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भक्ति और प्रेम

'भक्ति और प्रेम'

बहुत पहले की बात है। एक बार दो अलग-अलग व्यक्तियों के मन में आया कि चलो घर का त्याग करते हैं। संसार बहुत बड़ा है जैसा खाने को मिलेगा खा लेंगे, जहाँ रहने को मिलेगा रह लेंगे...।
एक का नाम था रामानन्द और दूसरे का नाम था कृष्णानन्द..।

दोनों ने बिना किसी को कुछ बताए गृह त्याग कर दिया... करीब 8-10 दिन बाद दोनों किसी स्थान पर मिले... जब आपस में बातचीत हुई और दोनों ने अपना-अपना परिचय भी एक-दूसरे से करवाया... दोनों के विचार एक दूसरे के विचारों से मेल खाते थे, इस कारण से दोनों ने निर्णय लिया कि दोनों ही ईश्वर की खोज में एक साथ निकलेंगे...
चल पड़े दोनों साधु वेशधारी...।
दोनों को साथ रहते काफी समय गुजर गया...। कुछ दिन किसी स्थान पर रुकते भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करते... और फिर किसी नए गाँव या शहर में जाते, यही क्रम चलता रहा...।
कई बार भोजन न मिलता तो ऐसे ही हरि गुण गाते और पानी पीकर सो जाते... किसी से कोई बैर नहीं कोई शिकायत नहीं...।
ऐसे चलते-चलते वो दोनों ही हिमालय पर जा पहुँचे।
भय तो उनको किसी चीज का था ही नहीं ...।
दोनों ने आपस में कहा कि इस संसार में बहुत घूम लिए.. किसी तरह से ईश्वर के दर्शन हो जाये तो मन तृप्त हो जाए.. लेकिन वो ये तय नहीं कर पाए कि उनको ईश्वर का साक्षात्कार कब होगा?
हिमालय के सुरम्य वातावरण में उनका मन ईश भक्ति में रम गया...
जहाँ दोनों साधु रहते थे वहीं पास में ही एक नदी बहती थी...।
इसलिए दोनों साधु सुबह जल्दी उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर के स्नान करते तत्पश्चात ध्यान में बैठ जाते... इसी तरह से समय गुजरता रहा एक दिन कहीं से नारद मुनि वहाँ से जा रहे थे... दोनों ने नारद मुनि से अपनी कुटिया में आने का आग्रह किया...।
नारदजी भी उनके आग्रह को ठुकरा ना सके और कुछ देर वहाँ विश्राम करने के उद्देश्य से रुक गए...
नारदजी तो अंतर्यामी ठहरे...।
और उनसे पूछा कि आप दिनभर यहाँ भगवान का नाम सुमिरन करते हैं क्या आपने कभी प्रभु के दर्शन किए हैं?
तब दोनों साधुओं ने कहा कि "हे मुनिवर आप सब कुछ जानते हैं लेकिन फिर भी हम आपको बता देते हैं कि हमें ईश्वर की खोज में निकले हुए बहुत समय बीत चुका है, लेकिन हमें अब तक भगवान के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका..।"
तभी रामानन्द और कृष्णानन्द ने समवेत स्वर में कहा कि नारदजी हमारे बड़े भाग जो हमें आपके दर्शन हुए...।

आप तो भगवान से साक्षात भेंट करते हैं...।
हे मुनिवर इस बार जब आप भगवान से मिलें तब आप भगवान से पूछना कि हमें उनके दर्शन कब होंगे?
नारदजी ने कहा अवश्य ही मैं भगवान से पूछकर आपको जल्दी ही बता दूँगा...।

इतना कहकर नारद जी ने वहाँ से प्रस्थान किया..।
घूमते-घूमते देवऋषि नारद वैकुण्ठ धाम पहुँचे...
"प्रणाम प्रभु!, प्रणाम माते!" कहकर मुनिवर ने भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी से आशीर्वाद लिया...
भगवान विष्णु ने नारदजी से पूछा कि देवऋषि आज आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन...?
जबकि भगवान विष्णु उनके आने का कारण भली भांति जानते हैं...।
नारायण-नारायण, प्रभु! आप तो अन्तर्यामी हैं, आप चर-अचर समस्त सृष्टि के पालक हैं, आपकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता... सारी सृष्टि का संचालन आप ही तो करते हैं। इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कब कहाँ और क्या हो रहा है, आपसे कुछ भी तो छुपा हुआ नहीं है..।
आप अवश्य ही जानते हैं कि मैं यहाँ किस प्रयोजन से आया हूँ.. ।
हे मानसपुत्र , मैं भलीभाँति जानता हूँ कि आप यहाँ किस प्रयोजन से आये हैं। तो सुनो...
आपको जो दो साधु मिले थे आप उनसे कहना कि मैं उन्हें अपने दर्शन अवश्य दूँगा, किंतु...
"किन्तु क्या भगवन..?"- क्षमा करें नारद जी ने उत्ससुकता वश पूछ लिया।
भगवान विष्णु ने हँसते हुए कहा " किंतु .. जिस वृक्ष के नीचे खड़े होकर आपने बातचित की, उसी वृक्ष के जितने पर्ण हैं उतने वर्षों बाद उनको मेरे साक्षात दर्शनों का पुण्यफल प्राप्त होगा....।"
तब नारदजी ने कहा - जैसी आपकी इच्छा प्रभु! नारायण-नारायण।
तत्पश्चात नारदमुनि ने माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु से आज्ञा लेकर अपनी वीणा और करताल से संगीतमय मधुर ध्वनि के साथ नारायण-नारायण का जाप करते हुए वहाँ से प्रस्थान किया...।
वैकुण्ठ धाम से देवर्षि नारद एक बार फिर से इहलोक के उसी रमणीक स्थान पर आ पहुँचे जहाँ वे दोनों साधु ईश दर्शनों की आशा लिए प्रभु को याद कर रहे थे...।
नारदमुनि को देखकर दोनों साधुओं के मुखमंडल प्रसन्नता से खिल उठे...।

दोनों ने नारद जी को दंडवत प्रणाम करके उनका स्वागत किया... मुनिवर के बैठने के लिए चौकी का प्रबंध किया गया और खाने के लिए देवर्षि को कुछ फल भी भेंट किये...।
उसके बाद दोनों ने हाथ जोड़कर फिर वही प्रश्न किया कि "प्रभु हमें अपने साक्षात् दर्शन कब देंगे..?"
नारद जी पहले तो मन ही मन परेशान हो उठे... मन में विचार आया कि मैं इनको कह देता हूँ कि जब समय आएगा तब आपको प्रभु अपने दर्शन करा देंगे... अगर इनको सत्य का पता चलेगा तो संभवतः अब इनके मन में प्रभु के प्रति जो अटूट विश्वास है वो कमजोर न पड़ जाए, हो सकता है ये भक्ति मार्ग का त्याग भी कर दें...।

लेकिन दूसरे ही क्षण नारदमुनि ने विचार किया ये सही नहीं होगा... जो कुछ प्रभु ने मुझसे कहा ठीक वैसे ही मैं इनको कह देता हूँ, आगे प्रभु की इच्छा।
इसी तरह मुनिवर के मन में सही-गलत का द्वन्द्व चलता रहा और अंत में उन्होंने सब कुछ सच-सच बताने का निर्णय कर लिया...।
इधर दोनों साधु हाथ जोड़े हुए एकटक नारदमुनि को ही देख रहे थे...
तब नारदजी ने कहा कि "अभी हम जिस वृक्ष के नीचे हैं इसकी सखाओं के जितने पर्ण हैं उतने वर्षों बाद प्रभु आपको अपने साक्षात दर्शन देंगे...।
नारदजी से इतना सुनते ही दोनों साधुओं ने प्रभु के प्रेम में मग्न होकर सब कुछ भूलकर नाचना प्रारम्भ कर दिया...।
और नाचते-नाचते वो दोनों इतने मग्न हो गए कि उनको नारदमुनि की उपस्थिति का भी कोई ध्यान तक ना रहा...।
इस तरह नारद जी ने उन दोनों साधुओं को प्रभु प्रेम में प्रसन्नचित और बेसुध होकर नाचते देखा तो वे स्वयं को रोक न सके और नारद जी भी उनके साथ नाचने लगे...
जैसे पूरा वनप्रदेश ही प्रभु के प्रेम में डूब सा गया...।

वो तीनों तो अपनी आँखे बन्द करके कुछ ऐसे नाच रहे थे कि किसी को भी अपने अस्तित्व का ध्यान भी नहीं रहा...
नाचते-नाचते तीनों अपनी सुध-बुध ही खो बैठे...
जब प्रभु ने ये दृश्य देखा तो वे भी अपने आपको रोक ना सके... और वहाँ आकर उनके साथ ही नाचने लगे...

आहा! कितना सुंदर और कितना मनोरम दृश्य ...

तभी अचानक नारदमुनि की आँखें खुल जाती हैं और वहाँ प्रभु को नाचते हुए देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठते हैं। और प्रभु से पूछते हैं कि हे भगवन आपने ही तो कहा था कि मैं इनको कई हज़ार वर्षों बाद दर्शन दूँगा, किंतु आप तो अभी इनके साथ नृत्य कर रहे हैं।

तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैंने उस समय वही कहा था जो विधाता ने इनके प्रारब्ध में लिखा था।
परन्तु अब तुम जो देख रहे हो वो भी सही है, क्योंकि भक्ति मार्ग से मुझे तब प्राप्त करते जो समय इनके लिए विधाता ने तय किया था।

इसी क्रम में भगवान विष्णु ने कहा कि जब दोनों साधु मेरे प्रेम में मग्न होकर इस तरह से सब कुछ भूलकर नाचने लगे तो प्रेम के वश होकर मैं भी अपने आपको रोक ना पाया... और मुझे यहाँ आना पड़ा... ।
हे मानसपुत्र जो भी मुझसे प्रेम करेगा और सच्चे हृदय से मुझे पुकारेगा तो वो सहज में ही मुझे प्राप्त कर लेगा...।

तब नारदजी ने मुस्कुराते हुए प्रभु को प्रणाम किया और कहा हे प्रभु! हे जगदीश्वर आपकी लीला को कोई नहीं जान सकता, आपकी महिमा तो अपरम्पार है... ऐसा कहकर नारदजी जी फिर से झूमने लगे...।

___'समाप्त'
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✍️ परमानन्द 'प्रेम'

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