जिंदगी मेरे घर आना
भाग – ६
नेहा की आँखें खुली तो पसीने से तर-ब-तर थी... ओह! ये पावरकट तो जान लेकर रहेगा एक दिन... पता नहीं कब किताब पढ़ते-पढ़ते आँख लग गई थी उसकी। बहुत देर तक ठंढे पानी से हाथ-मुंह धोती रही। अचानक ध्यान आया जरा इन महाशय का हाल देखें... और जो देखा तो ईष्र्या से भर उठी... लान में झूले पर लेटा... शरद ठंढी-ठंढी हवाओं के झोकों का मजा लेता... एक मोटी सी किताब में डूबा था।
जी तो उसका भी कर रहा है, जरा लाॅन में टहले तो कुछ राहत मिले... पर वो हजरत जो वहां जमे हैं। टपक ही पड़ेंगे और आखिर कब तक वह अपना मुँह बंद रखेगी वह भी अकारण।
एक फैसला लिया... अब कोई मतलब नहीं रखना उसे, शरद से... मरे या जीए... रहे या जाए... उसकी बला से... ओफ्!! सुबह से खुलकर हंसी तक नहीं और वह शर्मिला का नं. मिलाने लगी।
और अपने फैसले पर अटल भी रही। सबसे काट लिया खुद को। पर यहाँ परवाह भी किसे थी ? सारा घर ही शरद के गिर्द सिमटा जा रहा था। शरद के मित्र साहब भी अब तशरीफ ले आए थे।
***
जब दसरे दिन शरद ने जाने की पेशकश की तो भैया ने उसकी छुट्टी का पूरा प्लान बनाकर रख दिया। यहाँ तक कि शरद की मम्मी को भी फोन कर के इजाजत मम्मीग ली... और एक हफ्ते के लिए शरद को रोक लिया।
यह देख अच्छा भी लगा अैर रूआँसी भी हो गई, लड़कियों में इतनी निश्छल दोस्ती क्यों नहीं होती? एक-दूसरे पर इतना अधिकार क्यों नहीं होता?
भैया का तो खैर वह दोस्त ही था। पर मम्मी को तो जैसे नया बेटा ही मिल गया था। कभी भैया से इतनी सहजता से बातें करते नहीें देखा। कभी बाजार का काम कहतीं भी तो हिचकते हुए। पर शरद से तो बड़े अधिकार से नापसंद चीजें लौटा लाने को भी कह डालतीं। और शरद भी इतना घुल मिल गया था कि आराम से कह डालता...‘ओह! आंटी... क्या फर्क है इन दोनों रंगों में... आपने कहा ‘ग्रीन कलर‘ और मैंने ला दिया।‘
मम्मी भी खीझकर बोलतीं -‘हाँ! ये ‘पैरेटग्रीन‘ और ‘बाॅटलग्रीन‘ में तुम्हें कोई अंतर नजर नहीं आ रहा न।... ‘पैंरेटग्रीन और क्रीम कलर का स्वेटर बना दूँ तो अंकल गले में डालना तो दूर, घर में देखना भी पसंद नहीं करेंगे... चलो चेंज करके लाओ इसे।‘
मम्मी और भैया के अलावा शरद के प्रशंसकों की एक फौज ही थी - रघु, सावित्री काकी, माली दादा... सब शामिल थे... पर इन सबको छोड़ वह तो डैडी से भी गप्पे लगा लेता। जबकि वह और भैया बाहर चाहे जितनी उधम मचा लें। डैडी के सामने तो भीगी बिल्ली ही बन जाते हैं। डैडी के रौबीले व्यक्तित्व ने कभी इतनी छूट ही नहीं दी। पर शरद के लिए तो जैसे सात खून माफ थे। वह तो डैडी के सामने ही आराम से कुर्सी उल्टी कर उसके पीठ पर ठुड्डी टिकाए बातें करता रहता और आश्चर्य!! डैडी कुछ भी नहीं कहते। जबकि इतने सलीके पसंद डैडी, मेहमानों तक की ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर पाते। पर शरद का व्यवहार इतना बेलौस था कि क्या कहे कोई... कैसे कहे कोई??
अब तो बातों का सिलसिला डायनिंग टेबल पर भी नहीं छूटता। पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ... व्यंजनों की प्रशंसा की जाती है, नुक्स निकाले जाते हैं, सुझाव दिए जाते हैं, साथ ही फमाईशें भी की जाती हैं। वरना सिर्फ प्लेट, चम्मचों की खनखनाहट के बीच मन भर मुँह लटकाए जल्दी-जल्दी कौर निगलता याद है उसे। अब मम्मी भी तो कितने शौक से नई-नई डिश बनाती है... जबकि पहले तो जैसे रस्मपूर्ति होती थी।
पर इन सबके बीच रह-रह कर कुछ काँटे सा चुभ रहा था... बहुत ही आहत हो उठी थी वह। गौर किया... यहां तो शरद की उपेक्षा के चक्कर में खुद उसी की उपेक्षा हुई जा रही है। यूँ पहले भी घर में कोई खास बातचीत तो नहीं थी पर तब तो किसी की किसी के साथ नहीं थी। और जिसकी उपेक्षा करने की कोशिश कर रही है, उसे तो इलहाम तक नहीं। एकमात्र वही पूरे अधिकारपूर्ण ढंग से बातें करता -‘नेहा, जरा आज का न्यूजपेपर दे जाना तो‘ - या - बाबा रे! इतना पढ़ती है लड़की, टाॅप भी किया तो क्या तारीफ? (अलग-थलग दिखने की यही तो तरकीब है, हर वक्त किताबें थामे रहो।)
और एक बार जब शरद को पेन चाहिए थी तो बेझिझक नेहा के कमरे में पहुँच गया... और... ‘अरे! यहाँ नाॅवेल पढ़े जा रही है, और हमलोग सोच रहे हैं... रानी बिटिया ‘कार्ल माक्र्स‘ को घोंट रही है। ये शाम का वक्त कोई पढ़ने का है, चलो बाहर।‘... और जबरदस्ती बाहर ले आया था उसे। याद नहीं पड़ता... कभी भैया ने उसके कमरे में पैर भी रखा हो।
फिर तो पूरी तरह शामिल हो गई, नेहा भी... यहाँ इंकार भी किसे था? और अब लगता है, यह ईंट-गारे-सीमेंट से बना निर्जीव मकान नहीं... अहसासों, भावनाओं से धड़कता घर है। यूँ चहल-पहल पहले भी रहती थी... उसकी सहेलियों की चहचहाटों से, भैया के दोस्तों की धमाचैकड़ी से या डैडी के मित्रों के छतफाड़ ठहाके से... ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर के चारों जन मिल बैठें और लफ्फजी गुलछर्रे उड़ा रहे हों।
मम्मी की तो पूरी शख्सियत ही बदल गई, लगती थी। कभी भी उन लोगों ने मम्मी को घर की साज-संभाल से अलग या किचेन से परे देखा ही नहीं। शरद बड़े आराम से मम्मी से राजनीति, साहित्य, संगीत यहाँ तक कि फिल्मों के विषय में भी बातें करता रहता और वह आश्चर्यचकित रह जाती, मम्मी इतनी वले-इन्फॉर्म है, इन सब विषयों पर। उस दिन जब क्रिकेट की चर्चा छिड़ी थी और न उसे, न शरद को न भैया को ही याद आ रहा था कि ‘ओवल टेस्ट‘ में भारत कितने रनों से जीतते, जीतते रह गया था तो मम्मी ने बिना नींटींग पर से नजरें हटाए ही कहा था -‘नौ रन‘ आश्चर्य से मुँह खुला रह गया था, उसका। भैया ने भी चकित होकर पूछा था -‘मम्मी तुम और क्रिकेट?‘
हँस पड़ी थी मम्मी। -‘क्यों चैबीस घंटे टीवी आॅन रहता है, फुल वाॅल्यूम में कमेंट्री चलती रहती है तो क्या मैं आँखों पर पट्टी और कानों में रूई डाले बैठी रहती हूँ - और उसे ध्यान आया। सच ही तो है घर में इतनी सारी पत्रिकाएं, न्यूजपेपर आते हैं और मम्मी पढ़ती भी खूब है। वे लोग तो यह भी भूल चले थे कि मम्मी अपने जमाने की फस्र्ट क्लास एम ए हैं। जो गिने चुने लोग ही होते थे