छूना है आसमान - 2 Goodwin Masih द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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छूना है आसमान - 2

छूना है आसमान

अध्याय 2

खिड़की के पास व्हील चेयर पर बैठी चेतना चेयर पर बैठे-बैठे खूब ऊपर को उछल रही है और जोर-जोर से ताली बजा-बजाकर कह रही है, ‘‘गिर पड़े....षेम......षेम......गिर पड़े......। उछलते-उछलते उसका संतुलन बिगड़ जाता है और वह कुर्सी से नीचे गिर जाती है। गिरते समय उसका हाथ मेज पर रखे काँच के गिलास से टकराता है, तो गिलास नीचे जमीन पर गिरकर टूट जाता है।

गिलास के गिरने और टूटने की जोरदार आवाज होती है, उस आवाज को सुनकर उसके मम्मी-पापा व उसकी छोटी बहन अलका एकदम चैंक जाते हैं और जल्दी से उसके कमरे में आते हैं।

‘‘क्या हुआ कैसे गिर गयी......हयं......?’’ उसके पापा ने पूछा।

उन सबको अपने कमरे में देखकर चेतना एकदम ऐसे सहम जाती है, जैसे उससे कोई अपराध हो गया हो। वह उठने की कोषिष करती है, लेकिन नहीं उठ पाती है तो उसके पापा उसे उठाकर कुर्सी पे बैठाते हैं।

‘‘चेतना, क्या कर रही थीं......? ......कैसे गिर गयीं......हयं......?’’ उसके पापा ने प्यार से फिर पूछा।

पापा के पूछने पर चेतना कुछ बोल पाती, इससे पहले ही उसकी मम्मी बीच में बोल पड़ीं, ‘‘कैसे गिरी होगी, जरूर कोई शरारत कर रही होगी, तभी गिरी होगी।’’

अपनी मम्मी का रौद्र रूप देखकर चेतना एकदम सहम गयी। वह कुछ नहीं बोली बस चुपचाप उन्हें देखती रही। उसके पापा उसकी मनोदषा को समझ गये। उन्होंने फिर उसे दुलारते हुए कहा, ‘‘बताओ न बेटी, कैसे गिर गयीं, क्या कर रही थीं......?

चेतना ने मन में सोचा अगर वह मम्मी-पापा को सच बतायेगी तो उसकी मम्मी उसे उल्टा-सीधा बोलेंगी। हो सकता है, वह उसकी पिटाई भी लगा दें ? पिटाई की बात मन में आते ही चेतना डर के मारे अन्दर तक कांप गयी, क्योंकि उसकी मम्मी को जब गुस्सा आता है, तब वह यह नहीं देखती कि उसको कितनी चोट लगेगी और कहाँ लगेगी, बस वह तो मारना षुरू कर देती हैं। यही सब सोचकर और मम्मी की मार से बचने के लिए उसने अपने पापा से झूठ बोल दिया। उसने कहा, ‘‘पापा, मुझे प्यास लगी थी, इसलिए मैं पानी का गिलास उठा रही थी, तभी अचानक कुर्सी पीछे खिसक गयी, मैं खुद को सम्भाल नहीं पायी जिसकी वजह से मेरा हाथ गिलास पर लगा तो गिलास नीचे गिरकर टूट गया।’’

‘‘चेतना के इतना कहते ही उसकी मम्मी उसका मुँह चिढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘प्यास लगी थी......प्यास लगी थी तो ढंग से पानी का गिलास उठा लिया होता......कम-से-कम एक गिलास का नुकसान तो नहीं होता......लेकिन तेरा ध्यान कहीं और होता है, और काम कहीं और करती है। मुझे तो मालूम है, एक-न-एक दिन यह हमारे लिए कोई बड़ी मुसीबत खड़ी कर देगी......पचास बार कह चुकी हूँ कि इसे इस खिड़की पर मत बैठने दिया करो......यह यहाँ बैठती है, तो इसका ध्यान बाहर पार्क में खेल रहे बच्चों की तरफ चला जाता है, फिर इसका मन इसके वष में नहीं रहता है और यह कोई-न-कोई नुकसान कर देती है, लेकिन मेेरी सुनता ही कौन है ?’’

‘‘अब छोड़ो भी मेनका, दो मिनट में तुम्हारा पारा चैथे आसमान पर पहुँच जाता है......और तुम जरा-सी बात का बतंगड़ बनाने लगती हो......। एक तो बेचारी गिर गयी, उससे यह तो पूछा नहीं कि उसके कहीं चोट तो नहीं आयी, बस उसे उल्टा-सीधा बोल रही हो......अगर गिलास टूट गया तो कौन सी आफत गयी, शुक्र करो कि चेतना के चोट नहीं लगी।’’ चेतना के पापा ने उसकी मम्मी को समझाने की कोषिष करते हुए कहा।

चेतना के पापा की बातों को सुनकर उसकी मम्मी का दिमाग खराब हो गया, वह तमतमाते हुए बोलीं, ‘‘आप बिल्कुल खामोष रहोकृआप ही ने तो इसे सिर पर चढ़ाया है।

......आपको क्या, आप तो दिनभर अपनी ड्यूटी पर रहते हैं......भुगतना तो मुझे पड़ता है......इसके चक्कर में मैं कहीं जा-आ भी नहीं पाती हूंँ......अच्छी मुसीबत बन गयी है यह मेरे लिए......अच्छा होता यह पैदा होते ही मर जाती......। कम-से-कम इस तरह रोज-रोज अपनी किस्मत को रोना तो नहीं पड़ता।’’

मरने की बात सुनकर चेतना एकदम सिसक कर रोने लगती है और रोते हुए कहती है, ‘‘साॅरी मम्मी, आइन्दा फिर कभी ऐसी गलती नहीं होगी।’’

चेतना के मुँह से आवाज निकालते ही, उसकी मम्मी का पारा चैथे आसमान पर पहुँच गया, वह खिसियानी बिल्ली की तरह आगबबूला होकर बोलीं, ‘‘साॅरी की बच्ची......तूने मेरी नाक में दम कर रखा है......जब देखो, तब मेरे लिये कोई-न-कोई तमाषा खड़ा करके बैठ जाती है......और सारे फसाद की जड़ है यह खिड़की, इस खिड़की के सामने बैठकर तू सबकुछ भूल जाती है......आज इस खिड़की को ही हमेषा के लिए बंद कर देती हूँ, न यह खिड़की खुलेगी, और न हमारा कोई नुकसान होगा।’’ कहकर वह उस खिड़की को बंद कर देती हैं।

खिड़की को बंद होते देख चेतना को ऐसा लगता है, जैसे उसके शरीर से किसी ने प्राण निकाल लिये हों, क्योंकि वही तो एक खिड़की थी, जिसके सामने बैठकर वह पार्क में खेल रहे बच्चों को देखकर अपना मन बहला लिया करती थी, लेकिन आज वह भी बन्द हो गयी। उसने मन में सोचा भी कि वह अपनी मम्मी से कह दे कि प्लीज, खिड़की बन्द मत करो, मगर डर के मारे वह उनसे कुछ कह नहीं पायी। उसके मन की बात उसके मन में ही रह गयी।

उस दिन चेतना को कुछ भी अच्छा नहीं लगा रहा था। वह बार-बार अपनी मम्मी के कहे शब्दों को याद करके रो रही थी। उस दिन उसका कुछ खाने-पीने को भी मन नहीं कर रहा था, लेकिन अपने पापा के कहने पर उसने थोड़ा-सा रात का खाना खाया और अपने बिस्तर पर जाकर चुपचाप लेट गयी। उस दिन उसने टी.वी. पर भी कोई कार्यक्रम नहीं देखा। नहीं तो सोने से पहले वह टी.वी. जरूर देखती थी।

रात बहुत हो चुकी थी। चेतना के मम्मी-पापा और छोटी बहन अलका गहरी नींद में सो रहे थे, मगर चेतना को नींद नहीं आ रही थी। उसे अपनी मम्मी के कहे शब्द कि ‘‘इससे तो अच्छा होता कि वह पैदा होते ही मर जाती।’’ रह-रह कर याद आ रहे थे।

चेतना सोने की बहुत कोषिष कर रही थी, मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। उसका मन बहुत उदास था। वह मन-ही-मन भगवान् से कह रही थी, ‘‘भगवान््, तुमने मेरे पैरों में इतनी शक्ति क्यों नहीं दी, कि मैं भी और बच्चों की तरह अपने पैरों पर खड़ी हो पाती, उनकी तरह खेल-कूद पाती, दौड़-भाग पाती और पढ़ने के लिए अपने पैरों पर चलकर स्कूल जा पाती। कम-से-कम मुझे दूसरों के ऊपर निर्भर तो नहीं रहना पड़ता......मेरी मम्मी भी मुझे लेकर कितना परेषान रहती हैं, वह मुझे बोझ समझती हैं......मैं खेल नहीं सकती, कहीं आ-जा नहीं सकती, बस दिन भर इसी कुर्सी पे बैठकर अकेले इस खिड़की से बाहर की दुनिया और दुनिया के नजारे देखकर खुष हो लिया करती थी......पार्क में खेलने आते बच्चों को देखकर खुष हो लिया करती थी......उन्हें दौड़ते-भागते देखकर अपना दिल बहला लिया करती थी, लेकिन, कल मम्मी ने उसे भी बन्द कर दिया। तुम ही बताओ भगवान्! मैं अब क्या करूं......क्यों मुझे तुमने मजबूर और लाचार बनाया है......क्यों मुझे तुमने दूसरे के सहारे रखा है......? ......क्यों, भगवान्! क्यों......मैं तो किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी, फिर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया......।’’ इस तरह भगवान् से मन-ही-मन लड़ते-झगड़ते चेतना को कब नींद आ गयी उसे कुछ पता ही नहीं चला और वह गहरी नींद में सो गयी।

चिड़ियों की चहचहाट और पास के मंदिर से आती शंख और घण्टों की आवाजों ने चेतना को नींद से जगा दिया। उसने आँख खोलकर देखा तो बाहर काफी सुबह की रोषनी फैल चुकी थी। बन्द खिड़की के छोटे-छोटे छेदों के रास्ते ठण्डी-ठण्डी हवा कमरे में आकर चेतना को छू रही थी, तो चेतना को बहुत अच्छा लग रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे वह हवा उसको ऐसे ही छूती रहे। दरवाजे की तरफ से आ रही हवा से कमरे के पर्दे उड़ रहे थे। बहुत देर तक चेतना उड़ते हुए पर्दों को देखती रही। हवा से पर्दे ऐसे लहरा रहे थे मानों नदी में लहरें उठ रही हों। चेतना बिस्तर पर लेटे-लेटे सोच रही थी, काष! खिड़की खुली होती, तो कितना अच्छा होता, जो हवा बंद खिड़की के बाहर रुकी है, वह भी अन्दर आकर उसको तरो-ताजा कर देती। चेतना का मन तो नहीं कर रहा था उठने का, फिर भी वह उठकर नहायी और नहा धोकर उसने दूसरे कपड़े पहन लिये, मगर फिर भी उसकी सुस्ती दूर नहीं हुई। रात को देर से सोई थी इसीलिए उसकी नींद पूरी नहीं हो पायी थी और वह अलसायी हुई थी।

उसका मन तो कर रहा था कि गरम-गरम चाय पी ले, लेकिन कल उसकी मम्मी ने उसके लिए जो कुछ कहा था, उसकी वजह से उसका मन उसकी मम्मी के पास जाने और उनसे चाय बनाने के लिए कहने का नहीं हुआ।

चेतना अपने कमरे में आ गयी। सड़क से आती मोटर-गाड़ियों की आवाजें और पार्क में खेलते बच्चों का शोर सुनकर चेतना भाव-विभोर हो गयी। वह यह भूल गयी कि उसकी मम्मी ने खिड़की को हमेषा के लिए बन्द कर दिया है। वह अपनी व्हील चेयर के सहारे जल्दी से खिड़की के पास जाकर खिड़की खोलने लगी। वह बाहर का नजारा देखने के लिए उतावली हो रही थी। चेतना ने जैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे उचक कर खिड़की को खोलने के लिए कुण्डी को खोलना षुरू ही किया था कि उसकी आँखों के सामने उसकी मम्मी का चेहरा उभर आया और उनके कहे षब्द ‘‘न यह खिड़की खुलेगी और न हमारा कोई नुकसान होगा,’’ चेतना के कानों में गूँजने लगे। चेतना डर के मारे अन्दर तक सूखे पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगी। उसके हाथ खिड़की पर जहाँ-के-तहाँ रुक गये। उसका फूल-सा खिला हुआ चेहरा मुर्झा गया। वह चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गयी।

आज अलका अपने स्कूल नहीं गयी थी। बारिष में कल उसकी स्कूल ड्रेस भीग गयी थी। अलका के बोलने-चालने और चलने फिरने की आवाज सुनकर चेतना का ध्यान बार-बार उसकी तरफ जा रहा था। अलका का भी मन कर रहा था कि वह चेतना के पास चली जाये, उससे ढेर सारी बातें करे। लेकिन अपनी मम्मी के डर की बजह से वह चेतना के पास जा नहीं पा रही थी। वह जानती थी चेतना दीदी से उसकी मम्मी कल से बहुत नाराज हैं इसलिए अब अगर वह चेतना दीदी के पास चली गयी तो उसकी मम्मी का गुस्सा चैथे आसमान पर होगा और वह चेतना दीदी का सारा गुस्सा उसके ऊपर उतार देंगी। क्योंकि चेतना दीदी को डाँटने के साथ-साथ उसकी मम्मी ने उसे भी सख्त हिदायत थी, कि वह चेतना के पास न जाये, न उससे बात करे, और न उसके साथ बैठकर कोई खेल खेले।

इधर चेतना अपने कमरे में अकेली बैठी अलका के बारे में सोच रही थी और उधर अलका चेतना के बारे में सोच रही थी। सोचते-सोचते चेतना को उस दिन की बात याद आ गई, जिस दिन चेतना की मम्मी घर पर नहीं थीं वह बाजार गईं हुई थीं और अलका उसके कमरे में आ गयी थी।

क्रमशः ...........

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बाल उपन्यास: गुडविन मसीह