फांस Poonam Singh द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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फांस

" फाँस "
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"पिछले साल फसल अच्छी हुई थी तो फुस के घर की जगह पक्का घर बनवाय दिहे रहे और तुम्हरे लिए एक ठो टीवी भी खरीद दिहे रहे।" पति ने पत्नी की ओर मुस्कुराकर कहा ," उ सनिमा अच्छा रहा ना ? "

"कौन सनिमा ?" पत्नी ने अनभिज्ञ स्वर में पूछा


"वही, जो आज टीवी पर आवत रहा ।"


"मदर इंडिया ! अम्मा ! " मुन्नी ने बीच में लपक कर कहा।


" हम्म .... हम किसानन के जीवन पर बहुतै अच्छी फिलम रही।" पत्नी ने हुंकार भरी।


" हाँ ..और खूब चली रही। ..सुने हैं उ सनिमा को जो लोग बनाए थे अपना सब कुछ दाँव पर लगाए दिहे रहे उ सनिमा खातिर।" पति ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखते हुए कहा।


" अरे.. उ सब कलाकार लोग हैं, अगर फेल भी हो जाएं तो उ सब बढ़िया से जानत हैं कि अगली बार थाली में का परोसना है कि लोगन का पसंद आए। ....हम तो अपनी दु ठो सूखी रोटी में ही खुस हैं । " पत्नी ने पति के आगे खाना परोसते हुए कहा।


"हम्म ..." और उसकी नज़रें शून्य में खो गई।

... चाँदनी रात, चारों ओर सन्नाटा, सांय सांय करती हवा पेड़ों के झुरमुट से टकराकर वातावरण में सिहरन की सुष्टी करती भयपूर्ण माहौल का परिचय दे रही थी।

उसने घर में चारों ओर एक सरसरी नजर दौड़ाई और चर चर करती हुई किवाड़ को हौले से खोल कर धीरे धीरे पग बढ़ाते हुए खेतों की ओर निकल पड़ा।

पसीने में तर बतर, किसी अंदरुनी भय और विचारों के बवंडर में फँसा वह आगे बढ़ा जा रहा था । वह जितना आगे बढ़ता उसकी परछाई आज उसे अपने से दुगुनी बड़ी और भयावह लग रही थी जैसे कि आज वह उसे लील जाने पर आमादा हो । तेज चल रही प्रचंड हावाए जैसे उसे घर वापसी की चेतावनी दे रही हो।

खेतों में फूटती अनाज़ की बालियों ने बिन पानी सूखकर अब वापस धरती मैया का दामन थाम लिया था। भविष्य की कल्पना कर, परिवार के रोते बिलखते चेहरे उसकी आँखों के सामने तैरने लगे।


और कोई रास्ता नहीं सूझता देख वह अपने साथ लाया फाँस पेड़ पर बाँधने का प्रयास करने लगा।


अभी वह फ़ांस पेड़ पर बांधने का प्रयास कर ही रहा था कि अचानक बिजली जैसी फुर्ती से एक परछाईं आगे बढ़ी और ," इ का कर रहे हो..?"
उसने उसके हाथ से फाँस खींचते हुए कहा।
,"आज जब तुम उ सनिमा का चर्चा किए रहे ना, तबही हमको तुम पर शक होय गवा रहा । "

"मुझे छोड़ दे मुनिया की माई। हमरी पूरी मेहनत और लागत सब डूब गवा। कहा से खिलाएंगे तुम लोगो को ..! " कहकर जोर जोर से रोने लगा।

"अरे इक फसल खराब ही हो गई तो कोनों जुर्म नहीं होय गवा ? इस बार नाहीं संभली तो का हुआ ? अगली बार संभाल लेंगे।...... जब तक अपने इ दुनु हाथ में ताकत और विश्वास है दुई बकत की रोटी का जोगाड़ जरूर कर लेंगे। संभालो अपने आप को.. ..चलो.. इहां से।"


उसका पैर तो जैसे ज़मीन में धँसा जा रहा था..। चारों ओर उसके आर्तनाद की आवाज़ गूँज रही थी।

पूनम सिंह
स्वरचित / मौलिक