पूर्णता की चाहत रही अधूरी
लाजपत राय गर्ग
बारहवाँ अध्याय
नवम्बर के अन्तिम सप्ताह का शुक्रवार।
हरीश जब शाम को घर पहुँचा तो सुरभि ने चाय तैयार कर रखी थी, क्योंकि हरीश ने उसे ऑफिस से फ़ोन करके कह दिया था कि आज फ़िल्म देखने चलेंगे। चाय पीते हुए सुरभि ने पूछा - ‘कौन-सी फ़िल्म दिखा रहे हो?’
‘आज ‘फूल और काँटे’ रिलीज़ हुई है। ‘डिम्पल थियेटर’ के मालिक का फ़ोन आया था। कह रहा था, सर, बहुत अच्छी मूवी है। शाम वाले शो में आ जाओ। मैंने मना करना उचित नहीं समझा और तुम्हें फ़ोन कर दिया।’
‘कौन-कौन हैं इस फ़िल्म में?’
‘हीरो तो अजय देवगन है और हीरोइन है मधु।’
‘यह मधु नाम तो पहले कभी सुना नहीं?’
‘सुरभि, यही सवाल मैंने भी गुप्ता जी से किया था। मधु बहुत ख़ूबसूरत बतायी जाती है, क्योंकि वह ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी की कज़िन सिस्टर है। बाकी अपन तो गुप्ता जी के आग्रह पर चल रहे हैं। फ़िल्म जैसी भी होगी, देख लेंगे। अपने तीन घंटे पास हो जायेंगे।’
‘टाइम पास ही क्यूँ, मनोरंजन भी तो होगा। यहाँ आने के बाद तो अभी तक थियेटर की ओर रुख़ भी नहीं किया।’
‘इसीलिये तो चल रहे हैं।’
फ़िल्म समाप्त होने से कुछ मिनट पूर्व गेट कीपर ने हरीश के पास आकर कहा - ‘सर, फ़िल्म ख़त्म होने के बाद गुप्ता साहब से मिलकर जाना।’
जब फ़िल्म समाप्त हुई तो हरीश सुरभि और बच्चों को पोर्च में रुकने के लिये कहकर गुप्ता जी से मिलने पहुँच गया। उसे अकेला देखकर गुप्ता जी बोले - ‘सर, आप अकेले! बच्चे कहाँ हैं?’
‘गेट कीपर ने आपका मैसेज दिया था, सो मिलने आ गया। बच्चे पोर्च में इंतज़ार कर रहे हैं।’
‘यह भी कोई बात हुई, आपका अपना थियेटर है और बच्चे बाहर खड़े हैं?’ साथ ही गुप्ता जी ने बेल का बटन दबाया। सेवादार तुरन्त हाज़िर हो गया।
‘बहादुर, पोर्च में मैडम और दो बच्चियाँ खड़ी होंगी, उन्हें ले आओ।’
सुरभि और बच्चे जब गुप्ता जी के ऑफिस में दाखिल हुए तो गुप्ता जी ने उठकर सुरभि को नमस्ते की और बच्चियों के सिर पर हाथ रखा और कहा - ‘भाभी जी, हरीश जी ने बड़ी ज़्यादती की कि आपको बाहर खड़ा कर दिया।’
‘नहीं भाई साहब, ऐसी कोई बात नहीं। लेट हो रहे थे। घर जाकर खाना भी तो बनाना है।’
‘अरे भाभी जी, खाना बनाने की चिंता छोड़ो। खाना मैंने घर से मँगवा रखा है। वैसे तो मैं आपको घर ही लेकर चलता, लेकिन बहुत लेट हो जाते। कभी फ़ुरसत में दिन में घर बुलाऊँगा आपको।’
गुप्ता जी ने दुबारा बेल दी और बहादुर के आने पर उसे खाना लगाने को कहा। खाना खाने के बाद हरीश और सुरभि ने गुप्ता जी का धन्यवाद किया और जाने की इजाज़त ली।
घर आते हुए पम्मी ने कहा - ‘पापा, गुप्ता अंकल बहुत अच्छे हैं। फ़ोन करके हमें फ़िल्म देखने के लिये बुलाया और घर का बना हुआ खाना भी खिलाया।’
‘बेटे, गुप्ता जी दूसरे सिनेमा वालों की तरह नहीं हैं। ये ईमानदार इंसान हैं, इसलिये मैंने इनको ना नहीं कही।’
‘तो क्या दूसरे सिनेमा वाले ईमानदार नहीं हैं?’
‘बेटे, दूसरे सिनेमा वाले कई तरह की गड़बड़ियाँ करते हैं, इसलिये मैं तुम्हें कभी दूसरे सिनेमा में लेकर नहीं गया।’
........
शनिवार को मीनाक्षी ने हरीश को फ़ोन किया और पूछा - ‘हरीश, आज और कल तुम्हें कहीं जाना तो नहीं?’
‘नहीं मैम, इस बार तो यहीं रहूँगा। कोई काम है तो बताओ?’
‘हरीश, तुम आज सुरभि और बच्चों को लेकर अम्बाला आ जाओ। रात को मेरे पास ही रुकना।’
‘मैम, आ तो मैं जाऊँगा, लेकिन कोई वजह तो बताओ?’
‘क्या मैं अपने भाई और उसके बच्चों को एक रात के लिये अपने पास नहीं बुला सकती?’
‘ठीक है मैम, जब रात को रुकने के लिये कह रही हैं तो हम शाम तक आते हैं।’
फ़ोन पर हुई कुछ बातें सुरभि के कानों में पड़ गयी थीं। अतः जब हरीश ने फ़ोन रखा तो उसने पूछा - ‘मैडम किस लिये बुला रही हैं?’
‘यह तो उन्होंने नहीं बताया। बस इतना कहा कि क्या मैं अपने भाई और उसके बच्चों को एक रात के लिये अपने पास नहीं बुला सकती? सुरभि, वैसे तो मैडम ने कई बार कहा कि मैं उन्हें बहिन मान सकता हूँ, लेकिन आज पहली बार सीधे भाई कहा है। अब वजह कुछ भी हो, चार-एक बजे चलते हैं। तब तक बच्चे अपना होमवर्क भी कर लेंगे।’
‘हरीश, जब मैडम ने इतने अधिकार और प्यार से बुलाया है तो साथ लेकर जाने के लिये मिठाई या फल ले आओ।’
‘वो तो मैं लाऊँगा ही। तुम चार से लेट ना करना।’
..........
शाम को जब वे अम्बाला पहुँचे तो मीनाक्षी और मौसी जैसे उनका ही इंतज़ार कर रही थीं। मीनाक्षी ने बच्चों के लिये पेस्ट्री और पैटीज मँगवा रखी थीं। जब सुरभि मौसी को प्रणाम करके मिठाई का डिब्बा पकड़ाने लगी तो मौसी ने कहा - ‘बेटे, तुम क्यों मिठाई लाये, मिठाई तो हम खिलायेंगे तुम्हें।’
सुरभि समझी नहीं, किन्तु मौसी की बात सुनते ही हरीश को दीवाली के मौक़े पर कही मीनाक्षी की बात याद आ गयी और उसने आगे बढ़कर मीनाक्षी और मौसी को बधाई दी। फिर सुरभि को बताया कि मीनाक्षी मैम का विवाह होने जा रहा है।
चायादि लेने के बाद जब पम्मी और स्वीटी लॉन में खेल रही थी और शेष सभी ड्राइंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे तो मौसी ने हरीश को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘बेटे, मैंने मीनू से इसके भाइयों को अमरीका टेलीफोन करवाया था कि वे विवाह पर आयें, लेकिन उन्होंने अपनी मजबूरी बतायी। वे नहीं आ रहे। मीनू तुम्हें अपना छोटा भाई मानती है। मैं चाहती हूँ कि इसके विवाह में तुम भाई बनकर कन्यादान की रस्म निभाओ।’
हरीश कुछ कहता, उससे पहले ही मीनाक्षी ने कहा - ‘मौसी, हरीश को मैं अपने भाई जैसा ही मानती रही हूँ। आज मैं इसे अपना धर्म-भाई बनाती हूँ। सुरभि, तुम्हें तो कोई एतराज़ नहीं?’
सुरभि - ‘दीदी, मुझे एतराज़ क्यों होगा? बल्कि मैं तो ख़ुश हूँ कि मुझे बड़ी ननद का स्नेह मिलेगा और बच्चों को बुआ का लाड़-प्यार।’
मौसी - ‘मीनू, भाई-भाभी को तिलक करो।’
मीनाक्षी ने तिलक की थाली पहले से ही तैयार कर रखी थी। तुरन्त उठी और ले आयी। ज्यों ही उसने हरीश और सुरभि का तिलक करके उनका मुँह मीठा करवाया, दोनों ने उठकर उसके चरणस्पर्श किये।
मौसी - ‘मीनू, बेटियों को भी बुला ले। इस शुभ घड़ी में उनका भी मुँह मीठा करवा।’
मीनाक्षी बाहर जाने लगी तो हरीश ने उठते हुए कहा - ‘मैम, आप बैठो। मैं बुलाता हूँ।’
‘हरीश, भाई बन गये हो, अब भी ‘मैम’ कहोगे? ....... अब के बाद ‘मैम’ कहा तो मारूँगी।’
‘सॉरी मैम....ना..ना..ना, दीदी।’
सभी की हँसी छूट गयी।
‘हरीश, अब तुम मेरा नाम भी ले सकते हो, क्योंकि जो रस्म तुम्हें निभानी है, उससे तुम्हारा रुतबा बड़ा होने जा रहा है।’
‘वो तो रस्म होगी, लेकिन आप दीदी तो हमेशा रहेंगी और वह भी बड़ी। इसलिये नाम तो मैं नहीं ले पाऊँगा।’
मौसी - ‘भाई-बहिन का यह प्यार सदा बना रहे। फिर कैसे भी बुला लो, क्या फ़र्क़ पड़ता है!’
दूसरे दिन हरीश और सुरभि विदा लेने लगे तो मीनाक्षी ने सुरभि को साड़ी और पम्मी-स्वीटी को ड्रेसेज़ और चॉकलेट का बॉक्स दिया तो सुरभि ने कहा - ‘दीदी, बच्चों को तो चलो ठीक है, किन्तु मुझे साड़ी क्यों?’
‘हरीश तो आता रहता है, तुम तो पहली बार आयी हो अपनी ननद के पास।’
‘दीदी, आपके लिये लाना तो हमें था। हम तो कुछ लाये नहीं।’
‘फ़िक्र ना कर सुरभि। आगे से मैं ही लिया करूँगी।’
मौसी - ‘रख ले बेटे। अब शादी में तुम्हीं को सारा कामकाज देखना होगा।’
सुरभि - ‘मौसी जी, यह भी कोई कहने की बात है। परमात्मा सब अच्छा करेंगे।’
क्रमश..