...‘कास के वन में, नदी के सूने तट पर जा कर

मैने उसे पुकार कर पूछा।

कौन हो तुम, दिए को आँचल की ओट किए अकेली जा रही हो

मेरे घर में दीया नहीं जला है।

बाले, अपना दीपक यहाँ रखो‘‘ वह अचानक चुप हो गया।

मैंने सर उठा कर उसे देखा। वह मुझे देख रहा था। उसकी आँखों में उलझन और पश्चाताप के भाव थे।

‘‘मैं सुनाता था‘‘? बड़बड़ाते हुए मैंने पूछा।

उसकी आँखों की चमक धीरे धीरे बुझने लगी। उसने हाथ का प्याला मेज पर रख दिया। आधा खाया समोसा भी। वह सीधा मुझे देख रहा था। उसकी आँखों में जो था मैने पहचान लिया। मेरे होठ सूख गए। उन पर चिपकी पपड़ी पर जीभ फेरी मैंने। पपड़ी का रूखापन मेरी जीभ की नोक से टकराया। वह उठ गया। बिना कुछ बोले उसने फर्श से बैग उठाया। कन्धों और पीठ पर लटकाया। कैमरे का स्टैंड उठाया। कमरे की देहरी पर आ कर रूक गया। मैं भी उठ गया था। मैं उसके पीछे था। दरवाजा खोल कर उसने पाँवों में चप्पल डाली। मेरी तरफ घूमा। उसकी आँखों में वही था जो मरते हुए घोड़ों की आँखों में था। जो सूखी प्रार्थनाओं, करूणा और वसंत में था। गहरी उदासी थी। नैराश्य था। बुझता हुआ आलोक था। कुछ देर वह इन सबसे बाहर निकलने की लड़ाई बिना किसी चीख और तड़प के लड़ता रहा, फिर धीरे से बुदबुदाया।

‘‘तुम्हें शायद किसी ने बताया नही कि तुम्हारा चेहरा बदल गया है'' बिना मेरी ओर देखे वह निकल गया, उसी तरह, जैसे उस रात निकल गया था।

कोहरा खत्म हो गया था। ईश्वरविहीन प्रार्थनाएं और अकारण बनी रहने वाली करूणा भी द्रवित होने लगी थी। कोहरे की छूटी हुयी सफेद पर्त में तैरती, डूबती, उतराती, हल्की आंच देने वाली वसंत की धूप निकल आयी थी। यह उस हत्यारे की मुस्कान की तरह थी, जो हत्या करने से पहले पूरी तटस्थता और शांति के साथ, हत्या करने के तर्क और सिद्धांत देता है।

मै उदास हो गया था। इस उदासी में भय और निरर्थकता की एक सिहरन भी थी। वैसी ही जैसी अचानक नींद खुलने पर अविश्वसनीय सपनों में होती है, जैसी अधूमिल स्मृतियों में होती है। मैने पहले कभी नहीं सोचा था, पर उस दिन सोचा कि उदासी हमेशा स्मृति या स्वप्नों से जन्म लेती है, या फिर शायद स्वप्न और स्मृतियों का अंत उदासी में होता है। चार पैरों पर दौड़ते जीवन के बीच, विरक्ति और एकांत के इस दुर्लभ क्षण को उदासी सघन कर रही थी, या आलोकित कर रही थी। जो कुछ भी उदास होता है इसीलिए शायद कभी नहीं मरता। न प्रेम, न कविताएं, न क्षण। उनकी सघनता और आलोक को कुछ भी नहीं भेद पाता। मैंने उस क्षण में जाना, कि भय और लालसाओं से परे, मनुष्य की उदासी उसका सबसे सुरक्षित दुर्ग होेती है।

कुर्सी से उठ कर मैं खिड़की पर आ गया। घोड़ों और कविता के मरने के भय का ठंडापन अब रीढ़ तक पहुँच गया था। छटपटा कर मैंने खिड़की के काँच पर जमी भाप को हथेली से पोछा, फिर खिड़की का पल्ला खोल दिया। सामने उखड़ी पपड़ी वाले मस्जिद के गुम्बद थे, चर्च का ऊँचा घंटा था, कोतवाली की चौकोर, बड़ी घड़ी थी। इनके नीचे नसों की तरह पतली गलियाँ एक दूसरे से जुड़ी और फैलीं हुयीं थी। उनके अंदर जीवन बह रहा था। खड़खड़े वालों के घरों के आगे खच्चरों की लीद, उनके गिरे हुए रोंए और भूसे के तिनके पड़े थे। चिड़ियों के रंगे पिजरे रखे थे। बिरयानी की दुकान के सामने मुगार्ें की चूसी हुयी हडिड्‌याँ पड़ी थीं। रंदे से लकड़ी के उतारे हुए छिलके थे। इन छिलकों की नमी, गंध ऊपर जाते कड़ाही के काले धुएँ में मिल रही थी। एक तोड़ा जाता हुआ मकान था। मकान की दीवार में बनी अल्मारी के खानों मे कुछ छूटा हुआ समान था। एक टूटा कंघा, पत्थर के गोले, कील पर लटकी गोटे किनारे वाली लाल चुनरी का टुकड़ा था। मकान के बाहर हड्‌डी से खोला गया प्लास्टर पड़ा था। उस पर खून से सनी रूई थी। मैंने खिड़की से बाहर सर लटका दिया। कुछ गहरी सांसें लीं। हवा के ठंडे झाेंके आए। मै कुछ देर सर वैसे ही लटकाए रहा। मैं महसूस कर रहा था। तीसरा डर सांप की तरह पंजों से चढ़ रहा था। उसने जब कहा था, मेरा चेहरा बदल रहा है, मैं समझ गया था कि पिता की तरह हो गया हूँ। शायद अब अंदर से भी हो गया हूँ। मेरे मन मे कोई फुसफुसाता है ‘आई एम दाय फादर्स स्पिरिट........डूम्ड फॉर ए सर्टन टर्म टु वॉक द नाइट' पिता की हैमलेट की प्रिय पंक्तियाँ। एक झटके से मैंने सर वापस खींच लिया। खिडकी बंद कर दी। कुछ क्षण बाद दीवार के साथ लुढ़कता हुआ फर्श पर बैठ गया। कांपती देह के घुटनों को मोड़ कर, छाती से चिपकाए, बाँहों से लपेटे, मैंने आँखे बंद कर लीं। मै पिता की तरह हो रहा हूँ।

मुझे साथ लेकर घर से निकलते हुए, माँ ने पिता से आखरी शब्द कहे थे ‘धरती का जो हिस्सा तुम्हें शरण देगा, वह नष्ट हो जाएगा‘। माँ का दिया यह शाप धरती को भी था। आका बाबा जब पिता की राख लाए थे, तब पार्क की बैंच पर मेरे साथ देर तक बैठे रहे थे। नीचे पड़ी सूखी पत्तियों को घूरते हुए धीरे—धीरे बोले थे।

‘‘वह सती का शाप था। जमीन के हर टुकड़े ने सुना था। किसी टुकड़े ने शरण नहीं दी। भय्यन जब कभी जमीन पर पाँव रखते, तलुओं की खाल जलने लगती। छोटे दाने और छाले निकल आते। मुक्ति कहाँ थी? कभी नाव में घूमते, कभी रेल में, कभी बैलगाड़ी और कभी घोड़ा गाड़ी में। बाद में उन्होंने रेल को ही घर बना लिया था। एक से उतरते दूसरी पर चढ़ जाते....अचानक कुछ दिनों के लिए गायब हो जाते। मैं ढ़ूँढ़ता फिरता। कहीं कोई पता नहीं। फिर अचानक एक दिन आते। पहले से बुरी हालत में। जो कुछ बचा था उस पतुरिया की हत्या के मुकदमे की तेजी से खत्म हो गया था। पैसा, ताकत, इज्जत, नाम सब। सोचने समझने की ताकत भी। लगता था जैसे आत्मा नाम की जिस चीज की उन्होंने कभी परवाह नहीं की, हमेशा दुत्कारा, वही धीरे धीरे उनको कुतर रही थी। अपनी ताकत का, अपने होने की सच्चाई का अहसास करा रही थी। भय्यन भी शायद इसे समझ रहे थे। अक्सर कहते, बस में होता तो इसे काट कर फेंक देता। आत्मा से उनकी लड़ाई बढ़ती जा रही थी। कोई भी पतित काम सोचो, अपनी आत्मा को लहूलुहान करने के लिए उसे नीचा दिखाने के लिए, भय्यन करते थे। यह कोई लड़ाई थी या पागलपन या फिर आत्मा के नाम पर, सालों से खुद को गलाते हुए, अपनी माँ की मौत का प्रायश्चित था,? सच पूछो, तो उनका जीवन उसी दोपहर खत्म हो गया था, जब उनकी माँ मरी थीं। जो भी था, वह बिटानी और तुम्हें कभी नहीं भूले। उस बाजे मेन्डोलिन को भी नहीं‘‘। आका बाबा ने एक साँस ली थी ‘एक दिन भय्यन पिंजरे में चूहे जैसा एक जानवर ले आए। उससे थोड़ा बड़ा और मोटा। नेवले के बराबर। मैने समझा कोई काम होगा। वह उसे हमेशा अपने कमरे में रखते थे। वह बदबू मारता था। आँखें सिकोड़ कर देखता था। बहुत तेज बदन घुमाता था। चार पाँवों पर बैठ कर एक पाँव से बदन खुजाता था। मैने भय्यन से उसे फेंक देने को कहा। उन्होंने बताया इसे पालेंगे। यह चूहा नहीं है। उसी नस्ल का है। तभी उन्होंने बताया था कि इंसान जानवरों के अंडकोश हमेशा शौक से खाता रहा है। ये मांस की दुकानाें पर सबसे मंहगे बिकते हैं। पुराने समय मे उस आदमी को पुरोहित के बराबर पैसा और इज्जत मिलती थी जो जानवरों के अंडकोश निकालता था।