1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की
प्रियंवद
(1)
‘‘तुम्हें कैसे पता ‘‘ ?
‘‘ क्या ‘‘ ?
‘‘ कि वह मर गए हैं ‘‘ ?
अभी सर्दियाँ शुरु हुयी थीं पर ठंड बहुत थी। बूढ़ी हडिड्यों वाले जल्दी पड़ने वाली इस साल की सर्दियों को कोस रहे थे। शाम से ही गीला कोहरा नीचे उतरने लगता था जो सुबह तक बना रहता। जब तक रहता, बेहद ठंडा और घना होता। इसमें पहले पेड़ा की शाखें सफेद होतीं, फिर मकानों की छतें, फिर सड़कें, नदी, घाट और फिर नावें। अक्सर यह इतना घना होता कि सड़क किनारे लगे लैम्प पोस्ट की पीली रोशनी, बेजान होते हुए केचुओं की तरह इसके अंदर पलटती रहती। शहर से दूर पुराना बंगला, और उसके पीछे बना उससे भी पुराना दो मंजिला ढाँचा, उस सुबह इसी सफेदी में ढका था। इस ढाँचे की नीचे की मंजिल पर पहले कभी पुराना अस्तबल था जिससे एक चौड़ी सुरंग दूर जंगलों में निकलती थी। अब वहाँ सिविल डिफेन्स का गोदाम था। इसमें सीढ़ियाँ, रस्सी, बाल्टियाँ, पलंग, लाठियाँ, पंखे पडे़ थे। आग बुझाने वाले लम्बे पाइप थे। इसकी ऊपर की मंजिल पर आने के लिए बनी पत्थर की सीढ़ियाँ सालों से टूटी थीं। लकड़ी की एक सीढ़ी लगा कर ऊपर आया जा सकता था। इस मंजिल पर बहुत से कामों के अलावा, मृत्यु के बाद देहदान करने वालों की सूचना का दफ्तर भी था। उनकी मृत्यु की सूचना वहाँ दी जाती थी। इस दफ्तर के लोग लाश की कानूनी कार्यवाई के बाद उसे मेडिकल कालेज पहुँचाते थे। इसके लिए गाड़ी, आदमी का बंदोबस्त यह दफ्तर करता था। इसी मंजिल के बड़े कमरे में वे बैठे थे।
वे दो थे। उनमें एक अधेड़ से ज्यादा और दूसरा उससे कुछ कम उमर का था। अधेड़ बिना रोंए वाला सिकुड़न भरा कम्बल लपेटे था। सर को उसने तीतर के परों से बनी पुरखों की खानदानी टोपी से ढक रखा था। उसकी छोटी सफेद दाढ़ी टोपी से बाहर दिख रही थी। उसका उभरा और मोटा जबड़ा टोपी में छुप गया था। कम उमर का आदमी मोटे कांच का चश्मा लगाए था। उसने बड़े कालर वाला लम्बा कोट पहन रखा था जो सर्दियों की शुरुआत में शहर के ठेलों पर बिकने लगता था। उसके कालर के अंदर एक मोटा मफलर ठुँसा हुआ था। पाँवों पर चिपकी पतलून और मोटे दाने वाला चमड़े का जूता था। चश्मे के काँच के पीछे उसकी आँखों के पपोटे सूजे हुए थे। आँखों मे एक ठहरी हुयी वीरानी थी।
कमरे का सन्नाटा इतना गहरा था कि खिड़कियां बंद होने के बाद भी पुल से गुजरती रेल के इंजन की सीटी सुनायी दे जाती थी। कमरा बड़ा था। कमरे के बीच में एक बड़ी मेज थी। मेज पर कुछ रजिस्टर, एक पेन स्टैंड, तीन पेपर वेट, गोंद की शीशी, पेन रखे थे। मेज के ऊपर तार से लटकता हुआ पीला बल्ब जल रहा था। दूसरा बल्ब कमरे के कोने की दीवार पर लगा था। इसी कोने में एक छोटी मेज पर चाय बनाने का सामान रखा था। कमरे के एक ओर कोने मे बिजली का हीटर जल रहा था। उसके पास तख्त पड़ा था। कम्बल वाला आदमी रात को वहीं सोता था। वहाँ सोना उसकी ड्यूटी में शामिल नहीं था, पर उसके पास जगह नहीं थी इसलिए सो जाता था। चश्मे वाला लड़का इस ठंडी अंधेरी सुबह मृत्यु की सूचना देने आया था। मुश्किल से दिखती हुयी लकड़ी की सीढियाँ चढ़ कर वह ऊपर आया था। देर तक खटखटाने के बाद कमरे का दरवाजा खुला था। कंबल वाला दरवाजा खोलने के बाद कीचड़ भरी आँखों से उसे देर तक घूरता रहा था। अब वे दोनों मेज के आमने सामने बैठे थे।
‘‘तुमने जवाब नहीं दिया ?‘‘ कंबल वाला बोला ‘‘तुमने जब देखा नही ंतो तुम्हें कैसे पता कि वह मर गए हैं‘‘?
‘‘मुझे पता नहीं बल्कि विश्वास है ‘‘ चश्मे वाला बोला।
‘‘मरने का‘‘ ? कंबल वाले ने पूछा।
‘‘ नहीं‘‘
‘‘फिर ‘‘ ?
‘‘उन्हें मरे हुए दो दिन हो चुके हैं इसका ‘‘
‘‘लेकिन हम सिर्फ तुम्हारे विश्वास पर कुछ नहीं कर सकते। विश्वास और सच दो अलग चीजें होती हैं।‘‘
‘‘ नहीं दोनों अलग नहीं होतीं। एक के अंदर दूसरा होता है। एक होता है तो दूसरा अपने आप होता है‘‘ चश्मे वाले ने कहा। उसकी आवाज भारी और ठहरी हुयी थी।
‘‘तुमने अभी अभी खुद ‘दूसरा‘ कहा।‘‘ कंबल वाला आगे झुक गया ‘‘यानी दोनों के अलग होने को स्वीकार किया‘‘
‘‘ नही ...कुछ स्वीकार नहीं किया। यह इसी तरह एक के होने में दूसरे का होना होता है जैसे शब्द में अर्थ, जन्म में मृत्यु या देह में आत्मा होती है‘‘
‘‘ तुम्हार मतलब है जैसे चाँद में बुढ़िया होती है‘‘?
‘‘हाँ ‘‘
‘‘जैसे बीज में पेड़ होता है‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘ जैसे खून में सुर्ख लाल रंग होता है‘‘?
इस बार चश्मे वाले ने ‘हाँ‘ नहीं कहा। वह चुप हो गया।
‘‘अब तुम्हारी बारी है ‘‘ कंबल वाला उत्तेजित हो कर खुशी से फूली आवाज में बोला। थोड़ा झुक कर उसने मेज पर कोहनियाँ टिका दीं। उसकी गर्दन कंधों से बाहर निकल आयी थी।
‘‘बारी ?...कैसी बारी ‘‘? चश्मे वाले ने उसे घूरा
‘‘ अब तुम तीन उदाहरण दो, फिर मैं दूँगा....फिर तुम, फिर मैं, फिर कोई एक जीतेगा‘‘
‘‘क्या बकवास कर रहे हो?‘‘ चश्में वाला गुर्राया ‘‘हम यहाँ कोई खेल नहीं खेल रहे हैं।‘‘
उसकी आवाज के बदलने और तेज होने से कंबल वाला सकपका गया। उसके चेहरे की चमक और खुशी दोनों बुझ गए। उसने निकली गर्दन वापस कधों में घुसा दी।
‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती ? मैं किसी की मौत की खबर लाया हूँ... उसकी दो दिन पुरानी लाश उठाने को कह रहा हूँ और तुम यहाँ खेल शुरु कर रहे हो‘‘ ?
‘‘ बाहर अभी बहुत अंधेरा और ठंड है ‘‘कंबल वाला धीरे से बुदबुदाया। उसने गहरी साँस लेकर मुँह से भाप निकाली ‘‘देखो....अभी मुँह से भाप भी निकल रही है। गाड़ी वाला...लाश उठाने वाले... पहुँचाने वाले...गवाह..मेडिकल कालेज के लोग और जरुरत हुयी तो पुलिस....अभी कोई नही मिलेगा। मिलेगा भी तो आएगा नहीं। थोड़ा दिन निकलने दो, थोड़ी ठंड कम होने दो, तब सब मिलेंगे। तब तक हमें इंतज़ार करना होगा...शायद लंबा इंतज़ार। मैंने सोचा था इस तरह हम थोड़ा समय काट सकते हैं‘‘ उसने सर झुका लिया। उसके चेहरे पर पश्चाताप था। कुछ देर उसे देखने के बाद चश्मे वाला भी मेज पर कोहनियाँ रख कर झुक गया।
‘‘तुम्हारी वह बात गलत है‘‘
‘‘ कौन सी ‘‘ ?
‘‘खून में सुर्ख लाल रंग होने की बात‘‘
‘‘क्यों‘‘ ?
‘‘लाल रंग सिर्फ गर्म ताजे खून का हेाता है। ऐसे खून का जो हथेली में भर लो तो चूजे की तरह फड़फड़ाता
है। खून जब सूख जाए या ठंडा हो जाए तब लाल नहीं रहता। कत्थई हो जाता है‘‘
कंबल वाला कुछ देर देखता रहा।
‘‘तुम तो खून के बारे में बहुत कुछ जानते हो। क्या तुमने खून देखा है‘‘?
‘‘कैसा‘‘ ?
‘‘कत्थई‘‘ ?
‘‘ सब देखते हैं पर ध्यान नहीं देते। तुमने भी देखा होगा‘‘
‘‘ पर तुमने इस बात पर इतना ध्यान क्यों दिया‘‘ ?
‘‘मैंने भी नहीं दिया था....उन्होंने ही बताया था‘‘
‘‘ किन्होंने‘‘ ?
‘‘वही ...जिनकी मौत की खबर देने आया हूँ। मरने के ठीक एक दिन पहले बताया था‘‘
‘‘अगर तुम्हारे विश्वास के अनुसार उन्हें मरे हुए दो दिन मान लें तो आज से तीन दिन पहले ‘‘?
‘‘हाँ‘‘
कंबल वाला कमर टेढ़ी करके मेज पर थोड़ा और झुक गया, इतना कि जरा सी कोशिश से अब वह मेज पर चढ़ सकता था। उसने अपनी ठोड़ी मेज की हरी रेक्सीन पर टिका दी। अब उसका सर प्लेट पर रखे उस सर की तरह लग रहा था, जैसे जादूगर प्लेट पर रख कर दिखाते हैं। उसकी आँखें फैली हुयी थीं। उनमें उत्सुकता और बैचेनी थी। चश्मे वाला मेज पर इतना नहीं झुका था इसलिए उसका सर थोड़ा ऊँचाई पर था। उसे देखने के लिए कंबल वाले को अपनी भौंहें और पुतलियाँ ऊँची करनी पड़ रहीं थीं। पर इस तरह वह ज्यादा देर नहीं देख सकता था। शायद उसे उम्मीद थी कि बात जल्दी खत्म हो जाएगी इसलिए उस समय वह उसी तरह देख रहा था।
‘‘मुझे खून का सब कुछ अच्छा लगता है‘‘ कंबल वाला फुसफुसाया ‘‘उसकी चाल...रंग...गंध...स्पर्श.... बातें सब। पर उन्होंने तुम्हें यह क्यों बताया था ? खून की बात कहाँ से शुरु हुयी थी ? क्या तुम लोग अक्सर खून की बातें करते थे ? मुझे सब बताओ...शुरु से आखिर तक‘‘ कंबल वाला फुसफुसाना छोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। उसकी खिंची नसों में तनाव बढ़ गया था इसलिए या खून की बात हो रही थी इसलिए, वह रहस्य भरी आवाज में बहुत धीरे बोल रहा था। चश्मे वाले ने उसे अविश्वास से देखा।
‘‘ तुम सचमुच यह सब जानना चाहते हो या फिर किसी नए खेल की शुरुआत कर रहे हो‘‘ ?
‘‘क्या तुम्हें मेरी आँखों में पवित्र बेचैनी और अबोध उत्सुकता नहीं दिख रही‘‘? कंबल वाला अचानक गूढ़ भाषा बोल गया। चश्मे वाले ने उसकी भाषा की जटिलता पर ध्यान नहीं दिया।
‘‘दिख रही है‘‘ चश्मे वाला कुछ क्षण उसे चुपचाप देखता रहा। शायद उसके वाक्य के अर्थ को समझने या उसकी सच्चाई परखने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद बोला।
‘‘उस दिन वह परेशान थे‘‘
‘‘यानी मौत से एक दिन पहले‘‘ ?
‘‘हाँ... या यूँ कहो कई दिनों से परेशान चल रहे थे। मैं आखरी बार उनसे तब ही मिला था। उस दिन उनकी बातों में तालमेल नहीं था। वे एक दूसरे से सीधे जुड़ी हुयी नहीं थीं। वह हमेशा तर्क के साथ, बात के ऊपर बात जमा कर बोलते थे। पर उस दिन ऐसा नहीं था‘‘
‘‘क्यों‘‘?
‘‘वह कई दिनों से एक कविता लिख रहे थे, पर सिर्फ दो पंक्तियाँ लिख पाए थे। वह अधूरी कविता पूरी करने के लिए जूझ रहे थे। फिर जैसे हारने लगे थे। हताश और निराश हो गए थे। किसी अज्ञात से डरे डरे रहने लगे थे। उनकी बेचैनी बढ़ रही थी। भूख भी खत्म हो गयी थी। अपने बोले हुए हर वाक्य को कविता की पंक्ति समझते थे या कविता की पंक्ति की तरह बोलते थे, इसलिए कोई वाक्य देर तक आगे के वाक्यों से जुड़ा नहीं रहता था‘‘
‘‘कौन सी कविता थी‘‘?
‘‘पूरी कहाँ हुयी‘‘?
‘‘जितनी भी लिखी थी...तुम्हें याद है‘‘?
‘‘ उसमें याद क्या रखना...दो ही तो पंक्तियाँ थीं। पर तुम क्यों पूछ रहे हो। क्या सुनना चाहते हो‘‘ ?
‘‘हाँ‘‘
‘‘इसी तरह‘‘? चश्मे वाले ने मेज पर रखे तनी नसों वाले उसके सर की ओर इशारा किया।
‘‘क्यों‘‘?
‘‘कुछ नही‘‘ चश्मे वाला अभी तक उसे थोड़ी ऊँचाई से ही देख रहा था। अब उसने अपना सर थोड़ा नीचे झुकाया। उसके बराबर सर ला कर कविता फुसफुसाने लगा।
तानाशाह जब हाथ हिलाता है
खुशी से रोती है जवान होती हुयी लड़की
चश्मे वाला चुप हो गया। कुछ देर सन्नाटा रहा।
‘‘बस‘‘? कुछ देर इंतजार करने के बाद कंबल वाले ने हैरानी से पूछा।
‘‘हाँ‘‘
‘‘क्या यही वह अधूरी कविता है जिसे पूरी करने के लिए वह परेशान थे‘‘?
‘‘हाँ‘‘
‘‘ और उनकी कौन सी वे बातें थीं जिनमें तालमेल नहीं था‘‘?
‘‘तुम इतनी पूछताछ क्यों कर रहे हो ? इसलिए तो निश्चित ही नहीं कि तुम्हें खून की बातें अच्छी लगती हैं। खून तो इसमें अभी आया ही नहीं‘‘?
‘‘बस दिलचस्पी है‘‘
‘‘क्या हर लाश के बारे मे इतनी दिलचस्पी रखते हो‘‘?
‘‘नहीं...लाश में मेरी कोई दिलचस्पी नही होती। पूछताछ भी नहीं करता। पर तुम हर बार भूल जाते हो। हमें समय भी तो काटना है। तो तुम बता रहे थे, उन दिनों उनकी बातों के सिरे आपस में जुड़ते नहीं थे‘‘।
‘‘ हाँ..और ऐसा बहुत बार होने लगा था‘‘
‘‘जैसे‘‘?
‘‘जैसे उसी दिन उन्होंने मुझसे पुछा ‘क्या इतिहास सचमुच अपने को दोहराता है‘? मुझे बोलने की जरुरत नहीं थी। मैं जानता था वह मुझसे नहीं खुद से पूछ रहे हैं। खुद ही उत्तर भी देंगे। वही हुआ। कुछ देर खिड़की पर खड़े होकर घरों को लौटते परिन्दों के झुंड देखते रहे, फिर बोले ‘अगर ऐसा होता है, तो जो समय दो इतिहास के बीच बह गया, उसका क्या हुआ? वह कहाँ गया? और इस समय में जो लोग थे वे कहाँ गए ? उनकी स्मृतियां, उनके स्वप्न, उनकी ईष्याएं, उनके अंहकार, राग—विराग कहाँ गए? समय इनसे ही बनता है और ये अपने को नहीं दोहराते, इसलिए किसी भी समय का कोई भी इतिहास अपने को कैसे दोहरा सकता है? नहीं...इतिहास अपने को नही दोहराता। ध्यान से देखने पर यह सच दिखायी भी देता है। हमें जिस चीज का दोहराव दिखता है, वहाँ भी वास्तव में बहुत कुछ बदल चुका होता है। बेशक सतह पर नहीं, सतह के नीचे। जैसे हत्या वही होती है पर हत्या करने के औजार बदल जाते हैं। कटे हुए इंसानी सर वही होते हैं पर उसे काटने के तर्क बदल जाते हैं। नफरत वही होती है पर उसकी पोशाकें, ज़बान, झंडे बदल जाते हैं। तानाशाह वही होता है पर उसके हाथ हिलाने पर रोने वाली जवान होती लड़कियां बदल जाती हैं।‘‘ चश्मेवाला चुप हो गया। उसने एक गहरी साँस ली। शायद इस सांस से उसके फेफड़ों में पूरी हवा नहीं पहुँची। उसने कुछ गहरी साँसें और लीं।