गवाक्ष
25==
अचानक कॉस्मॉस की दृष्टि एक श्वेत रंग के चार-पहिया वाहन पर पड़ी, जिसने उसे आकर्षित किया और वह उस वाहन के पीछे अपने अदृश्य रूप में चल दिया।
एक लंबे-चौड़े अहाते में जाकर वह गाड़ी रुकी और दो श्वेत वस्त्रधारी मनुष्य उस में से एक महिला को निकालकर एक लंबी सी चार पहियों वाली लंबी खुली हुई गाड़ी जैसी चीज़ पर लिटाकर ले जाने लगे ।
" लो स्ट्रेचर आ गया, हम अस्पताल पहुँच गए हैं अक्षरा "
कॉस्मॉस के कान खुले, दो नवीन शब्द थे 'स्ट्रेचर'जिसे महिला के साथ वाली उसीकी हमउम्र महिला के मुख से सुना था । दूसरा अस्पताल ! जिसके भीतर उस महिला को ले जाया जा रहा था । यह एक बहुत बड़ी कई मंज़िला साफ़-सुथरी इमारत थी जिसमें बहुत से लोग विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण किए हुए कार्य में संलग्न दिखाई दे रहे थे। अधिकांश कर्मचारी अपने वस्त्रों पर श्वेत कोट धारण किए हुए थे। कॉस्मॉस वातावरण को समझने का प्रयास करने लगा।
स्ट्रेचर पर जाने वाली महिला का नाम कॉस्मॉस ने अक्षरा सुना था लेकिन जब उसको एक बड़े से कक्ष के द्वार पर पहुँचाकर दूसरी महिला उसका नाम लिखवाने आई तब उसने एक काँच की खिड़की के पीछे बैठी महिला को लिखवाया --सत्याक्षरा !
'अरे!' कॉस्मॉस चहक उठा । उसे विश्वास नहीं हो रहा था, वह तो उत्सुकतावश उस श्वेत चार पहियों के वाहन के पीछे चला आया था। यहाँ भी वही नाम टकराया जिसकी खोज में वह भटक रहा था। फिर यह सोचकर उसका मुह लटक गया कि उसे कितने 'सत्य' क्यों न मिल जाएं, जब तक उसका लक्ष्य पूर्ण नहीं होता तब तक उसे इसी प्रकार भटकना है!
पीड़ा से कराहती सत्याक्षरा यानि अक्षरा को एक ऊँचे स्थान पर बैठा दिया गया । अक्षरा के भीतर शिशु की हलचल से सुखद उमंग भरा मातृत्व छलक रहा था । इस अलौकिक संवेदन से उसके मुख पर लालिमा की छटा छा गई थी । लगभग 25 /26 वर्षीय यौवन व सौंदर्य से परिपूर्ण अक्षरा (सत्याक्षरा)के मुख व शरीर पर इस समय पीड़ा की सलवटें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई थीं जिन्हें समेटने के प्रयास में वह कराहटों से उस कक्ष में कुछ इस प्रकार भौंचक हो अपने चारों ओर के वातावरण को तोलने का, कुछ तलाशने का प्रयास करने लगी मानो कोई मासूम बच्चा अचानक किसी मेले में अपनी माँ से बिछड़ गया हो । उसने अपनी सखी शुभ्रा का हाथ अपने हाथ से भींचकर पकड़ रखा था जैसे अकेली रह जाने पर उसे कोई निगल जाएगा ।
प्रसव वेदना बढ़ती जा रही थी, अक्षरा के वेदना पूर्ण अंगों से मातृत्व प्राप्त करने की अनुभूति के उत्साह को देखकर उसकी सखी शुभ्रा के मुख पर भी नन्ही सी मुस्कान थिरक उठी। माँ बनने के समय माँ व शिशु के मध्य के बंधन के समान समीप व प्रगाढ़ अन्य कोई रिश्ता नहीं होता । शुभ्रा उसकी मानसिक व शारीरिक स्थिति को भली प्रकार समझ रही थी। गर्भ की पीड़ा से कराहती अपनी सखी के सिर को अपने वक्षस्थल से सटाए शुभ्रा एक हाथ से उसका सिर सहला रही थी तो दूसरे हाथ को गोल घेरे के समान उसने उसे घेर रखा था ।
रिश्तों की हथेली पर
उगते हुए सूरज से
रिश्ते कितने अपने
कितने हैं गैरों के -------
कैसे होते हैं रिश्ते ! ऐसे रिश्ते जिनमें न कोई रक्त का रिश्ता था, न कोई जाति का, न कोई बिरादरी का और न ही कोई शहर या गाँव का । बस एक रिश्ता था, मानवता का-मित्रता का जिसे दोनों न जाने कबसे निभा रही थीं । कितना सघन रिश्ता ! कितना अपना रिश्ता !
इसी समय कमरे के द्वार से मुह-नाक पर कपडे की पट्टी चिपकाए दो सायों ने भीतर प्रवेश किया । सत्याक्षरा की साँसों की गति बढ़ गई। सायों ने आगे बढ़कर उसे बिस्तरनुमा ऊँचे स्थान पर लिटा दिया, कमर के नीचे के भाग में पीछे की ओर से नुकीली सूईं से कोई तरल पदार्थ उसके शरीर में प्रविष्ट करा दिया गया, शनै:शनै: उसके नेत्र मुंदने लगे । रोशनी के बावजूद भी कक्ष में अन्धकार भरने लगा |
यह उसे क्या हो रहा था ? यकायक एक फुसफुसाहट सी उसके कानों में तैरने लगी ---शीतल पवन के झौंके सी गुनगुनी फुसफुसाहट---उसके कान उस प्यारी सी गूँज को कैद करने की होड़ में तत्पर हुए । कोमल, मधुर शब्दों में कोई उसे पुकार रहा था। यह उसे क्या हो रहा था, कोमल, मधुर फुसफुसाहट उसके भीतर गुनगुनाने लगी ---
"सत्याक्षरा--" फुसफुसाहट उसके भीतर उतरी । एक बार नहीं कई-कई बार ---धीरे-धीरे वह फुसफुसाहट तब्दील होने लगी ---
माँ ------'
माँ! एक ऐसा मधुर शब्द
जिसे किसी और संबोधन की ज़रुरत ही नहीं होती-----
अपने नाम के स्थान पर अब उसे केवल मधुर शब्द 'माँ' सुनाई दे रहा था । काँपते हाथों से उभरे पेट को सहलाते हुए अपने कान उस मीठे स्वर की ओर लगा दिए। अर्धनिमित आँखों से उसने चारों ओर देखा, शुभ्रा कहाँ चली गई? कुछ भी न था केवल 'माँ' के सुरीले कोमल स्वर के अतिरिक्त !एक मीठी सी लरज से उसके मुख पर मुस्कराहट की एक लहर पसर गई, वह भूलने लगी कि उस कक्ष में कोई और भी था । जीवन का अमूल्य क्षण जी रही थी वह !प्रसव पीड़ा नेत्रों की कोरों से उसके गालों पर फिसलने लगी।
'माँ------माँ-----'जैसे किसी ने उस पर जादू कर दिया हो ।
"कौन हो ---? सामने आओ --"
"मैं हूँ -----"
"मेरे समक्ष आओ न -----" कराहते हुए उसने कहा ।
" तुम्हारे समक्ष ----? तुम किसे देखना चाहती हो?"
"अपने कोमल शिशु-पुष्प को ---"पीड़ा दबाते हुए उसने कहा और मौन हो सामने घूरने लगी।
रहस्य उसकी बुद्धि से परे था, पशोपेश में थी वह, इतनी कि कुछ देर के लिए अपनी पीड़ा भूलकर वह चौकन्नी होकर उस ओर टकटकी लगाकर देखती रही।
कक्ष एक मधुर आलोक से भरने लगा । जूही, गुलाब, रातरानी --मिली-जुली सुगंधों में कच्चे दूध की गंध की महक उसके नथुनों में भर उठी । उसने महसूस किया उसका वक्षस्थल कच्चे दूध से भर उठा है, उस दूध की तरल सुगंध उसके नथुनों में समाने लगी । दर्शन-शास्त्र की पी.एचडी की छात्रा सत्याक्षरा वात्सल्य की गरिमामयी गहन, मधुर संवेदना में डुबकियाँ लगाने लगी थी। उसके समक्ष एक सुंदर, सुकोमल पुष्प था। पीड़ा भूल गई थी वह और अपनी आँखों को मलकर उस पुष्प को देखकर उसमें तल्लीन हो गई थी। उसने अपनी आँखें मलीं और पुष्प पर गड़ा दीं । अरे ! पुष्प में शिशु का चेहरा ! चेहरा मुस्कुरा रहा था। उसे लगा उसका शिशु उसके समक्ष नमूदार हो गया है। उसने अपने काँपते हाथों को शिशु की ओर बढ़ाया और आलिंगन में समेटने का प्रयास किया ।
"मैं तो यहाँ हूँ माँ----तुम्हारे गर्भ में ---"कोमल स्वर ने उसकी तन्द्रा तोड़ी, अक्षरा ने अपने उभरे हुए पेट को सहलाया ।
यह कौन था ? सुन्दर, सुकोमल, मुस्कुराता हुआ ---वह पशोपेश में पड़ गई, उसके चेहरे पर निराशा पसरने लगी ।
"मैं तुम्हारे गर्भ में हूँ माँ, अभी तुम मुझे अपने आलिंगन में कैसे ले सकती हो ?"
" तुम मेरे शिशु हो न?मेरे शिशु पुष्प ?" अक्षरा के मुख से ममता झरकर शरीर के एक-एक तंतु में अपने शिशु के सामीप्य का आनंद प्रवाहित कर रही थी ।
सत्याक्षरा अर्थात अक्षरा के समक्ष कुछ चेहरे अचानक ही गडमड करने लगे जिन्हें उसने एक झटका देकर हठपूर्वक अपनी दृष्टि से हटा दिया तथा स्वर की ओर ध्यान लगा दिया ।
" बच्चे ! मेरे पास आओ, अपनी माँ की बाहों में ----" उसने अपनी बाहें बढ़ाकर शिशु को आलिंगन में भरने का प्रयास किया ।
" मैं तुम्हारा शिशु --- नहीं, मैं तुम्हारे शिशु की प्रतिछाया मात्र हूँ । " सामने वाले पुष्प में से अक्षरा को एक लरजता सा क्षीण स्वर सुनाई दिया ।
" तो --- तुम यहाँ क्या करने आए हो ?" प्रसव-पीड़ा पुन: बढ़ चली।
सामने वाला पुष्प कुछ कहते -कहते थम सा गया । फिर उसे कहना ही पड़ा --
"मैं तुम्हें ले जाने के लिए आया हूँ । "
'मुझे ले जाने --पर कहाँ ? तुम इतने कोमल नन्हे-मुन्ने से !तुम मुझे ले जाओगे ! बताओ तो कैसे?"उसके स्वर में माँ की ममता हिलोर बनकर लहराने लगी। तरल मुस्कान होठों पर थिरक उठी ।
" क्या तुम मेरा वास्तविक रूप देखना चाहोगी?" इस बार कोमल स्वर का स्थान गंभीर स्वर ने ले लिया था।
अक्षरा ने धीमे से 'हाँ'में अपनी गर्दन हिला दी ।
आखिर यह है कौन ? वह पीड़ा में भी पशोपेश की स्थिति में आ गई । पल भर में एक हल्की सी आवाज़ के साथ एक अजनबी साया उसके समक्ष था जिसके हाथ में एक पारदर्शी काँच का समय-यंत्र था जिसे उसने अक्षरा के समक्ष पड़ी मेज़ पर स्थापित कर दिया । अक्षरा को उसका होना कचोटने लगा । उसने अक्षरा के पशोपेश में पड़े भर्मित मन व असमंजस का निवारण करने का प्रयास किया ---
"मैं मृत्युदूत हूँ, इस धरती पर तुम्हारा समय समाप्त हो गया है, मैं तुम्हें ले जाने आया हूँ । "
"यह 'समय-यंत्र' है । "अपने हाथ में पकडे हुए काँच के उस यंत्र को दिखाते हुए उसने कहा। जिस क्षण इसे स्थापित किया जाएगा उसी क्षण से इसकी रेती नीचे आनी प्रारंभ होगी, जब तक रेती नीचे आएगी केवल इतना ही समय तुम्हारा है, इसके पश्चात तुम्हें मेरे साथ चलना होगा । "दूत ने उस डमरू जैसे यन्त्र को उसकी आँखों के समक्ष हिलाते हुए कहा ।
अक्षरा की बुद्धि से परे था यह सब कुछ ! सब उसे एक सपना या तमाशा लग रहा था। परन्तु यह समय क्या कोई तमाशे का था? प्रसव-पीड़ा के इस दुरूह समय में जब स्त्री जीवन को जन्म देने के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की कगार पर होती है, उस समय यह तमाशा !
" मैं इसे स्थापित करता हूँ । "कहकर वह मेज़ की ओर बढ़ा और उसने समय-यंत्र को स्थापित कर दिया । प्रसव-पीड़ा के कारण पसीने से लथपथ सत्याक्षरा घबराहट से भर उठी ।
" तुम यह सब क्या और क्यों कर रहे हो, मैं नहीं जानती । केवल इतना जानती हूँ मैं तुम्हारे साथ कहीं नहीं जा सकती । यहाँ मैं अपने शिशु की प्रतीक्षा कर रही हूँ, तुम्हारी अर्थहीन बातें सुनने का मेरा कोई मन नहीं है । "वह झुँझलाने लगी । न जाने कहाँ से यह अज्ञात आकर उसे सताने लगा था, वह भी उस समय जब उसे करुणा व सहानुभूति की आवश्यकता थी।
"मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ ---तुम भी तो समझो न ! मैं एक अदना सा दूत हूँ, मुझे प्रेषित किया गया है तुम्हें लाने के लिए, मैं कैसे अपने स्वामी की अवहेलना कर सकता हूँ?"
" क्या मैं तुम्हें मृत्यु-दूत कहूँ ? किस देश से आए हो? " पीड़ा से कराहते हुए उसके मुख से अस्फुट शब्द निकले ।
" हाँ, कह सकती हो---दूसरा देश?हाँ, गवाक्ष ! ---वह तुम्हारी पृथ्वी सा नहीं है परन्तु तुम्हारी इस पृथ्वी, यहाँ तक कि समस्त विश्व के प्राणियों के वापिस लौटने का संचालन वहीं से होता है । " उसने गर्व से उत्तर दिया । यंत्र में से धीमे-धीमे रेती नीचे की ओर आनी प्रारंभ हो गई थी ।
'यह मृत्यु-दूत कैसे हो सकता है?और गवाक्ष? यह उस स्थान का नाम है जहाँ से यह आया है ?'गर्भवती के मस्तिष्क पर चिंता की लकीरें खिंच आईं । दूत कहीं से भी पैशाचिक नहीं था, बिलकुल आम, साधारण आदमी की भाँति उसके समक्ष मुस्कुराता हुआ खड़ा था । स्तब्ध थी वह ! वह एक जीव को जन्म देने वाली थी और यह उसे ले जाने की बात कर रहा है! यह कैसा अन्याय! और वह जाएगी ही क्यों?बच्चे को जन्म देकर अभी उसे कितने काम करने हैं । उसकी कराहटें समुद्र की लहरों की भाँति ऊपर-नीचे हो रही थीं। कभी वह पीड़ा के उफान से कराहती तो कभी शांत लहरों की भाँति शिथिल हो जाती। पहले मृत्युदूत को देखकर उसने कँपन महसूस किया था, बाद में गर्भ की पीड़ा ने उसे निडर बना दिया, आखिर वह माँ बनने वाली थी ।
" गवाक्ष ! कैसा नाम है? इसका अर्थ जानते हो?"
"क्यों नहीं? गवाक्ष ---अर्थात जहाँ से सबकी साँसें चलती हैं। तुम्हारी भाषा में कहूँ तो 'वेंटिलेटर'या फिर रोशनदान ! यह तो समझती हो न ?!मनुष्य किसी अन्धकार भरे संकरे स्थान में बंद हो तब वह साँस लेने के लिए एक रोशनदान की तलाश करता है, उसकी जब साँसे अटकती हैं तब मनुष्य को ‘वेंटिलेटर’ के सहारे जीवित रखा जाता है। "
"यानि हम सबकी साँसों का लेखा-जोखा तुम्हारे 'गवाक्ष'में है ?"
"बिलकुल --और यह सब सुनिश्चित है । " दूत आगे बोला --
" क्या तुम यह जानती हो जब इस पृथ्वी पर किसी प्राणी का समय समाप्त हो जाता है तब उसे गवाक्ष में जाना पड़ता है। जहाँ किसी का समय समाप्त हुआ वहीं प्राणी को सूत्रधार का आमंत्रण आया। "
"मैं नहीं जानती गवाक्ष क्या है?इतना जानती हूँ आने वाले को जाना होता है परन्तु, इस स्थिति में मैं तुम्हारे साथ कैसे जा सकती हूँ ?"
“ लगता है जीवन के सत्य पर तुम्हारी कोई निष्ठा नहीं है। "दूत अब कुछ अड़ने लगा, उसके शब्द भी अब कठोर हो चले थे ।
"मैं सब जानती और समझती हूँ --- तुम नहीं समझते । तुम कहते हो मेरा समय समाप्त हो रहा है परन्तु मेरे गर्भ के इस शिशु का ? जिसने अभी इस दुनिया में साँस भी नहीं ली, जिसने इस दुनिया में अपना कदम भी नहीं रखा उसका समय प्रारंभ से पूर्व ही समाप्त हो गया क्या?" गर्भवती माँ तड़प उठी ।
वह अपने शिशु को बचाने के लिए कटिबद्ध थी। उसके समक्ष स्थित समय-यंत्र की रेती धीमे-धीमे नीचे की ओर आनी शुरू हो गई थी। दूत के कथनानुसार यंत्र के नीचे के भाग में रेती के भर जाने पर उसका समय पूरा हो जाना था। बचाव का कहीं कोई मार्ग नहीं था, केवल उसके गर्भस्थ शिशु के जो बाहर आने की चेष्टा कर रहा था।
'एक ऎसी स्त्री को किस प्रकार वशीभूत किया जाए जो एक अन्य प्राणी को जन्मने वाली हो ' उसने सोचा, यह तो कलाकार से भी अधिक पेचीदा है । एक प्रयास ----
" तुम ---सच में ईश्वर की श्रेष्ठ रचना हो और एक अन्य रचना को इस धरती पर लाने की तैयारी में हो ---कितनी सुन्दर हो तुम !"
" प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की रचना है, ---" वह कुछ रुकी फिर बोली ---
" क्या तुम भी ब्रह्माण्ड के रचयिता को ईश्वर ही कहते हो?"
"हम अपने स्वामी 'यमदूत 'को स्वामी तथा श्रृष्टि के सूत्रधार को 'महास्वामी' कहते हैं। तुम लोग ईश्वर कहते हो, मैंने भी ईश्वर कह दिया –"
" मैं तुम्हारे सौंदर्य से आकर्षित हूँ---। " दूत ने मन के भाव स्त्री के सम्मुख प्रस्तुत कर दिए। सुन्दर व्यक्ति हो अथवा वस्तु, आकर्षित करते ही हैं।
" सुंदरता मन के भावों से चेहरे को प्रफुल्लित करती है और वह भीतरी प्रफुल्लता आकर्षण उत्पन्न करती है । प्यार, स्नेह, संवेदनाएं मनुष्य को सुन्दर बनाते हैं, बाहर से की गई चिकनी -चुपड़ी त्वचा कुछ देर ही सुंदरता का आभास कराती है परन्तु मन की सुंदरता से मनुष्य देह न रहने पर भी अपने सौंदर्य की सुगंध से समस्त वातावरण को सुरभित करके जाता है, वह अदृश्य होकर भी सबमें बसा रहता है । "
'हूँ---विदुषी भी है ---'दूत ने मन में सोचा, तर्क करने की सामर्थ्य है इसमें !’
" मुझे लगता है अब हम मित्र हो सकते हैं ?"मृत्युदूत के मन में स्त्री के संबंध में जानने की जिज्ञासा उगती जा रही थी। उसे अपने ऊपर आश्चर्य भी था, उसकी संवेदनाओं में निरंतर परिवर्तन होता ही जा रहा था??
" अच्छा ! तुम्हें क्या लगता है मारने वाले के साथ मित्रता की जा सकती है ? साँप फन फैलाए खड़ा है, डंक मारने की उसकी पूरी तैयारी है और सामने वाला अपना शरीर परोसकर देदे ? 'आ भाई काट ले मुझे' --वह हँस पड़ी, एक निश्छल हँसी वातावरण में सूर्य की प्रथम किरण सी बिखर गई और दूत विभोर हो गया ।
क्रमश..