इक समंदर मेरे अंदर - 2 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 2

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(2)

वह कभी समझ नहीं पायी कि वे अपनी खिड़कियां जानबूझ कर बंद नहीं करती थीं या भूल जाती थीं। कामना अपनी खिड़की पर बैठी टुकुर टुकुर उन तैयार होती महिलाओं को देखती रहती थी। सीढ़ियों में अंधेरा इसलिये होता कि ग्राहक पहचाने न जा सकें।

वे अंधेरे में भी तेज़ तेज़ कदमों से सीढ़ियां चढ़ते और दबे पांव अपनी पसंद की महिला के कमरे में घुस जाते थे और हल्के से दरवाजा बंद हो जाता था। खिड़कियां भी तब बंद हो जाती थीं।

कभी कभी कामना शाम को नीचे की दुकान से कुछ सामान लेकर आ रही होती तो ये नज़ारा देखती थी, पर समझ कुछ नहीं पाती थी। यह सब समझने की उमर भी नहीं थी। उसकी उमर तो गुड्डे और गुड़ियों से खेलने की थी।

मामा जी के कमरे की बगल में हॉल नुमा एक बड़ा कमरा था। वहां उसने सिर्फ़ दो ही लोगों को देखा था। बड़ी बड़ी मूंछोंवाला एक रोब वाला चेहरा और एक दुबली पतली सी लड़की थी। उसके चेहरे पर चेचक के दाग़ थे। उसका नाम सुक्‍की था। रंग खूब गोरा था।

वह आंखों में काजल लगाया करती थी। वह लड़की किसी से नहीं बोलती थी। उसके पिताजी दरवाज़ा बंद करके जाते थे और चाभी अपने पास रखते थे। एक तरह से वह लड़की जेलनुमा घर में रह रही थी। उस मर्द और लड़की के बीच क्‍या नाता था, यह भी एक रहस्‍य ही था।

वे लड़की को इतने रौब से बुलाते थे, जैसे कोई अपनी पत्‍नी को बुलाता है। सच तो ये था कि उस इमारत में हर कमरे में एक राज़ और एक राज़दार रहता था। नवरात्रि के दिनों में वहां खूब बहार रहती। उस घर में सुबह से देर रात तक भंडारा चलता रहता था। लोग आते जाते थे और खाते जाते थे।

एक बार वह और गायत्री भी उनके बुलाने पर खाने के लिये गये थे। उबले हुए आलू की दही डालकर लौंग और जीरे के छौंक की सब्जी, पूड़ी, सूखे काले चने और खीर खिलाई जाती थी। साथ ही चलते समय बच्‍चों को चार आने दिये जाते थे। यह भंडारा उसने एक बार ही देखा था।

उस दोमंज़िला इमारत में सबके पास एक एक कमरा ही था। बाथरूम कॉमन था और नल सिर्फ दो थे और वे भी दूसरी मंज़िल पर। इससे दूसरे मालेवालों को फ़ायदा होता था। उन दिनों वहां रात के तीन बजे पानी आता था और उस बिल्‍डिंग में ढाई बजे से जगार हो जाती थी।

जिनके घर में पानी जमा किया हुआ बचा हुआ होता था, वे जानबूझ कर वह पानी बहा देते थे, ताकि ताज़ा पानी भरा जा सके। सबके लिये वही ताज़ा पानी था और वही पानी बाकी काम करने और खाना पकाने के काम आता था।

जहां नल और बाथरूम थे, वहीं एक बड़ा सा खुला अहाता था....जहां लड़कियां बर्तन मांजती, औरतें कपड़े धोतीं थीं और पुरुष पट्टेदार चड्ढियों में नहाया करते थे। ये सारे काम इतनी तेज़ी से होते थे कि देखते ही बनता था।

सवेरे सवेरे लड़कियां बर्तनों से निपट कर कलसे भर-भरकर घर में पानी भर लेती थीं। यहां तक कि बड़े आकार की कटोरियां तक भर ली जाती थीं, ताकि सीधे उनसे पानी पिया जा सके। उसे याद आती है...सुबह तीन बजे पूरी बिल्‍डिंग की अफरा तफरी।

बेशक़ बाद में एक नींद और ले ले।पानी रात को तीन से पाँच केवल दो घंटे और एक समय आया करता था उन दिनों। ऐसे में अम्मां की हालत खराब हो जाती थी। वे सब उन तथाकथित मामा जी की मेहरबानी पर उनके घर में रहते थे। नखरे भी सहने पड़ते और उनके हिस्‍से के काम भी करने पड़ते।

अमां कपड़े धो दिया करती थीं, पर सुखाती नहीं थीं। कपड़े सुखाने के लिये और बर्तनों को ठीक से रखने के लिये एक कॉमन नौकर था। नौकर कोई भी हो, सबके लिए वह रामा ही होता था। वह बर्तनों को सूखे तौलिये से पोंछकर रैक में सजाकर रखता था। कमरे में सामान रखने के लिए दीवारों में इन-बिल्‍ट आले बने हुए थे।

वह याद करती है कि उन दिनों रामा को पगार देने का अलग ही सिस्‍टम था। सूखा और गीला। सूखा पगार याने चाय नाश्‍ता नहीं दिया जाता था... गीला पगार याने...एक कप चाय और एक कड़क पाव रोटी। उन दिनों नौकर की पगार थी पांच रुपये।

ये रामा दूर से पहचान लिये जाते थे....खाकी नेकर और आधी बांह की शर्ट या सैंडो बनियान पहनते थे। ये रामा लोग सुबह से शुरू करके दस ग्‍यारह बजे तक घर घर का काम निपटा कर अपनी नौकरी पर चले जाते थे और रात को नौ बजे तक वापिस आते थे।

कामना को याद नहीं आता कि उसके पापा कितने बजे आते थे। वे देर रात घर आते और तब वह सो चुकी होती थी। जब उन्‍हें आढ़तिये की दुकान पर अकाउंटेंट की नौकरी मिली, तब कहीं उनका घर से जाने और घर आने का समय तय हुआ था।

वह याद करती है कि जहां वे रहते थे, वहां से कुछ ही दूरी पर अनंतवाड़ी में ही बहुत बड़ा कपड़ा बाज़ार था। वह इलाका समृद्ध था। वहां की अंधेरी गलियों से गुजरकर ग्राहक इतने बड़े शो रूम में पहुंच जाता था कि वहां की जगमगाहट से उसकी आंखें चौंधिया जाती थीं।

गायत्री की सहेली मीना की भाभी कामना को एक दिन ऐसे ही शो रूम में ले गई थी। अंधेरी गलियों के बीच में से होते हुए एक बिल्‍डिंग में। वह चकित रह गई थी इतनी बड़ी और महंगी साड़ियों की दुकान देखकर।

उसी इलाके में उस समय जगह जगह चाय की छोटी छोटी हट्टियां होती थीं, जहां आदमी और कई जगह औरतें भी स्टोव पर चाय बनाकर बेचती थीं। मीना की भाभी ने कहा था - चल कामना, तुझे उस कोने की दुकान से चाय पिलाती हूं। बहुत मस्‍त चाय बनाती है। सारी थकान दूर हो जायेगी।

वे उसका हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए उस दुकान तक ले गई थीं। वहां खासी भीड़ थी और अधिकतर महिलाएं थीं जो सामान खरीदने आती थीं। वे वहां चाय के लिये लाइन लगाये थीं। कामना ने भाभी से कहा था - भाभी, और भी तो चाय की दुकानें हैं। हम वहां चलते हैं।

यह सुनकर उन्‍होंने कहा था - आज तो यहीं की चाय पीनी है। बहुत थक गई हूं। फिर घर तक भी तो जाना है। साथ में इत्‍ता सामान है। कामना ने इस बाबत उनसे कोई बहस नहीं की और तब तक उनका नंबर आ गया था। उन्‍होंने एक कटिंग चाय और फुल कप चाय का ऑर्डर दे दिया था।

कुछ ही देर में एक लड़का दो कप चाय लेकर आ गया था। कामना ने देखा कि चाय का रंग हल्का सा गुलाबी रंग लिये था। उसे आश्चर्य से देखते हुए भाभी ने कहा - इसे गुलाबी चाय कहते हैं। पीकर देख, कितना मज़ा आता है और दोनों चुपचाप चाय पीने लगे थे।

धीरे धीरे भाभी की आंखों में हलका सा सुरूर दिखाई देने लगा था। वैसे उनकी आंखें बिल्लौरी थीं, लेकिन गुलाबी चाय पीने के बाद आंखों में लालिमा दिखाई देने लगी थी। कामना को भी थोड़ा सा हलकापन लगा शरीर में, पर उसकी कटिंग चाय थी, इसलिये इतना असर नहीं हो पाया था कि आंखें गुलाबी दिखें।

जब चाय खत्‍म हो गयी तो वे बोलीं - अब घर चलते हैं। बाकी शॉपिंग शुक्रवार को करेंगे। तुम आ सको तो ठीक है, वरना अकेली आ जाऊंगी और इस बहाने यह चाय भी पी लूंगी। उस चाय के प्रति उनका इतना आकर्षण उसकी समझ से बाहर था।

जब वे लोग लौट रही थीं तो वे रास्‍ते में लकड़ी की एक बेंच पर बैठ गईं। बैठने के बाद वे बोलीं - पता है कामना, उस चाय को पीने के लिये क्‍यों फोर्स कर रही थी? कामना ने सिर्फ़ अपनी आंखें उठाकर प्रश्नवाचक नज़रों से देखा था।

इस पर वे बोलीं - वो चाय वाला चाय में बहुत हल्की सी अफ़ीम डालता है। नशा नहीं होता, पर एक तो थकावट दूर हो जाती है और हल्का सा सुरूर हो जाता है। दूसरे शरीर हल्का हो जाता है और अपने आप जल्‍दी जल्‍दी कदम उठने लगते हैं।

.... लोगों को लगता है कि मैं जल्‍दी में हूं, पर मुझे पता ही नहीं होता, पर बाज़ार आती हूं, ज़रूरत पड़ने पर ट्रेन भी बराबर पकड़ती हूं और वापिस घर भी बराबर पहुंचती हूं, तब तक आंखें भी साफ हो जाती हैं।

कामना के सामने एक नया संसार खुला था, चाय की आड़ में अफ़ीम का सेवन। उसने खुद को उस दुनिया में दूसरी बार नहीं जाने दिया था।

वह याद करती है लेकिन हिका़रत से। उन मामा जी की अपनी एक भांजी सरला भी वहीं रहती थी। मामा जी की पत्‍नी का असमय देहांत हो गया था और सरला के पिता नहीं थे और वे सात भाई बहन थे। मदद के हिसाब से मामा उसे अपने पास ले आये थे।

अपनी देखभाल भी एक बहाना था। इन्‍हीं मामा ने खून के सारे रिश्तों को ताक पर रख कर जो किया था उसे याद करके वह आज भी सिहर जाती है। सरला बेहद खूबसूरत थी। मामा जी के उस कमरे में हर दूसरे तीसरे दिन दोपहर को दो चार आदमी आते थे।

उस समय कामना घर में होती थी और गायत्री पड़ोस के घर में खेलने जाती थी। उस समय उस कमरे का दरवाजा बंद तो नहीं किया जाता था लेकिन भिड़ा जरूर दिया जाता था। अधखुले दरवाजे की झिर्री से बाहर से ही सारा सर्कस नज़र आता।

सरला उन आदमियों के लिये अच्‍छा खाना बनाती और उनके लिये थाली परोसती थी। वह खुद बीच में बैठती और उसे घेरकर ये मेहमान बैठते थे। वे सरला से हंसी मज़ाक करते और बीच बीच में उसके शरीर को, विशेष रूप से कमर और खुली गर्दन को छूते थे।

कई बार उनके हाथ सरल के सीने तक और जांघों तक भी पहुंच जाते। वह उनका हाथ हटाने की कोशिश नहीं करती थी। कामना उस समय बहुत छोटी थी....वह कुछ समझती तो नहीं थी, पर वह इन आदमियों की आंखों में एक अजीब सी चमक देखती थी, जिससे वह बहुत डरती थी।

उन आदमियों का वश चलता तो वे सामूहिक रूप से सरला को निर्वस्त्र कर देते...। वह डर के मारे वहां से हट जाती थी। उसे नहीं पता होता था कि उसके वहां से चले आने के बाद क्‍या होता था। वे लोग शाम ढलने से पहले उठते और सरल के हाथों में कुछ रुपये थमा जाते थे।

वह उन रुपयों को चूमते हुए ब्लाउज में ठूंस लेती थी। ये जगह उसके लिये सेफ डिपाजिट का काम करती थी। उन दिनों औरतें रुपये इसी तरह रखती थीं या फिर उनके ब्लाउज में बायीं ओर नीचे की तरफ एक जेब होती थी, उसमें रखती थीं।

वे फिर आने का वादा करके कमरे से बाहर निकल जाते थे। जब शाम को मामा जी आते तो सरला उनके सामने रुपये रख देती थी और वे उनको गिनकर कुछ रुपये अपने पास रखकर बाकी सरला को दे देते। एक अनकहा समझौता और सरला का पेट भरने का साधन था।

मुफ्त में कोई क्‍यों रखेगा भला? इस शहर में मुफ्त तो ज़हर भी नहीं मिलता कहीं। छोटी सी कामना को मामा के घर में आये उन आदमियों की हंसी आकर्षित नहीं लगती थी। अम्‍मां घर में ही रहती थीं और सब जानकर भी अनजान रहती थीं।

एक दिन ऐसा हुआ कि अम्‍मां बाथरूम गई थीं और वे आदमी कमरे में आ गये थे....सरला ने सबका स्‍वागत किया। वह भी वहीं बैठी थी। उन आदमियों में से एक आदमी ने कामना का हाथ अपने हाथ में ले लिया था...इस पर सरला ने कहा –

‘आप इस लड़की को हाथ नहीं लगायेंगे। सौदा मेरे साथ हुआ है’। इस पर उस आदमी ने खिसियाकर कामना का हाथ छोड़ दिया था। जब अम्‍मां आयीं तो कामना ने रो-रोकर सारी बात बता दी। उन्‍होंने सब सुना।

सरला और अम्मां के बीच कुछ कानाफूसी हुई, जिसे कामना नहीं सुन पाई थी। जब रात को पिताजी आये तो अम्‍मां ने बात की होगी और वे लोग चार दिन बाद सामने वाली बिल्‍डिंग में शिफ्ट हो गये थे। यह सब उन्‍होंने मामा को बताये बिना किया था।

पिताजी किसी को भी अपनी इज्‍ज़त से खेलने की इजाज़त नहीं दे सकते थे। पिताजी के पैरों के नीचे ज़मीन नहीं थी तो क्‍या हुआ? उनके पास आत्‍मसम्‍मान की तो कमी कभी नहीं थी। यह घर क्‍या, एक कमरा था छत पर। खुला खुला कमरा....पूरी छत उनके हिस्‍से में आ गयी थी। उन दिनों छत पर कपड़े सुखाने का रिवाज था...

सब किरायेदारों की एक एक रस्‍सी लगी होती थी, उससे ही गुजारा करना होता था। उनके हिस्‍से में एक नावनुमा गमला आया था, जो ख़ासा बड़ा था और अम्मां ने वहां चार रस्सियां लगाई थीं।

छत होने से हवा खूब तेज़ चलती थी। अम्मां अपनी साड़ियां और बाकी कपड़े सुखाने के लिये डालतीं और उनके नीचे के सिरे जोड़कर गांठ लगा देती थीं ताकि कपड़े उड़ें नहीं। सच तो यह था कि तब इतने पैसे नहीं होते थे कि कपड़ों में लगाने की चिमटियां खरीदी जा सकें।

उन दिनों लकड़ियों की चिमटियां आती थीं। कामना को इन उड़ते कपड़ों को देखकर बहुत डर लगता था। वह उन उड़ते कपड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ लेती थी और रो-रोकर चिल्लाती थी...

‘अम्मां, जे कपड़े उड़ जायेंगे। उतार लेव इनै। हमाई फ्रॉक उड़ गई, तौ हम ऐसी दूसरी फ्राक कहां से लायेंगे’। अम्मां हंसती हुई आतीं और उसे गोद में उठाकर कहतीं – ‘देखौ, इन कपड़न में हमने नीचे गांठ लगाई है। कपड़न कौं सूखन देव’।

अब यहां उनका परिवार कमियों में भी खुश था। इस खुशी में अम्मां का सबसे बड़ा हाथ था। उन्‍होंने कभी अपनी देहरी नहीं लांघी थी। यहां पहले से ज्‍य़ादा आराम और जगह दोनों थे। अचानक अम्‍मां का पेट बढ़ने लगा था।

वह इतनी छोटी थी कि इन बातों को समझना उसके वश की बात नहीं थी। पेट महीने-दर-महीने बढ़ता जा रहा था, फिर भी अम्मां सारे घर के काम करती थीं। वह चुपचाप एक कोने में बैठी रहती थी। अब पिताजी ने अम्‍मां के कामों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था।

वे जब काम पर जाते तो कहते - सुनौ, संजा कौ खाना हम बनाय लेंगे। तुम थोड़ौ आराम कर लियो। अम्मां उनकी बात मान लेतीं। वे शाम को किसी तरह सब्जी बना लेतीं। फिर बैठकर स्वेटर बनाने लगतीं।

वह देखती कि पिताजी का आटा सानने का अपना तरीका था। वे परात में आटे में पानी डालकर दस मिनट के लिये रख देते थे। फिर उसको मलते थे। उसके बाद परात में आटे के नीचे तेल लगाकर मला हुआ आटा फैला देते थे।

पांच मिनट बाद जब आटे को समेटते थे तो आसानी से हाथ में आ जाता था। कामना ने देखा था कि ऐसे गूंथा गया आटा नरम होता था और चिपकता नहीं था। पिताजी पराठे बहुत अच्‍छे बनाते थे...एकदम परतदार। पर्त पर पर्त खुलती जाती थी।

कामना ने आटा मलना और परतदार पराठे बनाना अपने पिताजी से ही सीखा था।

एक रात अम्मां के पेट में बहुत जोरों से दर्द उठा। कामना और गायत्री घबराहट के मारे रोने लगी थीं। पिताजी दोनों बहनों को घर में रहने की हिदायत देकर पास में ही गौरी कंचन अस्पताल ले गये थे।

वह सुबकते हुए अपनी बड़ी बहन की गोद में सिर रखकर कब सो गयी पता ही नहीं चला था। तड़के सुबह पिताजी घर आये, तो बहुत खुश थे। बोले – ‘बिटिया, संजा को तैयार रहना। तुमाई अम्मां कों अस्पताल देखबे चलेंगे। तुम्‍हारे लिये छोटा भईया लाये हैं’।

अब जब अम्मां अस्पताल में थीं तो पिताजी की जिम्मेदारी बढ़ गई थी। उन्‍हें सुबह भी खाना बनाना पड़ता था। शाम को जब पिताजी घर आये तो उन्‍होंने अपने फटाफट उन्‍हें अस्पताल चलने के लिये कहा।

अस्पताल में लोगों का रेला देखकर कामना हैरान थी, विस्मित थी। इत्ते सारे लोग एक साथ उसने कभी नहीं देखे थे। दोनों बहनें कस कर पिताजी का हाथ थामे थीं। वे अम्‍मां वाले वार्ड की तरफ चले जा रहे थे।