CORONA@2020 Kalyan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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CORONA@2020

आज हम सभी देशवासिओं को इस मुश्किल के दौर में एक दूसरे का सहारा बनने की जरूरत है। हम लड़ेंगे ... और तब तक लड़ेंगे जब तक इस महामारी पर जीत हासिल नहीं कर लेते।इसीलिए सरकार ने इसे रोकने के लिए देश में सम्पूर्ण लॉक डाउन लगाने का फैसला लिया है। आप सभी से मेरी विनती है कि सरकार के इस फैसले का पूरा सहयोग करे।


हेलो मम्मी ! - हां बेटा।

" अभी देश में संपूर्ण लॉक डाउन लग रहा है मुझे तो लगता है कि आने वाला समय बहुत बुरा होगा। सोच रहा हूँ शालिनी को इस हालत में यहां पर रखना सही नहीं है।" - मैं अपने मन की व्याकुलता मम्मी से बताते हुए।

" हां बेटा! मैं भी सोच रही हूँ क्यों न बहू को उसके घर छोड़ दें ? " - मम्मी का ऐसा जवाब जिसने मेरी व्याकुलता को और बढ़ा दिया।


समाज में सास और बहू के बीच की खटपट हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती है।जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती वैसे ही एक घर में सास और बहू प्यार से नहीं रह सकती।


" मां आपको तो पता है ना कि पहला बच्चा हमेशा पति के घर होना शुभ होता है। "

" हां पता है जब डिलीवरी नजदीक आएगी तो अपने घर बुला लेंगे।"

"तुमसे तो बात करना ही बेकार है पापा को फोन दो।" - झुंझलाहट के साथ मेरे मुँह से ना चाहते हुए भी निकल गया।

मन ही मन भुनभुनाते हुए जब किसी को सही मायने की सलाह दो तो खुद बुरे बन जाओ इससे तो अच्छा है कि किसी को सलाह ही मत दो।

रिसीवर पापा को देते हुए - " लीजिए विनीत का फोन आया है।"


पापा फ़ोन पर - हां बेटा !

इस बात का सीधा सा जवाब देते हुए - " नहीं तुम और बहू सीधे यही पर आ जाओ "।

इतना बोलते ही बात समाप्त हो गई।


उनके इस वाक्य ने मेरे मन में उत्पन्न हो रही दुविधा को कैसे एक मिनट में सुलझा दिया। सामान्यतः ये देखा गया है कि पिता अपने बेटी के मन के ज्यादा करीब होते है ,उसकी परेशानियों को भलीभांति समझते है , और माँ अपने बेटे के ! लेकिन मेरे यहाँ तो उलटा था।

लेकिन ज़िन्दगी की गाड़ी तो ऐसे ही चलती है। एक दुविधा ख़त्म नहीं हुई कि दूसरी ओवरटेक लेकर आगे आ ही जाती है। हमारी दूसरी दुविधा शालिनी को घर चलने के लिए समझाना ! बहरहाल मैंने हिम्मत जुटाकर शालिनी के सामने घर चलने के प्रस्ताव को रख दिया। मुझे इसका डर नहीं की प्रस्ताव को मंजूरी मिले या नामंजूरी ! डर तो इसका है कि

कही फिर से बिन मौसम बरसात ना हो जाए।


" लेकिन इस समय घर से निकलना मुझे सही नहीं लग रहा है। बाहर कोरोना ने अपना कहर बरसाया हुआ है।" - शालिनी ने अपने मन की शंका मेरे सामने रख दी।


इतना सुनते ही मेरी जान में जान आ गयी। चलो मंजूरी भी मिल गयी ; और तीखें शब्दों की बरसात भी नहीं पड़ी । हमेशा जब कभी घर जाने की बात उठती है तो मुझे तीखें शब्दों के बाण को बिना किसी दर्द के सहना पड़ता है।क्योंकि उसको मायके जाने को नहीं मिल पाता है। वजह ! शादी के बाद लड़कियाँ परायी हो जाती है। पति का घर ही उनका घर होता है।

लेकिन उस घर का क्या ? जिस घर ने उनको बचपन दिया ; पाल पोष कर बड़ा किया ; जिस माँ ने जन्म दिया ; जिस बाप ने खेत गिरवी रखकर शादी की ; जिस भाई के कलाई में राखी का धागा बांधे रखा है जो आज भी बहन की मरते दम तक रक्षा करने के लिए प्रेरित करता रहता है। कैसे उस घर को भूल सकती है ?


" हां ! वो तो पता है लेकिन तुम्हारी हालत देखते हुए यहाँ रहना भी सही नहीं मालूम पड़ रहा है। " - मैंने उसको थोड़ा विश्वास दिलाते बोला।

किसी तरह शालिनी को समझा - बुझा कर घर चलने के लिए राजी कर लिया।


अगले दिन हम दोनों जैसे ही घर की दहलीज़ पर कदम रखते है वैसे ही हमारे घर के ऊपर नयी मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ता है। हमारी कामवाली को लेकर !


" मेम साहब ! हमारा आज तक का हिसाब किताब कर दो कल से मैं नहीं आउंगी " - काम वाली भी इस मुसीबत में अपना पल्ला झाड़ ली ।


"नहीं आउंगी ! मगर क्यों " ? - एकदम से मम्मी की आवाज़ निकल पड़ी।

" कुछ वायरस फैला हुआ है। सुना है कि सीधे मुँह में घुस जाता है।फिर इलाज़ से उसको बाहर निकालते है। ना बाबा ... ना बाबा ... मुझे नहीं करवाना अपना इलाज़ ; कहाँ से लाऊंगी इतने पैसे ! मेरे दो छोटे - छोटे बच्चे भी है। अगर मुझे कुछ हो गया तो वो अनाथ हो जाएंगे " - उसने एकदम से जल्दी - जल्दी बोल डाला।


" अरे ! ये किसने बोला ; ऐसा कुछ नहीं है।अगर सरकार द्वारा दी गयी सावधानी बरतेंगे तो हम सभी सुरक्षित रहेंगे जैसे मास्क का उपयोग करे ; छींकते समय हमेशा रुमाल का इस्तेमाल करे ; लोगों से दूरी बनाये रखे ; बार - बार अपने हाथ साबुन और पानी से धोते रहे या सैनिटाइज़र का इस्तेमाल करे वग़ैरह ... वग़ैरह ... " - मैंने कुछ समझाने का प्रयास किया। लेकिन उसके मन की धारणा को बदलने में नाकाम रहा।

" नहीं बाबू जी ! बहुत खतरनाक वायरस है। बाप रे बाप ! "

तो हार मानकर मैंने भी भैस के आगे बीन बजाना बंद कर दिया। अब वो तो चली गयी लेकिन हमारे घर की पंचायत शुरू हो गयी कि घर का काम कैसे हो ?

आजकल तो आलम ये है कि घर पर पति ना हो तब भी चलेगा ! लेकिन अगर कामवाली ना हो तो एक गिलास पानी भी नसीब ना हो।


मम्मी का गठिया का रोग और शालिनी की प्रेगनेंसी तो दोनों से ... तो जैसे - तैसे मैं और पिता जी आज गृहस्थी का भार अपने कंधों पर ले लिए । लेकिन एक ही दिन में कंधों ने जवाब दे दिया कि गृहस्थी सम्हालना कोई बच्चों का खेल नहीं है।आज मुझे समय पर टिफिन ; समय पर कपड़े ; ऑफिस बैग सभी के पीछे की मेहनत एहसास हुआ कि वो कैसे समय पर मिल जाते थे।


सही बात कही है कि इंसानी फिदरत ही ऐसी है कि उसे उस चीज़ की एहमियत तब मालूम पड़ती है जब वो उससे दूर होता है। या उसे वो काम को खुद करता है। अब इस गृहस्थी की गाड़ी को ट्रैक पर लाने के लिए एक कामवाली की एकदम से आवश्यकता आन पड़ी।


अगले दिन पड़ोस वाली आंटी जी को जब पता चला कि मैं और शालिनी आये है तो हमलोग से मिलने आ गयी। हमारे घर की दयनीय स्थिति को तुरंत भाप गयी। जो सामान जहाँ रखा ; वही बिखरा पड़ा हुआ था।

" क्या बहन जी ! आजकल काम वाली नहीं आ रही है क्या ? " - घर की हालत देखते हुए पूछी।

"अब क्या बताये ! इस करमजली को अभी छोड़ के जाना था "- मम्मी एक हाथ से पैर पर धीरे से सहारा देते हुए कुर्सी पर बैठते हुए बोली।


उनको इस गठिया के रोग की वजह से हमेशा जोड़ो में दर्द लगा रहता है और शरीर का वजन भी उम्र के साथ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। जिससे उनको बैठने और काम करने में बहुत दिक्कत होती है।


"अरे विनीत ! ज़रा दो ग्लास पानी ले आओ। और बहू को भेज दो बोलो मिश्रा आंटी आयी है। अब क्या बताऊं बहन जी ! हमारे यहाँ तो घर का हाल बेहाल है।" - घर की स्थिति को देखते ही अपने मन की बात को जुबान पर लाते हुए।

" आपकी कामवाली आ रही है क्या ? " - मम्मी ने मिश्रा आंटी की ओर देखते हुए ।

नहीं बहन जी ! हमने तो उसको एक सप्ताह पहले से ही छुट्टी दे दी है।


और घर का काम ?

" वो तो हम सभी लोग मिल बाँट के कर रहे है।" - इसी तरह अपनी उँगली पर सभी के काम एक -एक करके गिनाने लगी।


" आपके यहाँ सही है हमारे यहाँ की बात ही मत पूछिए। एक आपकी बहू एक हमारी ! जब से आयी है तब से बिस्तर पर ही पड़ी है। "

मम्मी को बीच में रोकते हुए - " अरे बहन जी ! इस हालत में क्या काम करेगी। मैंने भी अपनी बहू को ऐसे समय में आराम करवाया था।"

इस तरह दोनों लोग अपने - अपने घर का पिटारा खोले जा रही थी और असली मुद्दे की बात भूले जा रही थी।


सही में इस महामारी ने परिवार का अच्छा पाठ पढ़ा दिया। जिसका परिवार मिलजुल कर रहता है। उसके यहाँ तो कामवाली की कोई दिक्कत नहीं है। और जिसके यहाँ थोड़ी सी भी खटपट है वहाँ तो मेरे घर जैसा हाल होगा।


" नमस्ते आंटी जी !" - पानी का गिलास उनको देते हुए ।

"शालिनी नहीं आयी ?" - मम्मी ने पूछ लिया।

"वो तो अभी नहा रही है।"

मम्मी मन में कुछ भुनभुनाते हुए जिसको समझ पाना तो मुश्किल था। लेकिन वो कुछ शालिनी के लिए ही उल्टा सीधा बोल रही थी।

" अरे बहन जी ! क्या आप की नज़र में कोई कामवाली है ? " - मम्मी अब असली मुद्दे पर आते हुए पूछ ली।

बहन जी ! अभी तो कोई भी काम करने के लिए तैयार नहीं होगा। सभी इस वायरस को लेकर बहुत डरे हुए है। रुकिए अपनी काम वाली से बात करती हूँ। - इतना बोलते हुए अपने फ़ोन पर किसी का नंबर डायल करने लगी।


फिर थोड़ी देर के बाद

बहन जी मैंने अपने कामवाली से बात कर ली है। वो तो काम नहीं करेंगी लेकिन इतना बोली है कि किसी को भेजती हूँ।


ट्रिन ... ट्रिन ... घर की घंटी बजती है।

" नमस्ते साहब ! मैं दुलारी यही पास के बस्ती में रहती हूँ। सूना है कि आप लोग कामवाली की तलाश कर रहे है ? "

उसके साथ एक लगभग सोलह महीने का बच्चा जो पूरी तरह से कुपोषित और सूखा रोग से ग्रस्त सा लग रहा था। पेट औसत बच्चो से दो गुना बाहर निकला हुआ ; जिसके शरीर का विकास रुक सा गया था ; उम्र में सामान्य बच्चो से छोटा ; जिसकी आँखे बाहर निकली हुई थी और हाथ पैर की हड्डियाँ साफ़ - साफ़ कमज़ोर सी दिख रही थी अगर कोई थोड़ा सा भी दम लगाए तो टूट जाए। और शायद भूख की वजह से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।कपड़े भी फटे - पुराने और नंगे पाँव उसके गरीबी की दास्तान बयान कर रहे थे ।


चुप हो जा बेटा ! कहाँ से लाऊँ तेरे लिए दूध।

अब तो कई दिनों की भूख ने तो शरीर में दूध भी बनाना बंद कर दिया है।नहीं तो अपने शरीर एक एक बूँद दूध तेरे को पिला देती।


जिस प्रकार पतझड़ मौसम में हरे भरे पेड़ एकदम से सूखे और बेजान मालूम होते है। वैसे ही वो भी एकदम सुखी सी मुरझाई हुई जान पड़ती थी। भूख की वजह से पेट और पैर एकदम सुख गया था।माथे पर सिंदूर और गले में कोई मंगल सूत्र का ना होना ! मतलब इस अबला को अकेले ही जीवन की लड़ाई लड़नी है।


काम वाली ! - बहुत तेज़ी से मुँह से निकल पड़ा। जैसे की हमारे घर साक्षात लक्ष्मी का अवतरण हुआ है। और मैं जल्दी से ये खुशखबरी सबको सुनाने अंदर की तरफ दौड़ा।

" इतना ज़ोर से क्यों चिल्ला रहे हो ? आसमान गिर गया क्या ?" - मम्मी अपने कमर पर हाथ रखते हुए आ रही थी।

अरे बाहर कोई कामवाली आयी है।

इस तरह भगवान ने इस मुसीबत की घड़ी में मेरी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया ।

पापा , मम्मी और शालिनी सभी एक साथ दरवाज़े पर मेहमान के स्वागत के लिए पहुंच गए।


" क्या नाम है तुम्हारा ? " - मम्मी ने अपनी जांच पड़ताल शुरू कर दी।

जी दुलारी !

" इससे पहले कहाँ काम करती थी ?"


इधर इन लोग की जांच पड़ताल के बीच अपनी मानवता को ध्यान में रखते हुए रसोई से एक केला और एक कप दूध लेकर उस बच्चे के हाथ में रख दिया। लेकिन बिना माँ की स्वीकृति के मेरे इस काम को उनकी तीखी नज़रों का सामना भी करना पड़ा।


" मम्मी क्या ये सब जांच पड़ताल जरूरी है क्या ? " - मैंने मम्मी को बीच में रोकते हुए बोला।

" अच्छा तुम चुप ही रहो ! गृहस्थी का काम मेरे पर ही छोड़ दो। एक दिन भी सम्हाल नहीं पाए " - इस तरह मेरे पर व्यंगय कसते हुए बोली।


कितना पगार लोगी ?

" मालकिन आप पढ़ी लिखी समझदार है मैं ठहरी अनपढ़ ! जितना भी सोच समझ कर दे दें। "

"पहली वाली एक हज़ार लेती थी। तो तुम्हे भी उतना ही दूंगी।"

" लेकिन मम्मी वो तो बारह सौ लेती थी। " - मैंने धीमें से उनकी कानों में बोला।

"बहुत - बहुत कृपा मालकिन ! "- दोनों हाथ जोड़ते हुए।


घर की गृहस्थिनी का कितना अच्छा उदाहरण देखने को मिल रहा है ।एक उसको चलाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है और एक उसको बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। बस दोनों के सोचने का नज़रिया अलग - अलग है।


" अच्छा ये बताओ ! वहाँ से काम क्यों छोड़ दिया ?" - मम्मी के बातों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।

" जी मालकिन ! वो कुछ कोरोना वायरस फैला हुआ है तो उन्होंने निकाल दिया। "


गरीब की इंसानियत उसके भूख पर हावी नहीं हो सकी ; चाहती तो झूठ भी बोल सकती थी लेकिन उसने सब कुछ सही बताया। और यहाँ हम बस थोड़े से फायदे के लिए ना जाने कितने झूठ पे झूठ बोले आ रहे है।


अच्छा ये बताओ ! क्या तुम्हारे पास कोरोना का नेगेटिव सर्टिफिकेट है क्या ?

मालकिन ! यहाँ मेरे पास खाने के लिए पैसे नहीं है ; पहनने के लिए कपड़े नहीं है ; घर में ऐसा कुछ नहीं है कि जिसको बेचकर कुछ पैसे ले आऊँ।मालकिन मैं कहाँ से लाऊंगी सर्टिफिकेट ?

फिर हाथ जोड़ते हुए - "मालकिन दया करो इस गरीब पर !"

" अगर तुमको कुछ वायरस हुआ है तो हमारा परिवार भी उसके चपेटे में आ जाएगा। नहीं ... नहीं ... कुछ नहीं ! कोरोना का नेगेटिव सर्टिफिकेट लाओ तभी काम मिलेगा।"


मम्मी क्या तुम अनपढ़ो जैसी बाते कर रही हो। ये कहाँ से लायेगी। सरकार इस महामारी से बचने के लिए हर दिन कुछ ना कुछ हिदायत दे रही है। अगर उसका हम सही तरीके से पालन करे तो इस बीमारी से बचा जा सकता है।


मालकिन ! आपको अपनी जान की फ़िक्र है क्या हम गरीबों के जान की कोई कीमत नहीं !

मैं तो कहीं ना कहीं से ले आउंगी इस वायरस का नेगेटिव सर्टिफिकेट !

क्या आप दे पायेंगी कोरोना का नेगेटिव सर्टिफिकेट ?