इच्छा - 6 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इच्छा - 6

आज एक नई जगह पर इच्छा का पहला दिन वैसे अधिकांश लोगो से वह पहले ही मिल चुकी थी. काम के सिलसिले मे लोग दूसरी ब्रान्च मे अक्सर आया करते थे पर कुछ लोगो से पहली बार मुलाकात हुई. वैसे नाम से इच्छा सबको जानती थी और सबके बारे मे शिवप्रशाद इच्छा को बताता रहता था.यहाँ जो प्योन था उसका नाम था जयशंकर जो बहुत ही सीधा -साधा कभी किसी के काम को मना न करता शिवप्रशाद की तरह .और उसकी तरह मुहँफट भी नही था शिवप्रशाद के अन्दर अपनी वास्तविक स्थिति के प्रति असंतुष्टि ने कुण्ठा को व्याप्त कर रख्खा था जो उसे आग्या विरोधी बना देता था . मालिको को छोड़ और किसी का काम बड़े अनमने ढंग से करता .कभी-कभी तो साफ मना ही कर देता. वहीं जयशंकर इसके बिल्कुल विपरीत बहुत सरल स्वभाव का.उसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान स्थापित रहती .वह कभी किसी के काम को मना न करता.उसकी इसी सच्चाई, इमानदारी और सरलता के कारण कम्पनी के मालिक चाहते थे कि वह उनके घर पर रहे .वहीं काम करे लेकिन वह इस बात के लिए कभी राजी न हुआ .परिणामतः वह बार -बार अपने गाँव भाग जाता और मालिक स्वयं जाकर मना कर लाते. वह उसी कम्पनी के क्वाटर मे रहता था. यहाँ बहुत से हैमर पर काम करने वाले वर्कर भी रहा करते थे. जिनका घर दूर था. इच्छा का मन नवीन ऊर्जा से भर रहा था .सबसे अच्छी बात इच्छा को चार अच्छे दोस्त मिल गये थे, जिनमे दो महिलाए दो पुरूष थे पाँचो साथ बैठ भोजन एक दूसरे से शेयर करते हुए करते . सारा दिन हँसी ठहाको का माहौल आफिस मे इच्छा का दिन कैसे बीत जाता उसे पता ही न चलता. शाम पाँच बजे आफिस से घर के लिए निकलते हुए इच्छा का मन पुनः बोझिल हो जाता . इच्छा को एक कदम चार कदमो के समान भारी लगते और घर पहुँचते- पहुँचते इच्छा थक कर निढाल हो जाती यह थकान घर से ऑफिस की दूरी नही थी वरन् एक अन्तहीन वेदना का अभास थी. घर मे जीने का सामान था तो वे थे इच्छा के दो बच्चे वैसे वो सारा दिन घरवालो के पास रहा करते ,शाम टकटकी लगाये छत से झाँकते रहते . इच्छा रविवार के दिन घर पर रहती तो बच्चे इच्छा के पास ही रहते. इसे एक खराब मानसिकता ही कहेंगे जो बच्चो के अन्दर भेद-भाव का कीचड़ डालने का प्रयास किया जा रहा था उदहारणतः "तेरी मम्मी भैय्या से ज्यादा प्यार करती है तुझसे कम " इच्छा बच्चो के कोमल मन को रोज साफ करती उन्हे समझाकर. बड़ा बेटा थोड़ा समझदार पर उसका दूसरा बेटा इच्छा से दूर-दूर रहने लगा अब इच्छा की परेशानी बढ़ गई क्या करे वह समझ नही पा रही थी . इधर पति के बर्ताव मे परिवर्तन आ रहा था पर यह बहुत साकारात्मक नही था . लगभग पौने छः बजे इच्छा घर आती तो पूरा परिवार इकट्ठा रहता जिसमे उसके पति भी शामिल होते इच्छा के घर मे प्रवेश करते ही घर का माहौल एकदम शान्त हो जाता जैसे कोई है ही नही . इच्छा और उसका परिवार एक दो मंजिले मकान मे रहते थे जिसमे उसके सॉस,ससुर ,दो देवर एक नन्द जिसकी अभी तक शादी नही हुई थी हॉलाकि वह इच्छा के बराबर उम्र की थी इच्छा तो दो बेटो की माँ भी हो चुकी थी क्रमशः जो पाँच और साढ़े आठ साल के थे और इच्छा की सॉस के अनुसार अभी उसकी शादी की उम्र नही हुई थी . मोहल्ले ,परिवार मे सब नन्दो को भाभियो से हँसी मजाक करते देखती तो इच्छा का मन भी करता, काश मेरी नन्द ऐसी ही होती मगर इच्छा के घर का माहौल ही ऐसा नही था. यहाँ हँसना भी एक गुनाह था , इच्छा की तो हर एक बात मे मीन मेख निकाली जाती थी .यह कुछ हद तक उस वक्त कम हुआ जब इच्छा ऑफिस जाने लगी. क्योकि सुबह जब सब सो रहे होते इच्छा ऑफिस चली जाती शाम को पौने छः बजे घर आ काम मे लग जाती. इसपर भी कभी कभार एक छोटी सी बात को लेकर बहुत बड़ा क्लेश बन जाता .इच्छा के लिए अपना घर किसी जेलखाने से कम न था. जेलखाने मे भी इस घर से ज्यादा सुकून होगा जहाँ हँसने पर तो कोई पाबन्दी न थी कम से कम हमसाथ लोगो से कैदी भी आपस मे बात कर लेते होंगे पर यहाँ मोहल्ले मे किसी से बात करना तक गुनाह था .फिर भी इच्छा चोरी छिपे सबसे नमस्कार प्रणाम कर लिया करती थी. मोहल्ले मे इच्छा को सभी पसन्द करते थे. हॉलाकि वह किसी के घर नही जाती पर मोहल्ले मे कोई भी बुलावा आता तो लोग इच्छा को स्पेश्यली आमन्त्रित करते .पर इच्छा की सॉस नही चाहती थी कि इच्छा मोहल्ले मे किसी से भी मिले .
यहाँ तक कि उसका किसी से बात करना तक उन्हे पसन्द नही था. ऐसे माहौल मे एक मात्र कम्पनी ही थी जहाँ इच्छा हँस बोल लिया करती थी. हर स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी खुशी और गम की ढाल कोई होता है वह है उसका जीवन साथी. किन्तु इच्छा के जीवन मे तो यह सुख भी नगण्य ही था हॉलाकि हर लड़की अपने मन मे भावी पति को लेकर सपने मे कुछ बीज बोती है जैसे -जैसे विवाह का दिन नजदीक आता है ,मन मे ही एक कोमल पौधा तैयार हो जाता है इसी पौधे को लेकर वह ससुराल मे प्रवेश करती है धीरे -धीरे पति के प्रेम ,विश्वास और सम्मान से वह पौधा वृक्ष बन जाता है और उसपर फल लगने शुरू हो जाते हैं फलतः एक और वृक्ष यह चक्र निरन्तर चलता रहता है. पर इच्छा मे तो वह स्वन रूपी बीज पड़ने से पहले विवाह रूपी वर्षा हो गयी फिर तो क्या पौधा और कैसा वृक्ष किन्तु इच्छा का पारिवारिक परिवेश या आभावपूर्ण जीवन जो भी कहे उसमे एक विशेष गुण स्थापित कर गया वह था समझौता हर परिस्थिति का निपटारा उसने अपने इसी गुण से करना चाहा कुछ हद तक सफल भी रही किन्तु यह सफलता उसके वजूद को धीरे धीरे समाप्त करती रही . इच्छा का पति मध्यम काठी का सुन्दर सुडौल रंग साफ चेहरा गोल खूबसूरत और आकर्षक आम तौर पर लड़कियाँ उसके इस गुण से जल्दी प्रभावित हो जाती थी . वैसे तो वह इच्छा को लेकर कही नही जाता इसका एक कारण वह खुद भी कही जाना आना पसन्द नही करता था . किन्तु कई बार पारिवारिक समारोह जहाँ जाना बेहद आवश्यक होता तो दोनो इच्छा और उसका पति जब साथ चलते तो देखने वाले उनके जोड़े की सराहना करते यहाँ तक की इस जोड़े की तुलना सीता और राम के जोड़े से कर डालते . खूबसूरती का योगदान केवल आकर्षण तक ही रहता है यह बात और है कि प्रेम भी आकर्षण की चप्पल पहनकर ही आगे का सफर तय करता है पर ठहराव के लिए गुणो की गम्भीरता आवश्यक है . यह तो नियति को अपने पक्ष मे करने की बात रही वरना प्रेम करने वाला विषय कहाँ और जो किया जाये वह प्रेम कहाँ . विवाह के पश्चात इच्छा पूर्ण समर्पित भाव से रिश्ते को प्रेम के धागे मे पिरोना चाहती थी इसके लिए इच्छा ने हर सम्भव प्रयास किया जब भी वक्त मिलता वह पति को जीवन के प्रति उत्साहित करती बुरी आदतो के प्रति सचेत करती क्या चाहती थी इच्छा केवल इतना ही कि वह अपने पति की बुरी लत को दूर करने मे उसका साथ देना चाहती थी उसे कामयाब इन्सान के रूप मे देखना चाहती थी मगर यही प्रयास गृह क्लेश का कारण बनता .शरीर का एक हिस्सा यदि रोग से प्रभावित हो तो उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता ही है .इच्छा के घर की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी इच्छा हमेशा बदलाव मे अपने अपने पति का साथ देना चाहती थी . यह उसका प्रेम था ,मानवीय संवेदना थी या फिर अग्नि के समक्ष स्वयं का रिश्ते के प्रति समर्पण जिसने इच्छा को कई बार अमानवीय व्यवहार सहने के लिए मजबूर किया . इसके अतिरिक्त इच्छा की इच्छा के विरूद्ध स्वीकृति रिश्ते मे धृणा के भाव उत्पन्न कर रही थी. वह हमेशा प्रेम रूपी तटीय वृक्ष को मन रूपी यादृच्छित लहरो से भिगो देना चाहती थी किन्तु धीरे -धीरे वह नदी सिमटकर तालाब मे परिवर्तित होने लगी और शारीरिक आवश्यकताए ही शेष रह गयी मन खिन्न सा दूर खड़ा एकान्त की तलाश करता , रिश्तो के कोलाहल मे एकान्त का चिन्तन उसे ऊर्जा प्रदान करता यही जीवन मे उसका मार्गदर्शन भी कर रहा था . आज इच्छा का मन बहुत प्रफुल्लित था मानो वेदना की पराकाष्ठा से श्रावित जल ने भूमि को सराबोर कर दिया हो और उस पर उगती हुई घास हरियाली का अनुभव करा रही हो . अकारण ही इच्छा का मन प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था. वैसे घर पर कुछ भी बदला न था न लोगो के विचार और न ही व्यवहार यह शान्ति उसकी आन्तरिक व्यवस्था का परिणाम थी जो उसे आत्म चिन्तन से प्राप्य थी. रोज की तरह इच्छा आज भी अपनी दिनचर्या से निमित्त हो आफिस गयी तभी इच्छा के लिए एक आश्चर्य आज सुबह ही लाल रंग की स्विफ्ट मे तुषार जी का प्रवेष हाथ मे लाल रंग का बड़ा सा बैग .बैग को रिशेप्शन पर रख इच्छा से कहा इसे मेरे केबिन मे रख आओ यह कह कर वे रिशेप्शन पर ही मन्दिर मे धूप दीप जला ईश्वर की आराधना करने लगे वैसे जब भी इस कम्पनी के मालिक आते आफिस मे घुसने से पहले ,सबसे पहला काम उनका यही था . इच्छा को यह बात बिल्कुल भी अच्छी न लगी फिर मन को समझाया बैग उठा लिया कि जाऊं रख आऊं बैग ज्यादा भारी नही था. फिर उसे यह अपना अपमान लगा नही यह मेरा काम नही मै कोई प्योन हूँ यह विचार कर जयशंकर को आवाजे लगाई कई आवाजो के बाद भी जब वो नही आया तो वह अन्दर उसे ढूंढने लगी वह तुषार जी के केबिन तक भी ढूंढ आई अचानक अन्दर से निकल कर आ गया इच्छा ने जयशंकर से कह बैग तुषार जी के केबिन मे रखवा दिया. पूजा करते वक्त तुषार जी इच्छा की तरफ सिर घुमाकर देखे जा रहे थे मानो उससे कुछ कहना चाह रहे हो पर नियमबद्ध होने के कारण कुछ नही कह पाये और असहाय अवस्था मे अनचाही गतिविधि देखते रहे पूजा खत्म होते ही मानो भूखा बैल भोजन पर टूट पड़ा हो इच्छा को बड़े ही रूखे शब्दो मे डॉटना शुरू किया तीन साल के पशचात यह दूसरा मौका था जब इच्छा से इस प्रकार कम्पनी मे किसी ने बात की हो दूसरी बार भी तुषार जी ही थे उस कम्पनी मे इच्छा की स्थिति सम्मान मे किसी मैनेजर से कम न थी कोई उसे कुछ काम भी देता तो बड़े अनुरोधपूर्ण भाव से वैसे इच्छा को सिस्टम पर काम करना बहुत पसन्द था और साथ मे इच्छा एक व्यवहारशील भी थी. आज फिर से इच्छा का मन उचाट हो गया. एक अपमानबोध के कारण वह किसी से नजर नही मिला पा रही थी . आफिस के सहकर्मी या दोस्त भी कह सकते है उनके बार बार आग्रह पर भी इच्छा भोजन के लिए नही गई
यह बात उसे इस प्रकार प्रभावित कर रही थी कि इच्छा ने कम्पनी छोड़ने तक का मन बना लिया. तभी एक दिन जयशंकर प्रशाद जो कि अक्सर ही खाली होता तो इच्छा के पास खड़ा हो कम्पनी के लोगो और कम्पनी के मालिको के घर की बाते बताया करता इसमे उसको बहुत आनन्द आता वैसे इच्छा के अलावा भी और लोगो के पास भी यही करता. जयशंकर प्रशाद बोला मैमजी आपको पता है तुषार जी उस दिन जो बैग लेकर आये थे उसमे क्या था इच्छा "नही भैय्या मुझे नही पता उसमें क्या था" वह पूरा नोट से भरा था और उसमे लाल रंग के कपड़े मे कुछ बाँध कर रख्खा था बाऊ जी के मुँह से सुना था सर को समझा रहे थे कि इसको किसी ऐसे व्यक्ति का हाथ लगवाकर रखवाना जो निष्छल और इमानदार हो ऐसा ज्योतिष ने कहा था. यह सब प्रयास कम्पनी को घाटे से उबारने के लिए हो रहा है . यह सुन इच्छा समझ गयी कि उस दिन तुषारजी ने उसे बैग रखने के लिए क्यों कहा था .अपने प्रति मालिको के मन मे ऐसे विचार देख इच्छा का मन आत्म ग्लानी से भर गया अब उसे अपनी क्षुद्र भावना पर शर्म सी आने लगी. क्रमशः..