इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(4)
....गुड़िया, तुझे मलाई पसंद है, इसलिये दो बार मलाई डाल देता हूं। एक तू खा लेना और एक घर तक ले जाना’।
वह दही के दोने को बायें हाथ की हथेली पर रखती और दायें हाथ से ढक लेती। जब दुकान से थोड़ी दूर आ जाती तो दायें हाथ को हटाती और दो उंगलियों से मलाई उतार कर मुंह में रख लेती।
राहगीर हंसते और कहते – ‘कशी कृष्णा सारखी चोरून साय खात आहे’। जब वह घर के नज़दीक पहुंचती तो बाल पूरी तरह सूखकर झाऊझप्प हो जाते। चेहरा दिखता ही नहीं था और वहां खेलते लड़के हंस-हंसकर कहते –
‘भागो, भूत आ रहा है, भूत लगा मेरे पीछे’। वह बिसूरने लगती थी। उसका घर पहले माले पर ही था। अम्मां को लड़कों की आवाज़ सुनाई पड़ जाती थी। वह नीचे उतरकर आतीं और हंसकर कहतीं – ‘उसे भूत मत कहा करो’।
वे लड़के भी हंसकर कहते - ‘चाची, ये तो हमारी बाउली है। अब हम नहीं कहेंगे भूत’। इतने में वे उसके मुंह पर लगा दही देख लेती और साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए कहतीं – ‘तुमने फिर दही की मलाई खा ली? अब मुंडे दही का रायता बनेगा, जिसमें कोई स्वाद नहीं आयेगा। अब हम खुद ही दही लेने जाया करेंगे’ और वह ठुनक जाती थी।
आज तो यादों की रील खुलती ही जा रही है। खुल भी ले...हर्ज ही क्या है। भूलने और याद करने पर भला किसी का बस चला है जो उसका चले।
अम्मां शाम को चार बजे दोनों बहनों को तैयार करके पास के बगीचे में खेलने भेज देती थीं। हिदायत होती थी कि छ: बजे से पहले घर आ जायें। पिताजी का यह आदेश था कि जब वे घर आयें तो बच्चे घर में मिलें, अन्यथा अम्मां को डांट पड़ना तय था।
अम्मां भी पिताजी के आने से पहले साड़ी बदलतीं और चोटी वगैरह बना लेती थीं। यह घर का नियम था कि हमेशा अप-टू-डेट रहा जाये। भले दो जोड़ी कपड़े हों, पर वे धुले और प्रेस किये हुए हों।
उसने मुचड़े कपड़े कभी नहीं पहने थे। यह सब बचपन से ही उसके व्यक्तित्व का हिस्सा था। उसे बिना प्रेस किये, उधड़े कपड़े पहनना बिल्कुल पसंद नहीं था। आज भी नहीं है। हमेशा उसके सारे कपड़े धुले और प्रेस किये होते हैं।
हां, वह अपनी इस आदत का क्या करे। वह कभी भी तैयार किये और प्रेस हो कर आये कपडे़ अलमारी में नहीं रख पाती है। नहीं तो बस नहीं। बेशक सोम की रोज़ की शिकायत सुनती है और अनसुनी कर जाती है....
‘कामना जी, ज़रा कपड़ों को पलंग से हटायेंगी? मेरे लिये मुश्किल से जगह बची है। अब इन सारे कपड़ों का ध्यान रखते हुए कैसे सोया जाये। एक भी करवट ली तो मेरा या कपड़ों का नीचे गिरना तय है’।
वह हंसते हुए कपड़े पलंग से उठाकर उसी कमरे में सामने रखे प्रेस करने के स्टेंड पर रख देती और सोम उबासी ले कर – ‘हरी ओम श्रीवास्तव कहते हुए पलंग पर विराजमान हो जाते थे। पता नहीं सोम ने हरी ओम के साथ ‘श्रीवास्तव’ क्यों जोड़ रखा है।
वह फिर बचपन में लौट गयी है। एक दिन शाम को वह और गायत्री बगीचे में खेल रही थीं। वहां झूले भी थे। वहां एक लड़की से दोस्ती हुई। उसका नाम कोकिला था। गुजराती थी। गायत्री और कोकिला बड़े मज़े से झूला झूल रही थीं।
गायत्री बैठी थी झूले पर और कोकिला खड़ी होकर झूले में पेंग भर रही थी। झूला खूब ऊंचाई तक जाता था और एक पेड़ की डाल को छूकर तेज़ गति से नीचे आता था। बगीचे के लोग उन दोनों को धीमी गति से झूलने को कहते।
पर वह बचपन ही क्या जो कहना मान ले। आखिर वही हुआ जिसका डर था...झूला पलट गया। एक कॉर्नर पर गायत्री गिरी तो दूसरे कॉर्नर पर कोकिला। पूरे बगीचे में भगदड़ मच गयी। वे दोनों बेहोश हो गयीं। वह डर के मारे घर की ओर भागी थी।
छोटी ही तो थी। घर तक पहुंचते पहुंचते वह बेदम हो गई थी। अम्मां ने दरवाज़ा खोला तो उसने हांफते हुए कहा – ‘जल्दी बगीचे में चलो। गायत्री और कोकिला गिर गयी हैं। दोनों की आंखें बंद हैं। अम्मां भी घबरा गईं थीं।
उन्होंने जल्दी से चप्पल पहनीं। घड़ी देखी तो साढ़े छ: बजे थे। ‘ये’ भी आते होंगे। बच्चों को घर में नहीं देखा तो घर सिर पर उठा लेंगे। इधर वह बदहवास और उधर अम्मां हैरान परेशान। दोनों लपकती हुई बगीचे में पहुंची। तब तक गायत्री और कोकिला को होश आ गया था। दोनों सहमी सी एक बेंच पर बैठी थीं। लोग उनके चारों तरफ घेरा बनाये खड़े थे।
उनको आते देखकर गायत्री उनसे लिपटकर फफक-फफक कर रो पड़ी। अम्मां ने कुछ नहीं कहा और दोनों को लेकर घर आ गयीं।
वे सब घर पहुंचीं तो पापा दरवाज़े पर खड़े थे। वे समय के पाबंद थे। शाम को सात बजे घर आ जाते थे। उन्होंने जब एक नई लड़की को भी देखा, तो कुछ समझ नहीं पाये। कपड़े गंदे, चेहरे पर गर्द। पूछा –
‘का भऔ? आज बचचन कों बगीचा सें आयबे में देर कैसें है गई? क्या गिर गिरां गयै हैंगे। अम्मां ने कहा - मोय तौ पतौ नईं चलौ। गायत्री और बाकी सहेली झूला पै सें गिर पड़ी हीं। कामना भगकै घर आई तौ हम बगीचा में गये और बिटियन कौं लैकै आये। अब तुम गुस्सा मत होईयो।
......अभैं तुमनें कपड़ा नाय बदले हैं, तौ एक काम करौ कि कोकिला कों बाके दरवज्जे तक छोड़ आऔ। बाके घरवाले भी परेशान होय रए होंयगे’। पिताजी ने समय की नज़ाकत को समझा था और कोकिला का हाथ पकड़कर वापिस नीचे उतर गये थे।
उसे याद आता है कि बचपन में उसे खरोंच भी लग जाती थी तो उस खरोंच को देखकर घंटों उदास रहती थी और बार बार अम्मां से पूछती थी – ‘जि चोट मेरेईं कायकों लगी’। और आंखों में पानी भर आता था।
पिताजी कभी कभी हंसकर कहते – ‘बेटा, जा खरौंच कों देखके रोऔ मत। हमें तौ चिंता है कि ब्याह के बाद का करौगी। बाद में तौ पतौ नाय कैसी चोटें लगेंगी और का का देखबें पड़ैगौ। .... ठीक है जायैगी अंगुरिया’
और उस दिन से लेकर तब तक पिताजी शाम को अपने हाथ से उसे अपने हाथ से खिलाते, जब तक उसकी उंगली ठीक नहीं हो जाती। पिताजी कहते कभी नहीं थे, पर जिस तरह से बिना कहे अपना लाड़ जताते थे, सच में महसूसने लायक था। आज वह उन पलों को बहुत याद करती है।
और चोट से याद आया... बचपन में उसकी नकसीर बहुत फूटती थी। जब भी मौसम बदलता और नाक में खुश्की होती थी और वह नाक को अंदर से खुजला देती थी और अगले ही पल खून की धार बहने लगती थी।
वह खुद परेशान हो जाती थी और जल्दी से सिर ऊपर करती थी और अम्मां सिर पर बर्फ़ के टुकड़े घिसने लगती थीं। यह घरेलू दवा थी। नाक से खून न बहे, इसका कोई डॉक्टरी इलाज नहीं था। खुश्की और गर्मी ही इस नकसीर के फूटने का कारण होती थी।
बाद में डॉक्टर ने भी बताया था – ‘मौसम बदलते ही नाक के अंदर की त्वचा खुश्क होने लगती है, ऐसे में देशी घी को हल्का सा गर्म करके दोनों नथुनों में बारी बारी से दो-दो बूंदें डाल लिया करो। दिन में दो बार डालो, तो बहुत अच्छा। कभी खून नहीं बहेगा’।
सच में डॉक्टर का बताया यह घरेलू नुस्खा कारग़र साबित हुआ था। उसके बाद क़रीब सात बरस तक उसकी नाक से कभी खून नहीं बहा था। बाद में तो ये भी होता रहा कि वह हमेशा सबको ही देशी घी वाला इलाज बताती रही। कोई ट्राय करे या न करे।
पिताजी अपनी बेटियों के लिये काफी प्रोटेक्टिव रहे थे....कारण साफ था कि वे जब चार वर्ष के थे, तभी उनके पिता का साया परिवार के ऊपर से उठ चुका था। वे अपने चाचा के भरोसे पले और बड़े हुए थे। आधी अधूरी पढ़ाई और आधा अधूरा जीवन।
चाचा ने अपनी हैसियत भर छुटपन से ही उन्हें कस्बे के हॉस्टल में भर्ती करवा दिया था। उनकी मां तो ने वैधव्य की आड़ में सारी जिम्मेदारियों से अपना मुंह मोड़ लिया था। एक बार पिताजी को अम्मां से यह कहते सुन लिया था –
‘मैं अनाथ हो गया था, पर अपने बच्चों को यह कभी महसूस नहीं होने दूंगा। लाख कमियां हों, उनको अपने साथ ही रखूंगा। ऐसा उन्होंने किया भी था। बात के बड़े पक््के थे वे।
अब गृहस्थी की पटरी बैठने लगी थी। एक दिन दूर के वही मामा अचानक आ टपके। पिताजी ने एक तरह से उनसे नाता तोड़ लिया था। कोशिश कर रहे थे कि नौकरी भी बदल लें ताकि आमना सामना हो ही न सके।
मामा जी को देखकर वह ज़रा सहमी और उसके चेहरे पर आयी घबराहट को पिताजी ने भांप लिया था। उन्होंने मामा जी से बैठने के लिये कहा और स्वयं ही पानी का गिलास लेकर आये थे। मामा जी ने बात शुरू की – ‘तुमनै घर का बदलौ, हमाए घर आनौ ही छोड़ दऔ। तुम न आऔ,
…..कोई बात नायं लेकिन हमाई बहन और भांजिन कौं तौ आन देऔ’। इस पर पिताजी ने जो उत्तर दिया , वह मामा के हौसले पस्त कर देने के लिये काफी था। वे बोले – ‘एैसौ है कि अब हम दूसरी जगह देख रहे हैं। इत्ते छोटे कमरन में कब तक ज़िंदगी काटेंगे।
....हां, नौकरी ऊ बदलबे की सोच रहे हैं।...बिटियां बड़ी है रईएं और अब तौ बेटा भी है...खर्चे तो बढ़ेंगे ही’। यह सुनकर दोनों के बीच एक लंबी चुप्पी पसर गई थी। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें हुईं थीं और फिर मामा जी चले गये थे।
जहां चाह...वहां राह….। अब उन्हें जोगेश्वरी में चाल में एक कमरा मिल गया था। बिना किसी को बताये वे परिवार ले कर वहां चले गये थे।
जोगेश्वरी में पिताजी ने नये सिरे से गृहस्थी शुरू की। यह चाल सड़क से लगी हुई थी। चार सीढ़ियां थीं, जिन्हें चढ़कर घर में घुसा जा सकता था। कमरा क्या था, चार दीवारें थीं। कमरे की फ्लोरिंग पक्की थी। दीवारों पर प्लास्टर बाकी था, जो चल रहा था।
कुछ आलेनुमा छेद, जिनमें ज़रूरत भर का सामान रखा जा सकता था। मुख्य दरवाज़े के नाम पर लकड़ी का एक दरवाज़ा और उसमें अंदर से लगाने वाली सिटकनी थी। चाल में उन लोगों का पहला ही कमरा था।
खुला खुला माहौल...इस कमरे में नहाने धोने की जगह भीतर ही बनी हुई थी। उसे बाथरूम तो नहीं कहा जा सकता था। एक ईंट से घेरी गयी चौकड़ी नुमा जगह थी। उसमें एक बाल्टी और एक लोटा और पाटा रखने की जगह भर थी।
चौकड़ी पर दरवाज़े के नाम पर एक छोटा सा पर्दा लटका दिया गया था, जिससे अंदर नहाता आदमी न दिखे। पानी सार्वजनिक नल से भरकर लाना होता था। दो कॉमन शौचालय थे और वहां डिब्बे और पानी से भरा ड्रम रखा रहता था।
आज भले ही यह शर्मिंदगी की बात हो, पर उस समय इसी तरह की ज़िंदगी हिस्से में आती थी। वह होली का ही तो दिन था। तब होली गीली मिट्टी से खेली जाती थी। गुलाल से खेलना तो बड़ी बात माना जाता था। उन दिनों एक लड़का हाथ धोकर पीछे पड़ा था।
वह अपने घर में दुबकी बैठी थी। अब वह इतनी बड़ी हो चली थी कि सब समझ में आने लगा था। कहीं मन में डर था कि अग़र वह लड़का होली के बहाने घर आ गया तो? वही हुआ जिसका उसे डर था।
वह लड़का उसके घर के दरवाज़े पर आया था। पिताजी के पैर छुए थे। वह घबरा रही थी कि न जाने वह अगला कदम क्या उठाये। वह उसके क़रीब आया और बोला – ‘आज तो होली है। रंग लगवा लो’।
उसकी ओर से बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा के उसने चुटकी भर गुलाल उसकी मांग में भर दिया था और धीरे से कह गया था – ‘अब तो तुम मेरी हुईं’। वह सन्न रह गई थी। आसपास देखा, शुक्र था कि पापा ने वह सीन नहीं देखा था।
उसने गुसलखाने में जाकर जल्दी से मांग धो डाली थी और सोचा था कि वह अगला क़दम क्या उठाये। जैसे-तैसे वह दिन कटा था। दूसरे दिन उसने अपनी सहेली सुशीला के भाई पारस को यह बात बताई थी। वह काफी प्रोटेक्टिव था।
उसने कहा था – ‘तू चिंता मत कर कामना। मैं उसका हिसाब बराबर करेगा’। दो दिन बाद ही उसने बताया था - उस रोमियो का हाथ-पैर अच्छे से तोड़ेला है। अस्पताल में भर्ती है। मरेगा नहीं वो। हाथ पैर सिंकवा कर बाहर आ जायेगा। अब वो तेरे को नहीं छेड़ेगा, इसकी गारंटी है’।
सच में उसके बाद वह लड़का उसे दिखाई ही नहीं दिया था। उस घटना के बाद से उसने होली खेलना छोड़ ही दिया था। चाल के सामने एक तिमंजिला इमारत थी। उस बिल्डिंग में नल और शौचालय थे। उसी बिल्डिंग में पहले माले पर एक फिल्म अभिनेत्री रहती थी। वह बहुत खूबसूरत थीं।
हमेशा ढीला जूड़ा और माथे पर बिंदी लगाये रहती थीं। घर से निकलते वक्त़ धूप का चश्मा ज़रूर लगाती थीं। उनके पति नौकरी नहीं करते थे। वे घर और छोटी बेटी की देखभाल करते थे। इसमें उन्हें कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती थी।
यह उनके बीच एक सकारात्मक अंडरस्टैंडिंग थी....छोटा परिवार...सुखी परिवार। उनकी छोटी बेटी गुड्डी गायत्री से बहुत हिली हुई थी। गायत्री शुरू से ही जेम्स बांड की तरह के व्यक्तित्व की मालिक रही थी।
यदि कोई लड़का उसके सामने स्कूल की छात्रा के साथ कोई बदतमीजी कर दे तो उसकी पिटाई तय थी। ऐसा करते समय न तो उसे डर लगता था और न कोई कोताही बरतती थी। उस समय उसकी भी उमर तो कोई ज्य़ादा नहीं थी।
नीचे पान वाले की दुकान थी। पान वाला बड़ा अप-टू-डेट रहता था। वह उस दुकान पर अपने पिताजी के लिये तंबाकू और चूना लेने जाती थी और वह उसे संतरे की एक छोटी सी गोली देता था और वह भी फ्री में। उस समय दुकान वाले छोटे बच्चों के प्रति उदार थे। गोली खिलाकर रेप नहीं करते थे, जो आजकल होता है।
स्कूल में रेसस के बाद छात्राएं नीचे चूरन, हरी सौंफ, क़मरख, कच्चे अमरूद, कच्ची इमली, छिलके वाली मूंगफली खरीदने जाती थीं ताकि क्लास में पीछे बैठकर उस समय खाया जा सके, जब गुरुजी बोर तरीके से पढ़ा रहे हों।
एक बार ये सब खरीदकर जब छात्राएं स्कूल की सीढ़ियां चढ़ रही थीं तो तले हुए पापड़वाला एक लड़का वहां से गुजर रहा था। पापड़ की प्लास्टिक की थैली पीठ पर लटकी थी। उसने चलते चलते राह चलती छात्रा के सीने पर हाथ रख दिया था।
वह लड़की ज़ोर से चिल्लाई, ‘गायत्रीsss’। गायत्री ने पलटकर देखा तो उसने अपने हाथ में लिये चूरन की पुड़िया फेंकी और भागकर उस लड़के के पापड़ की थैली को उसके कंधे से उतारकर फेंका था।
वह लड़का जब तक संभलता, उसके गाल पर तड़ातड़ दो चांटे पड़ चुके थे.....वह हक्काबक्का रह गया था और गायत्री ने कहा था – ‘चल, उससे माफ़ी मांग और नहीं मांगी तो दो लात दूंगी पीछे से’।
उस लड़के ने चुपचाप माफ़ी मांगने में ही भलाई समझी थी। वह दिन शायद उस पापड़वाले का अंतिम दिन था वहां आने का। यह बात उस समय की है जब वह और गायत्री सातवीं कक्षा में एक साथ पढ़ते थे। बड़ी-छोटी बहनें एक साथ....।
इसका भी किस्सा ग़ज़ब रहा था। पिताजी का मानना था कि उनकी दोनों बेटियां एक साथ एक स्कूल में और एक कक्षा में पढ़ेंगी....इससे एक जोड़ी किताबों और एक कटोरदान में लंच का इंतज़ाम हो जाया करेगा।