मेरे घर आना ज़िंदगी - 14 Santosh Srivastav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 14

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(14)

इसी वर्ष नमन प्रकाशन ने सुरेंद्र तिवारी के संपादन में 20वीं सदी की महिला कथाकारों की 10 खंडों में कहानियां छापी। मेरी कहानी “आईरिस के निकट” खंड 8 में छपी। इन खंडों में कहानियाँ इकट्ठी करने में और उन्हें जन्मतिथि के अनुसार व्यवस्थित करने में सुरेंद्र तिवारी ने बहुत मेहनत की थी। वे अब इस दुनिया में नहीं है पर उनका यह उपहार साहित्य जगत में सदैव याद किया जाएगा।

मुम्बई पर बहुत कुछ लिखने की इच्छा थी लेकिन फिलवक्त तो उस पर एक सफरनामा ही लिखकर इति कर ली। मेरा यह सफरनामा “मुम्बई भारत की शान” रायपुर की पत्रिका पाण्डुलिपि में प्रकाशित हुआ। जिसके लिए संपादक जयप्रकाश मानस ने मुझसे रचना आमंत्रित की थी। इस रचना से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित प्रेमचंद जयंती समारोह में 31 जुलाई 2011 को आमंत्रित किया। यह समारोह छत्तीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक विश्वरंजन जी के द्वारा आयोजित किया जा रहा था । जिन्हें नक्सलवादियों से सुरक्षा के लिए जेड सुरक्षा दी गई थी। विश्वरंजन जी रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी के नाती हैं। लिहाजा मुझे स्टेशन पर लाल बत्ती वाली पुलिस गाड़ी लेने आई और ट्रेन से सामान भी पुलिस ने उतारा । मेरी बुआ और उनकी बहू कवयित्री नीता श्रीवास्तव भी मुझे लेने आई थी। भोली भाली बुआ पुलिस देखकर डर गईं और मुझसे लिपट कर रोने लगीं "क्या किया है तूने जो पुलिस पकड़ कर ले जा रही है । "

हम सबका हँसते-हँसते बुरा हाल था।

होटल में कमरा मुझे भोपाल से आई पत्रकार जया केतकी से शेयर करना था । वह भी इसलिए कि वह अपनी साक्षात्कार की पुस्तक "फेस टू फेस" के लिए मेरा साक्षात्कार ले सके। इस पुस्तक के लिए उसने मशहूर साहित्यकारों के साक्षात्कार ले लिए थे जिनमें से अधिकतर भोपाल के थे। सफर की थकान की वजह से मैंने जया से क्षमा मांगते हुए कहा

" क्या मैं लेटे-लेटे आपके प्रश्नों का उत्तर दे सकती हूं?"

" दीजिए न, बल्कि यह तो अविस्मरणीय साक्षात्कार होगा । "

"हां, देखिए न आपके प्रश्नों की मेरी तैयारी भी तो नहीं है।

" हां, इंस्टेंट उत्तर रहेंगे आपके। "

वह रात 1:30 बजे तक मेरा साक्षात्कार लेती रही। अंतिम प्रश्न में मैं सो चुकी थी । जया ने वह प्रश्न सुबह चाय के समय पूछा।

समारोह के सम्मान सत्र का सँचालन जिसमें मुझे प्रमोद वर्मा स्मृति साहित्य सम्मान दिया जाना था युवा पत्रकार डॉ संजय द्विवेदी ने किया। समारोह शाम तक चला, संजय मुझे और जया को छोडने होटल आये, इन दिनो वे भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी विश्व विद्यालय में प्रोफसर हैं।

दूसरे दिन मैं बुआ के घर आ गई। पुराने किस्से मेरे बचपन की यादें बाबूजी अम्मा सभी को तो बुआ ने याद कर ढेरों बातें बताई। तरह-तरह के व्यंजन । आवभगत ऐसी कि जैसे कोई वीआईपी आ गया हो। अगले दिन रिचा संस्था ने मेरे सम्मान में कवि गोष्ठी का आयोजन किया । बुआ सुबह से ही साड़ी सिलेक्ट करती रहीं।

"कौन सी पहनूं। मेरी सेलिब्रिटी बिटिया का सम्मान हो रहा है। बुआ को भी तो रुतबे से जाना होगा। " समारोह में जैसे पूरा रायपुर का साहित्यिक वर्ग उलट पड़ा। सभी अखबारों की कवरेज मिली।

उसी वर्ष 16 से 21 दिसंबर को थाईलैंड में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के लिए मुझे निमंत्रित किया गया। जयप्रकाश मानस ने कहा "आ रही हैं न। सृजन श्री सम्मान आप की बाट जोह रहा है। " मैंने हामी भर दी।

कथाबिम्ब में एक कॉलम आमने-सामने निकलता है । जिसमें लेखक का साक्षात्कार और एक कहानी छपती है। इसमें प्रकाशित महिला लेखकों के साक्षात्कारों का संग्रह "महिला रचनाकार अपने आईने में "संग्रह डॉ अरविंद के संपादन में भारत विद्या इंटरनेशनल कोलकाता से प्रकाशित हुआ जिसमें मेरा भी साक्षात्कार था "खुद के कटघरे में। "

इन दोनों साक्षात्कारों की किताबों में छपे साक्षात्कारों ने मुझे चर्चित कर दिया और साक्षात्कार लेने के विभिन्न प्रस्ताव मेरे पास आने लगे । अब तक 26 लोगों हिंदी और मराठी के लेखक, रंगकर्मी, संपादक, पत्रकार, कवि द्वारा साक्षात्कार लिए जा चुके हैं जिनका संकलन शीघ्र ही नमन प्रकाशन से "रूबरू हम तुम" नाम से प्रकाशित होगा। इस पुस्तक का संपादन वरिष्ठ कहानीकार, संपादक विकेश निझावन कर रहे हैं।

*****

उन दिनों मैं कमल गुप्त का मैकाले का भूत पढ़ रही थी । इसे जो पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही उठी। दो रातों के जागरण ने मेरी तबीयत खराब कर दी। पेट खराब हो गया। इतने लूज मोशन हुए । चक्कर आने लगे । बिस्तर पकड़ लिया। सुमिता को फोन लगाया वह अपनी बहू पायल और बेटे मोहित के साथ दवा और खिचड़ी लेकर आई। लेकिन मेरी हालत देखकर वह मुझे अपने घर ले गई । तब विनोद सर कैलिफोर्निया में थे । उन्हें फोन लगाया । उन्होंने तुरंत वालेचा को फोन पर कहा कि” संतोष का प्रॉपर ट्रीटमेंट कराओ। रुपयों की मदद पहुंचाओ। “ सुबह सुमिता मुझे डॉ के पास ले गई। दवा पथ्य शुरू हुआ। विनोद सर सुबह शाम हालचाल पूछते। 5 दिन सुमीता के घर इलाज और आराम किया।

सुमीता की भी इच्छा थी थाईलैंड जाने की । मैंने जयप्रकाश मानस से बात की। लेकिन वे सुमीता को जानते न थे। मेरे अनुरोध पर हामी भरी । सुमीता के पास पासपोर्ट न था । मेरी तबीयत थोड़ी थोड़ी सुधर रही थी । पासपोर्ट की भाग दौड़ में मैं भी दो बार सुमीता के साथ पासपोर्ट ऑफिस गई।

पासपोर्ट तत्काल में बन गया और हम दोनों थाईलैंड की तैयारियों में जुट गए।

16 से 21 दिसंबर हम थाईलैंड में थे। जहाँ चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया जा रहा था । बैंकॉक में मुझे सृजन श्री साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। काफी लेखक आए थे थाईलैंड। आधारशिला के संपादक दिवाकर भट्ट से वहीं पहचान हुई।

थाईलैंड से लौटते ही घटनाएं तेजी से घटीं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी शाखा प्रमुख डॉ बिपिन ने आमंत्रित किया। 23, 24 जनवरी को राष्ट्रीय संगोष्ठी थी। जिसका विषय था" 21वीं सदी की हिंदी समकालीन विमर्श" हिंदी विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय तथा साहित्यिक पत्रिका अनिश का संयुक्त आयोजन था। मेरे लिए वहाँ जाना इसलिए और भी महत्वपूर्ण था क्योंकि बाबूजी वहीं के पढ़े थे और पंडित मदन मोहन मालवीय जी के जमाने में छात्रावास में भी रहे थे।

बिपिन जी ने मेरे रहने की व्यवस्था यूनिवर्सिटी फैकेल्टी हाउस में की थी। एक गाड़ी भी मेरे लिए अरेंज कर दी ताकि मैं अच्छे से विशाल परिसर में स्थित विश्वविद्यालय और बनारस घूम सकूं। कार्यक्रम राधाकृष्णन सभागार कला संकाय में संपन्न हुआ जहां मुझे दलित साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। मैं इतनी इमोशनल हो रही थी, डॉ राधाकृष्णन ने ही तो बाबूजी को दर्शनशास्त्र पढ़ाया था । मैंने अपने वक्तव्य में इसका जिक्र किया और उस जमाने की बाबूजी की बताई बातें साझा की।

कार्यक्रम के बाद छात्रों ने मुझे घेर लिया और मेरा ऑटोग्राफ लेने लगे। आग्रह करने लगे कि और भी बातें बताइए न यूनिवर्सिटी से जुड़ी। मैं उन छात्रों के साथ ही संस्कृत विभाग, छात्रावास आदि देखती रही। मुझे लगा जहाँ बाबूजी के चरण चिन्ह हैं वह जगह तो मेरे लिए तीर्थ समान है । क्या आलम रहा होगा तब। शिक्षा के साथ क्रांति की सरगर्मियां भी।

शाम को डॉक्टर विपिन के यहाँ चाय पार्टी थी। उनकी पत्नी ने ताज़ी मटर और फिंगर चिप्स की चाट परोसी। चाय भी बेहद स्वादिष्ट थी। डॉ बिपिन बताते रहे अनिश पत्रिका के प्रकाशन की बातें " आपने आज जो वक्तव्य दिया है वह अगले अंक में प्रकाशित होगा। " अनिश में लेख ही ज्यादा प्रकाशित होते हैं। लेकिन समकालीन मुद्दों पर विमर्श की अच्छी पत्रिका है।

मेरी ट्रेन कल शाम की थी। सुबह से सम्मेलन में आए साहित्यकार साथियों के साथ बनारस भ्रमण किया । पहले भी देख चुकी थी बनारस । सबसे ज्यादा आनंद आया गंगा के विभिन्न घाटों की सैर करने में । दशाश्वमेध घाट से नौका ली थी। बाबूजी इसी घाट पर ब्राह्ममुहूर्त में आकर सूर्य उपासना करते थे। तब गंगा शुद्ध निर्मल थी। अब मैली । गंगा को यह मैलापन मनुष्य ने ही तो दिया है। एक ओर धार्मिक आस्था की प्रतीक गंगा। दूसरी ओर कचरे का महासागर।

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नौकरी छोड़ दी थी और मेरे पास समय ही समय था । हालांकि यूनिवर्सिटी से जुड़ाव बना रहा। हफ्ते में दो बार तो चली ही जाती। ऑफिस के काम निपटाती। कभी-कभी विनोद सर खुद का लेखन भी करवाते। लेकिन उन्हें अपना कैलिफोर्निया प्रवास का संस्मरण लिखाना था तो उस पर मुझ से काम करवाते।

राजस्थानी सेवा संघ की स्थापना के 50 वर्ष पूरे हो चुके थे। जिस पर मुझे नाटक लिखना था और नाटक का निर्देशन भी करना था। सभी घटनाओं पर होमवर्क करके मैंने नाटक लिखा। रंगकर्मी एबनेर के बैच ने नाटक खेला। लगभग डेढ़ घंटे का नाटक तैयार हो गया जो भाई दास हॉल में 400 लोगों की उपस्थिति में खेला गया।

स्वर्ण जयंती थी। सुबह 11:00 से शाम 6:00 बजे तक कार्यक्रम हुए। विनोद सर ने शिक्षा मंत्री, पुलिस महानिदेशक, गवर्नर और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को आमंत्रित किया था । मेरे द्वारा निर्देशित गीत की सीडी तैयार हुई। जिसे सभी को उपहार स्वरूप भेंट किया गया।

न जाने क्यों मुझे लगने लगा जैसे मैं वैसा जीवन नहीं जी पा रही हूं जैसा मैं चाहती हूं। मेरे कमरे की खिड़की से दिखते जवाकुसुम के लाल फूलों से लदा पेड़ और उस पर फुदकती चिड़ियाँ जो अपनी चहचहाहट से माहौल को संगीतमय बना देती हैं मुझे बहुत हॉन्ट करतीं, न जाने क्यों!!

मुंबई में साहित्यिक सरगर्मियां बढ़ रही थीं। आशीर्वाद संस्था के डॉ उमाकांत बाजपेई ने फोन पर बताया कि वे मुंबई के हिंदी कवियों की पुस्तक संपादित करने जा रहे हैं। जिसमें मैं भी अपनी कविता फोटो, परिचय सहित भेजूं। इसी समय दिल्ली से प्रेमचंद सहजवाला ने भी 10 कविताएँ मंगवाई। वे भारत के सिलेक्टेड कवियों की किताब "लिखनी ही होगी एक कविता" जो बोधी प्रकाशन से प्रकाशित होगी, संपादित कर रहे थे। मैं छिटपुट कविताएँ लिखती थी। तब अधिक छपी भी नहीं थी पर एक बार विश्व पुस्तक मेले में उन्हें कुछ कविताएं सुनाई थीं। बहुत प्रोत्साहित किया था उन्होंने "लिखो मन के भाव कागज पर उतारती रहो। फिर उन पर होमवर्क करो। कविता सृजित होगी। अब वे इस दुनिया में नहीं है। उनके द्वारा संपादित संग्रह "लिखनी ही होगी एक कविता" मेरी किताबों की अलमारी में है । मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि हाँ मैं लिख रही हूँ कविता और मेरा एक संग्रह भी छप चुका है "तुमसे मिलकर" लेकिन उसे पढ़ने के लिए आप नहीं है।

कितने आत्मीय हमेशा के लिए बिछड़ जाते हैं लेकिन लेखक फिर भी अपनी लेखन यात्रा जारी रखता है। मेरे लेखन ने जब जन्म लिया, वह पूरी प्रक्रिया, मेरी जिज्ञासाएं, मेरे भीतर कुलबुलाते प्रश्न और बीहड़ संवेग, पथरीली घटनाएं जिस पर से गुजर कर एक लंबा कष्टप्रद सफर मैंने तय किया। क्या मैं अपने भीतर के सफर को कभी परिभाषित कर पाऊंगी। दुनियादारी साथ साथ चलती रहती है। अगर शब्दों का सफर सड़क से गुजरता है तो दुनियादारी उसका फुटपाथ होती है।

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वर्ष 2015 में मेरे साहित्य पर केंद्रित दो विशेषांक निकले। विकेश निझावन के संपादन में अंबाला से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका पुष्पगंधा का मई से जुलाई 2015 का अंक मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था। जिसमें जयप्रकाश मानस द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, मेरे मित्रों के मेरे विषय में विचार जिन्हें अभिव्यक्ति कॉलम दिया गया जिसके अंतर्गत प्रसिद्ध रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज, मोहनदास फकीर, आलोक भट्टाचार्य, गुलशन आनंद, सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज, पत्रकार महेश दर्पण तथा कवि, आलोचक भारत भारद्वाज के लेख प्रकाशित किए गए।

अपने संपादकीय में विकेश निझावन ने लिखा कि "साहित्य की विभिन्न विधाओं को संतोष श्रीवास्तव ने जिस गहरे से छुआ हमारे पाठकों की जिज्ञासा उनके साहित्य और जीवन के और करीब जाने के लिए बढ़ती चली गई । यह अंक भी संतोष जी के जीवन के अन्य पहलुओं से रूबरू होने जा रहा है जो पाठकों के विशेष अनुरोध पर उनके साहित्य पर केंद्रित किया गया है। कहा जाता है कि दर्द का हद से गुजर जाना हो जाता है दवा, लेकिन यहां हमें संतोष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखा प्रसिद्ध कवि आलोक भट्टाचार्य का यह लेख कि संतोष ने दुख की परिभाषा बदली है बहुत अधिक सटीक लगा।

दुख की परिभाषा बदली है संतोष ने

उनका नाम भर संतोष है। बाकी बात यह है कि अपनी लिखी रचना से वे कभी संतुष्ट नहीं होतीं और इसीलिए वे अपनी रचनाओं की सबसे बड़ी आलोचक भी हैं। आप पाएंगे कि उनमें एक तड़प है, एक अबूझ छटपटाहट है। वह हमेशा कुछ न कुछ नया सोच रही हैं। नई योजनाएं, नए कार्यक्रम बना रही हैं। उनमें बहुत उत्साह है। आप उनसे मिलें, वह आपको बताएंगी कि उन्होंने क्या-क्या किया है। क्या कर रही हैं और क्या करने वाली हैं। उनके यह सभी काम साहित्य से जुड़े होते हैं । वह अपने घर पार्टी कर रही हैं तो स्थानीय या मुंबई के बाहर से आए साहित्यकारों के साथ। पिकनिक जा रही हैं तो साहित्यकारों के साथ।

कई लोगों को लगता है लग ही सकता है कि यह संतोष की अतिरिक्त गतिविधियां हैं। एक्स्ट्रा करिकुलर यानी साहित्येतर, साहित्य से बाहर की दौड़ भाग लेकिन ऐसा है नहीं। दरअसल वे इन्हीं गतिविधियों में से अपनी रचनात्मकता की आग को धधकाए रखने का ईंधन जुटा लेती हैं। उनके इस कार्य का एक अहम हिस्सा है दूरदराज के लेखकों से संपर्क बनाए रखना । जिनके साथ उनकी मुलाकात विभिन्न साहित्यिक सम्मेलनों या विश्वविद्यालय के सेमिनारों में होती रहती है। इन्हें वे अपनी बिरादरी भी कहती हैं। ऐसा करके अपने परिवेश को साहित्यमंडित बनाए रखती हैं और इस तरह खुद को ऑक्सीफाइड कर लेती हैं। संतोष उदार होती हैं, स्नेहिल होती हैं, मददगार या फिर नए लेखकों को प्रमोट करने की दरियादिली....... उनका अंतिम ध्येय अंततः साहित्य होता है ।

अच्छे साहित्य को धर पकड़ने के लिए सांसारिक लापरवाही या व्यवहारिक क्रूरता आपको देखनी है तो बाबा नागार्जुन में देखें, राजकमल चौधरी में देखें । फर्क यह है कि संतोष में लापरवाही सिरे से गायब है। वे सजग हैं । व्यवहार में क्रूर नहीं अति कोमल हैं।

संतोष के खून में साहित्य है । उनके डीएनए में साहित्य है । उनके पिता दर्शन शास्त्र की किताबें लिखते थे। मां गीत। उनके भाई विजय वर्मा साहित्य की बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। छोटी बहन डॉ प्रमिला वर्मा भी हिंदी की स्थापित कथाकार हैं। संतोष का एकमात्र बेटा हेमंत मात्र 23 साल की उम्र में जिसकी अकाल मृत्यु एक दारूण, ह्रदय विदारक दुर्घटना में हो गई वह भी कविताएं लिखता था। बाद में हेमंत की कविताओं का संग्रह छपा "मेरे रहते। "

मेरा संतोष से परिचय उनके पहले कथा संग्रह बहके बसन्त तुम के लोकार्पण के अवसर पर नूतन सवेरा के ऑफिस में हुआ और तब से हम घनिष्ठ मित्र हैं। अब तो और भी अधिक जब उनके बड़े भाई विजय वर्मा और पुत्र हेमंत की स्मृति में स्थापित हेमंत फाउंडेशन से मैं भी जुड़ गया हूं।

संतोष ने बहुत जल्दी-जल्दी दो बड़े दुख झेले पहले जवान होनहार बेटे हेमंत की अकाल मृत्यु और फिर कुछ ही समय बाद कैंसर से पति की मृत्यु। कोई भी महिला टूट ही जाती। संतोष भी टूटती अगर उनके पास साहित्य की शक्ति न होती।

प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार प्रमथ चौधरी ने कहा है साहित्य भले ही रोटी रोजगार नहीं दे पाता है, आत्महत्या से तो बचाता है। संतोष भी बच गईं । वे आत्महत्या तो नहीं करतीं लेकिन शोक से भरी तन्हाई में घुल घुल कर जीते रहने को भी तो जीवन नहीं ही कहा जा सकता।

उससे उबर कर फिर से जीवंत हो पाने का अवसर उन्हें निश्चित रूप से साहित्य ने ही दिया। संतोष पहले भी खूब सक्रिय थीं लेकिन शोकस्तब्ध एकाकीपन की उस उदास अंधकार भरी खाई की मृत्यु शीतल जकड़ से स्वयं को मुक्त करने के लिए संतोष ने अपनी साहित्यिक सक्रियता को खूब बढ़ा लिया। स्थिर बुद्धि के अचंचल लोगों को संतोष की सक्रियता अतिरेकी जरूर लग सकती है। लेकिन मुझे लगता है संतोष ने ठीक ही किया। दुखों की परिभाषा बदल कर संतोष ने दुख को कोसों दूर झटक दिया। लिखना तो कलम मात्र के बस की बात नहीं कि जब चाहा कलम चलाने लगे। यह तो कलम घिसना हुआ कि दुख आन पड़ा और लिखने बैठ पड़े, ऐसा होता नहीं। दुख पचने को समय लेता है। उसका रूपांतरण समय साध्य है। झटपट कुछ नहीं होता । जब तक लिखना "आता "या उर्दू लहजे में कहूं तो "उतरता" या अपने पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के अंदाज में "अवतरित" होता तब तक क्या संतोष बैठी रहतीं? इंतजार करतीं? संतोष ने तय किया लिखना तो होगा ही । जब होगा तब होगा । अभी यह बहुत ज्यादा जरूरी है कि उनका टूटा मन कहीं तो थोड़ा जुड़े। सो वे साहित्यिक गतिविधियों में डूबती चली गईं। शुरू हो गया लेखकों के जन्मदिवस, शताब्दी दिवस, स्मृति दिवस, कहानी पाठ, कवि गोष्ठी, पुस्तक लोकार्पण, विजय वर्मा कथा सम्मान, हेमंत स्मृति कविता सम्मान, साहित्य सम्मेलनों में प्रतिभागिता । रायपुर, जगदलपुर, भोपाल, पटना, रांची, इंदौर, लखनऊ, गोवा, सूरत, वडोदरा, हल्द्वानी, देहरादून, अमृतसर, डलहौजी, दिल्ली, कोलकाता और शुरू हो गया कहानी उपन्यास के साथ गजल, कविता लेखन, स्तंभ लेखन भी । आज मुंबई में संतोष श्रीवास्तव साहित्य की एक जीती जागती प्रतिष्ठित प्रतिमा हैं और भारत की चर्चित महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।

लेकिन इस सबके बावजूद दुख तो दुख ही होता है । अकेलापन, अकाट्य, अभेद्य। वरना हंसती मुस्कुराती संतोष की कलम से यह शब्द न रिसते।

"रात 12:00 या 1:00 बजे तक लिखती हूं पर कोई कहने वाला नहीं कि अब सो जाओ । "

उन्हीं का एक शेर

अब रात बीतती है चलो घर की राह लें

पर वहां भी मेरे सिवा मिलेगा कौन?

शायद संतोष इस बात को आत्मा की गहराई से अनुभव करती हैं कि सिर्फ और सिर्फ लिखने और गहरे सच्चे लिखने के अलावा बाकी सभी कुछ मात्र आवरण ही है । थोथा तामझाम। अनुभव कर पाती हैं तभी तो सब कुछ के बावजूद, सब कुछ के बाद संतोष कलम की शरण गहती हैं । लेखन का ही हाथ थामती हैं । संतोष जानती हैं कि दुख विराट है। दुख में से ही सांस रोककर, खींचतान कर थोड़ा सा सुख निकाला जा सकता है। दुख की विशाल मूर्ति के यहां -वहां कोने-कोने से कुरेद कुरेद कर थोड़ी सी ऐसी मिट्टी निकाली जा सकती है कि एक छोटी सी मूर्ति गढ़ी जा सके।

संतोष दुखों की एक विराट मूर्ति हैं। खुद अपने को कुरेद कुरेद कर वह सुख के छोटे-छोटे गुड्डे गुड़ियाएं गढती जाती हैं। दो एक अपने लिए बाकी दुनिया जहान के लिए। यही संतोष की रचना प्रक्रिया है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि संतोष श्रीवास्तव चित्रकार भी हैं। चित्रकला की उनकी जानकारी की एक झलक उनके आगामी उपन्यास "लौट आओ दीपशिखा "में पाठक देख सकेंगे। उपन्यास शायद किताबवाले पब्लीकेशन से आ रहा है। संतोष नृत्य कला प्रवीण भी हैं। अच्छी वक्ता भी हैं।

रही संतोष के साहित्य की बात तो वहां जीवन अपनी तमाम विशेषताओं और आकस्मिकताओं के साथ मौजूद है। वहां रूमान अगर अपनी पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित है तो सामाजिक सरोकार के खलबलाते, उबलते, बेचैन करते तमाम सवालात भी। टेम्स की सरगम में रूमान अपने उच्चतम ताप और समस्त और तार्किकता के साथ यदि मौजूद है तो माधवगढ़ की मालविका में सती प्रथा के खिलाफ, मुझे जन्म दो मां में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ और नहीं अब और नहीं में सांप्रदायिकता के खिलाफ संतोष ने आवाज उठाई है । संतोष के पास जीवन की अद्भुत जटिलताओं को समझने की सहृदयता है । समाज की आर्थिक, राजनीतिक खासकर भारत जैसे विशिष्ट समाज की जातीय और सांप्रदायिक समस्याओं को समझने की दृष्टि है। साथ ही रूमान की अबूझ बचपनाभरी, नासमझी को भी लाड़ भरी शह देने का ममतापूर्ण माद्दा है। और इन सबको मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति देने के लिए प्रवाहमयी, प्रांजल, खूबसूरत भाषा भी है उनके पास।

संतोष अत्यंत परिश्रमी, समय की पाबंद, स्वाभिमानी, साहसी हैं । गलत चीजों पर कभी समझौता नहीं करतीं। अड़ जाने में तनिक भी नहीं डरती। स्पष्टवक्ता हैं लेकिन मृदुभाषी भी। स्नेह से लबालब उनका ह्रदय है। सारे संसार की पीड़ा धारे, खुद की पीड़ा भूले अप्रतिम संतोष लिखती रहें। हिंदी साहित्य समृद्ध होता रहे।

आलोक भट्टाचार्य का यह लेख मेरे साहित्य पर केंद्रित अन्य पत्रिकाओं ने भी छापा।

प्रतीक श्री अनुराग के संपादन में वाराणसी से निकलने वाली मासिक पत्रिका वी विटनेस का अप्रैल 2015 का अंक भी मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था।

प्रतीक अनुराग ने अपने संपादकीय में लिखा "महान कवि आलोचक व नोबेल प्राइज विजेता टी एस इलियट ने अपने संस्मरण में रोला रोमा, रिल्के और दूसरे समकालीन यूरोपीय लेखकों की उपस्थिति पर हर्ष व्यक्त करते हुए आशंका जताई थी कि क्या भविष्य में कभी ऐसे लेखक दोबारा जन्म लेंगे। प्रतिभावान, सादगी भरे, शोहरत से कोसों दूर, असुविधाओं में फंसे मगर फिर भी अपने काम में निमग्न......... समय समाज की आत्मा को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा बनाती ऐसी संवेदनशीलता जो मनुष्य को न सिर्फ उसके अस्तित्व का एहसास कराए बल्कि उसका संबल भी बने । "

उस टिप्पणी के संदर्भ में अपनी भाषा के सम्माननीय लेखकों की उपस्थिति और रचनात्मकता के बरक्स लेखिका संतोष श्रीवास्तव की याद बरबस आ जाती है । पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से लेखन एवं कला जगत को समर्पित एक ऐसी कलमकार को, उसके वृहद सृजन संसार को कुछ पन्नों में समेटना एक दुरूह कार्य है फिर भी वी विटनेस ने संतोष जी के साहित्य आकाश के मर्म को स्पर्श करने का प्रयास किया है।

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