PAPA KA WO AAKHIRI KHAT books and stories free download online pdf in Hindi

पापा का वो आखिरी ख़त

वह पापा का आखिरी ख़त था जिसमें


प्रिय रवि ,

शुभार्शीवाद

तुम्हारा पत्र मिला पढ़कर बहुत प्रसनन्ता हुई यह जानकर कि तुमने अपना घर

ले लिया और आशा है कि अभी तक तुम लोग नए घर में रह रहे होंगे।


आजकल मेरा मन बहुत बेचैन सा रहता है अब तो कुछ करने का मन ही नहीं

करता है। तुम लोग की बहुत याद आती है कितनी बार मन बनाता हूँ कि चलू

थोड़ा अपने नाती - पोता को खिला लूँ। तुम लोग के साथ समय बिता लूँ।

लेकिन हर बार मेरा स्वास्थय बीच में आ जाता है और डॉक्टर साहब कुछ ना

कुछ सांत्वना देकर चले जाते है लेकिन इस बार मुझे लग रहा है कि सांत्वना

नहीं चार कंधों की जरूरत पड़ेगी।


अब तो बस भगवान से यही प्राथना करता हूँ कि मुझे इतनी शक्ति दे कि तुम्हारे

आने तक ... .... ...


इतना पढ़ते ही मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गयी। मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मन में ना जाने क्या क्या ख्याल आने लगे। किससे बात करू ? यही सब सोचते - सोचते ... ... ...


तुरंत ही अपने परिवार के साथ घर की ओर रवाना हो लिया। उस समय तक न जाने कितनी बातें मेरे जहन में आये जा रही थी। जिसका जवाब या तो मेरे पास है या पापा के पास। इधर हमलोग रिक्शा लेते हुए कुछ ही समय में रायपुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन की मौजूदा स्थिति जानने के लिए पहुंच गए , लेकिन पता चला कि इलाहबाद जाने की ट्रेन अभी १० मिनट पहले जा चुकी है और कुछ पटरी की गड़बड़ी के कारण आज की ट्रेन दूसरे रूट से जायेंगी।


अब यहाँ पर मेरी किस्मत ने मुझे फिर से निराश किया। ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटना मेरे साथ पहली बार हुई है।

बचपन की बात है कि मैं और मेरा छोटा भाई अपने घर से इलाहबाद पेपर देने जा रहा था जोकि इलाहबाद से लगभग ३० कि मी की दूरी पर था। अभी हम आधा दूरी ही पहुंचे होंगे कि साइकिल का चैन ही टूट गया और टूटा ऐसी जगह की जहाँ से उसको सही करना नामुनकिन ही था क्योंकि आस - पास कोई साइकिल रिपेयर की दुकान नहीं थी।

जिस कारण हम लोग पेपर में नहीं बैठ पाए ।

उस समय तो बहुत दुःख हुआ कि ऐसा हमेशा मेरे साथ ही क्यों होता है ?

लेकिन शायद इसका जवाब खुद मेरे पास भी नहीं था।

और इधर मैं घर के बारे में सोच - सोचकर वैसे भी अपनी चिंताएं बढ़ाये जा रहा था और बार- बार अपने मन से यही सवाल पूछ रहा था ?

" क्यों आया इतना दूर अपनों को छोड़कर ; कितना अच्छा होता अगर उस समय पापा की बात मान लेता ! "

क्यों आदमी दूर जाकर अपनों को पराया समझने लगता है ?

यही सब सोचते - सोचते मैंने निर्यण लिया कि हम सभी बस से जायेंगे।

ये सुनकर नमिता मुझे ताने सुनाने लगी - क्या एक दिन बाद नहीं जा सकते ? एक दिन में पहाड़ तो तो नहीं टूट जायेगा ?

"उसकी इसी हट्ठ के कारण मैंने आज से पाँच साल पहले अपनों को पराया बना दिया था। " मैं मन ही मन सोचता रहा।

नमिता ने मेरे आवाज़ देते हुए बोला , "तुम सुन भी रहे हो की नहीं ? "

हां ! तुम यही पर रुक जाओ , मैं बस से चला जाऊँगा , वैसे भी पता नहीं वहाँ पर क्या हो रहा होगा।

दरअसल मेरे मन में कुछ अजीब से ख्याल आ रहे थे जैसे कि कोई अमंगल समाचार मेरा इंतज़ार रहा है।

नमिता - क्या ! तुम अकेले जाओगे ? नहीं ! हम सब लोग साथ चलेंगे नहीं तो आपके घर वाले मेरा जीना हराम कर देंगे। वैसे भी कुछ भी हो उनको तो हमेशा मेरे में ही गलती नज़र आती है।

मेरा मन यहाँ पर बेरुखा सा लग रहा है और ऊपर से तुम उसमें घी डालने का काम कर रही हो।

नमिता - मैं बता देती हूँ कि जायेंगे तो सभी लोग एक साथ नहीं तो कोई भी नहीं जायेगा , और आज नहीं कल ट्रेन से जाएंगे।


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पापा हमेशा स्कूल बैग तैयार करते हुए बोलते थे - रवि ये तुम्हारा बैग तैयार है चलो तुम को स्कूल छोड़ दूँ।

पापा आप क्यों मेरा स्कूल बैग तैयार करते है ? मैं अब बच्चा तो नहीं रहा , खुद ही तैयार कल लूँगा। वैसे भी मेरे स्कूल में सभी बच्चे अपना बैग खुद ही तैयार करते है।

पिता जी - सही बात कही बेटा ! अब तुम बड़े हो गए हो , लेकिन मैं तो बस एक पिता होने का फ़र्ज़ निभा रहा हूँ।

बेटा ! ये ज़िंदगी बहुत छोटी है , इसीलिए जब तक हो तब तक ऐसा काम करो कि लोग आपके कर्मो की सराहना करे। जैसा तेरे दादा जी हमेशा हम सभी भाइयों और बहनों को साथ - साथ रहने के लिए प्रेरित करते रहते थे और हम सभी लोगों को प्रातः काल में उठाकर कसरत , योगा और ध्यान करवाते थे।


अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए - उनकी एक आदत थी कि भोजन हमेशा परिवार के सभी लोग एक साथ करेंगे। वो किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते थे। जबकि उस ज़माने में तो पहले घर के पुरुष भोजन करते थे और फिर घर की महिलाएं !

ऐसा बहुत बार होता था कि महिलाओं के लिए खाना कम पड़ जाए या कभी ख़त्म ही हो जाता था।

उसी का ये फल है कि आज हम सभी भाई - बहन कितने भी दूर क्यों न हो , लेकिन सभी एक दूसरे के बहुत पास है।

मैं उनकी बात समर्थन करते हुए - ओह! तो इसीलिए आपने मेरे और छोटू को एक ही साइकिल दी है , ताकि हम दोनों भाइयों में रिश्तों को निभाने की अच्छी समझ आ सके।

पिता जी - हां ! मेरे सर पर अपना हाथ रखते हुए बोले।

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"किस सोच में डूब गए हो ? " नमिता ने एकदम से मुझे मेरे बचपन के ख्याल से उठा दिया।

कुछ नहीं ! बस बचपन की सैर कर रहा था।

नमिता - अब अगर सैर हो गयी हो तो अपने मकान पर चले।

नहीं ! हम लोग आज ही चलेंगे।

" कैसे आज जाओगे ? " नमिता ने बहुत तेज चिल्लाते हुए कहा।

तो क्या यही बैठकर अपने घर की मुसीबतों को अनदेखा करुँ।

इसी तरह हम दोनों में बहुत बहस हुई और अंततः मुझे ही अपने आँसू के घूट पीकर रहना पड़ा।

उस दिन मैं मन ही मन पूरी रात बस अपने को कोसता रहा , कि क्यों छोड़ आया अपना गाँव , अपने लोग , अपनी मिट्टी ... कितनी खुशहाल ज़िंदगी थी वहाँ पर !


क्यों ? दो पैसे ज्यादा कमाने के लिए छोड़ आये अपनी वो गलियाँ , हरे - भरे खेत !

वहाँ तो परायों में भी अपनों का एहसास होता था और यहाँ तो अपनों में परायों का एहसास होता है।

शर्मा चाचा - का हो रवि कहां हैन तोहार बाबू जी ? ( अपनी ठेठ भाषा में पूछते हुए )

शर्मा चाचा पिता जी से - काहो दिनावभर घरवा में सोवत रह ल , थोड़ा बाहर - वाहर का हाल -चाल भी ले लिया करह।

क्या हुआ शर्मा जी ?

अरे ! सुना है कि फलाने का लइका बहुत बड़ा नौकरी पाए बा ! उह रमेशवा कहत रहा कि अखबार में फोटो भी आइल बा। अब भइया हम त रही अनपढ़ जो ऊ बोले मान लिहा। सुना है कि पूरा गांव जुटल बा ओकरे घऱवा पर।

पिता जी - अब जो मन लगाकर ईमानदारी से पढ़ेगा , सफलता तो मिलेगी ही।

तोहार बात तो सोलह आने सत्य बा , इक हमार लइकवा दिनवाभर लफंगवन के साथ ई गांव से ऊ गांव एक कर देला।

शर्मा चाचा मुझे देखते हुए - ऐ रवि ! तू काहे नाही कुछ समझावत बा ओके की कुछ पढ़ लिख ले।

चाचा ! कितना उसको समझाता हूँ कि इन सब का साथ छोड़ के कुछ पढाई पर भी ध्यान दो , लेकिन उसके कान में जूँ ही नहीं रेंगती।


क्या बात लिखी है :

" गाँव को गाँव ही रहने दो साहब क्यों शहर बनाने में तुले हुवे हो..

गाँव में रहोंगे तो माता - पिता के नाम से जाने जाओंगे ,

और शहर में रहोगे तो मकान नंबर से पहचाने जाओगे। "


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इधर हम सभी प्रातः काल की ट्रेन से अपने घर की ओर रवाना हो लिए।

नमिता मेरी ओर इशारे से , " मैं कह देती हूँ , वहाँ पर मुझसे अपने सभी रिश्तेदारों के पैर मत छुवाने लगना। "

हाँ , ठीक है तुम को जिसका मन करे उसका छू लेना।

इधर ट्रेन में हमारी सीट के सामने वाली सीट पर एक और परिवार जा रहा था। मैं अपना सामान सीट के नीचे डालते हुए चैन से लॉक कर ही रहे था कि सामने वाले ने पूछ ही लिया।

भाई साहब ! आप लोग कहा जा रहे है ?

दरअसल उस समय मैं अपने ही ख्याल में खोया हुआ था इसीलिए मैंने कुछ जवाब नहीं दिया।

"जी इलाहबाद " इधर नमिता ने जवाब दिया।

अरे वाह ! हम लोग भी वही जा रहे है।


अब आपको तो पता ही है ट्रेन के बारे में :

"बहुत से लोग ढूँढ़ते है बात का मौका

जो एक बार शुरुवात तो होती है

फिर आखिरी स्टेशन पर जाकर ही

विराम का नाम लेती है।"


अब इधर नमिता भी अपनी उन लोगों से थोड़ी बहुत जान पहचान बढ़ाने लगी और जब उसके और सामने वाले त्रिपाठी जी की पत्नी के सुर और ताल मिलने लगे।

फिर नमिता ने अपने पिटारा खोलना शुरू किया जो मुझे कभी पसंद नहीं आया कि वो किसी के भी सामने अपने घर के गड़े मुर्दे उखाड़ने लगती है जैसे :- मेरी साँस ने मुझे ये कहा , इनका परिवार मेरे परिवार की इज़्ज़त नहीं करता।

नमिता ने अपना दुखड़ा गाना शुरू कर दिया , "और क्या बताऊं बहन जी मेरे यहाँ तो पूछिए ही मत ! हर बात पर टोकना , आज खाना में नमक कम है ... अरे ! ये दाल है की पानी ! ... ... ... "

" बिल्कुल सही कह रही है भाभी जी आप " उधर से भी पूरा सहयोग मिल रहा था।


चना ज़ोर गरम ... चना ज़ोर गरम...

चना ज़ोर गरम ... चना ज़ोर गरम...

बाबू मैं लाया मजेदार !


मुझे देखते हुए उसने फिर से गाना शुरू कर दिया - बाबू जी ये दुश्मन है ख़ुदग़र्ज़ का ...

खालो एक बार चना ज़ोर गरम !

मैं भी अपनी चुप्पी को तोड़ते हुए , " ऐ चना ज़ोर गरम "

जी बाबू कितना बना दूँ ?

चार बना दो !

चना त्रिपाठी जी को ऑफर करते हुए , "लीजिए भाई साहब "

चना अपने हाथ में लेते हुए " धन्यवाद भाई साहब ! अगर रेल सफर में कुछ खाने - पीने को मिलता रहे तो सफर का पता ही नहीं चलता है। "

जैसाकि इंसानी फितरत होती है कि तू चल फिर मैं आता हूँ ,मतलब ये हुआ कि बस शुरूवात कोई भी कर दें फिर देखिये सारी जमात पीछे लग जाती है।

इसका कहने का ये अर्थ हुआ कि हमनें तो बस चना ज़ोर गरम की बोहिनी करायी और हमारा देखा - देखी बाकी ने तो पूरी स्टॉक ही खाली कर दी।

इधर टिकट ... टिकट ... बोलते हुए 'टी.टी ' साहब हमारे बगल वाले कम्पार्टमेंट में आ चुके थे और इधर से दो लोग टॉयलेट की ओर निकल लिए थे।

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"मैं ये सब तेरे पापा से नहीं कहने जाऊँगी , तुम को तो पता ही है कि इस समय पैसे की कितनी 'तंगी ' चल रही है। " ये कहते हुए माँ ने मेरे बाहर कोचिंग के प्रस्ताव को पिता जी से पूछने से साफ़ इंकार कर दिया।

और इधर मेरे कुछ दोस्त घर पर मुझसे मिलने आये लेकिन मैं नहीं था तो पिता जी उनसे उनकी पढ़ाई - लिखाई और बाद का प्लान पूछने लगे।

किसी ने बोला कि कोचिंग करने , किसी ने बोला कि यही पर रहेंगे ...

तब मेरे दोस्तों से पता चला पिता जी को पता चला कि मैं भी कोचिंग करना चाहता हूँ।

जब माँ से पूछा इस बारे में तो उसने पैसे की 'तंगी ' वाली बात उनको बता दी। जिसे सुनकर पिता जी मन ही मन बहुत निराश हुए और चुपचाप बिना कुछ बोले अपने कमरें में चले गए।


उस रात जब हम सभी लोग खाना खा लिए तो पिता जी ने मुझसे कहा - रवि ! चलो आओ बाहर टहल आते है।

ऐसा बहुत ही कम बार होता है कि पिता जी रात्रि भोजन के बाद टहलने जाए जरूर कुछ न कुछ बात है। और इस तरह हम दोनों को टहलते - टहलते कब एक घंटे से दो घंटे हो गए समय का पता ही नहीं चला।

आज पहली बार पिता जी से मेरी अकेले में इतनी लम्बी बातचीत हुई। उन्होंने बहुत कुछ बताया , अपने बचपन की परेशानियों के बारें में , और कैसे उसका सामना करते थे वो भी बताया !

आज मुझे एक पिता नहीं बल्कि एक साथी सा अनुभव हो रहा।


लोगों ने सच ही कहा है

पिता ही साथी है , पिता ही सहारा हैं।


उन्होंने फिर मुझे अपनी एक ख़ास घटना बताई कि एक बार पेपर में मेरा कुछ प्रश्न छूट गए थे क्योंकि मुझे समय का ध्यान ही नहीं रहा , अगर उस समय मेरे पास घड़ी होती तो शायद मैं अपने और कुछ प्रश्न सही कर लेता।

इधर मैं अपने घर की स्थिति जानता था इसीलिए मैंने अपनी कोचिंग वाली बात अपने मन में ही दबाये रखी।

पिता जी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए - फिर वही हुआ जिसका मुझे अंदाज़ा था कि मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ और मैं बहुत ही मायूस सा बैठा हुआ कुछ सोच ही रहा था कि पिता जी मेरी आँखे बंद करवाके मेरे हाथ में घड़ी पहनाते हुए मुझे गले लगा लिया।


उस समय मेरे आँखों से आँसुओ की धारा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थे और ये बता पाना मुश्किल था कि ये पिता के प्यार के है या सेलेक्शन ना होने के दुःख के।

मैं ये समझ नहीं पा रहा था कि अपनी कोचिंग वाली बात पिता जी से बोलू या ना बोलू ?

ये सब सोच ही रहा था कि पिता जी ने बोल ही दिया - रवि ! मैंने तुम्हारी कोचिंग के लिए पैसे का बंदोबस्त कर दिया है।

लेकिन पापा ! मुझे कोचिंग नहीं करनी है ?

मुझे सब पता है बेटा ! , तेरे मन में क्या चलता हैं।


तुम अपने घर की स्थिति देखते हुए अपने बेटे का फ़र्ज़ निभाया , अब मैं परिवार का मुखिया होने के नाते अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूँ।

मैं थोड़ा उदास मन से - पापा आप क्यों इतनी मुसीबत ले रहे है ? मै घर से ही तैयारी कर लूँगा , वैसे भी नोट्स तो है मेरे पास !

इतना सुनते ही पिता जी के आँखो से फिर से वही आँसू गिरने लगे और जो ५० साल पहले का किस्सा फिर याद आ गया जहाँ एक बेटा आज एक बाप बनकर अपने बेटे को गले लगा रहा था।

पिता जी अपने आँसू पोछते हुए - कोई नहीं बेटा ! तू भी कुछ बनकर अपने बड़े भाई का फ़र्ज़ निभाना।

आज ये सब सभी यादें रह - रहकर मुझे याद आ रही थी।


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रवि ! ... नमिता ने मेरे को मेरे बचपन से फिर ट्रेन में ला दिया।

कहाँ खोए - खोए हो ? देखो स्टेशन आ गया मुन्नू के लिए कुछ खाने - पीने के लिए ले आओ और हाँ ! अगर कुछ नमकीन , जूस मिले तो ले लेना ! इतना कहते हुए नमिता खिड़की से बाहर देखने लगी।

इधर मैं जैसे ही कोच के बाहर निकला तो देखता हूँ कि न जानें कितने फेरी वाले कुछ न कुछ चीज़ें बेच रहे थे जैसे कि गरम चाय , केला , ब्रेड , समोसे अन्य बहुत कुछ !

एक दुकान पर पहुँच कर मैंने सब खाने - पीने की चीज़ लेकर जैसे ही निकला तो देखा की तक़रीबन एक ८ साल का लड़का जिसके कपड़े फ़टे हुए और देखने में लगता था कि जैसे बहुत दिनों से कुछ खाया न हो।

मेरा पैर पकड़ कर बोलने लगा - साहब कुछ खाने को दो न बहुत जोरों से भूख लगी है दो दिन से कुछ नहीं खाया हूँ।

कुछ खाने को दो न भगवान आपका भला करे।

इस समय मेरा ध्यान तो उसके पैरों की उंगलियों तरफ चला गया , जहाँ उसकी पाँच में से सिर्फ तीन ही उंगली थी और इतनी गर्मी में बिना चप्पल के उसके पैर की हालत देखकर मुझे बहुत दुःख हो रहा था।

साहब ! मेरे बाबू जी का बस मैं ही अकेला सहारा हूँ क्योंकि वो अपाहिज़ है। उन्होंने भी दो दिन से कुछ नहीं खाया है और उनकी तरफ इशारा करते हुए मुझे अपने बाबू जी दिखाया।


मैंने देखा तो मुझे अपनी आँखो पर और अपने मन पर उन दोनों के प्रति सहानुभूति सी आ गयी।

मैंने खाने का पैकेट उसके हाथ में देते हुए पूछा - तुम्हारे बाबू जी का पैर कैसे काट गया ?

लड़का एक रुआँसे भरी आवाज़ में - साहब ! बाबू जी एक फैक्ट्री में काम करते थे उसी फैक्ट्री में एक बार दुर्घटना घाटी ; जिसमे इन्होंने अपने दोनों पैर गवा दिए ; धीरे - धीरे हम लोग बेघर हो गए और अब जीवन जीने के लिए भीख ही एक सहारा है।

इतना कहते ही वो ज़ोर - ज़ोर से रोने लगा।

मैं उसे सांत्वना देते हुए अपने जेब से कुछ रुपये उसके हाथ में देते हुए बोला ये लो अपने लिए चप्पल और अपने बाबू जी के लिए कुछ दवाई खरीद लेना।

लड़का - साहब ! आप की बहुत दया होगी , लेकिन मैं ये पैसे नहीं ले सकता क्योंकि मुझे अभी केवल खाने की आवश्यकता है और वो तो आपने दे ही दिया है।

साहब ! मैं सब कुछ कर सकता हूँ अगर मेरे लायक कुछ काम हो तो बताइए साहब !

इस तरह भीख मांगकर मैं अपनी ज़िन्दगी नहीं जीना चाहता हूँ।

उस बच्चे का आत्मसम्मान को देखकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा और सोचने लगा कि इतना छोटा बच्चा और इसकी बातें इतनी बड़ी।

इधर हमारी ट्रेन की सीटी बज गयी और मैं उसके हाथ में पैसा रखते हुए बोला - रख लो काम आएंगे।


"अरे ! क्या बाजार चले गए थे क्या ? " मेरे को देखते ही नमिता ने पूछा।

" अरे नहीं ! दरअसल एक छोटा - सा गरीब लड़का मिला गया तो उसी से बातें करने लगा। " मैंने बोला।

नमिता - फिर तो वहाँ पर आप कुबेर बनकर दान भी दिया होगा ?

मैंने जवाब दिया - भूखा था बेचारा ! खाने को दे दिया तो क्या गलत कर दिया ?

नमिता ने पूरी कटाछ मारते हुए कहा " भूखा नहीं ! ये सब इन लोग का भले लोगों को बेवकूफ़ बनाने की तरकीब है इधर आप से पैसा लेंगे और उधर जाकर गलत काम करेंगे।"

इधर आग में थोड़ा घी डालते हुए सामने बैठी त्रिपाठी जी की धर्म पत्नी जी भी अपना पिटारा खोलने लगी - " एक बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ था दरअसल मैं और पिता जी रेलवे स्टेशन पर टिकट की लाइन में लगे थे कि दो लड़के आकर पिता जी का पैर पकड़ने लगे और चिल्लाने लगे कि बाबू जी - बाबू जी पैसे दो भूख लगी है और मेरे दया वान पिता जी ने दोनों को कुछ पैसे दे दिए। लेकिन कुछ समय बाद देखा कि दोनों लड़के रेलवे ओवर ब्रिज के नीचे बैठकर बीड़ी पी रहे थे। "

अब जिसके नसीब में जो भी होता है , वो तो होगा ही मैं और आप तो बस एक कठपुतली है। मैंने तो उसको मानवता को ध्यान में रखते हुए पैसा दे दिया अब वो उसकी मर्ज़ी चाहे वो उससे अपना पेट भरे या बीड़ी पिये।


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"अरे भाई ! एग्जाम में तेरा क्या हुआ ? " एक दोस्त ने मुझसे एग्जाम के रिजल्ट के बारे पूछा।

अरे दोस्त ! नहीं हुआ और मैं अपना सा मुँह लेकर रह गया।

" अरे कोई नहीं दोस्त ! इस बार नहीं हुआ तो क्या हुआ , अगले साल तुम्हारा जरूर होगा। " इस मुश्किल के दौर में मेरे अंदर कुछ विश्वास भरते हुए बोला।


इसीलिए कहते है कि

" एक दोस्त जरूर होना चाहिए जो हर मुसीबत में साथ खड़ा हो। "


इधर पिता जी का भी पत्र मिला जिससे वहाँ पर सब कुछ कुशल- मंगल होने का समाचार मिला जिससे मेरे टूटे हुए आत्मविश्वास को एक मजबूती प्रदान हुई। इसी आत्मविश्वास के साथ मैंने कठिन परिश्रम करने का दृढ़ संकल्प लिया।

लेकिन अभी तक मैंने घर वालों को अपनी असफलता की बात नहीं बतायी थी जो कि रह - रहकर मुझे उनकी नज़र में धुल झोकने सा लग रहा था।

"हर आदमी सफल तभी होता है जब वह सच्चा और ईमानदारी से अपने कर्म को करे। " इसी को मानते हुए मैंने अपनी असफलता की बात पत्र में लिखते हुए अपने दिल से एक बोझ को हल्का किया।


मेरे इस पत्र के जवाब में पिता जी का जो पत्र आया उसने तो मेरा विश्वास चार गुना बढ़ा दिया।

प्रिय अनिल , हम सभी लोग यहाँ पर बहुत अच्छे से है।


तुम दुःखी मत होना , असफलता ही सफलता की कुँजी होती है , तुम इसको पहचानों !

एडिशन ने तो एक हज़ार से ज्यादा बार असफल होकर भी हार नहीं मानी और बिजली के बल्ब का आविष्कार करके हम सभी लोगों पर कितना बड़ा उपकार किया है।

तुम एक ही बार में हार मान लिए ?

अगर तुम्हारे इरादे अटल हो तो सफलता को कोई भी रोक नहीं सकता।


इसी हिम्मत के साथ अगले एग्जाम में मैंने सफलता दर्ज़ की बल्कि अव्वल स्थान भी प्राप्त किया। इस सफलता का पूरा श्रेय अपने माता- पिता के आशीर्वाद और दोस्त की मदद को दूंगा।


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" भाई साहब ! आप क्या करते है ? " त्रिपाठी जी ने इधर से पूछ लिया।

दरअसल इस समय मैं ज्यादा बात करने के मूड में नहीं था लेकिन तब भी मैंने उनकी बात का जवाब देते हुए - जी नौकरी करता हूँ।

बहुत अच्छा ! मैं भी स्टील कंपनी में काम करता हूँ।

इस बार मैंने अपना जवाब बहुत ही सीमित करते हुए बस " हाँ " में बोला।

इधर नमिता का बातों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था ऐसे - ऐसे विषय पर चर्चा हो रही थी जिसका अस्तित्व सिर्फ इस यात्रा तक ही सीमित रहेगा।

देखा जाए तो हमारा सफर लगभग एक दिन का होता है तो ट्रेनों में इतनी देर तक बैठे - बैठे अपने आप नये - नये मुद्दे निकलकर आ ही जाते है। ऐसे ही बातें होते - होते कब सब लोग अपनी - अपनी सीट पर सो गए पता ही नहीं चला !


सुबह की नींद तो पेपर वाले ने तोड़ी !

साहब हिंदी पेपर ... दैनिक जागरण , अमर उजाला , आज ... .

पढ़ो आज की ताज़ा खबर ... ताज़ा खबर आप के सीट पर !

ऐसा हमेशा देखा गया है कि बहुत से लोगों की दिन की शुरुवात एक हाथ में अखबार और दूसरे हाथ में चाय के कप से होती है।

तो दूसरी कमी को पूरा करने पीछे - से गरम - चाय ...

इलायची और अदरक से बनी बढ़िया चाय !

अच्छा ना लगे तो पैसा वापस !


बाबू जी एक बार पीलो

कोई इतना कहे , तो लोग चाय पी ही लेते है अब चाय अच्छी हो या फीकी हो लेकिन मिट्टी के कुल्हड़ में उसका स्वाद कुछ अलग ही होता है।

अभी ये गया ही था कि दूसरा आ गया

नीम का दातून ... नीम का दातून ...

अब इतनी जल्दी में बहुत से लोग ब्रश , मंजन लेके नहीं चलते है तो दातुन ही एक अच्छा विकल्प होता है इसको आसानी से इस्तेमाल किया और फेंक दिया।


" अरे भाई साहब ! ये देखिये आप के यहाँ की न्यूज़ छपी है जमीन को लेकर एक विवाद में बेटे ने बाप का क़त्ल कर दिया " त्रिपाठी जी अख़बार का वो हिस्सा मेरे को दिखाते हुए बोले।

पेपर मैं उनसे लेते हुए उस न्यूज़ पर आँखे गड़ाते हुए पढ़ने लगा। अरे ! ये तो मेरा बचपन का दोस्त है लेकिन इसने ऐसा क्यों किया ?

" वाह रे ज़माना ! अब यही सब सुनना बाक़ी रह गया था " त्रिपाठी जी अब शुरू हो गए

एक युग था जिसमे भगवान् श्री राम धर्म के लिए अपने पिता के दिए हुए वचन को पूरा करने के लिए अपना सारा राज - पाट छोड़कर चौदह साल के वनों - वनों भटकते रहे और आज के युग में तो एक तिनका सा जमीन के लिए लोग अपने धर्म को जड़ से उखाड़ दिए है।

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इधर मैं पढाई कर ही रहा था कि रिश्तेदारों की तरफ से शादी का दबाव आने लगा।

उस समय तो शादी उम्र नहीं लम्बाई देखकर की जाती थी ! मतलब ये कि अगर लम्बाई ठीक - ठाक है तो शादी हो जाती थी।

उस हिसाब से मैं शादी के इस बेंचमार्क को पूरी तरह पास कर रहा था। लेकिन मैं इसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था क्योंकि अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी और उसके बाद एक नौकरी भी मिलनी थी फिर जाकर शादी के बारे में सोचता।

लेकिन आपके चाहने से दुनिया नहीं चलती है।

फिर क्या होना था शादी का फरमान जारी हो गया और उस समय तो शादियाँ बड़े बुज़ुर्ग ही तय करते थे।

मेरी शादी भी मेरे दादा जी ने तय की थी अपने बचपन के मित्र की नातिन से !

उस समय तो लोग पैदा होते ही अपनी रिश्तेदारी का बीज बो देते थे। उसी बीज से बने हम दो पेड़ " मैं और नमिता " जिसकी छाव में हम दोनों के परिवार अपने जीवन में आने वाली आँधियो से खुद को बचाने का प्रयास कर रहे थे।

पिता जी - बेटा ! अगर तुमको अभी शादी नहीं करनी है तो बोलो मैं तुम्हारे दादा जी से बात करता हूँ ?

नहीं ! पापा ऐसी कोई बात नहीं है।

मैं जानता था कि दादा जी कभी नहीं मानेंगे और वो भी अगर बात समाज में प्रतिष्ठा को लेकर हो तो फिर कभी नहीं ! पहले तो लोग समाज में अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए ऐसे - ऐसे फैसले करते थे जिससे उनके परिवार के सदस्यों को आने वाले समय में बहुत बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ता था।


पिता जी - क्या हुआ बेटा ?

पिता जी मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरी इस नादानी की वजह से हमारे पूरे खानदान को समाज में आँखे नीची करके चलना पड़े।

अपनी बात को आगे ले जाते हुए - बेटा ! तुम्हारे दादा जी के इसी फैसले की वजह से तुम्हारे चाचा की ज़िन्दगी पूरी तरह से बिखर गयी है लेकिन वो भी इसी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए आँसू पीकर जी रहा है। मैं नहीं चाहता कि ये तुम्हारे साथ भी हो।


पापा ! आप मेरी फ़िक्र मत करिये !

जो मेरे किस्मत में लिखा हुआ है वो तो मुझे मुस्कुराकर या रो - रोकर उसका सामना करना ही है।

" वैसे भी आदमी अपनी किस्मत खुद बनाता है। "

पता नहीं क्यों रह - रहकर ये सारे ख्याल मेरे दिमाग में अपने आप आये जा रहे थे।


मैं शादी करके अपनी पढ़ाई पूरी करने लखनऊ लौट आया। और इधर देखते - देखते मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गयी।

पढ़ाई तो पूरी हो गयी लेकिन नौकरी का कही कोई ठिकाना नहीं हो पाया था। दिन पे दिन गुजरते गये और हर जगह से नौकरी के फरमान की अर्ज़ी अस्वीकार मिलती गयी। अब तो मेरा खुद का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा।

जब

"आत्मविश्वास के साथ आप अपने सपनों को हक़ीक़त में बदल सकते है ,

और वही आत्मविश्वास के बिना छोटी सी उपलब्धि भी आपसे दूर जाती हुई दिखाई देती है।

और वही मेरे साथ हो रहा था


इधर मैं बैठा - बैठा कुछ सोच ही रहा था कि गली के सामने पिता जी का तांगा रुका।

मुझे अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिसको अभी कुछ देर पहले मैं मन ही मन भगवान से मना रहा था कि काश वो इस समय मेरे साथ होते और भगवान् ने मेरी बात सुन ली।


मैं जल्दी - जल्दी नीचे उतरकर पिता जी से आशीर्वाद लेते हुए , उनका एक छोटा सा बक्सा एक हाथ में और राशन भरा बोरा दूसरें हाथ में लेते हुए आगे - आगे कमरे की तरफ चलने लगा।

दरअसल उस जमाने में लोग हमेशा साथ में कुछ राशन लेकर चलने का रिवाज़ था जबकि आज तो मिठाइयाँ , बिस्किट , नमकीन आदि का है।

घर में घुसते हुए मैं पिता जी से - पिता जी ! न कोई चिठ्ठी।, न कोई पैगाम घर पर सब कुशल - मंगल तो है ?

हाँ बेटा ! सब सही हैं बस यूँही कुछ दिनों से तेरी बहुत याद आ रही थी तो सोचा तुझसे मिलता चलूँ। और बता तेरी पढ़ाई - लिखाई कैसी चल रही है ?


सब अच्छी चल रही है। तीन - चार जगह नौकरी की अर्ज़ी दे रखी हैं बस उसी का इंतज़ार कर रहा हूँ। अगर कही अर्ज़ी पर सहमति बैठ गयी तो ज्वाइन करने के पहले गाँव आने का प्लान भी किया हूँ।

पिता जी - भगवान की कृपा रही तो तुम बहुत तरक्की करोगे !

और पिता जी माँ कैसी है ?

पिता जी - माँ तो ठीक है बेटा ! दरअसल में मैं उसी सिलसिले में कुछ बात करना चाहता हूँ।

हाँ ! पिता जी बोलिये ?

पिता जी - अब तू तो जनता ही हैं कि तू घर का बड़ा बेटा है और भगवान की दया से तेरी बहनें भी खुशी - ख़ुशी अपने ससुराल रह रही है।

पिता जी ! मुझे लगता है कि आप मुझसे कुछ छुपा रहे हैं आपके चेहरे के भाव को देखकर साफ़ - साफ़ पता चल रहा है ?

पिता जी - नहीं बेटा ! ऐसी कोई बात नहीं हैं , बस यूँही उम्र के साथ चेहरे के भाव भी बदलने लगते है।

फिर पिता जी ने बहुत हिम्मत करके अपने दिल में दबा के रखी हुई बात निकाला - दरअसल बेटा आजकल तेरी माँ की तबियत कुछ ठीक नहीं चल रही हैं और आये दिन कुछ न कुछ दवा / डॉक्टर लगा रहता है।

मैं इधर बहुत चिंतित से मन से - क्या हुआ माँ को पिता जी ?

पिता जी - अभी वो ठीक है बेटा ! इसीलिए हम लोग सोच रहे है कि बहू का गौना कराने का समय आ गया हैं ?

पापा ! ये सब बात आपने मुझे क्यों नहीं बताई ?

पिता जी - कितनी बार कोशिश किया की खत में लिखकर बता दूँ लेकिन हर बार हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था और वैसे भी ये सब जानकर तेरी पढ़ाई में भी तो रुकावटें आएँगी।

इधर भावुकता के कारण मेरी आँखों से अपने आप पानी आ गया।

उसी भावुकता के साथ मैंने पिता जी की ओर इशारा करते हुए - आप मुझे अपने परिवार का सदस्य नहीं समझते है नहीं तो इतनी बड़ी बात आप मुझसे नहीं छुपाते।

पिता जी - नहीं बेटा ! ऐसी बात नहीं है।

पिता जी ! अभी इस समय हम सभी लोग को माँ के पास होना चाहिए। मैं उनकी सेवा करूँगा।

और इस तरह सही मुहूर्त देखकर गौना का दिन निर्धारित हो गया, और नमिता का दुल्हन के रूप में भव्य तरीके से स्वागत किया गया।


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त्रिपाठी जी - अरे भाई साहब ! किस सोच में डूबे है ? लगता हैं कि जैसे - जैसे घर नज़दीक आ रहा है ; वैसे - वैसे आपका मन भी आनंदमय हो रहा है।

इस बार मैंने एक छोटी से मुस्कान के साथ जवाब दिया - हां ! अब थोड़ा अच्छा लग रहा है।

त्रिपाठी जी - अपने गांव के मिट्टी की खुशबू ही ऐसी होती हैं कि जो सबको अपने पास खींचे ले आती है।


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"रवि क दुल्हिन त बड़ा नीक बाटे" जो भी महिला घर आती नमिता को देख के यही बोले जाती थी ।


एक चाची ने तो नमिता को काला धागा देते हुए यहाँ तक बोल दिया , " ऐ बच्ची इ ल काला धागा पहिन ल केहू का नज़र ना लगी "

कुछ ही दिनों में नमिता ने घर की पूरी ज़िम्मेदारी अपने हाथों में ले ली और धीरे - धीरे माँ भी ठीक हो गयी।

लेकिन हमारे घर की शांति कुछ ज्यादा दिन तक नहीं चली , और फिर वही सांस और बहू के प्रचलित किस्सों हमारे घर में भी शुरू हो गए। अब इसकी शुरुवात कैसे हुई ? ये बता पाना मुश्किल था क्योंकि मैं भी दिनभर अपनी नौकरी पर रहता था और जब घर आओ तो दोनों लोगो की पंचायत सुनता था ।


हमेशा सुना और देखा गया है कि -

सांस की छवि को सदैव नकारात्मक दिखाया जाता है और बहू को सांस का अत्याचार सहने वाली ' बेचारी ' के रूप में। लेकिन हमारे यहाँ इसका चुनाव कर पाना थोड़ा मुश्किल था

इधर धीरे - धीरे हमारे यहाँ ये तकरार एक बड़ा रूप लेता जा रहा था इतना हो गया की दोनों एकदूसरे को एक आँख नहीं भाती थी और इस युद्घ में मैं घुन की पिसता जा रहा था।


और वही हुआ जिसका मुझे डर था घर एक लेकिन चूल्हे दो !

सही कहा है -

"रोटी कमाना कोई बड़ी बात नहीं है , लेकिन

परिवार के साथ रोटी खाना बड़ी बात है।"

अब मेरे लिए निर्यण ले पाना मुश्किल था कि किसके पास खाना खाऊं ?

उसके पास जिसने मुझे नौ महीने अपनी कोख में रखा था या उसके यहाँ खाऊ जिसके साथ मैंने साथ फेरे लिए थे।

इसी सब के कारण मुझे कुछ दिन खाने की इच्छा ही नहीं हुई।


घर में निर्यण लेने वाले दादा जी परलोक सिधार गए थे और पिता जी भी अपनी चुप्पी साधें हुए थे।


वह परिवार जिसमें एकता होती हैं वह हर तरह से खुश और समृद्ध होता है।

लेकिन हमारे यहाँ तो ये पूरी तरह से चरमरा गयी थी और इसका ये नतीजा हुआ कि हमने उन सभी हमारा अच्छा नहीं सोचने वालो को एक अच्छा मौका दे दिया इस दरार को और गहरा करने का !

अब तो मैं भी तंग हो गया था हर दिन की लड़ाई सुन - सुनकर !

एक बार तो हद ही हो गयी थी। मैं अपनी नौकरी की तरक्की से खुश होकर सभी घर वालों के लिए कपड़े और मिठाईयाँ लिया सोचा चल कर अपनी ख़ुशी उनके साथ बाटूंगा लेकिन मेरी ये ख़ुशी मेरे घर के लिए एक तूफ़ान लिए खड़ी थी।

इधर घर पहुँचकर सबसे पहले मैंने माँ का आशीर्वाद लिया और उनकी अपनी तरक्की की बात सुनाते हुए एक साड़ी उनको दी ! फिर पिता जी से आशीर्वाद लिया।

पिता जी - बेटा ! बहू को बताया की नहीं ?

नहीं ! पिता जी सीधे आप लोग का आशीर्वाद लेने आ गया बस अब जा ही रहा हूँ , उसके पास !


मैं जैसे ही कमरे में घुसा मुझे देखते ही नमिता एकदम आग बबूला हो गयी और इतना चिल्ला के बोली कि जिससे घर के सभी लोग सुन सकते थे - जब मैं आपकी कुछ नहीं लगती हूँ तो क्यों कि मुझसे शादी ?

मैं इधर - उधर देखते हुए कि कही कोई सुन तो नहीं रहा है - अरे धीरे बोलो ! कुछ बताओगी कि हुआ क्या है ?

नमिता - मैं क्यों धीरे बोलूँ , जिसको सुनना है वो सुने ! मुझे किसी का डर नहीं लगा हैं !

लेकिन आज इस बात का फैसला होकर रहेगा कि आप मेरे साथ रहना चाहते है या अपनों के साथ ?

मैं बहुत धीमें आवाज़ में - क्या तुम मुझे अपना नहीं मानती हो ?

नमिता बहुत गुस्से में - नहीं मानती , तभी तो बोल रही हूँ अगर आप मुझे अपना समझते है तो आपको मेरे साथ अकेले कही और रहना होगा। अब फैसला आपके हाथ में है।

नमिता ये तुम क्या बोल रही हो ?

नमिता - अब यही मेरा आखिरी फैसला है , अब मैं यहाँ एक पल नहीं रहूँगी मुझे अभी के अभी मेरे घर छोड़ो। और हां जब कही और ठिकाना हो जाये तब मुझे बता देना।


इधर सभी के समझने - बुझाने का हर प्रयास विफल रहा। और आज मैं एक हारे हुआ राजा की तरह अपनी प्रजा और राज्य छोड़कर कही और शरण लेने जा रहा था ।


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आज फिर उसी स्टेशन पर पिता जी ने आखिर हमलोगों को पांच साल बाद बुला लिया , जिस स्टेशन से हमने अपनों को पराया बना दिया था।

इधर हमलोग तांगा लेते हुए सीधे घर की तरफ निकल लिए। कितना कुछ बदल गया है इन पांच सालो में !

और मैं मन ही मन सोचता रहा कि कैसे सभी लोगो का सामना करूँगा।

न जाने कितने सवाल पूछें जाएंगे ?

नहीं , मैं बोल दूंगा मुझे माफ़ कर दीजिये आप सभी लोग !

क्या वो सभी मुझे माफ़ कर देंगे ?

मन के इन सवालों के सवाल-जवाब के बीच हमारा ताँगा घर के गलियारें पर जा रुका।

घर पर बहुत से रिश्तेदार आये हुए थे लगता है कि कुछ गड़बड़ है।

इधर हम लोग को लेने नमिता के मम्मी - पापा आ गए। मैंने दोनों लोगो का आशीर्वाद लिया और पिता जी की हालत के बारे में पूछा।

वो बोले की अस्पताल में पिता जी तुम लोगों का ही इंतज़ार कर रहे हैं और इतना बोलकर हम दोनों को पिता जी के पास जाने की तैयारी करने लगे।

इधर मुझे ये देखकर थोड़ा सुकून सा होने लगा कि आज नमिता की मम्मी मेरी माँ का इस संकट में पूरा साथ दे रही थी। जबकि पहले तो दोनों एक दूसरे को एक आँख नहीं भाती थी।

इसका कारण नमिता के भाई ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले जब हमारे पटीदारों ने हमारी जमीन पर अपनी हिस्सेदारी का दावा किया था तो उस बुरे दौर में जब हमारे सभी चाचा लोग एक तरफ हो गए थे।

तब आपके पापा ने हमारे परिवार की बहुत मदद की थी इधर हमलोग की ज़मीन मिली और उधर आप के पापा की हालत भी बहुत ख़राब होती चली गयी।

जब हम इनको अस्पताल ले गए तो डॉक्टर साहब ने बताया कि इनकी हालत तो बहुत दिन से ख़राब है इनको तो मैंने आराम करने की हिदायत दी थी जब ये मेरे पास चेक कराने के लिए आये थे।

लेकिन ये सब जानते हुए भी पिता जी ने हमारी जमीन दिलाने में न जाने कितनी बार कभी पटवारी के कार्यालय, तो कभी तहसीलदार के कार्यालय में चक्कर लगाये।

जीजा जी उनकी ऐसी हालत के लिए हम लोग ज़िम्मेदार है न ही वो इतना दौड़ - धूप करते और न ही उनकी ऐसी हालत होती। इतना बोलते हुए वो ज़ोर - ज़ोर रोने लगा

और इधर नमिता भी सब बातें सुनकर ज़ोर - ज़ोर से रोने लगी और अपने को कोसने लगी।

"माँ मुझे माफ़ कर दो मेरी वजह से न जाने कितने कष्ट आपने झेले है " नमिता इतना बोलते हुए माँ के पैरों पर गिर गयी।

इधर हमलोगों को आने में थोड़ी देर हो गयी थी क्योंकि हम लोगों के अस्पताल पहुंचने के पहले ही पिता जी इस दुनिया को अलविदा बोल चुके थे।

मैं तो एकदम चुप बस उन्हीं देखता रहा।

और नमिता ज़ोर - ज़ोर रोते हुए अपने को कोस रही थी कि क्यों नहीं मैं कल आ गयी... ...

पिता जी मुझे माफ़ कर दीजिए ... ...

आज पिता जी अपने परिवार को एक सूत्र में पिरोकर खुद दूसरी दुनिया में चले गए।

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