इक समंदर मेरे अंदर - 6 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 6

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(6)

मकान अपने नाम करवाने के कुछ ही महीने बाद प्रकाश उस घर को बेचकर रातों रात ट्रक में सामान भरवाकर दूसरे उपनगर में कूच कर गये थे। सत्‍यनारायण को जब पता चला तो अपने बेटों को खूब डांटा था और हंगामा किया था।

दोनों को अपनी दुकान में साड़ियां और रेडीमेड कपड़े बेचने के लिये बैठा दिया था। बेटे भी क्‍या करते? बैठ गये। वह आज सोचती है कि जिन पतियों को अपनी पत्‍नी के होते हुए भी परस्‍त्री को भोगने की लत पड़ जाये, वह जल्‍दी नहीं छूटती नहीं। क्‍या सुरेन्द्र, वीरेन्द्र कहीं और नहीं जाते होंगे?

और कहीं नहीं, तो कमाठीपुरा तो था ही...देह व्यापार का प्राधिकृत बाज़ार। एक बार मिस्‍टर भास्कर ने उन दोनों अमीरज़ादों को दोपहर में वहां की गलियों में देखा था। अब भास्कर वहां क्‍या कर रहे थे, यह कहने की नहीं, समझने की बात थी।

सभी मर्द शायद एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं...स्‍वरूप अलग अलग हो सकते हैं। विरले ही होंगे....जो स्त्री के आकर्षण से बचे रह सकते होंगे और खुद पर नियंत्रण रख पाते होंगे। अम्‍मां की तुलना में पिताजी बहुत गुस्सैल थे।

वे यदि शाम को अपने कपड़े न बदलें तो बहुत नाराज़ होते थे और कहते थे – ‘तुमाए पास धोती नाईं एं का? चार तौ हैं न’? अम्‍मां बहुत सीधी थीं, पर बोलतीं सटीक थीं।

हंसकर बोलतीं – ‘तुम पांच मिनट जल्‍दी आय गये। धोती पैरबे में कित्‍तौ समय लगैगो। अभें बदल लेतें। तुम करोंट लेंकें लेट जाऔ’। और पिताजी करवट लेकर लेट जाते थे। वे पांच मिनट में साड़ी बदल लेती थीं।

वे साड़ी में इतनी जल्‍दी जल्‍दी पटलियां डालती थीं कि वह देखती रह जाती थी। सीधे पल्‍ले की साड़ी पहनती थीं और बार्डर सामने खूब अच्‍छा लगता था, प्‍यारी सी, बड़ी बड़ी कैरियां.....एक बार कामना की बिल्‍डिंग में रहने वाली नेहा ने इसी तरह की साड़ी पहनी थी तो उसे अपनी मां की साड़ी याद आ गयी थी।

अम्‍मां नहाकर रेशम की साड़ी पहनती थीं...ऑफ व्हाइट रंग था उसका...उस एक कमरे में चौका भी लगता था। पिताजी चौके के बाहर पाटे पर थाली रखकर खाते थे। जब वे खा चुके होते तब वह, गायत्री और दोनों छोटे भाई बैठते थे।

वे एक साथ दो रोटियां सेंकती थीं। एक रोटी तवे पर आधी सिक जाती तो उसे ऊपर करके नीचे दूसरी रोटी डाल देतीं। फिर बगल की सिगड़ी पर उन रोटियों को फुलातीं। बड़े मन से खाना बनाती थीं और सबसे अंत में खाती थीं।

उनका मानना था कि अगर सब एकसाथ खाने बैठ जायें और बीच में रोटी कम पड़ जायें तो बड़े शरम की बात होती है। खानेवाले और खिलाने वाले का हाथ नहीं रुकना चाहिये और रोटियां तो बिल्‍कुल नहीं गिनना चाहिये।

उनकी यही आदत उसमें भी आ गई थी। वह भी सबको खिलाकर बाद में तसल्‍ली से धीरे धीरे स्‍वाद लेकर खाती थी। उससे हड़बड़ी में खाया ही नहीं जाता था। कौर गले में नहीं जाता था, बीच में ही अटक जाता था।

कोई कितनी भी कोशिश करे, माता-पिता का असर बच्‍चों में आता ही है और वह उनके व्‍यक्‍तित्‍व का हिस्‍सा बन जाते हैं। पिताजी की तरह उसे भी खाने में हरी मिर्च और अचार ज़रूर चाहिये होता था।

शाम को पिताजी जब आते थे केले की गेल और अम्‍मां के लिये अमरूद लाते थे। अम्‍मां को अमरूद बहुत पसंद थे। गेल के केले पकते रहते थे और वे लोग खाते रहते थे। घर में केले तब तक आते रहे, जब तक गायत्री की नियत नहीं भर गई

और यह कह दिया - अब मत लईयो पापा, गले तक भर गई हूं...अब तो उल्टी सी आने लगती है केले देखकर और पिताजी हंस देते थे और सिर्फ़ छ: केले लाते थे, चित्‍तीदार.... वे उन्‍हें और अम्‍मां को बहुत पसंद थे।

पिताजी एक समय ही खाते थे। वैसे तो पिताजी को दाल रोटी, एक सूखी सब्जी, हरी मिर्च और चटनी बहुत पसंद थी लेकिन खिचड़ी उन्‍हें बहुत पसंद थी और वह भी न बहुत पतली और न गाढ़ी...मीडियम। उस पर गरम किया देशी घी। आम के अचार का मसाला और तले हुए पापड़। साथ में ककड़ी का पतला रायता।

पिताजी को खिचड़ी में ज़रा भी कमी दिखती तो पीतल की थाली उछाल दी जाती थी। थाली ऐसे वैसे ही नहीं उछाली जाती थी कि खिचड़ी पूरी दीवालों को पीला कर देती थी। अम्‍मां एक तरह से डर जाती थीं और कुछ नहीं कहती थीं। उनकी आंखों में पानी भर आता था, और साड़ी के पल्‍ले से आंखें पोंछते हुए तौलिये के टुकड़े से दीवार साफ करने लगती थीं।

इसके बाद तो पिताजी आंखों पर रूमाल बांधकर लेट जाते थे। भूखे पेट भला नींद आती है? भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता और लड्डू गोपाल को भोग लगाया जाता है. अम्‍मां भोग लगाते समय गाती थीं...छोटी छोटी गईंया...छोटे छोटे ग्‍वाल...छोटो सो मेरो मदन गोपाल।

वे देशी घी के दो पराठे सेकतीं और कढ़े हुए दूध में मींज देती थीं। उसमें चीनी डालकर पिताजी को जगाती थीं – ‘सुन रए औ? उठौ, दूध पराठे खाय लेओ, नईं तौ हमऊं भूके सो जायेंगे’। तीन-चार बार के मनवाने के बाद पिताजी उठते थे और अम्‍मां से कहते

– ‘तुमऊं अपनी थरिया लगाय लेऔ। हम अकेले कैसें खायेंगे’? वह पास रखे टिन के बक्‍से पर बैठी सब देखती रहती थी और मन ही मन सोचती थी कि वह कभी भरी थाली नहीं फेंकेगी। गायत्री अपनी सहेलियों के साथ मस्‍त रहती थी। आये दिन मीना मेहरा, मंजू के घर चली जाती थी।

उसे बार बार अनंतवाड़ी का घर याद आता है। वहां पानी के लिये बिल्‍डिंग के लोग कलसे और बाल्टी नंबर के रूप में रख आते थे। मज़ा तो तब आता था काई गलती से फूटी बाल्टी रख आता था और नल में पानी आने पर, नंबर आने पर वही बाल्टी नल के नीचे लगा देता था।

पानी भरने के बजाय बाल्टी के छेद से बहने लगता था। बाकी लोग चिल्लाते थे – ‘तू कुठला श्रीमंत आहे? तुझी बालदी कोण चोरणार’? सब बाद में हंसते भी थे....और जोगेश्वरी में?....राशन की दुकान पर लोग रात को ही पथ्‍थर, डालडे का टूटा डिब्‍बा आदि लाइन के रूप में रख आते थे।

उस समय यही चिंता थी कि राशन में अनाज मिल जाये। राशन भी उम्र के हिसाब से मिलता था। बड़ों के लिये 10 किलो गेहूं, पांच किलो चावल और शायद 3 किलो शक्‍कर मिलती थी। दस साल के बच्‍चों के लिये पांच किलो गेहूं अतिरिक्‍त रूप से मिलता था।

इसके अलावा राशन चाहिये तो बनिये की दुकान से लेना होता था। अम्‍मां बनिये की दुकान से दालें, घी वगैरह खरीदती थीं। उन दिनों ग़रीब लोग राशन की दुकान से लाल गेहूं खरीदते थे और पिताजी जैसे लोग लाल गेहूं के साथ पांच किलो सफेद गेहूं लेते थे।

दोनों तरह के गेहूं अमेरिका से ही आते थे। बनियां की दुकान पर खंडवा गेहूं मिलता था। वहां से दो किलो गेहूं लेकर चक्की पर से दलिया बनवाते थे और सभी को दलिया व अरहर की दाल बहुत पसंद थी।

अन्‍न बड़े भाग्‍य से नसीब होता है। इस प्रकार वह बचपन से ही खुद को अंदर से मज़बूत करती जा रही थी। वह सोचती थी कि अम्‍मां और पिताजी का क्‍या दोष था? दोनों के माता-पिता बचपन में ही चल बसे थे। पिताजी की अम्‍मां कम उमर में ही वैधव्‍य भोग रही थीं।

उनका सिर मुंडा हुआ था और प्‍लेन सादी, सूती और सफेद धोती पहनती थीं। वे कम उम्र में ही सारे सुखों से हाथ धो बैठी थीं और चिट्ठी के सहारे अम्‍मां पिताजी में कलह कराती थीं। इससे उनको मानसिक शान्ति मिलती थी।

वे उससे और गायत्री से कभी बोली ही नहीं थीं। बोलतीं भी कैसे? न वे शहर आयीं और न पिताजी अपने परिवार सहित गांव गये। अकेले जाते थे और सबसे मिलकर आ जाते थे। वे एक बार खेतवाड़ी के एक कमरे वाले घर में आयी थीं और कलेस करते करते दस दिनों बाद लौट गई थीं।

उसके बाद कामना ने उन्‍हें कभी नहीं देखा था। कामना को तब से घरेलू लड़ाई झगड़ों से बहुत डर लगता है। जब भी कोई उससे ऊंची आवाज़ में बोलता था तो उसके कानों की लवें गर्म हो जातीं और उसे बुखार तक आ जाता था। पिताजी उससे कभी ऊंची आवाज़ में नहीं बोले थे।

वह बहुत नियंत्रण करती थी खुद पर और छोटी उमर के नियंत्रण ने उसे एक नियंत्रित जीवन और अनुशासित जीवन दिया है। घर के हालात ने दोनों बहनों को मर्दाने स्‍वभाव का बना दिया था। उनकी आवाज़ में हमेशा एक दृढ़ता और गंभीरता का पुट देखा जा सकता था।

आज भी उसका वही स्‍वभाव है। स्‍वभाव और संस्कार बदलते नहीं...मरण पर्यंत साथ चलते हैं। पता नहीं उसे इस समय मुंबई में नवरात्रि पर गाया जाने वाला गाना याद आ रहा है। इस गीत पर वह गरबा और डांडिया खूब किया करती थी-

‘मोंगा मूलनी रे मेंदी मेली म्‍हारे हाथ

सांवरिया ने मोकली, म्‍हारे देवरिया के साथ

इसके पलट पिताजी को लड़कियों का रोमांटिक गाने सुनना अच्‍छा नहीं लगता था। गायत्री और वह सीलोन रेडियो पर पुराने गाने सुनते थे। कामना गाती बहुत अच्‍छा थी और गायिका के सुर से सुर मिलाकर गाया करती थी -

‘मोरी अटरिया पै कागा बोले, जिया मोरा डोले, कोई आ रहा है।

अजीब संकट रहा कि उसकी ज़िंदगी में जो भी दोस्‍त नकर आया, वह ज्‍य़ादा दिन नहीं टिक पाया। शहर ही छोड़कर चला गया। वही कहीं नहीं गयी। अपनी धुरी यानी मुंबई में ही टिकी रही। ये उसके जीवन का एक उदास अध्याय है।

यह उदासी भी कहकर नहीं आती, जब तब चली आती है उसके हल्के मन को बोझिल करने के लिये। यही अकेलापन अम्‍मां पिताजी को भी मिला। जब उनको बेटों की ज़रूरत थी तो कामना की भाभी अलग फ्लैट लेकर पति के साथ रहने चली गई थी।

उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि उसके सास-ससुर जी रहे थे या मर रहे थे। वक्‍त़ ने करवटें ली। पहले गायत्री और कामना के घर बसे। बाद में दोनों छोटे भाइयों के भी। तब तक पिताजी का काम भी बदलते वक्‍त़ की मार नहीं सह पाया था और वे घर के हो कर रह गये थे।

वैसे भी वे काम करने की उम्र कब की पार कर चुके थे और अब लोकल ट्रेन में धक्के खाना उनके बस में नहीं रहा था। कामना से छोटा भाई अपनी हैसियत भर घर संभाल ही रहा था लेकिन एक दिन पता चला कि उसने अलग रहने का फैसला कर लिया है।

देखा जाये तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन उसके हर तरह से घर से खुद को काट लेने के फैसले से सबको तकलीफ होनी ही थी। उसने दबे स्‍वर में आखिर ये बात कह ही दी थी कि घर वह चला रहा है

.... लेकिन शादी के पहले ही दिन से उसे और उसकी पत्‍नी को रसोई में ही बिस्‍तर डाल कर क्‍यों सोना पड़ रहा है। वह बेशक़ अपने सपनों की बात नहीं करता लेकिन इस घर में जो बहू बन कर आयी है, वह कब तक उसके सपनों से आंखें मूंदे रह सकता है।

कामना चूंकि कमा रही थी और मायके में अपने भाई-भाभी के फैसले से हुई व्‍यवस्‍था की गवाह थी तो एक दिन उसने कह ही दिया था फोन पर – ‘भाभी, तुम अम्‍मां पिताजी की चिंता मत करो। हम हैं अभी ज़िंदा। हम उनकी जिम्मेदारी ले लेंगे अपने ऊपर’

और इस तरह उसने अपने भाई भाभी को अतिरिक्‍त जिम्मेदारी से उबार लिया था। वे भी क्‍या करते? बात युवा सपनों की और सपनों को पूरा करने की थी, वे किसी भी तरह से एक कमरे के मकान की रसोई में सोते हुए अपने सपने पूरे नहीं कर पा रहे थे।

कामना इसे ईश्‍वर का आशीर्वाद मानती थी कि सब अपने अपने दरबार लगाये बैठे थे और खुश थे...कामना ने उन पुरानी परंपराओं व वर्जनाओं को तोड़ा था, जिन्‍हें आमतौर पर लड़कियां शादी के बाद नहीं तोड़ पातीं। पिताजी अपनी ज़िंदगी के अंतिम दिनों में कामना के घर में थे और उन्‍होंने अंतिम सांस वहीं ली थी।

उनका अंतिम संस्कार जोगेश्वरी के श्मशान में किया गया था। वहीं से तो कभी उनकी ज़िंदगी में अच्‍छे दिन शुरू हुए थे। उसी उपनगर ने उनके पार्थिव शरीर को अपनी ज़मीन पर जगह देकर पंचतत्व में विलीन कर दिया था।

वह सोचती है - कोई भी चंद्रा बन सकता है। किसी के भी बेटे सुरेन्‍द्र-वीरेन्‍द्र भी तो बन सकते हैं। पैसे, शारीरिक ज़रूरतों के लिये और प्रॉपर्टी के लिये इंसान कुछ भी कर सकता है। दुनिया के अनुभवों ने कामना को बहुत समृद्ध किया है...वह फिर से जोगेश्वरी की यादों में उतर गयी है।

  • पैसेवाले लोग चेले चपाटे ज़रूर रखते हैं, सो उस समय भी थे...यह एक लंबी परंपरा है। हर बड़ा आदमी अपने आसपास चापलूस, खुशामदी व्‍यक्‍ति रखता ही था, वरना चारण कवि कैसे पैदा होंगे...सो सत्‍यनारायण तिवारी के पास भी इसकी बहुतायत थी।

    उन्‍होंने अपने एक गुर्गे सूबेदार को दूध की दुकान खुलवाकर दे दी थी। वे तबेले से दूध लेकर आते थे और फुटकर बेचते थे। आसपास के गरीब लोगों से उनका धंधा चलता था। यहां तक कि दस पैसे का भी दूध दे देते थे। डेढ़ सौ ग्राम दूध… यह दूध चाय के लिये काफी होता था।

    अमीरी ग़रीबों से ही आती है। उनके यहां भी वही दूध देने आता था। आधा लीटर। पिताजी को रात को दूध पीने की आदत थी। उनके लिये पौना गिलास दूध बचाकर रखा जाता था और सोने से पहले दिया जाता था।

    कटोरी का दूध जब ठंडा होने लगता था तो उस पर पतली सी मलाई की पर्त झिलमिलाने लगती थी और ऐसा लगता था कि वह मलाई मानो छुई मुई हो। हालत ऐसी थी कि पूरा परिवार महीने में चार-पांच बार ही दूध पी पाता था। उस समय दूध पीना भी सबके नसीब में नहीं था।

    उस मलाई को कामना एक उंगली में लपेट लेती थी और गप से मुंह में रख लेती थी। शायद बचपन के अभाव रहे हों, आज भी कामना को दूध पसंद नहीं है। अब तो किसी चीज़ की कमी नहीं है, फ्रिज में दूध रखा रहता है, वह हाथ भी नहीं लगाती।

    सबको देती है, पर खुद नहीं पीती। बचपन की आदतें और संस्कार ताउम्र चलते हैं, आसानी से नहीं छूटते। कुछ दूरी पर एक तबेला था…जहां तीन भैंसें और एक गाय थी। शाम को चार बजे वहां ताज़ा दूध मिलता था।

    आसपास के लोग दूध लेने आते थे और महिलाएं दुनिया जहान की बातें करती थीं। तब कामना को कच्‍चा ताज़ा दूध बहुत पसंद था... । दूध दुहते हुए देखना और पीने को मिल जाये तो बात ही क्‍या।

    भईया एक छोटी सी गिलसिया भर कर दूध कामना को देता था...उसके पैसे उसने कभी बिल में नहीं जोड़े थे। गाय का बछड़ा था, वह जब तक अपने बछड़े को दूध नहीं पिला देती थी, दूध दुहने ही नहीं देती थी।

    भईया कभी कभी बछड़े को दूध नहीं पीने देता था, तो गाय अपने मालिक को अपने पास फटकने भी नहीं देती थी। उसके बड़े बड़े सींग थे, उन्‍हें आगे करके मारने के लिये आती थी। उसे सब मरखनी गाय कहते थे।

    कई बार वह दोपहर को खूंटा तोड़कर भाग जाती थी और बीएमसी वाले उसे हाइवे से पकड़कर लाते थे। भईया को डांट पड़ती थी और जुर्माना भी देना पड़ता था। तंग आकर उसने गाय ही बेच दी थी।

    सुबेदार देखने में काफी खूबसूरत था। पूरा दिन बंडी और चारखाने की लुंगी में निकाल देता था। हंसमुख था और उस चाल का कमांडर-इन-चीफ था। वह सुबह शाम चाल का दौरा करता कि सब ठीक ठाक था या नहीं। चाल से कुछ दूर कच्ची शराब की एक दुकान थी

    ...दुकान क्‍या, एक झुपड़िया सी थी। सुबेदार को कच्ची शराब की लत लग गई। वह आते जाते नौटांक ले लेता और मुंह पोंछते हुए बाहर आ जाता। हमेशा उसकी आंखों में लाल डोरे तैरते रहते थे। इसके बावजूद किसी ने उसे औरतों/महिलाओं को छेड़ते नहीं देखा था।