जिंदगी मेरे घर आना - 2 Rashmi Ravija द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी मेरे घर आना - 2

जिंदगी मेरे घर आना

भाग २

 

और इस सारे बदलाव का श्रेय नेहा नवीना यानी उसे दिया जाता है जबकि यह सब तो अनजाने में हो गया किसी योजना के तहत उसने कुछ नहीं किया। किसी भी चीज को गंभीरता से लेना तो उसके स्वभाव में शामिल ही नहीं। भले ही माली काका और उनकी पत्नी या रघु और मंगल के बीच झगड़े सुलझाती वह बड़ी धीर गंभीर नजर आए। लेकिन गंभीरता से उसका कोसों दूर का नाता नहीं। सावित्री काकी के अंदर जाते ही बिल्कुल नन्हीं नेहा बन ठुनकने लगती -‘माली दादा, तुम्हें तो अब इलायची अदरक डाली बढ़िया चाय मिल जाएगी... मुझे भी अपनी पसंद की चीज चाहिए।‘

माली दादा उसकी शरारत समझ जाते पीले गुलाबों वाला गुलदस्ता, वे हर शाम डैडी के कमरे में सजाते थे - क्योंकि उनका सबसे प्रिय इसी रंग का यही फूल था। वह उसी की फर्माईश कर बैठती और पूरी नहीं करने की दशा में तरह तरह के गुलदस्ते बनवाती। और ढेर सारे कच्चे अमरूद तुड़वाती। माली काका भी खुश-खुश उसकी फर्माईशें पूरी करते जाते और बतरस का आनंद भी लेते रहते। उसे वह नन्हीं नेहा ही समझते -‘अच्छा कच्चे अमरूद खाओगी और पेट में दरद होगा, तब?‘

‘अच्छा होगा न, फिर सावित्री काकी से खट्टा-मीठा चूरण भी खाने को मिलेगा।‘ वह अमरूद पर दाँत गड़ाती बोलती ।

‘पता नहीं हमारी बिटिया कब बड़ी होगी?‘ - मनोयोग से गुलदस्ता बनाते माली काका जैसे अपने-आप से ही बोलते। तो नेहा आँखें चौड़ी कर कह उठती -‘मैं बताऊँ... बारह तारीख को बारह बज कर बारह मिनट पर।‘

माली दादा अपनी ठेठ अलीगढ़ी अंदाज में हो हो कर हँस पड़ते। फिर बड़ी संजीदगी से कहते -‘इतना लगी रहती है, बिटिया, चली जाएगी तो ये घर बाग-बगीचा सब सूना हो जाएगा।‘

‘कहाँ चली जाऊँगी?‘ - वह इठला कर पूछती तो क्षोभ उतर आता माली काका के स्वर में - ‘अरे! वहीं जहाँ पाँच बरस पहले जाना चाहिए था।... क्या कहूं... सहर में रहकर छोटे मालिक की बुद्धि भरमा गई है... नही ंतो अपने यहां तेरहवां लगते ही लड़की अपने घरबार की हो जाती थीं‘.

‘बस फिर वहीं गंदी बात... अभी बताती हूँ‘ - और वह दौड़कर कोई तितली हाथों में कैद कर लेती। यह माली काका को निरस्त करने का सबसे कारगर हथियार था।

एक बार उसने बताया था कि कैसे उसकी सहेलियाँ तितलियों को छोटी सी बोतल में बंद कर देती हैं और अपनी मेज पर सजा देती हैं. पर फिर तितली मर जाती है. माली काका ने कानों पर हाथ रख लिया -‘राम-राम बिटिया ऐसा भी कहीं होता है।‘

‘क्यों नहीं होता, खूब होता है... अब यहाँ भी होगा... मैं भी सजाऊँगी ऐसे ही।‘

रोश उमड़ आया था माली दादा के स्वर में, याद नहीं कभी इतनी झिड़की भरी आवाज सुनी हो... ‘ना... ना बिटिया ऐसा जघन्य काम नहीं होने देंगे हम... जीव हत्या सबसे बड़ा पाप है... जो चीज हम जो चीज हम दे नहीं सकते उसे लेने का क्या हक है?‘... सीधे सादे शब्दों में उन्होंने अपना दर्शन रख दिया था।

लेकिन वह उन्हें खिझाती रहती... ‘क्या हुआ एक न एक दिन तो सबको मरना ही है। अच्छा है न जितनी जल्दी इसे कीड़े वाली योनि से छुटकार मिल जाए‘ - फिर बड़े राजदार ढंग से बोलती -‘क्या जाने काका इसे मनुष्य जन्म मिले।‘

‘हाँ हाँ! देवता का मिलेगा, पहले तू छोड़ इसे‘ - फिर खूब मिन्नतें करवा तितली को आजाद करती।

उस दिन भी उनके हाथों में काले-पीले रंगों वाली एक खूबसूरत तितली फड़फड़ाती देख माली दादा अधबना गुलदस्ता छोड़ उसकी ओर भागे थे। वह कुछ और दूर जाती हुई बोली थी -‘क्यों अब और बोलोगे जाना है?‘

असमंजस में खड़े रहते माली काका -‘तूने तो बड़ी धरमसंकट में डाल दिया बेटी... कैसे कहूँ कि नहीं जाना है।‘

***

एक दिन नेहा लाॅन में कुर्सी डाले मम्मी के साथ बैठी थी। मम्मी एक मोटे से उपन्यास में डूबी थीं उसने भी अपनी कोर्सबुक खोल रखी थी पर जी नहीं लग रहा था पढ़ने में।

बोर हो चली थी, निगाहें भटक रही थीं कि कोई शगल मिले कि जानकी माँ को देखते ही उसकी बाँछें खिल गई। अब तो घंटा भर आराम से कट जाएगा... जानकी माँ थी ही इतनी गप्पी। पूरे उछाह से स्वागत किया... ‘हाँ जानकी माँ! आज लग रहा है कोई नानी या दादी मम्मी तशरीफ ला रही है... हर चीज उम्र पर शोभा देती है। देखो तो कितनी गरिमामय लग रही है... वो सब क्या पहन लेती थी... झुमका, हँसुली, पायजेब.. देर से ही सही मेरी बात समझ में तो आई।‘

जानकी माँ को हमेशा जेवर, बिंदी, आलता से सजी देख और श्रृंगार का बेतरह शौक देख अक्सर टोक देती थी... ‘अब यह सब बंद कर अपनी बहुरिया को दे दो... दुल्हन आ गई है घर में, कब तक दुल्हन बनी रहोगी?‘

अगर जानकी माँ का मूड ठीक रहता तो कहतीं-‘ई सब सुहाग का चीज है बिटिया...‘ और सूप रख हाथ जोड़ माथे से लगा लेती -‘एही बिनती है भगवान से... ऐसे ही सिंगार-पटार करते उठा लें।‘ और जो मूड जरा गड़बड़ हुआ तो बोलतीं -‘अबही से हम कवन बुढ़िया हो गई, पचास भी नहीं लगा है... और उ सब जो साठ-पैंसठ की बुढ़िया सब केस रंगे, ओठ रंगे... चमचम साड़ी गहना पहने रहे तो ठीक?? काहे न... बड़कन के घर के लोग हैं न‘... और उसे मान लेना पड़ता... बात तो ठीक है।

लेकिन आज जानकी माँ ने आँख उठाकर भी न देखा और स्थिर कदमों से आती... मम्मी का घुटना पकड़ जोरों से बिलख उठीं... ‘हम तो लुट गए मालीकन... जानकी के बाबू बड़ा सवारथी निकले... बीच मझधार में छोड़ कर हमको चले गए। अब अकेले कैसे जीएँगे हम... कौनो सहारा नहीं रहा।‘

सन्न रह गई वह। वह तो उसे यों सादी-सादी देख वह सब बोल गई। उसके सादे रूप के पीछे यह कारण होगा... ऐसा तो सपने में भी ख्याल नही आया। अवाक हो जड़ बनी बैठी रही। अनजाने ही कितना दिल दुखाया इस निरीह नारी का।

मम्मी ने जब भीतर से पर्स लाने को कहा तब तंद्रा टूटी उसकी - पर्स दे घास पर ही बैठ गई। भीगे स्वर में बोली... ‘गलती से जाने क्या निकल गया मुँह से, तुम ध्यान मत देना, जानकी माँ। मुझे कुछ मालूम नहीं था।‘

जानकी माँ उसे पकड़ दिल चीज कर रख देेनेवाली आवाज में रो पड़ी। उसकी आँखें भी भीगती चली गईं।

बाद में भी जाने कब तक अवसन्न सी बैठी रह गई। मम्मी के टोकने पर अपराधी स्वर में बोली थीं... ‘मम्मी उसने रंगीन साड़ी पहनी थी न, इसीलिए मेरे दिमाग में यह बात आई ही नहीं... उसे तो... ऐसे में तो सफेद साड़ी पहननी चाहिए न।‘

‘वो ऽ ऽ गरीब कहाँ से लाएंगी सफेद साड़ी, सबकी उतरन ही तो पहनती हैं... जिसने जैसा दे दिया... इन्हें तो शायद ‘कफन‘ ही नया नसीब होता है... लोकाचार भी सब पैसे वालों को चोंचले हैं।‘ - मम्मी ने समझाया।