हार गया फौजी बेटा - 4 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हार गया फौजी बेटा - 4

हार गया फौजी बेटा

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

बूढ़ी आंतें भूख से ऐंठने लगीं, जब सहन शक्ति जवाब दे गई और उठने की भी शक्ति न रही तब बेशर्मों की तरह बड़ी बहू को आवाज़ दी। कई बार आवाज देने पर झनकती - पटकती आकर पूछा ‘क्या है?’ मैंने बताया सुबह से कुछ नहीं खाया बहुत भूख लगी है, खाना दो। इस पर वह भुनभुनाती हुई बोली ‘अब इस समय खाना कहां है, देखती हूं कुछ है क्या?’ थोड़ी देर में एक प्लेट में दो पराठा और करेला की भुजिया सब्जी नाममात्र को रख गई। एक गिलास पानी भी। फिर इस तेज़ी से निकल गई कि कुछ और न कह दूं। मैं बैठे-बैठे देखने लगा खाना। सुबह का खाना। मेरे बूढ़े जबड़ों, अवशेष दांतों के लिए पराठा सब्जी दोनों ही बेहद सख्त थे। मन में एक हूक सी उठी रुक्मिणी होती तो क्या ऐसे देती। बेसाख्ता ही मुंह से निकल आया ‘रुक्मिणी’ आंखों से टप-टप आंसू टपक पड़े। कितना अकेला हूं दुनिया में। कहने को नाती-पोते, बहू-बेटे, दामाद-बेटी मिलाकर उन्नीस जन हैं इस एक खून से। वाह री दुनिया, मैं यहां सबके रहते रो रहा हूं, अकेला हूं। वहां फौजी का बाप बेटे के न रहने पर अकेला है, रो रहा है। हों तो रोना, ना हों तो रोना। अरे विधाता तेरा कैसा है यह खेला। आंखों में अश्रु लिए मैं भूख से भी हारा। किसी तरह खा गया वह दो पराठे। ज़रूरत तो कई और पराठों की थी लेकिन वह मयस्सर नहीं थे।

अपमान से भरा वह भोजन कर शरीर में कुछ जान आई तो कमरे में नज़र दौड़ाई, धूल-धक्कड़, कूड़ा-करकट साफ बता रहे थे कि जब से गया हूं तब से सफाई हुई ही नहीं। अपने बिस्तर का चादर झाड़ने की भी मुझ में हिम्मत नहीं रह गयी थी। इसलिए सो गया उस धूल से भरे बिस्तर पर। कई दिन से थकी आंखें न जाने कब लग गईं पता ही नहीं चला। मगर दो पराठों से भी पेट की आग पूरी तरह शांत नहीं हुई थी तो कुछ ही घंटों में आंखें खुल गईं। शाम सात बजते- बजते सारे बेटे आ गए। सब आराम से चाय नाश्ता करने के बाद बारी-बारी से आए और झाड़ पिला गए कि आखिर मैं बिना बताए क्यों आ गया। कहीं तबियत खराब हो गई तो कौन देखेगा यहां। किसके पास टाइम है। पूरे घर को आपने टेंशन में डाल दिया। अपने टेंशन कम हैं क्या? अपने सारे बेटों की ऐसी तीखी और बेगानों सी बातें शूल सी चुभी दिल में। इन शूलों ने अपनी संतानों के प्रति रहा-सहा मोह भी भंग कर दिया और फिर मैंने हमेशा के लिए घर परिवार सब को त्यागने का निर्णय ले लिया। कहां जाएं, यह तय नहीं किया था। लेकिन मन में कहीं किसी आश्रम में चले जाने की तस्वीर रह-रह कर उभर रही थी।

अगले चार दिन मैंने आराम करने और बैंक में कुल जमा पूंजी जो कि आठ लाख थी, का ड्रॉफ्ट बनवाने और रुक्मिणी के सारे गहने एक जगह समेट कर रखने में लगा दिए। फिर पांचवें दिन चल दिया फौजी बेटे के घर किसी को बिना कुछ बताए । चलते समय ए.टी.एम. कार्ड, पेंशन बुक भी ले ली।

शाम चार बजते-बजते फौजी बेटे के घर पहुंच गया। उसके बहनोई का नंबर होने के कारण घर तक पहुंचने में खास दिक्कत नहीं हुई। चलते समय जब फ़ोन किया तो वह कुछ आश्चर्य में पड़ा। फिर बड़ी शालीनता से कहा था ‘बाबू जी बस स्टेशन पहुंचने पर फ़ोन करिएगा, मैं आपको लेने आ जाऊंगा।’ मैं जब पहुंचा तो वह पहले से ही मोटर साईकिल लिए खड़ा था। घर पहुंचने तक छुट-पुट बातों के बीच उसने शालीनता से सिर्फ़ इतना कहा ‘बाबूजी बीमारी की हालत में आपको इतनी दूर अकेले नहीं आना चाहिए था। आपने जब फोन किया तो मैं यही समझ रहा था कि आप अपने किसी बेटे के साथ आ रहे होंगे।’

घर के सामने पहुंचा तो फौजी के पिता अपने घर के सामने तखत पर बैठे मिले सफेद धोती - कुर्ता पहने। उनकी जर्जर काया पहले से आधी रह गई थी। चेहरे से ऐसा लग रहा था मानो जवान फौजी बेटे की चिता की अग्नि से वह तप गए हों। मुझे देखते ही लड़खड़ाते हुए दोनों हाथ फैला कर यूँ आगे बढ़े मानो जवान बेटे की अर्थी के महा बोझ ने उनके पैर, कंधों, हाथों सहित सारे शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया हो। मैंने भी उन्हें जल्दी से बाहों में भर लिया। वह फफक कर रो पड़े। मैं भी अपने को रोक न पाया। कुछ देर बाद दामाद ने आकर हम दोनों को शांत कराते हुए बैठाया। वहां पड़े दो तख्तों पर कई रिश्तेदार और पड़ोसी बैठे थे। उन्होंने सबसे मेरा परिचय कराया कि यह मेरे बेटे के साथ ही एडमिट थे। अपना ईलाज अधूरा ही छोड़कर चले आए। कई लोगों के चेहरे पर मैंने आश्चर्य की लकीरें देखीं। पत्नी से परिचय कराया तो उनका पहले से चल रहा करूण क्रंदन और तेज़ हो गया। मैंने चुप कराने की कोशिश की लेकिन मेरे भी आंसू टपकने लगे।

कुछ देर बाद वहां सन्नाटा पसर गया। जल्दी ही मेरे लिए पानी और कुछ खाने-पीने की चीजें लाई गयीं। लेकिन वहां के गमगीन माहौल के चलते मैं लाख थकान और भूख के बावजूद एक बालू शाही और एक गिलास पानी के सिवा कुछ न ले सका। यह भी तब हो पाया जब पिता, दामाद ने कई बार आग्रह किया। इस बीच मेरे लिए एक खटिया लाकर डाली गयी। उस पर दरी और चादर भी बिछा दी गई। मकान के ठीक सामने नीम और कनेर के फूल और अमरूद का एक छोटा सा पेड़ था। जिनकी छाया अच्छी शीतलता दे रहे थे। मकान काफी हद तक बड़ा था। उसकी छाया बड़ी होने लगी थी। घर की, लोगों की हालत साफ बता रहे थे कि एक परंपरावादी ठीक-ठाक खाता-पीता किसान परिवार है। जिसका क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रभाव है। हर कुछ देर के अंतर पर कोई न कोई साईकिल या दुपहिया वाहन से आ रहा था और पिता हर किसी से मेरा परिचय पहले वाली बात कह कर ही कराते रहे। आने वाले अधिकांश लोग उन्हें चाचा या भइया ही बोल रहे थे। इस बीच दामाद की सक्रियता ने यह साफ कर दिया कि इस समय पूरा घर वही संभाले हुए है।

देखते-देखते कब शाम हुई पता ही नहीं चला। ध्यान तब गया जब कई लालटेनें जल गईं। नेचुरल कॉल पर जब मुझे अंदर ले जाया गया था तो अंदर लगे पंखों, बल्बों से यह साफ था कि घर में बिजली है। मगर गर्मी के बावजूद उन सबका बंद पड़ा रहना साफ कह रहे थे कि बिजली के मामले में इस गांव की कहानी भी अन्य गांवों जैसी ही है। कुछ ही देर में मच्छरों का भी प्रकोप बढ़ा तो घर के दोनों कोनों पर कंडों में नीम की पत्तियां डालकर सुलगा दिया गया। उससे मच्छरों से तो राहत मिली लेकिन उसके कसैले धुएं से मुझे बेहद तकलीफ होने लगी। सात बजते-बजते अंधेरे की चादर आमसान में तन गई। साथ ही कई और खटिया भी बिछा दी गईं। जिससे तय था कि आज मर्दों का बाहर ही सोना है। अंदर जगह की ज़्यादा मेहमानों के कारण कमी है। मैंने आस-पास के घरों पर नज़र दौड़ाई तो किसी घर के बाहर कोई चारपाई नजर नहीं आई। गांवों मेें भी बाहर सोना समाप्त हो चुका है जो सुनता था वह चरितार्थ देख रहा था। मुझे आए हुए तीन घंटे बीत रहे थे और साथ रखे बैग में ढेर सारे रुक्मिणी के गहने और बैंक ड्रॉफ्ट मुझे अंदर-अंदर बेचैन किए जा रहे थे। बढ़ते अंधेरे के साथ घर भी बेचैन करने लगा जिसे मैं आज़िज़ आकर हमेशा के लिए त्याग आया था। इस बीच एक किशोर ने आकर कहा ‘अंकल जी कपड़े चेंज कर लें तो आपका बैग अंदर रख दूं।’ यह सुनकर मैं एकदम से और ज़्यादा परेशान हो गया।

मैं काफी देर से इस सोच में लगा था कि कैसे फौजी बेटे के पिता को ड्रॉफ्ट, गहने बाकी सब लोगों से अलग कर सौंप दूं कि वह उसे सुरक्षित रख लें। देहात का मामला है किसी को कानों-कान खबर न लगे। मैं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मगर अब वक़्त नहीं रह गया है सोच कर मैंने पिता से सबकी नज़रें बचाकर दो मिनट अलग बात करने का निवेदन किया। उन्होंने एक प्रश्नकारी दृष्टि मुझ पर डाली फिर मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा ‘बताओ भइया ऐसी क्या बात है?’ मैंने उनसे फिर स्नेहपूर्वक आग्रह किया ‘कोई गंभीर बात नहीं है। बस ऐसे ही जिसे आप पति-पत्नी तक ही सीमित रहना बेहद जरूरी है।’ इस पर वह धीरे-धीरे मेरे साथ घर के एक छोर पर आकर खड़े हो गए। तब मैंने उनसे कहा, ‘भाई साहब यह वक्त तो नहीं है ऐसी बात करने का लेकिन क्योंकि मेरे पास कोई और रास्ता नहीं है, वक्त भी नहीं है, इसलिए विवश होकर अभी कह रहा हूं।’ फिर संक्षेप में मैंने सारी बातें बताई तो वह हतप्रभ रह गए। मैंने प्यार से उनके हाथ को पकड़ते हुए कहा ‘भाई साहब इसे मेरी अंतिम इच्छा समझ कर स्वीकारिए यह कोई एहसान या मदद नहीं है। वह आपका पुत्र होने के साथ-साथ देश का एक सच्चा सपूत भी था और ऐसे सच्चे सपूत के प्रति बस अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश कर रहा हूं। कृपया इससे मुझे वंचित न करिए। मेरी अंतिम इच्छा का ख्याल कीजिए।’ वह आसूं भरी आंखों से मुझे देखते हुए बोले ‘आप क्या हैं? क्या कहूं आपको समझ नहीं पा रहा हूं। यकीन ही नहीं हो रहा है। आपने अपनी बातों से बांध सा दिया है।’ इस पर मैंने उन्हें और ज़्यादा प्यार से थाम लिया। उस अंधेरे में बमुश्किल हम दोनों वृद्ध चश्मों के पीछे से देख पा रहे थे। दूर रखी कई लालटेनों का क्षीण प्रकाश कुछ हद तक मददगार हो रहा था। कुछ क्षण शांत रहने के बाद वह मेरा हाथ पकड़े वापस आए और खटिया पर मुझे बैठाकर पत्नी को लेकर अंदर गए।

मेरी घबराहट अंदर ही अंदर बढ़ती जा रही थी कि पता नहीं पत्नी स्वीकार करे या नहीं। पंद्रह मिनट तक प्रतीक्षा करना मुझे घंटों प्रतीक्षा करने जैसा लगा। जब वह अकेले मेरे पास आए तो उनके चेहरे के भाव पढ़ना मेरे लिए मुश्किल था। फिर उनके कहने पर मैं बैग लेकर उनके साथ घर के एक दम भीतरी हिस्से में बने कमरे में गया। जहां एक तखत, एक ड्रम, कुछ बक्से रखे थे। तखत पर रखी लालटेन के पास ही उनकी पत्नी बैठी थीं जो हमारे पहुंचने पर खड़ी हो गईं।

मैंने तखत पर बैग रख कर उसमें से कपड़ों के नीचे रखे जेवरों का बक्सा निकाल कर उनके सामने रख दिया। सारे जेवर मैं जूते के एक डिब्बे में रखकर लाया था। उसी में वह ड्रॉफ्ट भी रखा था । मैंने डिब्बा उन दोनों के सामने कर हाथ जोड़ लिए। उन दोनों ने निर्विकार भाव से एक नज़र डिब्बे पर डाली फिर एक दूसरे को देखने लगे। उन्हें शांत देखकर मैं तुरंत ही बोल पड़ा ‘भाई साहब इन्हें जल्दी से रख दीजिए। कहीं कोई आ सकता है।’ मेरी बात से जैसे उनकी तंद्रा भंग हुई और पत्नी ने डिब्बे के जेवर एक बड़ी बक्स में सामानों में सबसे नीचे रखकर ताला लगा दिया। फिर उस पर कपड़े की गठरी, झोले आदि ऐसे रख दिए मानो वह कूड़ा घर हो।

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