अपने-अपने इन्द्रधनुष - 4 Neerja Hemendra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 4

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(4)

कई दिनों के उपरान्त विक्रान्त आज काॅलेज में दिखाई दिया। मुझे वह बदला-बदला सा लगा। चेहरे पर बेतरतीब-सी उगी दाढ़ी जैसे कई दिनों से समय न मिला हो शेव करने का। कुछ कमजोर-सी। सबसे बढ़ कर उसमें यह बदलाव परिलक्षित हो रहा था कि सबके व्यक्तिगत् जीवन की जानकारियाँ जुटाना व उनको ले कर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करने व हँसने का शगल उसके स्वभाव से नदारद था। स्टाफरूम में मुझे देख कर वह मुस्कराया व अभिवादन करता हुआ मेरे समीप आ कर मेरा कुशलक्षेम पूछने लगा। औपचारिकता पूरी करने के पश्चात् भी वह मेरे पास बैठा रहा। कदाचित् वह मुझसे और बातें करना चाहता था किन्तु उससे बातें करने में उस समय मेरी रूचि नही थी। मेरा कोई क्लास नही थी इस समय अतः मुझे यहाँ बैठना ही था। विक्रान्त की भी क्लास नही थी इस समय। कुछ देर तक दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा।

’’ आपको तो ज्ञात ही होगा मेरे परिवार में अकस्मात् आयी समस्या के बारे में ? ’’ कह कर विक्रान्त मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा।

’’ मुझे कैसे ज्ञात होगा? क्या यही काम रह गया है मेरे पास कि सबकी जानकारियाँ रखती फिरूँ ? ’’ कह कर मैं विक्रान्त की ओर देखने लगी। मैं अपने तल्ख लहजे का प्रभाव उस पर देखना चहती थी। मैं चाहती थी कि उसे मेरी बात बुरी लगे।

विक्रान्त को मेरी बात कैसी लगी ये मैं नही जान पायी। किन्तु उसने मुस्कराते हुए मुझसे कहा, ’’ साॅरी, बहुत सारे लोगों तक ये बात फैल चुकी है। मैंने सोचा कि अपको भी पता लग चुका होगा। ’’कह कर प्रश्नवाचक दृष्टि से पुनः मेरी ओर देखने लगा।

उसकी बातों का उत्तर देना मैंने आवश्यक नही समझा। अतः चुप रही।

’’ मेरी पत्नी मुझे छोड़ कर चली गई है। बात कुछ नही थी। मात्र घरेलू सामंजस्य का अभाव था। ’’ मैं चुपचाप सुनती रही। मुझसे सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद में वह अपनी बातें बताता रहा। किन्तु मैं उसको समझ गयी थी। मेरी पूरी सहानुभूति उसकी पत्नी सुलभा के प्रति थी।

’’ मेरी पत्नी ने मुझ पर बेटी पैदा होने पर उत्पीड़न, दहेज के लिए प्रताड़ना व हिंसा के आरोप लगा कर मुझे न्यायालय में घसीट दिया है। ’’ कुछ देर तक चुप रहा विक्रान्त। प्रतिक्रिया की आशा में मेरी ओर देखता रहा।

मेरी ओर से काई प्रतिक्रिया न पा कर वह आगे बताने लगा, ’’ मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ। मुझे आपके जैसी ही शिक्षित व आकर्षक पत्नी चाहिए थी। किन्तु मेरा ऐसा भाग्य कहाँ....? मेरे माता-पिता ने....’’ कह कर वह चुप हो गया तथा मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा।

’’ मेरे जैसी.....? आकर्षक....? जो व्यक्ति स्त्री की कद्र, उसका सम्मान करना न जानता हो उसे स्वर्ग अप्सरा ही क्यों न मिल जाये, वह उससे कभी भी संतुष्ट नही हो सकता। यही प्राब्लम है सभी पुरूषों में, उन्हें अपनी पत्नी में अच्छाईयाँ, गुण कभी नही दिखतीं। उसमें अनेक कमियाँ अवश्य दिखती हैं। वह मृगतृष्णा के पीछे भागता रहता है सारी उम्र। पराई स्त्रियों में सुख ढूँढता रहता है। अपने वैवाहिक जीवन को नर्क बनाता जाता है। ’’ मैंने विक्रान्त से कहा।

विक्रान्त स्तब्ध था मेरी बात सुन कर। उसने मुझसे इस प्रकार के उत्तर की उम्मीद कदापि नही की होगी। मुझे उसके व्यक्तिगत् जीवन में कोई रूचि ही थी। किन्तु उसने अपनी पारिवारिक बातें मुझसे साझा की हैं, तो मैं ग़लत बातों का समर्थन कभी नही करूंगी। मैं यदि सुलभा के लिए कुछ नही कर सकती तो कम से कम उसके साथ सहानुभूति का भाव रख सकती हूँ। आखिर उसके साथ अन्याय हुआ है।

विक्रान्त ने सोचा था कि अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हो कर मैं उसकी स्वीकारोक्ति में गर्दन हिला कर उसके साथ सहानुभूति रखूँगी। ऐसा नही हुआ और वह भांैचक्का सा मेरी ओर देखता रहा।

’’ नही .....नही....ऐसी बात नही है। ’’ हकबकाया-सा वह बोल पड़ा।

इस समय स्टाॅफ रूम से अधिकांश शिक्षक अपनी कक्षाओं में जा चुके थे। कुछेक ही थे जो इस समय स्टाॅफ रूम में बैठे थे तथा अपने -अपने कार्यों में व्यस्त थे। विक्रान्त अब भी मेरे समीप ही बैठा था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह मुझसे कुछ और भी कहना चाहता है। अपनी बात कहने का यह अवसर हाथ से जाने देना नही चाहता है। मैं भी आज उसकी बात सुनने व अपने विचारों को उसके समक्ष रख देना चहती हूँ। इससे पूर्व अनेक बार मैं विक्रान्त की बातों को पूरी तरह सुने बिना बीच में ही छोड़ कर जा चुकी हूँ। किन्तु आज मैं उसकी पूरी बात सुनूँगी तथा उसका उचित उत्तर भी दूँगी। आज मैं उससे विमर्श करने के मूड में थी।

’’कोई भी लड़की जब पिता के घर से ससुराल आती है तो आवश्यक नही कि वह शरीर से, विचारों से या जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों के ज्ञान में परिपक्व हो। उसे यदि ससुराल में सहयोग व अवसर मिले तो वह भी अपने व्यक्तित्व को परिमाजर््िात कर अपने परिवार व बच्चों का उचित ढं्रग से पालन-पोषण कर उनके विकास में अपना योगदान दे सकती है। उसे वो अवसर तो मिले? कुछ पुरूषों की दृष्टि में पत्नी का अर्थ दो रोटी के टुकड़ों पर मिलने वाली निःशुल्क दासी है। उसे वह सारी उम्र दासी बना कर ही रखना चाहता है। उसके व्यक्तित्व का और विकास होने के स्थान पर उसका सौन्दर्य व रहा-सहा गुण भी विलुप्त हो जाता है। ’’ मेरी आशा के विपरीत विक्रान्त मेरी बातें मुस्करा कर सुन रहा था।

’’ ऐसा नही कि सभी पुरूष ऐसे ही हैं। कुछ ऐसे भी पति हुए हैं जिन्होंने अपनी अनपढ़ पत्नी को विवाहोपरान्त इस प्रकार पढ़ाया लिखया उसके व्यक्तित्व का परिमार्जन किया कि आगे चल वे नारियाँ महान विभूतियाँ बनी। किन्तु ऐसे पुरूष विरले ही हुए हैं। ’’ कह कर मैं चुप हो गई।

’’ किन्तु मेरी परिस्थितियाँ भिन्न हैं, नीलाक्षी जी। ’’ विक्रान्त ने मुझे समझाते हुए कहा।

’’ क्या भिन्न है विक्रान्त जी? परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हुए किसी की भावनाओं को समझना ही मनुष्य की महानता है। ’’ मैंने कहा।

’’ परन्तु मेरी पत्नी गाँव के विद्यालय से पाँचवी तक पढ़ी, देखने में साधरण व निर्धन परिवार की थी। ’’ विक्रान्त ने मेरी बातों का प्रतिवाद करते हुए कहा।

विक्रान्त की बातें सुनकर मैं हत्प्रभ थी। कोई पुरूष कैसे अपनी पत्नी के प्रति इस प्रकार के विचार रख सकता है? जबकि उसके साथ वैवाहिक बन्धन में रहते हुए दो बच्चियों का पिता बन चुका हो। यह सब कुछ विवाह के पूर्व सोचना चाहिए था।

’’ मैंने तो आप जैसी पत्नी की कल्पना की थी। किन्तु........’’ कह कर विक्रान्त चुप हो गया।

मुझे विक्रान्त की इस सोच पर विस्मय हो रहा था।

’’ मेरी जैसी पत्नी....?’’ मैं अपनी विशिष्टताओं को स्वंय न जान सकी तो विक्रान्त ने कैसे जान लिया? जिसे मेरी विशिष्टतायें जाननी चाहिए थीं अर्थात मेरा पति, वो भी तो नही जान सका।

विक्रान्त मुझे ऐसा पुरूष प्रतीत हो रहा था जो छद्म आवरण पहन कर अपनी वास्तविकता छुपाता है, तथा संसार के समक्ष स्वच्छ छवि का प्रदर्शन करता है। उसकी सोच भी वही है कि पुरूष जब चाहे, जिस उम्र में चाहे दूसरा विवाह कर सकता है। समस्या तो सुलभा के लिए है। ऐसी मानसिकता वाले लागों से भरे समाज में सुलभा कहाँ जायेगी? किसी परपुरूष के कंधे का संबल लेगी? मेरा मन वितृष्णा से भरने लगा। मै इस विषय पर विक्रान्त जैसे अविकसित पुरूष से बातें नही कर सकती थी। समय मेरी कक्षाओं का हो रहा था। मैं स्टाफ रूम बाहर निकल आयी। जाते-जाते मुझे ऐसा लगा विक्रान्त मुझसे कुछ और बातें करना चाहता था।

घर आ कर मेरा मन कसैला-सा हो रहा था। मैंने माँ-बाबूजी के चाय के साथ उनकी पसन्द का नाश्ता पोहा बनाया। उन्हें संतुष्टि से खाते देख मुझे अच्छा लगा। कुछ देर विश्राम के पश्चात् मैं रसोई में जा कर भोजन बनाने की तैयारियों में व्यस्त हो गयी। माँ भी मेरे पीछे-पीछे आ गई। मुझे काम करते देख वह बोल पड़ी, ’’ प्रतिदिन तो तू ही दोनों समय का खाना बनाती हैं। छोटी परीक्षा की तैयारियों में व्यस्त रहती है। आज मेरी इच्छा है कि मैं कुछ बनाऊँ और तू बाबूजी के पास बैठ कर आराम कर, उनसे बातें कर। ’’

’’ तो क्या हो गया माँ? चार लोगों का खाना रहता है। इसमें समय ही कितना लगता है? जब समय मिलता है छोटी भी काम में हाथ बँटाती है। काफी कुछ तो रामप्यारी ( काम वाली ) कर जाती है। आप चलिए बाबूजी के पास बैठिये। मैं बस कुछ ही देर में झटपट खाना बना कर बाबूजी के पास आ कर बैठूँगी तथा खूब सारी बातें करूँगी। गपशप........इधर-उधर की। ’’ कह कर मैं मुस्कराती हुई माँ को बाहों में पकड़ कर रसोई के दरवाजे तक छोड़ आयी।

आज सचमुच मैं बाबूजी के पास बैठ कर उनसे बातें करना चाहती थी। मैं शीघ्र रसाई का काम समाप्त करने के प्रयास में तीव्र गति से काम में लग गई। जितनी तीव्रगति से मेरे हाथ चल रहे थे उतनी ही तीव्र गति से मेरे मन-मस्तिष्क में विचार भी प्रवाहमान हो रहे थे। मैं सोच रही थी कि बाबूजी का जीवन घर में ही सिमट कर रह गया है। सामाजिक जीवन में उनकी सक्रियता न के बारबर रह गई है। ले दे कर बाबूजी बाजार से जा कर सब्जियाँ तथा बनियें की दुकान से राशन इत्यादि लाने के लिए घर से निकलते हैं। कभी अकेले तो कभी माँ के साथ।

उसे स्मरण आ रहे हैं वे दिन..... जब बाबूजी सरकारी अस्पताल में चिकित्सक के पद पर कार्यरत् थे। उन दिनों उनसे मिलने वालों की भीड़-सी लगी रहती थी। घर में भी और अस्पताल में भी। वह छोटी थी। घर में आने वाले रिश्तेदारों का भरपूर स्नेह उसे व भईया को मिलता था। वे सुनहरे दिन कितनी शीघ्रता से व्यतीत होते जा रहे थे। तब बाबूजी राँची के सरकारी अस्पताल में नियुक्त थे। मैं और भईया भी वहीं से उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और एक दिन भईया का चयन शासकीय सेवा हेतु हो गया। हम सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। इस प्रसन्नता में हम सबको यह स्मरण न रहा कि भईया की नियुक्ति किसी अन्य शहर में होगी। उन्हें हम सबसे दूर जाना होगा। भईया की नियुक्ति हुई। वह दूर चले गए। उनकी कमी का प्रभाव सबसे अधिक माँ-बाबू जी पर हुआ। कोई भी बात चलने पर वे भईया को याद करते। यहाँ तक कि घर में कुछ भी अच्छा अथवा भईया की मनपसन्द खाने-पीने की चीज बनने पर माँ भईया को ही स्मरण करतीं।

सब कुछ परिवर्तित हो रहा था। उस परिवर्तन का अनुभव हम सभी कर रहे थे। नौकरी ज्वाईन करने के दो वर्षों के भीतर भईया ने अपनी पसन्द की लड़की से प्रेम विवाह कर लिया। भईया ने विवाह कोर्ट में करना तय किया था। उस विवाह में हम सबका सम्मिलित होना मुख्य नही था। विवाह की निश्चितता मुख्य थी, हमारा जाना गौड़। हम सब विवाह में गये।

दिन कैसे परिवर्तित हो जाते हैं और हमें आभास तक नही होता। भईया के इस प्रकार विवाह कर लेने से माँ बाबूजी के अन्दर बहुत कुछ टूटा। जिसे मैंने अनुभव किया और बखूबी किया। इस बीच मेरी शिक्षा भी पूर्ण हो चुकी थी तथा बाबूजी की नौकरी भी।

बाबूजी ने राँची के पास ही नवविकसित होते इस छोटे से शहर में उस समय जमीन का यह टुकडा़ ले लिया था, जब वो नौकरी में थे। सेवानिवृत्त के पश्चात् उन्होंने यह घर बनवाया। शेष पैसे बचा कर मेरे विवाह व छोटी की शिक्षा के लिए रख दिया था। समय आगे बढ़ता गया जैसा कि सृष्टि का नैसर्गिक नियम है। किन्तु भईया का अपनी पत्नी के साथ यहाँ आना समय के आगे बढ़ने के साथ कम होता गया। उनके न आने के कारण कई थे। दूर के शहर में उनकी नौकरी, दो छोटे बच्चे तथा उनकी पत्नी का भी नौकरी में सेवारत होने की व्यस्तता। पर प्रमुख कारण बूढ़े माँ-पिता के पास न आने की उनकी इच्छा शक्ति का अभाव था। माँ-बाबू जी के पास न होते हुए भी भईया प्रत्येक क्षण उनके पास विद्यमान थे।

इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी बाबूजी अब व्यस्त तथा प्रसन्न थे। क्यों कि सेवा निवृत्ति के पश्चात् भी उनके पास एक बड़ा कार्य था करने को वह था मेरा विवाह। मेरे विवाह की चर्चा, तैयारियों में माँ-बाबूजी का समय व्यतीत होता रहा। मेरा विवाह भी शीघ्र तय हो गया। इसके लिए बाबूजी को अधिक भागदौड़ नही करनी पड़ी। लोग कहते थे कि इसका कारण मेरा शिक्षित व सुन्दर होना था।

मेरा विवाह हो गया। मैं ससुराल आ गई। ससुराल में सब कुछ ठीक था। प्रथम बार जब मैं वहाँ से माँ के घर आयी तो बाबूजी बाहर के कमरे में एक छोटी-सी डिस्पेन्सरी खोलने की योजना बना रहे थे। उनका उद्देश्य स्वंय को व्यस्त रखने के साथ-साथ कम पैसों में निर्धन परिवारों को इलाज प्रदान करना था। सेवानिवृत्ति के पश्चात् वह इससे बड़ा सोच भी नही सकते थे। पैसों की सीमाओं का ध्यान रख कर ही कुछ भी करना था। मुझे बाबू जी की यह योजना सुखद लगी। मैं सोचती थी कि मेरे बिना वो अकेले हो गए होंगे। किन्तु अब मुझे बाबूजी की कोई चिन्ता नही थी। भईया भी कभी-कभी उनका हाल पूछ ही लेते हैं। घर आकर नही तो फोन पर ही सही।

मैं ससुराल में छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज करते हुए सबसे सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हुए दिन व्यतीत कर रही थी। अपनी घर गृहस्थी सजाने-सँवारने का पूरा प्रयत्न कर रही थी कि उस दिन मेरे सब्र का बाँध टूटने लगा। जब मेरे पति ने मुझसे पूछ लिया कि, ’’ जब तुम काॅलेज में लड़कों के साथ पढ़ती थी, तो उस समय किन-किन लड़कों के साथ तुम्हारे प्रेम सम्बन्ध थे? ’’

मैं आसमान से जमीन पर आ गिरी। मन में ऐसी इच्छा हो रही थी कि मैं जोर-जोर से रो कर अपने हृदय में उठ रहे असीम पीडा़ को बाहर निकाल दूँ, कहीं इस पीड़ा से मेरा हृदय फट न जाये। मैं कैसे. ...? किन शब्दों में इस व्यक्ति को समझाऊँ.....? मैं विवश.....असमर्थ थी।

’’ तुम इतनी आकर्षक हो कि तुम्हारे एक नही अनेक प्रेमी होंगे। कितनों को फँसा रखा था तुमने इस सुन्दरता के जाल में? ’’मेरा पति मुझे गालियाँ देता जा रहा था और मेरे संस्कार उसकी गालियों का प्रतिकार करने की इज़ाज़त नही दे रहे थे। चुपचाप सुनने पर विवश कर रहे थे। मैं इस निरर्थक व अपमानजनक प्रश्न का उत्तर दूँ भी तो क्या दूँ?......कैसे दूँ.....?

’’ तुम्हारी खामोशी तुम्हारी स्वीकारोक्ति प्रतीत हो रही है। ’’ उसने दुष्टतापूर्वक मुझ से कहा।

मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा। मेरा पति मुझे दंभी, कापुरूष, बलात्कारी लगने लगा। यदि उसे मुझे पर विश्वास नही है तो उसने मेरे साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित क्यों किया हुआ है?

उसकी बातों ने व उसके बर्बर व्यवहार ने अब मुझे परिवर्तित कर दिया था, ’’ हाँ, तुम्हंे मुझ पर.......अपनी व्याहता पत्नी पर विश्वास नही है तो मैं तुम्हंे कैसे समझाऊँ? तुमने मेरे चरित्र पर हमला किया है। मुझे गाली दी है। तुम्हारा ये उच्चकुलीन परिवार व तुम, मेरी दृष्टि में निकृष्ट हो। यदि तुम्हे मेरे ऊपर विश्वास नही तो तुम जैसा समझते हो, मैं वैसी ही सही। ’’ मैंने भी आवेश में आ कर उत्तर दिया।

वह क्रोध में आ चुका था। मुझसे इस प्रकार के प्रत्युत्तर की आशा न थी उसे। महिलाओं के साथ पशुवत् आचरण करने वाले परिवार व नस्ल का था वो। प्रथम बार तो नही किन्तु दूसरी बार इसी प्रकार के अनर्गल आरोप लगाते हुए मुझ पर हाथ उठा बैठा। उसके साथ रहते हुए मुझे यह लगने लगा था कि मेरे लिए उसके हृदय में प्रेम व सम्मान नही है जो एक सफल व आदर्श वैवाहिक जीवन जीने के लिए एक दूसरे के प्रति आवश्यक है। अपनी पीड़ा मैं माँ-बाबूजी से छुपाती रही। कारण यह था कि उम्र के इस पड़ाव पर यह सब कुछ सहन करना उनके लिए सरल नही होगा। किन्तु ऐसी बातें कब तक छुपा कर रखी जा सकती हैं? चेहरे के भाव व उन्हंे समझने का अनुभव सब कुछ स्वतः व्यक्त कर देता है।

मुझे स्मरण है वो दिन जब मैं बहुत दिनों के पश्चात् माँ के घर गयी थी। मेरा पति भी मेरे साथ था। बिना किसी बात के संदेह करना व मुझसे झगड़ने का उसका स्वभाव बन गया था। वहाँ भी वह बिना किसी कारण के मुझसे झगड़ता रहता। मेरे माँ-बाबूजी के सामने मुझे अपशब्द कहता। और उस दिन, मुझे भलिभाँति स्मरण है उस दिन की वो घटना जब मैंने दृढ़ निश्चय लिया था उसके साथ जीवन व्यतीत न करने का। मेरे सब्र की वही अन्तिम सीमा थी। मैं घर के गेट पर बाबूजी के साथ खड़ी बातें कर रही थी कि वह वहाँ आया और मुझसे बातंे करते-करते उसने मुझ पर हाथ उठा दिया। मेरे सब्र की वही अन्तिम सीमा थी। उसके पश्चात् मैं माँ के घर पर ही रूक गयी। बाबूजी मेरे साथ हुए दुव्र्यवहार से व्यथित थे और माँ गहरे सदमें में।

मैंने अपने अन्दर के साहस को टूटने नही दिया। बाबूजी को उनके द्वारा दिलाई गयी उच्च शिक्षा व संस्कारों तथा माँ को उनके द्वारा एक योग्य स्त्री बनने व जीवन में संघर्षों पर विजय प्राप्त करने की सीख का स्मरण कराते हुए उन्हें ढाढ़सा दिया। कि इस मेरे जीवन में आये इस संकट की घड़ी व मेरे इस फैसले में वो मेरा साथ दें और निश्चन्त रहें मैं उन्हें कभी शर्मिन्दा नही होने दूँगी। उस दिन मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं आत्मनिर्भर बनूँगी। माँ बाबूजी को सहारा दूँगी। उनके पास रह कर एक पुत्र की भाँति उनकी सेवा करूँगी। पुत्र की भाँति ही क्यों एक संतान की भाँति उनको भावनात्मक सहारा दूँगी। जिसकी उन्हें सर्वाधिक आवश्यकता है।

जीवन के इस रूप की कल्पना नही की थी मैंने। किन्तु मुझे जीवन की यह चुनौती स्वीकार थी। मैंने आत्मनिर्भर बनने की ओर प्रथम कदम बढ़ाते हुए नौकरी की तलाश प्रारम्भ की। मैंने पी0एच0डी तक की शिक्षा प्राप्त की थी। अतः मेरे लिए अध्यापन कार्य ही उपयुक्त था। यह कार्य मुझे अच्छा लगता था। प्रारम्भ से ही मैं अध्यापिका बनने के सपने देखती थी।

मेरे जीवन में प्रसन्नता के क्षणों का आगमन प्रारम्भ होने लगा था। इसी शहर के प्रतिष्ठित काॅलेज में अध्यापन कार्य हेतु मेरा चयन कर लिया गया। अर्से तक मेरी सुध न लेने वाला मेरा पति अब मुझे अपने पास बुलाने के लिए प्रयत्न करने करने लगा। उसके घर वाले भी किसी न किसी नाते-रिश्तेदारों के द्वारा मेरे पास संदेश भिजवाने लगे कि मैं उनके घर आ जाऊँ।

मैं आगे बढ़ चुकी थी। कभी मेरा सौन्दर्य ही मेरा शत्रु बन गया था। अब मेरे पति व उसके घर वालों को मैं और मेरी योग्यता अच्छे लगने लगे। किन्तु अब मैं बदल चुकी थी। मेरे विचार परिवर्तित हो चुके थे। मुझे अब घृणा हो गयी थी विवाह नाम की संस्था से, पुरूषों से।

कुशलतापूर्वक नौकरी व माँ-बाबूजी की देखभाल का उत्तरदायित्व मैंने सम्हाल लिया है। ससुराल वालों को यह संदेश भिजवा दिया है कि यदि वे मुझे यहाँ पर भी परेशान करेंगे तो मैं कानून का सहारा लेने में पीछे नही रहूँगी। मैंने उन पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाते हुए जो कि सत्य है, तलाक की मांग कर दिया है। उस दिन से अब तक वहाँ से कोई संदेश नही आया।

यह छोटा-सा शहर है। यहाँ कुछ भी छुप नही सकता है, अथवा यह कह सकते हैं कि छुपाया नही जा सकता। विक्रान्त को भी मेरे पति द्वारा मेरे साथ की गई दुव्र्यवहार की घटना का पता चल गया था। वह रहता भी है यहीं कहीं आस-पास। काॅलेज की पार्टी में वह इसी बात को चर्चा का विषय बना कर मेरा उपहास करना चाह रहा था।

’’ उफ्फ! मैं भी किन दुःखद स्मृतियों में गुम हो गई। अब तो मेरे सामने मेरे जीवन का मार्ग व लक्ष्य स्पष्ट है। अपने साहस व योग्यता से मैंने अपनेे जीवन में प्रसन्नता के कुछ क्षण अर्जित कर लिए हैं। मेरा पसंदीदा विषय अर्थशास्त्र हैं। काॅलेज में मैं अर्थशास्त्र की अध्यापिका हूँ। मैं अर्थशास्त्र पर वैचारिकी व शोधपरक लेख इत्यादि लिखने लगी हूँ। जो यदाकदा पत्र-पत्रिकाओं में छप भी रही हैं। मैंने अपने आप को पूर्णतः व्यस्त कर लिया है। मेरे जीवन में कोई रिक्तता नही है। ’’ रसोई के कार्य पूर्ण हो चुके थे। मैं ड्राइंग रूम में माँ-बाबूजी के पास जा कर बैठ गई। बाबूजी प्रसन्न दिख रहे थे। वे टी0वी0 पर अपना पसंदीदा कार्यक्रम ’समाचार ’ देख रहे थे। राजनीति और मौसम की चर्चा को लेकर वे माँ से मुखातिब थे।

बाबूजी ने मुझसे काॅलेज का हालचाल व मुझे कोई परेशानी तो नही है...इत्यादि के बारे में पूछा। उनके अनुभवी नेत्रों ने मेरे चेहरे पर फैली निश्चिन्तता को भाँप लिया था।