इच्छा - 13 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इच्छा - 13

अभी इच्छा की मुश्किले खत्म नहीं हुई थी | उसके सामने जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह थी बच्चों की अधूरी पढ़ाई जो , रात -दिन उसे सोने नही दे रही थी | किसी तरह दौड़- भाग कर उसने इस समस्या का हल भी आखीर तलाश ही लिया |जिस वजह ने इच्छा को इतने वर्षों तक तपस्या करवायी वह आज भी यथावत थी, और वह थी सामाजिक सोच और मान्यताएँ | किन्तु समय की अग्नि मे सोलह वर्षो की आहुति से उसमे कुछ नर्मी सी आ गई थी | अब लोग सहानुभूति का अभिनय करते हुए ,बेचारी शब्द से उसे संबोधित करने लगे | कुछ ऐसे भी थे जिन्हे क्षणिक आनंद प्रदान करने वाला मसाला मिल गया था | हालाकि कोई भी उस पर सीधी उंगली या अक्षेप न करता किन्तु , काना -फूँसी का दौर चलता ही रहा |आस -पास के लोगों का मौन होकर प्रश्न भरे नेत्रो से देखना इच्छा को असहज और असहाय अवस्था मे धकेलने का भरकस प्रयास कर रहा था | किन्तु वेदना के पहाड़ से जो अभी-अभी उतरा हो उसे अब बेबसी की ऊँचाईयाँ डराने मे कहाँ तक सक्षम हो पाती | एक विशाल वृक्ष की तरह इच्छा के माता - पिता ने उसकी आवश्यकताओं को समेट तो लिया था, मगर बच्चों के विकास मे सहयोगी साधनो का आभाव न आये इसलिए उसे अब भी एक अच्छी जाँब की तलाश थी | किन्तु वर्तमान शहर मे नौकरियों का आभाव उसे चिन्तित कर रहा था | अतः उसने इन्टरनेट के माध्यम से अन्य शहर मे भी इसकी तलाश शुरू कर दी | उसके दूसरे शहर से कॉल लेटर आने के बाद उसकी यह इच्छा भी पूरी हुई , किन्तु बच्चों को छोड़ कर जाना उसे उचित नही लग रहा था | कि एक दिन सौभाग्यवश उसके उसी शहर मे एक मल्टीनेशनल कम्पनी मे इन्श्योरेन्स सेक्टर से जॉब आफर हुआ | जिसे इच्छा ने स्वभावानुकूल न होते हुए भी वर्तमान स्थिति को ध्यान मे रख सहर्ष स्वीकार कर लिया | ऑफिस मे इच्छा का पहला दिन बहुत ही शानदार रहा ,शानदार इसलिए क्योंकि यह ऑफिस पूर्णतया महिलाओं को ही समर्पित था | किन्तु एक कारण जो महिलाओं की क्षमता पर प्रश्नतिन्ह लिये हुए वह यह था ,

कि खासतौर पर महिलाओं को समर्पित यह ऑफिस जहाँ केवल महिला को ही कार्य के लिए रखा जाता था , उसे नियंत्रित करने वाला मैनेजर एक पुरूष था | मनोबल को बढ़ाने के साथ यहाँ , आने वाली हर महिला का स्वागत गुलदस्ता देकर तालियों के साथ होता था | इच्छा के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था जो, उसे आत्मविश्वास से भर रहा था | किन्तु कार्य के प्रति अनभिज्ञता उसमे व्यवधान उत्पन्न कर रही थी | खैर! दूसरे दिन से ट्रेनिंग का दौर शुरू हुआ | हॉलाकि ट्रेनिंग का शुरूआती दौर कार्य विषय परिचय था |जिससे आगे बढ़ते हुए कार्य प्रणाली पर आ गया | इच्छा स्वभावनुसार प्रश्न के आवरण को तोड़कर उसमे घुसने की कोशिश करती किन्तु उत्तर की असफलता से उसकी जिज्ञासा शान्त हुए बिना ही , दूसरा पड़ाव आ जाता | अपनी इस स्थिति का अनुभव उसे स्वंय की कमियो का आभास करा रहा था | वैसे उसकी तीन घंटे की ट्रेनिंग का दौर अन्य प्रशिक्षुओ के बीच बहुत ही आनन्ददायक गुजरा | एक महीने की ट्रेनिंग के पश्चात दूसरा माह प्रोडक्शन का था | पहले दिन की शुरूआत फिर एक गुलदस्ते और तालियों के साथ हुई | हॉलाकि प्रथम माह आमतौर पर प्रत्यक्ष रूप से कार्य को समझने का होता था | कम्पनी की तरफ से यह अवसर भी महिलाओं को दिया जाता था | कम्पनी की कार्यप्रणाली और दैनिक कार्यकलाप उसे बहुत प्रभावित करते, सुबह का राष्ट्रगान उसे ऊर्जा से भर बचपन मे ले जाता जहाँ , स्कूल मे एक प्रार्थना जो ईश्वर को समर्पित थी , "वह शक्ति हमे दो दया निधे ! कर्तव्य मार्ग पर डट जावें."....... तत्पश्चात राष्ट्रगान, सावधान, विश्राम व्यायाम के साथ सम्पन्न होता | समय चाहे कितना ही प्रतिकूल हो अतीत के पन्नों मे अंकित कुछ भाव यदा -कदा मन को आनन्दित कर ही जाते हैं | इच्छा को भी अपना बचपन बहुत याद आता, जहाँ बाबा की उँगली पकड़ उनके पीछे लगे रहना, उनसे हर वक्त किसी न किसी चीज को लेकर जिद करना और अंततः उस चीज को दिलाकर उनका अपनी जान छुड़ाना | बाबा के द्वारा रख्खे गये नाम उसे आज भी अपनी मासूमियत का आभास करा उसके जीवन की नीरसता को दूर कर देते थे | आज भी इच्छा को उसके बाबा की वे बाते याद थी , जिसे लोगो के सामने बताकर वह खुद को गौरवान्वित और आनन्दित महसूस करती थी | उनका सुबह के अँधियारे मे चार बजे उठकर स्नान करना ईश्वर के ध्यान के पश्चात जोर से दहाड़ मार प्रतिदिन तीन बार "जय श्री राम !जय श्री राम !
जय श्री राम ! " का घोष | जिसकी आवज इच्छा के घर से निकलकर लगभग पचास मीटर के दायरे को पार कर जाती थी | कई बार मोहल्ले के कुछ लोगो ने अनुरोधात्मक लहज़े मे शिकायत भी की , किन्तु इससे उनके दैनिक कार्यकलापों मे कोई फर्क न पड़ सका | रोज दोपहर मे श्रीमद्भागवत गीता, रामायण अथवा शिव महापुराण का पाठ | यह सब यादे ही इच्छा के लिए सुखद अनुभूति थी | स्कूल की भाँति इस ऑफिस मे भी डेली सेशन चलता, जो एक समान्य महिला को घर के चूल्हे -चौके मे सिमटे -दबे आत्मविश्वास को बाहर निकाल उन्हें, एक अतिरिक्त क्षेत्र प्रदान कर कार्यकुशल बना रहा था | यह किसी आश्चर्य से कम न था ,
कि जहाँ एक साधारण महिला सफलतापूर्वक कार्य का निर्वहन करते हुए प्रतिस्पर्धात्मक रूप से भी आगे बढ़ रहीं थी | इच्छा मे साहस और कार्यक्षमता की वैसे तो कमी न थी किन्तु इसे भाग्य का खेल कहे, या फिर संभावनाओ का लगातार उसके विपरीत हो जाना अथवा परिस्थितियों पर उसकी पकड़ का न हो पाना | नतीजतन, निराशावादी परिणाम उसके चुनाव मे एक और बदलाव का संकेत देने लगे थे | क्रमश:.