उपन्यास के बारे में
“छूना है आसमान“, बाल उपन्यास कल्पना कम, हकीकत अधिक है। चेतना से मेरा परिचय किसी और नाम से हुआ था। चेतना उम्र में छोटी जरूर थी, लेकिन उसकी समझ, उसकी बातें और उसकी सोच बड़ों से कम नहीं थी।
चेतना ने अपने दर्द, अपनी अकुलाहट को जिस तरह मुझसे साझा किया, उसने मेरे अन्तस को झझकोर दिया। यकीन नहीं हो रहा था कि एक माँ, जिसे पे्रम, स्नेह और ममता की पराकाश्ठा कहा जाता है, वह अपनी बच्ची के साथ दुव्र्यवहार भी कर सकती है।
खैर! चेतना के मन को मैंने टटोला, तो मालूम हुआ, वह कुछ ऐसा करना चाहती है, जिससे वह आत्मनिर्भर हो सके। किसी पर बोझ बनकर न रहे। और उसकी इस सोच ने उसके लिए सफलता के द्वार खोले। उसने अपनी अपंगता को झुठलाया और एक अच्छी सिंगर बनी। चेतना ने ऐसा करके न सिर्फ अपनी मम्मी के नजरिये को बदल डाला, बल्कि अपने जैसे अपंग बच्चों के लिए मिसाल भी कायम की। यही वजह थी, जिसने मुझे ‘‘छूना है आसमान’’ लिखने के लिए प्रेरित किया।
गुडविन मसीह
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छूना है आसमान
गुडविन मसीह
अध्याय 1
जून का महीना था यानि बच्चों के लिये मौज-मस्ती का महीना, क्योंकि इस महीने में सभी बच्चों के स्कूल की छुट्टियां चल रही होती हैं। एक तो स्कूल की छुट्टी, ऊपर से बारिष का मौसम, क्या कहने...बच्चों के लिए तो जैसे मौज-मस्ती का खजाना मिल गया हो।
काॅलोनी के सारे बच्चे इसी टोह में रहते थे कि कब बारिष रुके और वो कब मौज-मस्ती करने के लिए पार्क में जायें.....?
जैसे ही बारिष रुकती, सब-के-सब बच्चे हो....हो...हो...हा....हा...करते हुए पार्क की तरफ ऐसे भाग खड़े होते, जैसे किसी ने पिंजड़े में बंद ढेर सारे पक्षियों का पिंजड़ा खोल दिया हो, और उसमें से सारे पक्षी निकलकर एक साथ आसमान की तरफ उड़ गये हों। थोड़ी ही देर में पार्क में बच्चे-ही-बच्चे दिखायी देते। और पार्क उन बच्चों के शोर-गुल से गूंज उठता। फिर सब मिलकर खूब धमा-चैकड़ी करते और इधर-उधर भागते, कभी पार्क में लगे झूलों पर झूलते तो कभी छुपा-छुपायी खेलते।
उन सबका शोर-गुल सुनकर चेतना जल्दी से अपने कमरे की खिड़की खोलकर बैठ जाती और वहीं से पार्क में अठखेलियां करते बच्चों और मौसम का मस्त नजारा देखकर खूब खुष होती। कभी-कभी हवा के झोंकों के साथ बारिष की फुहार खिड़की के रास्ते से अन्दर आकर चेतना को भी भिगो जाती। बारिष के पानी में भीगकर चेतना का मन पुलकित हो उठता, सुहावने मौसम को देखकर मन मयूर हो नाचने और झूमने लगता। और भाव-विभोर हो चेतना टकटकी लगाकर तब तक उन बच्चों को देखकर खुष होती रहती, जब तक सारे बच्चे खेल कर अपने-अपने घर नहीं चले जाते।
चेतना के दोनों पैर जन्म से ही खराब हैं। वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती, न वह स्वयं चल-फिर सकती है। जब वह छोटी थी तो उसके मम्मी-पापा ने उसका बहुत इलाज करवाया, लेकिन उसके पैर ठीक नहीं हुए इसलिए वह हमेषा व्हील चेयर पर रहती है। चेतना के मम्मी-पापा उसे प्यार भी बहुत करते थे, लेकिन जब उसके पैर ठीक नहीं हुए तो उसकी मम्मी उससे ऊब गयीं और उससे चिढ़ने लगीं।
चेतना से तीन साल छोटी उसकी एक बहन अलका है। वह छठी कक्षा में पढ़ती है और चेतना से बहुत प्यार करती है, लेकिन अपनी मम्मी के डर की वजह से उससे ज्यादा बोलती-चालती नहीं है, क्योंकि उसकी मम्मी चेतना से बोलने और उसके साथ खेलने-कूदने को मना करती हैं।
एक-दो बार अलका। अपनी मम्मी के मना करने के बावजूद भी चेतना के साथ उसके कमरे में खेलने चली गयी, तो उसकी मम्मी ने उसे बहुत मारा था। तभी से वह चेतना के कमरे में तब ही आती-जाती है, जब उसकी मम्मी घर पर नहीं होती हैं। हालांकि चेतना तो चाहती है कि अलका दिनभर उसके साथ रहे। दोनों एक साथ खेले-कूदें और हँसे-बोले, लेकिन वह यह भी नहीं चाहती है कि उसकी वजह से अलका की पिटायी हो, इसलिए उसने भी अलका से कह रखा है कि जब मम्मी को अलका का उसके पास आना पसंद नहीं है तो वह उसके पास न आया करे। लेकिन अलका का मन नहीं मानता है। वह अपनी मम्मी के लाख मना करने के बाद भी चेतना के कमरे में चली जाती है, उससे खूब बातें करती है। उसके साथ कैरम और लूडो खेलती है। अलका के कमरे में आते ही चेतना यह भी भूल जाती है कि वह चल-फिर नहीं पाती है और उसकी बातों में ही खो जाती है। वह अलका के साथ खिलखिला कर हँसती है और टी.वी. पर कभी कार्टून नेटवर्क, तो कभी डोरेमोन देखती है।
अलका की तरह पढ़ने का शौक तो चेतना को भी बहुत है। उसका भी मन करता है, वह भी अलका की तरह स्कूल ड्रेस पहन कर रोज अलका के साथ बस में बैठकर स्कूल जाया करे। स्कूल में उसके भी बहुत सारे दोस्त हों, जिनके साथ बैठकर वह खूब बातें करे, उनके साथ खेले-कूदे, दौड़े-भागे। लेकिन बेचारी मजबूर है, स्कूल नहीं जा सकती, क्योंकि अपने पैरों की वजह से वह चल-फिर नहीं सकती थी। चलने-फिरने या फिर कहीं आने-जाने के लिए उसे व्हील चेयर की जरूरत पड़ती थी।
पढ़ाई के प्रति चेतना का शौक और लगाव देखकर उसके पापा ने घर पर ही उसकी ट्यूषन लगवा दी है। उसके ट्यूटर रोनित सर उसे घर पर ही पढ़ाने के लिए आते हैं। वह पढ़ने में भी बहुत तेज और कुषाग्रबुद्धि की है।
उस दिन भी रिमझिम-रिमझिम बारिष हो रही थी। बाहर का मौसम सुहावना था। हल्की-हल्की, ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी, जिसका अहसास चेतना को अच्छी तरह हो रहा था। चेतना अपनी व्हील चेयर के सहारे खिड़की के पास आकर बैठ गयी। बारिष के पानी में भीगते हुए काॅलोनी के बच्चे पार्क में खेल रहे थे। पार्क में जगह-जगह बारिष का पानी भरा हुआ था, जिसे बच्चे एक-दूसरे के ऊपर अपने हाथों और पैरों से उछाल रहे थे और खूब मौज-मस्ती कर रहे थे और खिलखिला कर जोर-जोर हँस रहे थे। कुछ बच्चे पानी में लोट रहे थे, तो कुछ बच्चे पानी में लेटकर ऐसे फिसल रहे थे, जैसे स्वीमिंगपूल में तैर रहे हों।
उन सबको हँसते-बोलते, चीखते-चिल्लाते, दौड़ते-भागते और मौज-मस्ती करते देख चेतना एकदम रोमांचित हो उठी। वह यह भूल गयी कि वह अपने पैरों पर न खड़ी हो पाती है, और न चल-फिर पाती है। उसे यह भी याद नहीं रहा कि वह पार्क में नहीं अपनी व्हील चेयर पर अपने घर की खिड़की के सामने बैठी है। देखते-ही-देखते वह सपनों की दुनिया में खोती चली जाती है।
चेतना को ऐसा लग रहा था, जैसे वह पार्क में बहुत तेज गति से दौड़ रही है। काॅलोनी के सारे बच्चे उसके पीछे-पीछे भाग रहे हैं। सब बच्चे भागते हुए उसके पास आते हैं और जैसे ही उसे पकड़ने की कोषिष करते हैं, चेतना उनकी पहुँच से बचकर दूसरी तरफ को भाग जाती है। बच्चे फिर उसके पीछे भागते हैं। वह कभी इधर भाग रही है, तो कभी उधर। वह जिस तरफ भाग कर जाती है, बच्चे उधर ही उसके पीछे-पीछे भागते हुए जाते हैं। वह भागते-भागते खूब खिलखिला कर हँसती है और बच्चों से कहती है, ‘‘नहीं पकड़ पाओगे मुझे...मुझे नहीं पकड़ पाओगे....मैं बहुत तेज दौड़ती हूँ.....।
बच्चे दौड़ते हुए उसके पास आते हैं और जैसी ही उसको पकड़ने की कोषिष करते हैं, वह हँसती हुयी दूसरी तरफ भाग जाती है और कहती है, ‘‘पकड़ो.....मुझे पकड़ो.....।’’
भागते-भागते दो-तीन बच्चे आपस में टकरा कर गिर जाते हैं तो चेतना उन्हें देखकर खूब खुष होती है और ताली बजा-बजाकर ऊपर उछल-उछल कर कहती है, ‘‘ओह गिर पड़े.... शेम-
शेम..... गिर पड़े....।’’
क्रमशः ...........
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बाल उपन्यास: गुडविन मसीह