अंत डिम्पल गौड़ द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अंत

अंत

संकरे रास्ते से होते हुए आखिर मैं पहुँच ही गया उस जगह जिसे आम भाषा में बदनाम बस्ती कहा जाता है।
टूटी- फूटी बदरंगी दीवारों से भी बदरंग था वहाँ बसने वालों का जीवन।
एक छोटे से मकान के आगे पहुँच कदम ठिठक गए । काफी अंधेरा था अंदर । सीलन की बदबू से दम घुटा जा रहा था । टाट की पट्टियों से कमरे के बीच एक दीवार बनाई हुई थी ।
एक बेडौल देह वाली औरत टाट के पीछे से निकल, बाहर आई । मनचाही रकम ऐंठ,टाट की दीवारों के पीछे ले गयी , जहाँ कोठरीनुमा एक संकरा सा कमरा था । उस औरत ने इशारे से मुझे अंदर जाने को कहा ।

अंदर पहुँच कुछ सोच ही रहा था कि दरवाज़े के चरमराने की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा भंग कर दी । एक दुबली-पतली काया वाली स्त्री अब ठीक मेरे सामने थी । सांवली सूरत और सादा सा भेष ,कहीं कोई ओवर मेकअप नहीं। सादगी की बेमिसाल मूरत लग रही थी वह ।
वह अपनी लाज का आँचल नीचे लुढ़काने ही जा रही थी कि मेरे मुँह से निकला --"अरे नहीं नहीं !"

वह हैरत से मेरा मुख देखने लगी ।
मुझे उसकी आँखों में भय के डोरे तैरते दिखाई दिए।
डर का कारण समझते हुए मैंने फुसफुसाते हुए कहा -- मैं कोई पुलिस वाला नहीं! एक पत्रकार हूँ ।
पत्रकार मतलब अखबारी बाबू" वह धीमे से बुदबुदाई ।
" हाँ " मैंने भी हौले से उत्तर दिया ।
उसकी आँखों का भय धीरे-धीरे अदृश्य होता जा रहा था तथा वहाँ आंशिक विश्वास की चमक सी कौंधने लगी।

" अच्छा तो तुम पत्रकार हो! क्या मेरी मदद करोगे ? बोलो करोगे !"याचना युक्त शब्द बह निकले ।

" अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा ।" मैंने पूर्ण विश्वास के साथ जवाब दिया ।

" बाबू ,पंद्रह साल की थी जब इस दलदल में आ गिरी । गाँव से शहर आए जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए थे । बाबा मुझे और छुटकू को मेला दिखाने ले गए थे। वहीं पर बाबा ने मेरी जिद पर हम दोनों के हाथों पर निशान भी गुदवाया था ! उसने पूरी बाँह की आस्तीन ऊपर करते हुए कहा - देखो यह निशान । उसके हाथों पर गुदा हुआ 'ओउम' देख एकबारगी मुझे गश सा आ गया। उसने बोलना जारी रखा---उस मनहूस दिन भीड़ में बाबा और छुटकू से बिछड़ गई । फिर पता ही न चला! कब,कौन मुझे मेरे परिवार से दूर ले गया ! होश आया तो स्वयं को यहाँ पाया तब से इसी नरक में हूँ बाबू " कहते हुए वह सुबकने लगी।
आवाज़ बाहर न जा पाए इसलिए उसने अपने ओठों को दोनों हाथों से भींच लिया ।

उसकी दास्ताँ मेरा हृदय छील गई । आँखों से अविरल अश्रु धारा बह निकली ।

मैं धीरे से उसकी ओर बढ़ा और अपनी कमीज़ की आस्तीन में छुपा गुदवाया हुआ अपना 'ओउम ' उसकी पनीली आँखों के आगे कर दिया ।

वह भौचक्की थी ।

उसके पथराए नयनों से सैलाब बह निकला । मैंने उसकी भीगी पलकें पौंछते हुए उसे अपने अंक में छुपा लिया ।

आज मेरी बरसों की तलाश पूरी हो चुकी थी ।