बना रहे यह अहसास - 3 Sushma Munindra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बना रहे यह अहसास - 3

बना रहे यह अहसास

सुषमा मुनीन्द्र

3

दिन बीत रहे हैं।

सर्जरी की चर्चा नहीं।

भरा है अम्मा का दिल।

कभी फैसला नहीं ले पाई। न अपने लिये न दूसरों के लिये। यह पहला फैसला है। पैसा है इसलिये ले पाईं वरना न लेती। पूतो का रुख समझ में नहीं आ रहा। भारतीय परिवारों की अजीब परिपाटी है। वे जीवित हैं लेकिन पप्पा के बाद सनातन घर का बड़ा सदस्य माना जाता है। क्या कहें ? दोनों पूत पप्पा के बिगाड़े हुये हैं कि इतनी लड़कियों के बाद ईश्वर की कृपा से दो वंशधर जन्मे।

अम्मा ने आखिर अवंती से पूँछा-

‘‘अवंती, सनातन हमारे आपरेशन के लिये कुछ सोच रहा है ?’’

कैसी त्रासदी, कैसी असहायता।

जिस सनातन को जन्म दिया उस तक अपनी बात पहुँचाने के लिये अम्मा को अवंती का सहारा लेना पड़ता है।

‘‘ट्रेन के रिजर्वेशन की कोशिश कर रहे हैं। देखें किस दिन का मिलता है।’’

अम्मा समझ गईं अवंती झूठ बोल रही है। लड़के उनके लिये न वक्त बर्बाद करना चाहते हैं न पैसा। उन्हें दृढ़ होना पड़ेगा -

‘‘फारम लाओ। हम दसकत कर दें। पैसा निकाल लाओ। बिना पैसे के रिजरवेसन कैसे होगा ?’’

‘‘कल बैंक चली जाऊॅंगी।’’

इतवार को यामिनी आ गई।

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यामिनी की उपस्थिति अम्मा को अच्छी लगती है। चाहती है कोई उन्हें मजबूती दे। बोध कराये सर्जरी कराने का फैसला सही है।

‘‘आओ यामिनी। गौतम नहीं आये ?’’

अम्मा जानती हैं सनातन और पंचानन को बहनों का आना नहीं सुहाता। दोनों छोटे हैं पर बहनों से सीधे मुँह बात नहीं करते। जबसे इस वाइस चांसलर सरस के चरण पड़े हैं उन्हें ही यह घर पहले से अधिक अजनबी लगने लगा है। लड़कियों की औकात क्या ? अवंती जरूर ऐसी सर्व सुलभ सदस्य है जो आत्मीयता देती है, आरोप-आक्षेप की सह जाती है। गौतमजी इस माहौल को समझते हैं इसलिये नगण्य आते हैं। यामिनी अम्मा के बिस्तर के समीप कुर्सी खिसका कर बैठ गई ‘‘गाँव गये हैं अम्मा, रिजर्वेशन हुआ ?’’

‘‘सनातन को कह दिया है।’’

‘‘रात का सोलह-सत्रह घण्टे का सफर है। ट्रेन में भीड़ रहती है। ए0सी0 कोच में जाना। आराम रहेगा।’’

‘‘ठीक कहती हो।’’

‘‘जरूरत समझो तो मैं चल सकती हूँ।’’

.सरस स्कूल की छुट्टी खराब नहीं करेगी। अवंती परदेस में अकेले परेशान हो जायेगी।

‘‘ठीक कहती हो।’’

यामिनी दिल्ली जाना चाहती है सुन कर सरस लम्बी मीमांसा से गुजरी। प्रथम दृष्ट्या राहत पाई। स्कूल से छुट्इी नहीं लेनी पउ़ेगी। अम्मा का बीमार मुखड़ा नहीं देखना पड़ेगा। जल्दी ही दूसरी तरह सोचने लगी - अवंती दिल्ली जायेंगी तो घर बच्चे मेरी सुपुर्दगी में रहेंगे। स्कूल जाऊॅंगी कि क्या करूँगी ?

........................ मैं घर सम्भालूँ और अम्मा के इलाज के बहाने अवंती दिल्ली का भ्रमण करे यह सरासर मेरी अवमानना है। अवंती, अम्मा की फरमाबरदार बन श्रेय लूटेगी और भद्र गौतमजी तो नहीं लेकिन राबिनहुड

नागचैरी और पयासीजी जरूर कहेंगे कर्कशा सरस निर्मोही है। ......................अम्मा सर्जरी कराने पर तुल गई हैं तो दिल्ली का गौरव देखने की मेरी साध हो आई है ...............

ए0सी0 टू में आरक्षण हो गया।

अम्मा कहने लगीं ‘‘कितना पैसा निकाल लें ?’’

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सनातन ने गणित बताया ‘‘पचास हजार।’’

‘‘डाँक्टर तो चार लाख का खर्च बताते हैं।

‘‘दिल्ली के डाँक्टरों की राय लेने जा रहे हैं। सर्जरी तुरंत नहीं हो जायेगी। चार लाख बाँध कर कहॉं घूँमेंगे ?’’

सनातन को भरोसा है, चिकित्सक स्पष्ट कहेंगे इस उम्र में शल्य क्रिया नहीं हो सकेगी।

‘‘यामिनी को फोन कर दो तैयारी कर लेगी।’’

‘‘तुम्हारा, मेरा, पंचानन, अवंती और सरस का रिजर्वेशन कराया है।’’

‘‘यामिनी ?’’

‘‘सेकेण्ड ओपीनियन लेने जा रहे हैं। सर्जरी की डेट नहीं मिल गई है जो पूरा समाज दिल्ली जायेगा।’’

‘‘कह रही थी मदद की जरूरत हो तो बताना।’’

‘‘मदद करे। हम लोग दिल्ली से लौट नहीं आते, तब तक यहाँ आकर रहे। घर और बच्चों की देख-रेख कर लेगी।’’

अम्मा निःशब्द।

पप्पा की निषेधाज्ञाओं से इतना घिरी रहीं कि कभी किसी को आज्ञा नहीं दे पाईं। पूतों को उनकी आज्ञा मानने की आदत नहीं है। सब जानते हैं सरस परोपकारी नहीं है लेकिन दिल्ली यामिनी नहीं सरस जायेगी। वे विरोध कर पूतों को खफा ही करेंगी। यह भी नहीं कह सकतीं तुम्हारे पप्पा जीवित होते तो हम ऐसे मोहताज न होत। पप्पा होते तब भी उनकी पारिवारिक हैसियत में आदर नहीं जुड़ना था। वे पूतों पर भार डाल देते - देख लो अम्मा का क्या करना है ? वे संकोच में पड़ जाती, पप्पा के पास शल्य चिकित्सा के लायक पैसा होगा या नहीं। पप्पा ने कभी नहीं बताया उन्हें कितना वेतन और कितनी पेंशन मिलती थी।

धनादेश द्वारा निर्धारित रकम प्रतिमाह माताराम को भेज, शेष वेतन से गृहस्थी के जरूरी पदार्थ मॅंगा कर बचत अपने पास रखते थे। अम्मा अपना हक माँगतीं -

‘‘सबकी मिसिस तनखाह रखती हैं। तुम भी हमको दिया करो। हम उड़ा नहीं देंगे।’’

‘‘तुम हिसाब नहीं समझोगी।’’

‘‘जोड़-बाकी, गुणा-भाग हमको आता है।’’

‘‘गृहस्थी जोड़-बाकी से नहीं चतुराई से चलती है।’’

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‘‘चतुराई कैसे सीखें ?’’

‘‘नहीं सीख पाओगी। पढ़ी-लिखी नहीं हो।’’

‘‘अनपढ़ से शादी न करते।’’

‘‘जानता जज बन जाऊॅंगा, नहीं करता।’’

अम्मा ने मान लिया मोहताज बन कर रहना पड़ेगा। अब आर्थिक मजबूती है पर आसरा तो पूतों से लेना है। अपना अपमान लिये अम्मा अपने कमरे में चली गईं।

उतरते-उतरते रात सभी के कमरों में उतर आई है।

सब नींद में निष्क्रीय है।

अम्मा के कमरे में रात है, अॅंधेरा है, सन्नाटा है। नींद नहीं है। परिवार इतना क्यों बदल जाता है कि लगता नहीं वही परिवार है। पूतों के लिये बहनें समाज हो गई हैं। पप्पा ने उपेक्षा बहुत की उनके रहते और उनके बाद भरपूर मालकिन नहीं कहलाईं लेकिन उनके प्रताप से पेंशन पा रही हैं वरना लड़के तो सर्जरी न कराते ......................। अम्मा, पप्पा के लिये पूरी कृतज्ञता से रो रही है। इस तरह तब नहीं रोईं थी जब सत्तर वर्षीय पप्पा ब्रेन हेमरेज के कारण अस्पताल में भर्ती हुये और शव बन कर लौटे थे।

रूदन भीतर भॅंवर की तरह घूर्णन कर रहा था लेकिन एकाएक अपमान याद आने लगे थे। आघात के साथ छाती कूट कर उनसे रोया न गया। नागचैरीजी ने किसी से कहा था ‘‘अम्मा ने रोने का दिखावा किया, बस। शायद इस स्थिति के लिये मानसिक रूप से तैयार थीं।’’

किसी ने बात अम्मा तक पहुँचा दी थी। अम्मा ने बाद में कभी मौका ताक कर न रोने को जस्टीफाई किया था ‘‘नागचैरीजी, जब हम दस के थे हमारा बियाह हो गया। अब बाँसठ-तिरसठ के हैं। गणित लगा लो कितने बरिस हम इस घर में बिना अधिकर के रहे। आज की लड़कियाँ कचहरी में तिलाक की अर्जी लगा दें।‘‘

जस्टीफिकेशन पर नागचैरीजी दंग हुये थे। कम बोलती हैं आज तलाक जैसी दबंगई। यह अम्मा नहीं, फेमिली पेंशन बोल रही है।