मेरे घर आना ज़िंदगी - 13 Santosh Srivastav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 13

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(13)

थक चुकी थी। चाहती थी किसी शांत पहाड़ी जगह जाकर गर्मियां बिताऊँ। अपने अधूरे पड़े उपन्यास "लौट आओ दीपशिखा" को भी पूरा कर लूं। मैंने शिमला में हरनोट जी से पूछा कि क्या वे शिमला में राईटर्स होम में मेरे और प्रमिला के 15 दिन रहने का इंतजाम कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि” राइटर्स होम तो उजाड़ पड़ा है अब। वहां कंप्यूटर की क्लासेस चलती हैं। मैं आपके रहने के लिए एक कमरा वाईएमसीए में बुक करवा देता हूं। वहीं सीढ़ियां उतरते ही मेरा यानी हिमाचल पर्यटन विभाग का ऑफिस है । बगल में क्राइस्टचर्च वगैरह । “

मैं प्रमिला के साथ टॉय ट्रेन से दिल्ली से शिमला जब रात के 10 बजे पहुंची तो बारिश हो रही थी।

हरनोट ने फोन पर तसल्ली दी" पहाड़ी बारिश है । अभी थम जाएगी। आपके रहने का इंतजाम वाईएमसीए में है ही। वहां जय सिंह से संपर्क करना । वही वहां का सर्वे सर्वा है । "

बारिश थम चुकी थी । हम मिनी बस से लिफ्ट तक पहुंचे । लिफ्ट से कुली लिया। मैंने पता बताया तो उसने ऊंचे पर्वत की ओर इशारा किया । "वहां चलना है। "

ऊंचाई देखकर दिमाग चकरा गया। लेकिन अब तो माल रोड तक लिफ्ट की सुविधा है। जयसिंह ने हमें पहली मंजिल पर कमरा दिया। वहां के सभी कमरे खाली थे और पूरी मंजिल में हम अकेले थे। रात काफी हो गई थी। थोड़ा बहुत खाकर बिस्तर में जो घुसे तो सुबह बंदरों की धमाचौकड़ी से नींद खुली।

सुबह हरनोट जी हमें अपने ऑफिस ले गए। ऑफिस में शिमला से निकलने वाली पत्रिका अखबारों के हवाले से हम साहित्यिक चर्चा करते रहे । गर्मागर्म चाय ने ठंडी हवाओं से राहत दी । फिर वे हमें हिमाचल पर्यटन द्वारा संचालित आशियाना में ले आए। आशियाना जहां है वहां पहले रिवाल्विंग रेस्त्रां हुआ करता था। आज से 34 वर्ष पहले उस रेस्तरां में बैठकर हमने कॉफी पीते हुए शिमला के खूबसूरत व्यूज देखे थे । कितनी यादें ताजा हो गई।

" संतोष जी कल आपको बद्री सिंह भाटिया और सुदर्शन वशिष्ठ से मिलवाएंगे । हो सका तो गोष्ठी भी यही रखेंगे । बड़ी समृद्ध साहित्यिक विरासत है यहां की। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं यहां के लेखक। सरकारी पत्रिकाएं हिमप्रस्थ और बिपाशा निकलती है । यहां का अखबार है दिव्य हिमाचल । बाकी सभी मशहूर अखबारों के एडीशन निकलते हैं । "कहते हुए हरनोट जी हमें नीचे बाजार तक ले गए। बाजार बल्कि पूरे शिमला में कहीं कोई बदलाव नहीं आया।

दूसरे दिन हम अमर उजाला के ऑफिस गए। सिर्फ दो पत्रकार बैठे थे जिन्होंने खूब आवभगत की । चाय नाश्ते के बाद सड़क तक छोड़ने आए। शाम को सुदर्शन वशिष्ठ मिलने आए। अपनी कविताओं की किताब मुझे भेंट की। डेढ हफ्ता शिमला में गुजारकर हम कुल्लू मनाली चले गए । हरनोटजी ने टिकटें बुक करा दी थी और मनाली में हिमाचल टूरिज्म का कमरा भी 4 दिन के लिए आरक्षित करवा दिया।

मनाली से हम दिल्ली यामिनी के लिए लड़का देखने आए और शादी पक्की कर दी ।

मुंबई लौट कर दूसरे ही दिन सड़क पर चलते हुए पेड़ की डाल आकर मेरे सामने गिरी। वह मेरे ऊपर नहीं गिरी लेकिन मैं उस पर गिर पड़ी। अगर मेरे सिर पर गिरती तो!!!! घुटना घायल हो गया । एक्सरे में अंदरूनी चोट के साथ ऑस्टियोपोरोसिस भी निकला। दर्द, बेचैनी। सीढ़ियां चढ़ना मुश्किल। तब कॉलेज में लिफ्ट नहीं थी और स्टाफ रूम तीसरी मंजिल पर था। कई सारी कक्षाएं भी उसी मंजिल पर।

4 दिन बाद कॉलेज खुल गए । मुझे नौकरी से लंबी छुट्टी लेनी पड़ी। साहित्यिक कार्यक्रमों में भी मेरा जाना नहीं के बराबर था। उपन्यास अंतिम चरण में था और मैं उसी में जुटी थी। साथ ही यामिनी की शादी की तैयारियों में भी। मुझे आर्थिक रूप से भी प्रमिला की मदद करनी थी। मैंने विनोद जी से शादी के लिए आर्थिक मदद मांगी । खुद भी रुपया लगाया और प्रमिला को दिया। मेहंदी की रस्म का भव्य इंतजाम करवाया। मुंबई शहर में मेरे अपने मित्र थे । अब मेरे घर तो कुछ होना नहीं था इसलिए मेहंदी की रस्म मुंबई से करके मैंने एक तरह से अपनी मित्रता के संबंधों को मजबूत किया।

शादी के लिए हमें बांदा जाना था। जितने लोग मुंबई से जा रहे थे सबके लिए नाश्ते और खाने के पैकेट मैंने कैंटीन में ऑर्डर देकर बनवाए। शादी सादे तरीके से संपन्न हुई । शादी के बाद मैंने पुनीत और यामिनी का गोवा में रोहिताश्व जी से कहकर हनीमून अरेंज किया। उनकी हवाई टिकट भी मैंने उन्हें प्रेजेंट की। नहीं इतना सब लिखने का कोई औचित्य नहीं है । लेकिन मेरी इतनी मदद के बावजूद आज तक यामिनी पुनीत न तो कभी मेरे घर आए न ही बीमारी में कोई केयर की। सो दिल चाक-चाक है । अब तो 9 वर्ष बीत गए शादी हुए। 9 की गिनती सृजन का प्रतीक है मगर मेरे लिए 9 अशुभ है। 9 अगस्त को क्रांति दिवस पर मेरी शादी हुई थी । जो जीवन भर मेरे लिए भ्रम बनी रही। बड़ी कचोटती है सारी बातें। मनुष्य जन्म ही बड़ा कठिन है । हम भले यह माने कि 84 लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म संचित पुण्यों का फल है लेकिन जिंदगी की व्यर्थता ढोते हुए केवल जिंदा रहना ही कितना दूभर है । नहीं मुझे केवल जिंदा नहीं रहना है....... जिंदगी को व्यर्थ नहीं होने देना है।

फिर अटैची तैयार हो गई इस बार जापानी कवि बोंचो और रीटो के देश जापान की उड़ान भरनी है । कॉलेज के दिनों में रीटो के काव्य संग्रह एक चीड का खाका पढ़ी थी और हाइकु की दुनिया से पहली बार परिचित हुई थी। न केवल हाइकु बल्कि बोनसाई कला से भी मैं खासी प्रभावित हूं। कई पौधों की बोनसाई भी की थी मैंने हेमन्त के समय । मगर अब बस एक बचा है जटा जूट धारी बरगद उसके डेढ़ फीट के आकार में मोटी पींड, उभरी जड़ें और डालियों से लटकी जटाएं उसे बहुत आकर्षक बनाती हैं।

एक साथ खुशी और गम से आंदोलित हुई मैं 10 दिवसीय (8 से 18 सितंबर 2009) जापान यात्रा के लिए निकल पड़ी । यात्राओं का सुख अनिर्वचनीय है। मैं तमाम मौसमों से गुजरती हूं । नदी, नाले, पर्वत, कंदराएं, समुद्र, ज्वालामुखी पार करती हूं। मैंने जापान में टोक्यो, अक्वा सिटी, शिंजुकी सिटी, सिमिथोमो सिटी, मिथिबिशी सिटी, नागोया शहर, क्योटो, ओसाका जैसे खूबसूरत शहर और बेशुमार फूलों, फलों से भरी घाटियां । लगभग 200 जीवित ज्वालामुखी, घने जंगल जहां पेड़ पौधों से आर्केस्ट्रा की धुन सुनाई देती है, पगोडा मंदिर और चिर प्रतीक्षित माउंट फ्यूजी पर्वत जिसे देखकर जापानी कवि रांसेंत्सू ने लिखा था

फुतेन कि/ नेतारू सुगाता या/ मा फ्यूजी याना

चादर ओढ़े सोई सी/ आकृति/ मा फ्यूजी पर्वत की /

चंद लफ्जों में माउंट फ्यूजी उभरता है आँखों के सामने। सौंदर्य की लहरें डुबा ले जाती हैं अनंत गहराइयों में। एक ऐसा भी जंगल है जहां के पेड़ वनस्पति हवाएं मनुष्य को पागल कर देती हैं। अब वहां जाना सरकार की ओर से प्रतिबंधित है।
सुना था जापानियों के देश प्रेम का किस्सा और अभी-अभी आये सूनामी संकट में पूरे विश्व ने देखा जापान का आत्मसम्मान, सहिष्णुता, देशप्रेम। किसी भी देश से कोई मदद लिए बिना इस विभीषिका को अपने बलबूते पर निपटने में लगा है जापान। मैंने जापानी गांवों की यात्रा की, महानगरों की यात्रा की तो पाया कि जापानी अपने देश अपनी भाषा से बेहद लगाव रखते हैं। वे किसी अन्य भाषा में बात करना पसंद नहीं करते। उन्होंने अंग्रेजी का सॉरी शब्द ही अपनाया है जिसका इस्तेमाल वे टूरिस्टों के लिए करते हैं। वहां नीली शर्ट और सफेद पैंट पहने कई नौजवान दर्शनीय स्थलों, मॉल, मंदिर, बौद्ध मठ, चर्च और अन्य दर्शनीय स्थलों में मिल जाएंगे जिनकी शर्ट की दाहिनी आस्तीन पर इंग्लिश लिखा है। ऐसे लोग बिना कोई मेहनताना वसूले टूरिस्टों की मदद करते हैं। हिरोशिमा -नागासाकी को एक स्मृति स्थल बनाने में जापानियों ने दिन रात मेहनत की थी। उन्होंने सालों तक एक भी छुट्टी नहीं ली थी। मैं जापानियों के जज्बे को सलाम करती हूँ।

जापान से लौटी तो पता चला जिस घर में रह रही हूं उसे विशाल बेच रहा है जबकि जापान जाने से पहले विनोद जी ने विशाल के साथ अपने घर डिनर पर बुलाया था और विशाल ने कहा था कि आप भारत की प्रेम कथाओं पर एक किताब लिखिए। विशाल ने मुझे इससे संबंधित कुछ सीडी भी दी थीं। मैंने इस पुस्तक पर काम करना शुरू कर दिया था और विश्वामित्र मेनका और उर्वशी पुरुरवा के अध्याय भी तैयार हो गए थे। विनोद सर ने यह भी कहा था कि विशाल को एक लेखक की जरूरत है और अब तो तुम्हारा उस घर में रहना पक्का है । फिर जाने क्यों विशाल ने उस घर को बेच दिया और महीने भर के अंदर मकान खाली करने का नोटिस भिजवा दिया । जापान घूमने की खुशी आहुति बन मेरी नियति की अग्नि में स्वाहा हो गई।

चौमाल जी ने मुझे कांदिवली चारकोप में दस हज़ार महीने और पचास हजार डिपाजिट पर केदारनाथ बिल्डिंग में दूसरी मंजिल पर वन बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट दिला दिया । मकान के ओनर योगेश जोशी ने बहुत आत्मीयता का व्यवहार किया लेकिन उनकी आत्मीयता समझ में नहीं आई। कहां तो फ्लैट लेते वक्त उन्होंने कहा था कि संतोष बेन रहो हमेशा। आपके भाई का फ्लैट है और कहां ग्यारह महीने बाद ही टोकना शुरू कर दिया । खाली करो फ्लैट । कभी बेटे की शादी का हवाला। कभी फ्लैट बेचना है आदि। मेरे भाग्य बंजारन जैसे। दो या ज्यादा से ज्यादा 3 साल तक किसी घर में टिक पाई । योगेश जोशी के घर में भी हाँ न के झूले में झूलती पौने चार साल रह ली।

अपनी इतनी अव्यवस्थित जिंदगी को मैंने नियति मान स्वीकार किया। बिल्डिंग के कंपाउंड में लगे जामुन, नारियल, बादाम के झाड़ रातों के सन्नाटे में सिंफनी बजाते तो डर कर उठ बैठती। बाजू में ही खाड़ी थी जिसमें निवास कर रहे मेंढक झींगुर और पता नहीं किन बेनाम जीव-जंतुओं की आर्त पुकारें रहस्य का जाल बुनती मुझे अपने में समेट लेतीं। मैं अकबका जाती। लगता जैसे जाल में बुरी तरह फंसी जा रही हूं। मेरे आस-पास घटने वाली घटनाओं में और मेरे साथ जारी नियति की क्रूरता ने मेरे अंदर प्रश्न ही प्रश्न भर दिए। विरोध की प्रवृत्ति तो जन्मजात थी। आँख मूंदकर हर उल्टे सीधे को मान लेना मेरा स्वभाव न था । अब कुछ विद्रूपताओं को लेकर विद्रोह भी अंकुरित होने लगा । मध्यवर्गीय समाज के आडंबरों और नैतिकताओं ने स्त्री शोषण के खिलाफ कदम उठाने को मजबूर कर दिया। कलम तो दस साल पहले ही उठ गई थी, जब समरलोक में अंगना स्तंभ की शुरुआत हुई थी। उन्हीं लेखों का अंजाम है "मुझे जन्म दो माँ" पुस्तक । खूब मेहनत की । खूब होमवर्क किया । आंकड़े जुटाए । चिंतन मनन किया। तीन ड्राफ्ट तैयार हुए तब जाकर पाण्डुलिपि पूर्ण हुई।

महेश भारद्वाज को सामयिक प्रकाशन में जब पाण्डुलिपि भेज दी तो लगा मेरे मन पर जमा आइसबर्ग थोड़ा सा पिघला है । थोड़ी सी धूप उसके हिस्से आई है।

महेश जी ने बहुत खूबसूरत कवर और भीतरी पृष्ठों पर बेहद अच्छी छपाई कर सन 2010 में किताब मेरे पास भेजी। किताब को सफलता मिली। चर्चित हुई। सभी स्तरीय पत्रिकाओं में समीक्षा छपी। नजमा हेपतुल्ला हॉल सांताक्रुज में नारीवादी लेखिका सुधा अरोड़ा के हाथों लोकार्पण हुआ । लोकार्पण के समय विवाद भी उठ खड़ा हुआ जब डॉ रविंद्र कात्यायन ने मातृसत्तात्मक समाज पर लिखे इस पुस्तक के अध्याय पर चर्चा छेड़ी तो सागर त्रिपाठी ने सभा में खड़े होकर इसका विरोध किया। पक्ष विपक्ष पर सभा अपने-अपने मत रखने लगी । बहरहाल संचालक आलोक भट्टाचार्य ने स्थिति को संभाला। स्टेज पर डॉ करुणा शंकर उपाध्याय भी थे । पर वे चुप रहे।

मुझे जन्म दो माँ लिखने में मुझे 4 वर्ष लगे। अंगना के लेखों को विस्तार देने में मुझे अधिक दूर नहीं जाना पड़ा। अपने आजू-बाजू खड़ी या खुद में समाई औरत को टटोलते ही परत दर परत उघड़ती गई पीड़ा, दर्द, शोषण, तिरस्कार, वर्जनाएं, परंपराएं, मान्यताएं और बंदिशों के परनाले फूटते गए । इस सब का बस एक अंश ही लिख पाई हूं मैं। औरत के इतिहास को, वर्तमान को लिखना कोई आसान काम नहीं है।

2010 में ही मेरा उपन्यास टेम्स की सरगम भी छप कर बाजार में आ गया। उपन्यास लिखना हेमंत के रहते शुरू कर दिया था। क्योंकि एक बहुत बड़े कथा समय सन् 1912 से 2000 को इसमें लेना था । अतः होमवर्क बहुत किया। उपन्यास कोलकाता से शुरू होता है। अतः मैं 20 दिन कोलकाता जा कर रही। मेरे रहने का इंतजाम उस समय वागर्थ के संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने भारतीय भाषा परिषद में किया । मेरे साथ प्रमिला और रमेश भी थे। प्रभा खेतान से मिलने हम लिटिल रसेल स्ट्रीट उनके घर गए । साथ में मैं अपनी सभी प्रकाशित पुस्तकें ले गई थी। लेकिन जब हम ऊपर उनके सुंदर फ्लैट में गए तो पता चला वह मद्रास गई हैं। उपहारों का पैकेट उनकी केयरटेकर बसंती को थमा कर हम कैमिक स्ट्रीट पार करते हुए सीधे चौरंगी रोड पर आ गए।
वसुंधरा मिश्र "बात "नामक पत्रिका के संपादक मंडल से जुड़ी हैं । उन्होंने अपने घर हमें चाय पर बुलाया। शाम को "बात" की ओर से कवि गोष्ठी का भी आयोजन था । उनके घर से हम उनकी कार से कवि गोष्ठी में गए। लगभग 60 कवि थे। जिन्होंने मेरा और प्रमिला का भरपूर स्वागत किया। हम उन्हें नहीं जानते थे पर वे सब विजय वर्मा कथा सम्मान के द्वारा हमें जानते थे। विजय वर्मा कथा सम्मान की राष्ट्रीय व्यापकता का एहसास कोलकाता जाकर हुआ । भारतीय भाषा परिषद पहुंच कर पता चला अलका सरावगी और मधु काँकरिया का फोन हमारे लिए था। साथ में मैसेज कल मिलने का।

चौरंगी से गुजरते हुए बांग्ला लेखक शंकर याद आए और उनका उपन्यास चौरंगी जिसने पाठकों के बीच बहुत लोकप्रियता हासिल की।

कोलकाता लेखकों कलाकारों की कद्र करना जानता है। लेखकों को तो यहां पूजा जाता है । पूरा कोलकाता रविंद्रमय है। रवींद्र सदन, रविंद्र पुल, रविंद्र हॉल, मेट्रो का रविंद्र स्टेशन। जोड़ासाँको में उनका पैतृक मकान जिसे देखने को पर्यटक उतावले रहते हैं।

हमने बाग बाजार में नवीन चंद्र सरकार की वह ऐतिहासिक रसगुल्ला की दुकान से रसगुल्ले खाए जहाँ पहले पहल रसगुल्ले का आविष्कार हुआ था। इन्हीं बाजारों में मिलते हैं तरह-तरह के गुड़। खेजूरी पाटली गुड़, ताल पाटली गुड़। सरसों के रस से तैयार किया कासुंदी मिलता है जिसे बंगाली माछझोल और भात में मिलाकर खाते हैं। यहाँ नौका यात्रा में एसडी बर्मन का भटियाली संगीत मल्लाह बड़ी तन्मयता से गाते हैं और ट्राम में यात्रा करते समय संथाली युवक इकतारे पर बाउल गीत गाते हुए दिखलाई पड़ते हैं।

कोलकाता की इन सभी खास बातों, आदतों को अपने उपन्यास “टेम्स की सरगम” में लिखकर मैंने कोलकाता को चिर स्मरणीय बना दिया।

बीसवीं सदी के अंग्रेजों की गुलामी के कुछ दशक भारतीय मंच पर तमाम ऐसी घटनाओं को फोकस करने में लगे रहे जिससे सम्पूर्ण जनमानस जागा और गुलामी के कलंक को माथे से मिटाने में जुट गया। आजादी का प्रयास इतना, महत्वपूर्ण हो उठा था कि तमाम धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक असमानताएँ भूल बस संघर्ष की आँच में कूद पड़ने का जनमानस बन चुका था। एकबारगी धर्म, साहित्य, कला (संगीत, नृत्य, चित्रकला) से जुड़े लोग भी कुछ ऐसी ही मानसिकता बना खुद को उसमें झौंकने को तत्पर थे। बीसवीं सदी की शुरूआत के वे चार दशक मैंने बड़ी बारीकी से पढ़े थे और उस वक्त की परिस्थितियों ने मेरे मन में अन्य किसी भी काल के इतिहास से अधिक जगह बना ली थी। मैं साहित्य में उतरी, फिल्मों को खँगाला, संगीत, चित्रकला और नाट्यकला के द्वार खटखटाए और इतनी असरदार तारीख़ों से गुज़री कि मुझे लगा अगर इन तारीखों पे मैंने नहीं लिखा तो मन की उथलपुथल कभी शांत नहीं हो सकती। मैंने आजादी के लिए सुलगते उन दशकों में एक प्रेम कहानी ढूँढी और खुद को उसमें ढालने लगी। यदि खुद को नहीं ढालती तो शायद न घटनाएँ सूझतीं, न शब्द.....। पूरे विश्व को अपने सम्मोहन में बाँधे भगवान कृष्ण को भी मुझे उन दशकों में जोड़ना था। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने वहाँ कृष्ण के विराट रूप को इस्कॉन के जरिए जीवंत होते देखा और बड़ी मेहनत से उस काल को इस काल तक जोड़ने की कोशिश की। सात वर्षों की मेरी अथक मेहनत, शोध.....एक-एक पेज को बार-बार लिखने की धुन और हेमंत के शेष हो जाने के शून्य में खुद को खपाना….बहुत मुश्किल था ऐसा होना पर मैं कर सकी। अक्सर उसका भोला चेहरा कभी दाएँ से झाँकता, कभी बाएँ से......‘‘माँ, कलम मत रोको, लिखो न.....ओर मैं जैसे जादू से बँधी बस लिखती चली जाती...तो मैं कह सकती हूँ कि हेमंत ने यह उपन्यास मेरी यादों में घुसपैठ कर मुझसे लिखवाया।

इस उपन्यास के रचना समय के दौरान तमाम आवश्यक, अनावश्यक परिस्थितियों को खारिज करते हुए मैंने खुद को समेट कर रखा और इसके हर पात्र हर घटना को जीती रही। चाहती हूँ मेरी आवाज़ उन तक पहुँचे जो जिन्दगी और प्रकृति के जरूरी तत्व प्रेम को भूलकर मात्र अपने लिए जी रहे हैं। और मनुष्यता को ख़त्म कर रहे हैं।

उपन्यास 2007 में लिखकर पूरा हो गया। मैंने पाण्डुलिपि राजकमल प्रकाशन में भेज दी। अशोक माहेश्वरी जी से बात भी कर ली। उन्होंने कहा जरूर प्रकाशित करेंगे । समय लगेगा। साल भर निकल गया। पता चला अभी दो तीन साल कोई उम्मीद न करें। हम रॉयल्टी के केस में उलझे हैं। मैंने मन्नू भंडारी जी को फोन किया। उन्होंने कहा “उपन्यास की पांडुलिपि मैं अशोक से मंगवा लेती हूं। तुम दिल्ली आओ फिर बात करते हैं। “ उसी साल कोलकाता के अनुज कुमार ने मानव प्रकाशन से साहित्यिक पुस्तकें छापने की शुरुआत की। मुझे फोन किया कि "कोई पाण्डुलिपि हो तो भेजिए। "

मैंने कहा पाण्डुलिपि दिल्ली में मन्नू भंडारी जी के पास है । अनुज तुरंत दिल्ली जाकर पाण्डुलिपि ले आए और 2010 की जनवरी में उपन्यास छाप दिया। यह बड़ी विशेष घटना थी क्योंकि मेरा उपन्यास कोलकाता की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था । उसे प्रकाशक भी कोलकाता का मिला। इस उपन्यास को लेकर मैं बेहतरीन अनुभव से गुजरी। चूँकि कथानक कोलकाता, वृंदावन और लंदन की घटनाओं, पृष्ठभूमि से जुडा था सो मैंने नजदीक से उन जगहों को वहाँ रहते हुए समझा। लंदन मैं हफ्ता भर रही। मुंबई का भी वर्णन है। मुंबई में तो मैं रहती ही थी।

उपन्यास का लोकार्पण राजस्थानी सेवा संघ ने कराया जिसमें मुख्य अतिथि पुष्पा भारती थीं। वक्ताओं में ओमा शर्मा, धीरेंद्र अस्थाना। पुष्पा जी लोकार्पण के हफ्ते भर पहले बीमार पड़ गईं। मैं उदास हो गई । विनोद सर बोले "नौटियाल जी को बुलाओ "पर वे उन दिनों बद्रीनाथ में थे । मैंने मान लिया था कि जितने लोग उपलब्ध होंगे उन्हीं की उपस्थिति में लोकार्पण हो जाएगा। कार्यक्रम के दो दिन पहले पुष्पा जी बोली मैं आऊंगी । वे आने लायक स्थिति में नहीं थीं। फिर भी आईं। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा "जिस प्रेम का संतोष ने वर्णन किया है इस उपन्यास में। मैं उस प्रेम से भारती जी को लेकर गुजर चुकी हूं। मैं खुद को रोक नहीं पाई । संतोष कैसे लिखा तुमने यह सच्चा, उदात्त, समर्पित प्रेम। “

उन्होंने जो कुछ कहा वह वक्तव्य पूरा का पूरा समीक्षा के नाम से हंस में राजेंद्र यादव ने छापा। लगभग डेढ़ सौ लोगों की उपस्थिति में कार्यक्रम संपन्न हुआ। मुझे विभिन्न संस्थाओं ने फूलों से लाद दिया।

इस उपन्यास की समीक्षा डॉ वीरपाल सिंह ने पुस्तक वार्ता के लिए की जो वर्धा से प्रकाशित होती है। नया ज्ञानोदय में प्रभाकर मिश्र ने की। लगभग 12 पत्रिकाओं में समीक्षा छपी और किताब का दूसरा संस्करण भी अब बाजार में उपलब्ध है ।

लोकार्पण के बाद ओमा शर्मा का फोन आया "आपने इसमें पृथ्वी थियेटर का जिक्र जिस काल में किया तब तो उसकी स्थापना ही नहीं हुई थी। "

" मैंने कहा ध्यान से पढ़ा नहीं आपने उस काल में पृथ्वी थियेटर एक मोबाइल कंपनी के रूप में जाना जाता था और पृथ्वीराज कपूर जगह-जगह जाकर थिएटर किया करते थे। "

"मुझे जन्म दो मां "और "टेम्स की सरगम "2010 और 11 में खूब चर्चित रही। अब दोनों ही किताबों के अंग्रेजी अनुवाद हो चुके हैं । टेम्स की सरगम का अनुवाद शील निगम ने किया जिसे सामयिक प्रकाशन ने Romancing the Thems नाम से छापा और 2015 के विश्व पुस्तक मेले में अशोक वाजपेई के द्वारा उस का लोकार्पण हुआ। लेकिन उसकी कीमत ₹900 बहुत अधिक लगी मुझे।

टेम्स की सरगम पर ही चर्चित पत्रकार कुमार सुशांत कूच बिहार से इस पर आलोचना ग्रंथ लिखवा रहे हैं। यह इस पुस्तक की बड़ी उपलब्धि है।

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