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पराई

मायके आए हुए मुझे पूरे दस दिन हो चुके थे.
पति विशाल से फोन पर बातचीत करने के बाद उठी ही थी कि देखा,माँ अपना बक्सा खोले बैठी है. बक्से के खुलते ही एक चिर-परिचित भीनी सुगन्ध से सुवासित हो उठा था पूरा घर !
छोटे से रेलवे क्वाटर में रहते हुए मैंने माँ,बाबा और बिट्टू के साथ अपने बचपन के वो सुनहरे दिन गुजारे थे.पूरे दिन हम दोनों भाई- बहनों की धमा चौकड़ी! और शोर शराबे से गुलज़ार रहता था हमारा वो पुराना घर.

माँ बक्से में सहेजकर रखी वस्तुओं को बाहर निकालती जा रही थी.
"अरे कुन्नू ! देख तेरी गुड़िया !" माँ के ये शब्द कान में पहुँचते ही मैं लगभग भागते हुए माँ के करीब पहुँच गयी!
माँ के सलवटों से भरे हाथों में मौजूद थी मेरी कपड़े से बनी प्यारी दुलारी गुड़िया !
ये गुड़िया माँ ने ही बनाई थी। बिट्टू के कई खिलौने, और पुराने गेम्स भी निकलने लगे जैसे --लूडो,शतरंज, सांप सीढ़ी! और उसकी चहेती गेंद भी थी.
माँ उन अनमोल वस्तुओं का अंबार लगाती जा रही थी. समझ में नहीं आ रहा था ,क्या देखूँ और क्या नहीं ! उत्साह और उमंग से लबरेज़ होते हुए मैं सभी वस्तुओं को हाथ में उठाए जा रही थी.
तभी माँ ने मेरे और बिट्टू के छोटे-छोटे परिधान निकालने शुरू कर दिए. वस्त्रों के बीच अचानक दृष्टिगोचर हुआ मेरा वो गुलाबी लहंगा ! जिसे देख कर में बावरी सी हो गयी ! अब तो घुटनों से भी ऊपर पहुँच गया था लहँगा. मन में उस वक्त अपने बड़े हो जाने का बहुत अफसोस हुआ. माँ मुझे देख मुस्कुरा रही थी.
तभी एक श्वेत श्याम तस्वीर पर नज़र पड़ी.माँ, बाबा मैं और बिट्टू. बहुत ही सुंदर लग रही थी माँ इस तस्वीर में. अब तो चलने फिरने में भी दिक्कत होती है. हाथ-पैरों में कंपन सा होता रहता है. हम दोनों माँ बेटी मधुर यादों में खोए हुए बीते दिनों को याद कर ही रही थीं कि तभी बिट्टू कमरे में आ गया.इतवार होने से वह घर पर ही था.
कमरे में घुसते ही, बिखरी वस्तुओं को देखते ही वह बोल उठा-- " क्या माँ आज फिर से पुरानी चीजें निकाल लीं। कब से कह रहा हूँ, दे दो ये सारा कबाड़,किसी कबाड़ वाले को. घर में अब यह बक्सा अच्छा नहीं लगता. कितनी ही बार नैना भी बोल चुकी है मुझ से. इन बेकार पड़ी वस्तुओं का अचार डालोगी क्या"

मैं हैरत से बिट्टू का मुँह ताकने लगी थी.

माँ कुछ देर तो चुप रही फिर नम आँखें लिए बोल पड़ी--" सही कह रहा है बिट्टू तू .तेरे पिताजी के जाने के बाद इसमें रखे उस खजाने से तो तेरी पढ़ाई-लिखाई हो गई और अब जो चीजें बची हैं,सच में, ये बेकार ही हैं"
बिट्टू उनकी बात अनसुनी कर कमरे से बाहर निकल गया.
मैं उस गुलाबी लहँगे को थामे संज्ञा शून्य सी खड़ी थी.कुछ सोचते हुए मैंने माँ से धीमे से कहा--'माँ, अगर तुम इजाज़त दो तो इस अनमोल धरोहर को मैं अपने साथ ले जाऊं ।"
भीगी पलकें लिए माँ ने काँपते हाथ आगे बढ़ाए और मेरा माथा चूम लिया ।

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