हार गया फौजी बेटा
- प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 5
हम जल्दी ही वापस बाहर आकर अपनी खटिया पर बैठ गए। पिता भी मेरे साथ बैठे थे। हम दोनों बिल्कुल शांत थे। खाना-पीना सब खत्म होने के बाद बाहर पड़े बिस्तरों पर सब लेट गए। मेरा बिस्तर पिता के बगल में ही था। धुएं से मच्छरों का प्रकोप कम हो गया था। मगर जो थे वह परेशान करने के लिए काफी थे। एक छोड़कर बाकी सारी लालटेनें बुझा दी गयीं थीं। काली चादर हर तरफ गहरी हो चुकी थी।
आसमान में चमकते तारे न जाने क्यों अचानक ही बचपन की ओर खींच ले गए। गांव में ऐसी ही एक रात पिता, चाचा, चचेरे भाइयों के साथ सोया हुआ था कि खेतों में नील गायों के हमले का पता चला और फिर देखते-देखते पूरा गांव लालटेनें, टॉर्चें, लाठी-भाला लिए उस झुंड को खदेड़ने चल दिया था। मैं भी एक लाठी लिए चाचा के साथ हो लिया था। मगर कुछ दूर जाकर एक कीचड़ भरे गढ्ढे में गिर गया था। मेरी चीख पुकार लोगों के शोर में गुम हो गई थी। झुंड चला गया तो भगाने वाले भी चले गए। मगर किसी ने मेरी आवाज नहीं सुनी। मैं रात भर कीचड़ में पड़ा रोता, तड़पता रहा, आसमान के तारे देखता रहा। दूर कहीं भौंकते कुत्तों या किसी जानवर की आवाज सुन-सुनकर सिहर उठता। फिर कब मैं बेहोश हो गया पता नहीं चला।
जब आंखें खुलीं तो जिला अस्पताल के बेड पर था और सिर पर पिता जी का हाथ। मगर आज के इस गांव में सिर्फ़ इस घर के आगे ही दर्जन भर लोग लेटे हैं। बाकी सारे घरों के बंद दरवाजों के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। कुत्तों के भौंकने की आवाजें कभी-कभी सुनाई दे जातीं। मुझे लगा शायद कुत्ते भौंकना भी भूल गए। मेरा मन अब कुछ ज़्यादा भटक रहा था। लौट-लौट कर फिर घर पहुंच जा रहा था। शाम को बड़े लड़के की कई कॉलें आई थीं। लेकिन मैंने नहीं उठाया था, तो एक एस.एम.एस. आया गुस्से से भरा कि फ़ोन उठाते क्यों नहीं?पढ़कर मेरा पारा और चढ़ गया और एस.एम.एस. से ही जवाब दिया। मैं तीर्थ यात्रा पर निकल चुका हूं, परेशान होने की ज़रूरत नहीं। उसको एस.एम.एस. करने के बाद दिमाग में चल रहे तमाम विचारों के बीच यह बात भी आई कि सच तो है सच्चे सपूतों के कुछ काम आ सकना किसी तीर्थ से कम है क्या? करवट बदलते उधेड़बुन में उलझे मुझे बहुत देर रात नींद आई।
अगले दिन जब मैं खाने-पीने के बाद वहां से चलने को हुआ तो सबने समझा मैं वापस घर जा रहा हूं। तो पिता-दामाद बोले हम आपको अपने घर का हिस्सा मान चुके हैं। यदि घर पर कोई काम न रुक रहा हो तो कुछ दिन और रुक जाइए। मैंने मन ही मन कहा कि मेरे बिना कहां कुछ रुकने वाला है और फिर मैं तो घर हमेशा के लिए त्याग आया हूं। मेरी चुप्पी पर दामाद फिर बोला ‘बाबू जी किसी काम का हर्जा न हो रहा हो तो तेरहवीं तक रुक जाइए। मुझे भी लखनऊ चलना है। आपको साथ ले चलूंगा। ऐसे आप अकेले कहां परेशान होंगे।’ उन दोनों के आग्रह मैं टाल न सका और रुक गया।
तेरहवीं के अगले दिन चलने की मैंने तैयारी की। उससे दो दिन पहले से दिमाग में यह चल रहा था कि दामाद साथ चलने को कह रहा है। इससे कैसे अपने को अलग करूं। मगर सौभाग्य से मेरी यह समस्या अपने आप ही समाप्त हो गई। दामाद के छोटे बेटे की तबियत खराब हो गई। डायरिया से पस्त हो चुके अपने दो साल के बेटे को वह छोड़कर जाने को तैयार न हुआ। मैंने भी उससे कहा ‘बेटा बच्चे की तबियत ठीक नहीं है। तुम अभी रुक जाओ।’ इस पर उसने प्रश्न भरी नजर से देखा मुझे, तो मैंने कहा ‘परेशान मत हो मैं चला जाऊंगा। फ़ोन पर हाल-चाल लेता रहूंगा।’ वह जैसे इसी बात का इंतजार कर रहा था। तुरंत मान गया। फिर मैंने जल्दी से विदाई ली और चल दिया। वहां से आते वक़्त परिवार के कई सदस्य भावुक हो गए। पिता गले से लगकर फफक पड़े थे। बोले ‘भइया मुझसे अभागा कोई नहीं होगा। अपने इन्हीं हाथों से बेटे को अग्नि दी।’ बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत करा पाया था।
बस स्टेशन तक मुझे मोटर साईकिल से पड़ोस के एक लड़के से पहुंचवा दिया गया। स्टेशन पर मैं अजीब असमंजस में पड़ गया कि कहां जाऊं? घर तो त्याग दिया है। मन के कोने में कहीं दबी आश्रम की बात एक दम उभर आई। मगर किसी आश्रम के विषय में मुझे पता ही नहीं था। सोचते-विचारते स्टेशन की बेंच पर बैठे-बैठे मुझे आधा घंटा हो गया। इस बीच कई बसें आईं। कुछ मुसाफिर उतरे कुछ चढ़े। बसों के आते ही फेरी वालों की सक्रियता में एकदम आने वाले उफान को देखकर अचानक ही मन में आया कि आखिर ऐसी कोई व्यवस्था सरकार क्यों नहीं बनाती कि यह बेचारे भी शांति से अपना व्यवसाय कर सकें। इस बीच एक बस में अयोध्या की लगी नेम प्लेट देख एकदम से वहीं चलने की बात मन में उमड़ पड़ी। सोचा वहां अनगिनत साधू-महात्मा हैं। उनके आश्रम हैं, वहीं किसी के पास चलता हूं। संतों की सेवा करूंगा। आश्रम या मंदिर के किसी कोने में पड़ा रहूंगा और महाप्रभु राम के जन्म-स्थल पर उनकी आराधना में जीवन बिता दूंगा। वैसे भी जीवन भर कभी प्रभु का ठीक से सुमिरन नहीं किया। शायद प्रभु उसी की सजा दे रहा है।
मन में बीसों साल पहले अयोध्या के दृश्य आने लगे। जब रुक्मिणी के साथ वहां गया था। प्रभु राम की जन्म-भूमि के दर्शन के साथ-साथ दिन भर और बहुत से मंदिरों को देखा था। जगह-जगह पूजा-अर्चना की थी। पवित्र सरयू नदी के तट पर भी जाकर पूजा-अर्चना की थी। वहां हफ्ते भर एक धर्मशाला में रहकर पूरी अयोध्या को आंखों में बसा लेने की कोशिश की थी। फिर हनुमानगढ़ी भी गया था। इन दृश्यों को, रुक्मिणी को याद करते-करते तय किया चलो वहीं पहले किसी धर्मशाला में ठहरते हैं। फिर देखभाल के किसी अच्छे संत महात्मा की शरण में हो लेते हैं। इस निर्णय के साथ ही मैं बैग लेकर उठा। अयोध्या जाने वाली किसी बस के बारे में पता करने पूछताछ कार्यालय पहुंचा तो वह खाली मिला। पूछने पर पता चला किसी काम से गए हैं। थोड़ी देर में आएंगे। मैं फिर आकर बैठ गया अपनी जगह। इस बीच मैंने महसूस किया कि मन में यह मंथन भी चल रहा है कि क्या करूं क्या न करूं ? और पहले से कहीं ज्यादा गति से। और अब यह भी महसूस कर रहा था कि तन-मन बीच-बीच में घर की ओर भी खिंचा जा रहा है। पर वहां का अपमान, दुत्कार याद आते ही ठिठक भी जाता है। संत-महात्माओं के बीच कैसे बीतेगा जीवन, वहां ठहर भी पाऊंगा कि नहीं, यह संशय आते ही ठिठकना खत्म हो जाता है। अंततः ठिठकना एकदम खत्म हुआ।
क़दम मन में एक बड़ी योजना लिए बढ़ गए घर की ओर कि भागना तो कायरता है। ईश्वर वंदना घर पर भी हो सकती है। वहां अपनी व्यवस्था अलग कर रह सकूं इतनी पेंसन तो मिलती ही है। सारे बच्चों से अलग हो जाऊंगा। जिससे वे किसी तरह का बोझ न महसूस करें। फिर रुक्मिणी के नाम एक ऐसा पुरस्कार शुरू करूंगा जो हर साल उस व्यक्ति को दिया जाएगा जो अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपने मां-बाप की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करता हो। न कि उन्हें बोझ मानता हो। पहला पुरस्कार फौजी बेटे को दूंगा मरणोंपरांत। सबने गांव में बताया था कि वह अपने मां-बाप का श्रवण कुमार था। बस तेज़ी से लखनऊ की ओर चल रही थी। मैं स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था। जबकि सिर का दर्द बढ़ रहा था। मैंने खिड़की थोड़ी सी खोल ली थी कि बाहर की हवा कुछ आराम देगी।
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