"आगाज़"
पुलिस की वर्दी में ड्यूटी पर जाने को तैयार अपनी बेटी से माँ ने पूछा ," क्या हुआ कुछ सोचा तूने ?"
" सोचना मुझे नहीं आपको है माँ ! "
फिर कुछ पल की खामोशी के पश्चात ..बेटी ने माँ की ओर मुखातिब होकर कहा , "अच्छा एक बात बताओ माँ ! तुम जो सामाजिक उत्थान से ओत प्रोत कहानियाँ लिखती हो या फिर जो दिव्यांगों की बेहतरी के लिए काम करती हो सच में उसमें जीती भी हो या फिर वैसे ही ... !"
" जीती भी हूँ... और नहीं भी !"
" मतलब आधा-आधा ! "
" हाँ ! कुछ ऐसा ही समझ । " माँ ने कहा।
,"यह सब छोड़ ! मैंने तुझसे कल कुछ पूछा था उसका जवाब तो दे । "
" माँ ! मैं कह चुकी हूँ , तुम्हारी वह बात मानना मेरे लिए असंभव है। "
"ये सब तेरी सोच का फर्क है। अच्छे घर का लड़का है और सरकारी अफसर है । "
" माँ ! मैं आपको सब कुछ बता चुकी हूँ । आप अच्छी तरह जानती हो ये शादी नहीं हो सकती।"
" शादी हो जाएगी तो धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा । देख मान जा " माँ ने मनुहार करते हुए कहा।
" हाँ ! ठीक हो जाएगा ! वैसे ही ....तुम्हारे काम जैसे .. आधा-आधा !" वह हौले से मुस्कुराई थी ।
उसकी मुस्कान से माँ तिलमिला गई । अपने कड़े तेवर दिखाते हुए बोली, "तू पगला गई है क्या ? .......मैं जो समाज सेवा करती हूँ उसे वैचारिक स्तर पर उतारना या फिर उसे जीना इतना आसान नहीं होता। "
" पापा ! आप भी तो कुछ बोलिए ! " वहीं पास बैठे अख़बार पढ़ रहे पिता से बेटी ने कहा।
" अरे नहीं नहीं.. ! सुप्रीम कोर्ट के सामने कौन बोले ? तुम दोनों माँ बेटी पहले आपस में निपटारा कर लो, उसके बाद ही अपनी दलील पेश करूँगा ।" पिता ने सहजता पूर्वक कहा।
"थैंक यू पापा!"
" माँ ! तुम भी तो इसी जमाने की हो, तुम्हें मेरी बात समझनी ही होगी। "
" इसी जमाने की हूँ तो क्या अपने संस्कार भूल जाऊँ ? खानदान की इज्जत को मिट्टी में मिला दूँ ? " माँ ने कड़े लहज़े में प्रतिरोध किया।
" तुम सिर्फ मुझे ही गलत कहने पर अमादा क्यों हो रही हो माँ ! समाज में बहू, बेटियों पर कितने अन्याय , हिंसा व दुष्कर्म हो रहे हैं । दहेज के नाम पर बहूओं को जिंदा जला दिया जाता है। कहीं बलात्कार के मामले , तो कहीं एसिड अटैक किया जाता है। चेहरा इतना विकृत हो जाता कि रात के अंधेरे में कोई देख ले तो डर जाए । तुम्हारा उस पर ध्यान क्यों नहीं जाता ? क्या ऐसे हिंसक कार्य करने वाले सही होते है माँ ?
.......सदियों से देखते सहते आदत हो गई है ना इसलिए फर्क नहीं पड़ता। ऐसी घटनाएँ हमारे दिल को छलनी करती तो हैं किंतु फिर हम उबर जाते हैं। "
"जिनके बच्चे जन्म से ही दिव्यांग होते हैं क्या उनके माँ - बाप उन्हें घर से बाहर फेंक देते हैं ? बताओ माँ ?"
"....तो फिर तुम, क्यों नहीं मान लेती कि मैं भी.. एक प्राकृतिक दिव्यांग हूँ। अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी समलैंगिकता को मान्यता दे दी है। "
"....मेरे पास अब कोई विकल्प नहीं है । मेरी समस्या को समझो माँ .... मुझे मेरी सहेली से साथ ही रहने की अनुमति दे दो या फिर ... मैं ताउम्र कुँवारी रहूँगी।" उसने शांति और दृढ़ता से माँ को अपने विचारों से अवगत कराया ।
" आप क्यों नहीं समझाते इसे ? " हिम्मत हारती माँ ने परेशान होकर अब पति की ओर रुख किया।
" ठीक तो कह रही है ! समय के साथ चलना सीखो। भावुक होने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमारी बेटी में कमी क्या है ? मैंने तो इसे बचपन में अपनी गोदी में उठा अपने कंधे से ऊँचा कर हँसाया खिलाया है। आज भी उसी प्रकार मैंने इसे अपनी हथेलियों पर थाम रखा है, गिरने नहीं दूँगा इसे। मैं इसकी इच्छा का सम्मान करता हूँ और उसके फैसले के साथ हूँ ! " अखबार अपनी नजरों के सामने से हटाते हुए पिता ने कहा ।
बेटी अपने पिता के कदमों में झुक गई ।
" सल्यूट टू यू ऑफिसर ! तुम पर मुझे गर्व है।" पिता ने बेटी को अपने हाथों का सहारा देते हुए कहा।
बेटी ने पिता के चरण छुए और माँ की तरफ देखते हुए कहा, " जा रही हूँ माँ ! कल को अगर अपना फ़र्ज़ निभाते भारत मां के लिए शहीद हो जाऊँ तो गर्व मत करना और रोना भी मत। समझना कि एक नामुराद बेटी हमेशा के लिए चली गई। "
सुनते ही माँ की आँखें डबडबा गई । बेटी की कलाई पकड़ते हुए बोली, "अब कोई भी काम आधा आधा नहीं.. अब सब पूरा होगा। तू खुश रह मेरी बच्ची ! हम तेरे फैसले के साथ हैं ! " मुस्कुराते हुए माँ ने बेटी को कहा और विदा किया। खुशी से दमकते बेटी के चेहरे पर अब मुस्कान थी ।
स्वरचित / मौलिक
पूनम सिंह