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एक बेटी की कहानी, बेटी की जुबानी

मे एक बेटी हु। इस समाज को चलाने , इस सृष्टि को सम्हालने का कार्य खुदा ने मुझे सोपा।बचपन से ही मम्मी पापा की लाडली रही। मुझे चोट तक न आने दी। ये समाज सब के सामने मुझे हमेशा हिम्मत देता है। मेरे हर अच्छे काम की तारीफ होती है। हर कोई मुझे साथ देता है। सरकार ने तो हमारी रक्षा के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए है। कितनी खुशनसीब हु न मैं!

क्या ये सच है? मैं सच मे इतनी खुशनसीब हु? मुझे हर कोई सच्चा और अच्छा लगता है। हर किसी पे भरोसा करना सीखा। हर किसी का दर्द बाटना अच्छा लगता है।

धीरे धीरे बड़ी होने लगी। लोगो की आंखे मुझे देखने लगी। लोगो की तारीफ मे क्या छुपा था देख ही नही पाई। कभी दोहरी जिंदगी जी नही न! बाहर के लोगो की बात तो दूर, खुद के परिवारजनो की नजर से भी बच नही पाई। घर पे बताया तो बात आ गई घर से दूर होने की। शादी की। किसी ओर अजनबी के हाथों में मेरी सुरक्षा का हाथ थमा दिया गया। उस अजनबी का ख्याल , सेवा करना मेरा फर्ज बन गया।

वो अजनबी मेरे इस शरीर का मालिक बन गया। जो दुनिया के लोग नही कर पाए, जो कसर बाकी रह गई थी मेरे शरीर के साथ खिलवाड़ करने की, वो सब करने का सामाजिक और कानूनी हक उसे मिल गया।

मम्मी पापा ने इसके लिए ही मुझे दुनिया की बुराई से बचाए रखा। बार बार कहते रहते ऐसे बैठ, ऐसे बाते कर, यहां मत जा, वहाँ मत घूम, कही चोट लग गई तो कोई शादी नही करेगा। तो पराई अमानत है। क्या इसकी अमानत थी?

न्याय पाने के लिए सरकार के दरवाजे खटखटाए। लेकिन उस न्याय का हर अधिकारी अफसर एक मर्द ही था। घर की स्थिति जानकर हर कोई मेरा फायदा उठाना चाहता रहा। दुनिया के दिखावे के बीच मे जीती रही। दुनिया के फूल रूपी दिखावे के स्वभाव के बीच छुपे हुए स्वार्थ के कांटो को देख ही नही पाई।

लेकिन भरोसा करना नही छोड़ा। और लोगो की मदद करना भी नही। अपनो से तो रिश्ता टूट चुका। कोसती रही हु खुद को, क्यो जन्म लिया। क्या मुझमे कोई कमी रह गई? उस बुरी दुनिया से तो मे कोसो दूर रहना चाहा। लेकिन कभी किसी अजनबी ने , किसी समाज सेवक ने , तो कभी किसी अपने ही परिवार के सदस्य ने, तो कभी किसी अपने ही दोस्त ने मुझे उस दुनिया मे जाने अनजाने धकेल ही दिया।

पूरी तरह टूट गई। किसी पे भरोसा करने में भी डर लगता है। किसी को दोस्त बनाने में भी डर लगता है। किसी को अपना कहने में भी डर लगता है। लोग कहते है हर इंसान बुरा नही होता। किसी सच्चे से मुलाकात तो हो जाती है। पर अतीत के पन्ने कही और ही उलझा देते है।

आज दुनिया हर बेटी को अपना फर्ज सिखाती है। बुराई से दूर रहना सिखाती है। मैं पूछती हु इस समाज से, मुझे बुराई से दूर क्यो रखा? उसका सामना करना क्यो नही सिखाया? यदि ऐसे ही जीना सीखाना था, तो बेटियों को फर्ज सिखाते सिखाते , बेटो के फर्ज सिखाना क्यो भूल गए? आज मेरे घर के दरवाजे भी मेरे लिए बंद हो गए। लेकिन मुझ में इतनी हिम्मत है कि मैं खुद खड़ी हो पाउ।

हिम्मत जुटा के खड़ी भी हुई, खुद का घर बन गया। दुसरो की सेवा , मदद करने का मौका भी मिला। लेकिन इस समाज ने मुझे न्याय नही दिया।

क्या फिर से मैं भरोसा कर पाऊंगी? क्या वो सुरक्षा का सुकून फिर से जगा पाऊंगी, जो मां पापा के साथ रहते हुए मिलता था? था वो सुकून भी झूठा ही , लेकिन तब नादान थी। अब समझदार बन गई हूं। क्या मैं फिर से जी पाऊंगी? क्या मेरे बिखरे हुए विश्वास को कोई जोड़ पायेगा? क्या ये दुनिया फिर से जीने का मौका देगी मुझे? क्या आप सब भी मेरे जैसी ही हो? इस का जवाब...........


निशब्द।

चलो, मैंने जो भुगता है, जो खोया है, किसी और बेटी के साथ नही होने दूंगी। आप क्या करेंगे? मेरे जैसी बनना चाहेंगे? या फिर उन औरतो मे से , जो खुद एक नारी की खुशी की दुश्मन बन बैठी है, जो अपने बेटों को अपना फर्ज नही सिखाती।

जवाब जरूर दीजिएगा। पता नही कितनी बेटियां इस सवाल का जवाब चाहती है।

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