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इच्छा - 5

इच्छा बचपन से ही एक अन्तरमुखी स्वाभाव वाली लड़की थी कुछ बचपन का परिवेश और कुछ पारिस्थितिक प्रदत कुंठाओ ने उसकी जिव्हा और कुछ हद तक दिमाग पर अधिकार कर रख्खा था अगर कुछ स्वच्छंदता थी तो उसकी कल्पनाशीलता और विचार शक्ति में क्योंकि यही वो दो चीजे हैं जितना हनन किया जाये यह उतनी ही उन्नत अवस्था प्राप्त कर लेती हैं. फोन लगातार बजे जा रहा है पर इच्छा की हिम्मत नही कर रही उसे उठाने की आखिर वह उठाकर बात क्या करती उसे तो कुछ भी पता नही था .शिवप्रशाद के बार-बार कहने पर वह फोन का रिसिवर उठा तो लेती है पर कुछ बोल नही पाती होंठ मानो किसी ने सिल दिये हो . शिवप्रशाद रोज इच्छा को फोन पर बात करने का अभ्यास करवाता .तीसरे दिन इच्छा के हाथ अप्वाइन्टमेन्ट लेटर आता है .यह लेटर इच्छा के लिए मानो निद्रा माँ का आशीर्वाद रहा, आज इच्छा नींद भर सोई क्योंकि अगले दिन रविवार था . आज का दिन इच्छा के लिए एक उत्साह और उम्मीद भरा दिन था जिसने मानो प्राणविहीन होती साँसो की गति को थाम लिया हो .आज से पहले इच्छा कभी इतनी देर तक नही सोई वैसे उस घर मे सवेरा बारह बजे से पहले नही होता था . एक इच्छा ही उस घर ऐसी थी जो सुबह पाँच बजे उठ जाया करती थी परन्तु जब से चूल्हा अलग हुआ यह अंतराल साढ़े पाँच हो गया . आठ बजे इच्छा की नींद खुलते ही दैनिक कार्यो मे लग गयी आफिस जाने की वजह से कुछ कार्य पेन्डिग रह जाते थे इसलिए रोज की अपेक्षा आज घर पर अधिक काम था . पति को किसी कार्य से कोई मतलब नही उसके जीवन का एक ही उद्देश्य था अच्छा भोजन नशे की लत बचपन से ही लगी थी और आराम. यहाँ तक की उसे इस बात का भी आभास न था कि उसकी दो संताने भी है , यदि कोई आभास कराने की कोशिश भी करता तो अनेको बहाने पहले से ही उपलब्ध होते एक गुण या अवगुन इसे जो भी कहें विरासत मे मिला था और वो यह था कि मै पुरूष हूँ रसोई मे घुसना तक वह अपना अपमान समझता था क्योंकि अब इच्छा आफिस जाने लगी थी और उसके पति का सवेरा दोपहर के एक ,दो या खुद की इच्छानुसार होने की वजह से इच्छा द्वारा बनाया हुआ भोजन स्वयं निकालकर खाना पड़ता. वैसे तो इच्छा के बच्चों से घर के सभी लोग प्यार दिखाते किन्तु जिम्मेदारियाँ केवल इच्छा पर ही थी. सुबह उठकर बच्चों को तैयार करना ,टिफिन तैयार करना , दोपहर के लिए भोजन तैयार कर रखना ,खुद का टिफिन इत्यादि. बच्चे ऑटो से जाते उन्हे कुछ दूर पर छोड़कर आना.फिर आफिस के लिए निकलना. आज इच्छा का पाँचवा दिन था इच्छा कम्पनी का हर एक काम बखूबी कर पाती थी सिवाय कॉल अटेन्ड करने के यह उसे अभी तक नही आया था पर अब वह फोन उठा लेती थी . साढ़े ग्यारह बजे एक कॉल आती है इच्छा उठाते ही पहले कम्पनी का नाम लेती है जैसे शिवप्रशाद ने उसे समझाया था फोन के दूसरी तरफ उसी कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर तुषारजी ही थे इच्छा की ज़बान की लड़खड़ाहट को सुन थोड़े कड़े शब्दो में मैडम आप फोन पर किसी से बात नही कर पा रहें हैं , इच्छा ने कहा सॉरी सर, अभी मैं फ्रे़शर हूँ "कमाल है आज पाँचवा दिन भी आप खुद को फ्रे़शर कह रहे हो आपका मेन काम है क्या" यह कह फोन काट दिया तुषारजी का इस प्रकार बात करना मानो निंद्राग्रस्त इच्छा पर किसी ने घड़ो पानी उलट दिया . बार -बार तुषार जी के शब्द कानो मे गूंज रहे थे आज इच्छा स्वयं को अपमानित सा महसूस कर रही थी आज दोपहर इच्छा ने लंच भी नही किया . ऐसा नही था की इच्छा का कभी किसी ने अपमान न किया हो ,उसे अपने घर मे सम्मान मिला ही कब था किन्तु एक बाहरी व्यक्ति चाहे वह कंपनी का मालिक ही क्यों न हो बर्दाश्त नही हो पा रही थी . इच्छा इस बात को जानती थी कि तुषारजी की एक -एक बात बिल्कुल सही थी पर इच्छा करती भी तो क्या बचपन से ही बोलने की स्वतंत्रता नही दी गई थी नपे तुले शब्दो से इच्छा की जिव्हा कुंठित हो गई थी खैर, लगभग तीन बजे के करीब गेट खुलने की आवाज इच्छा का ध्यान अपनी ओर आकर्शित करती है नीले रंग की अंबेज़डर कार मे एक लगभग अड़सठ साल का व्यक्ति किन्तु चेहरे पर ऊर्जा और काफी एक्टिव मतलब अपनी चाल ढाल से उम्र को मात देते हुये कार का गेट खोल एक बार पूरी कम्पनी पर नजर मार रिशेप्शन मे आने के बजाये एक दूसरे रास्ते से प्रोडक्शन हाल की तरफ प्रवेश कर जाते हैं वहाँ का जायजा लेकर पुनः रिशेप्शन की तरफ से सबसे पहले केबिन मे जो रिशेप्शन के पास थी प्रवेश कर जाते हैं. दस मिनट के बाद शिव प्रशाद इच्छा के पास आकर कहता है मैमजी आपको बाऊजी बुला रहें हैं . इच्छा पहले से ही सुबह की बात से जॉब को लेकर सशंकित थी कि बाऊजी का बुलाना उसे भयभीत कर रहा था, अपने भय को कर्तव्य की उर्जा से निष्तेज करने का सामार्थ्यभर प्रयास किया ."मे आई कमिंन बाऊजी" इच्छा ने कहा .हाँ आ जाईये बऊजी ने कहा. कुछ देर इच्छा उसी अवस्था मे एक अपराधी की भॉति खड़ी रही बाऊजी अपने काम मे व्यस्त लग रहे थे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह भूल गये थे कि सामने भी कोई खड़ा है यह बात कुछ हद तक सही थी अचानक चौकते हुए "बैठिये मैडम " धन्यवाद सर , "आज मै आपसे पहली बार मिल रहा हूँ " जी बाऊजी असल मे मैं कहीं बाहर चला गया था आज ही आया हूँ . यहाँ काम करके आपको कैसा लग रहा है. सुबह की बात अबतक ज़ेहेन मे थी इसलिए संकोचवश सर हिलाकर ही उत्तर दिये जा रही थी . जैसा कि मुझे अनुमान था तुषारजी ने मेरी शिकायत की होगी पूँछ लिया आप बोल क्यों नही पाती इच्छा ने फिर वही राग अलापा बाऊजी मै फ्रै़शर हूँ . अब बाऊजी इसप्रकार शान्त थे कि चेहरे के भावों का पता लगा पाना बेहद मुश्किल तत्पश्चात "आप कल दो तीन जितने भी पेंज आप चाहें अपने बारे मे लिख कर लाये मै इसी समय आपसे मिलूंगा कहते हुए केबिन से बाहर निकल जाते हैं. बाऊजी की ये बात सुन उसे लगा मानो किसी ने उसे दो जीवित पंख लगा आसमान की यात्रा करने को कह दिया हो उसे अपनी कलम पर पूरा भरोसा था उसकी लड़खड़ाती जबान ने उसकी अभिव्यक्ति मे कभी अपना योगदान नही दिया हॉलाकि अपनी बातो को उसने कभी कही लिख कर नही रख्खा उसके विचार ही उसके कलम थे कल्पनाशीलता उसकी स्याही और मन ही उसकी डायरी थी . आज वास्तविक कलम हाथ मे लेकर अपनी जीवित भावनाओं को उसपर उतार देना चाहती थी मगर फिर विचार आया की पढ़ने के लिए इतना समय दे पायेंगे बाऊजी यह सोच शब्दो को सीमित कर दिया.चार पन्ने की अभिव्यक्ति मे इच्छा ने अपने जीवन को प्रेषित करने वाली ऊर्जा समाहित कर दी . सर्वप्रथम उसने अपनी कम्पनी के प्रति अनभिग्यता को व्यक्त किया फिर जीवन के उद्देश्यो को ,जीवन के प्रति मूल्यो को फिर कार्य के प्रति अपनी ऊर्जा को अवलोकित किया अन्त इन एक सप्ताह मे जो कुछ भी सीखा सब चार पन्ने के दायरे मे समेट दिया . दूसरे दिन बाऊजी आये चेहरे पर नाराजगी भरी हुई ऐसा इच्छा को प्रतीत हो रहा था. इस बार शिवप्रशाद को भेजने के बजाये बाऊजी ने स्वयं फोन पर इच्छा को बुलाया, "कल मैने कुछ काम दिया था आपने किया " इच्छा पहले से ही तैयार थी कागज बाऊजी के हाथ थमा दिया बाऊजी ने इच्छा को जाने का इशारा कर कागज पढ़ने लगे लगभग पन्द्रह मिनट बाद इच्छा को दुबारा केबिन मे बुलाया बैठने के लिए कहा "ये आपने ही लिखा है" "जी बाऊजी " बेटा आपकी क्वालिफिकेशन क्या है बी ए प्रथम वर्ष इच्छा ने कहा अचानक बाऊजी अपनी सीट छोड़कर खड़े हो जाते हैं . जैसे एक पिता अपनी बेटी को आशीर्वाद दे रहा सिर पर हाथ फेरते हुए बेटा आप क्या लिखते हो आपके शब्दो मे जान है. आज से एक काम और बढ़ गया आपका आप रोज लिखा करें. उस दिन के बाद से बाऊ जी ने इच्छा को कभी मैडम नही कहा हमेशा बेटा ही कहते थे .इच्छा भी रोज बाऊजी की आग्यानुसार रोज एक पेज लिखकर तैयार रखती ,धीरे -धीरे यह लेख कविताओं में परिवर्तित हो गये. अब बाऊजी इच्छा को कभी कभी कवयित्री कह कर भी सम्बोधित कर दिया करते थे. इन सब बातो से इच्छा का आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा था . इधर कम्पनी के अन्य लोग सोचते इच्छा बाऊजी से हमारी शिकायत करती होगी इसलिए इच्छा के प्रति लोगो का बर्ताव बदलने लगा वह उसे नीचा दिखाने की कभी कोई कोर कसर नही छोड़ते और इसके लिए बाऊजी और उनके दोनो बेटो के कान भरना शुरू कर दिये पर बुजुर्गो द्वारा एक कहावत कही गई है "जाको राखे साँईयाँ मार सके न कोय" अन्जाने मे इच्छा की बहुत सारी परिक्षाए ली गई एक दिन बाऊजी नोटो से भरा बैग खुला केबिन मे भूल जाते हैं और इच्छा से टेबल पर से चश्मा फोन द्वारा मंगवाते है ऐसी कई सारी परिक्षायें जिसका अभास उसे सालो कम्पनी छोड़ने के पश्चात हुआ था. बाऊजी चाहते थे कि इच्छा अकाउण्ट डिपार्टमेन्ट का कार्य सीखे इसके लिए उसे ऑडिट का काम पकड़ाया गया इच्छा भी अपनी रिशेप्शन वाली जॉब से संतुष्ट नही थी और काम को सीख आगे बढ़ना चाहती थी. उसका मधुर व्यवहार होने के बाद भी लोगो की धारणा ने हमेशा कम्पनी के अन्य लोगो को उसके खिलाफ रख्खा किन्तु कम्पनी के मालिको की विश्वासपात्र होने की वजह से उसकी जड़े कम्पनी मे मजबूत थी यह विश्वास उसने बनाया नही था बल्कि यह उसका स्वभाव था जिससे वहाँ के मालिक परिचित हो चुके थे. कम्पनी की स्थिति कुछ अच्छी नही जा रही थी इसका कारण यह था कि इच्छा जिस कम्पनी मे कार्यरत थी उसकी पुरानी ब्रान्च का पैसा इस कम्पनी को स्टेब्लिश करने मे आवश्यकता से अधिक खर्च कर दिया गया और बायर द्वारा बहुत सारा पैसा रोक लिया गया. अब दोनो कम्पनियों को समान अवस्था मे चला पाना मुश्किल हो रहा था सो एम्पलॉइज़ की संख्या कम की जाने लगी .एक दिन इच्छा को मैनेजिंग डायरेक्टर एण्ड मार्केटिंग हेड जो कि बाऊजी ( बी के चौधरी) के बड़े बेटे थे अपने केबिन मे बुला पूँछा मैडम क्या आप हमारी दूसरी ब्राँच मे काम करना चाहेंगी वह आपके घर से भी पास पड़ेगा . इच्छा को लगा मानो उसके मन की मुराद पूरी हो रही हो तुरन्त हाँ तो कर दी पर वापस अपनी सीट पर आकर सोचने लगी वहाँ पर तो पहले से एक मैडम काम कर रहीं है अभी कल ही तो मेरी उनसे मेरी बात हुई थी खैंर , मुँह से हाँ तो निकल ही गई थी न निकलती तो नौकरी भी शायद हाथ से जाती, इच्छा के मन मे यह विचार चलता रहा पर फिर भी उसका मन नही माना उसने अपनी ब्राँच मे फोन लगाया उसी मैडम ने फोन उठाया शायद उसे पता नही था कि आज उसका कम्पनी मे आखिरी दिन है. जितनी भी इच्छा के मन मे खुशी थी वह मानो उस नाव के साथ डूब गई जिसमे पहले से ही छेद था . इच्छा का मन अपराधबोध से भर आया . इच्छा कर भी क्या सकती थी . वह बार -बार खुद को कोसने लगी और मन फिर एक बार कुण्ठित हो गया दूसरे दिन इच्छा अपनी नई कम्पनी मे प्रवेश करती है यहाँ पहले से ही सबको सूचित कर दिया गया था पहुँचते ही अकाउण्ट का एक व्यक्ति पहले से ही हाथ गुलदस्ता लेकर मैम जी आपका स्वागत है पहली बार इच्छा को अपनी सम्मानजनक स्थिति का बोध हुआ वहाँ आने वाले हर व्यक्ति के मुहँ से अपने लिए स्वागत शब्द सुनकर . पर सीट पर बैठते समय फिर से एक बार अपराधबोध सा हुआ. क्रमशः..

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