भीषण गर्मी में भी सुमित्रा जी का घर, हरियाली की वजह से ठंडा रहता है। आम के पेड़ों ने चारों तरफ से घर को घेर रखा है। सुबह तिवारी जी पम्प चला देते हैं। क्यारियों में मेड़ बनी है। पम्प चालू होते ही पानी सरसराता हुआ क्यारियों में बहने लगता है। हवा अपने आप ठंडी हो जाती है फिर। दोनों बहनें अपनी अपनी चाय का गिलास ले के झूले पर बैठ गईं। इस वक़्त कुंती का प्यार और सुमित्रा जी के प्रति दर्शाई जाने वाली चिंता से आप अनुमान ही नहीं लगा सकते कि उसने इतने खेल खेले होंगे।
"काय बैन, घुटने में दर्द रहने लगा का तुमें? पिछली बार आये थे तब तो नईं था। आराम से बैठियो बैन, रुको हम झूला पकड़ें हैं, कब बैठो। गिरियो न।"
कुंती की आवाज़ में अतिरिक्त चिंता थी।
"हम तो ठीक हैं। तुम इतै आओ और ज़रा बताओ कि जे का हाल हो गया तुम्हारा? आंखों के नीचे ऐसी झाइयाँ तो कभी न थीं...."
सुमित्रा जी के हाल पूछते ही कुंती एकदम फफक के रो पड़ी।
"अरे का भओ बैन!! रोओ नईं.....हमें बताओ तो मन हल्को हुइये कछु। '
"सुमित्रा....बैन हमारे कर्मों की सज़ा मिल रही हमें। हमारे ही बच्चों ने नचा डाला। दोनों लड़के तो बाहर हैं, तुम जानती हो। हम अकेले गाँव के इतने बड़े मकान में का करें? परिवार के अधिकतर लोग अब बाहर हैं। कुछ बूढ़े बूढ़े बचे हमारे जैसे। रात भर नींद नहीं आती गाँव में रहो तो। किशोर का जबसे ट्रांसफर हुआ तब से ज़्यादा परेशानी हो गयी। किशोर के लड़के एक नम्बर के चालाक हैं। उनका काम होता है तो मीठा मीठा बोल के करवा लेते हैं उसके बाद जाओ अपने रस्ते। चारों घरों में जब ज़रूरत होती हैं, हमें फुटबॉल की घांईं लुढ़काते रहते। हमारी अब उमर न रह गयी कुंती इधर-उधर होने की।"
इतना कहते कहते कुंती की रुलाई फिर शुरू हो गयी। कुंती के रोने से सुमित्रा जी भी उदास हो गईं लेकिन उन्हें अब तक ये बात समझ में नहीं आ पा रही थी कि बच्चों के पास रहने में कुंती को क्या तक़लीफ़ है? क्या सचमुच वे अपना काम निकालना चाहते होंगे?
"जानती हो उस साल क्या हुआ?"
सुमित्रा जी को सुनाते-सुनाते कुंती पूरी तरह उस याद में गुम हो गयी थी....!
किशोर के बड़े लड़के को झांसी में घर बनवाना था तो बड़ी चिरौरी करके कुंती को ले गया।
"अम्मा दादी, तुमाय बिना कछु नईं हौने। तुमसें पूछे बिना एक ईंट लौ नईं धरने हमें। जैसो तुम कैहो, वैसई घर बने। तुमाओ कमरा अलग सें बने। फिर तुम रइयो मज़े सें। चलो अब बांधो अपनौ सामान। उठो हम गाड़ी लँय हैं सो निकारौ फटाफट।"
घर का बड़ा पोता, किशोर का बेटा राहुल वैसे भी कुंती को बहुत प्यारा था।
जब छोटा था तब कुंती ने उसे अपने ही माँ-बाप के प्रति भड़का भड़का के, मां से दूर कर लिया। अब बड़े होने के बाद उसे सच्चाई तो नज़र आने लगी, लेकिन लोगों को देखने का नज़रिया उसका कुंती जैसा ही हो गया। चालाकी कूट कूट के भरी थी उसमें। जब उसे ज़रूरत होती, तो कुंती को लाड़ लड़ा के अपने साथ ले जाता। जैसे ही ज़रूरत पूरी होती, कुंती उसे बोझ लगने लगती। ऐसी ऐसी हरक़तें करता कि कुछ दिन बाद कुंती खुद ही वापसी का प्लान बना लेती। उसकी चालाकियां कुंती को भी समझ में आने लगी थीं। वही हाल छोटू का था। माँ की इतनी चालबाजियां उसने बचपन से देखी थीं, कि माँ के प्रति कभी आदर का भाव उसके मन में रहा ही नहीं।
घर बनने का काम जब चल रहा था तब मना मना के ले गया बड़ा पोता राहुल। जब भी पैसों की कमी पड़ती तो कुंती के आगे रोता-झींकता। कुंती तुरंत अपना एटीएम कार्ड उसके आगे पेश कर देती। गाँव मे रहने के कारण कुंती के खर्चे कम थे, सो बैंक अकाउंट भरपूर रहता। राहुल ने जम के इस्तेमाल किया कुंती के एटीएम का। मजदूर काम कर रहे होते तो दिन भर कुंती कुर्सी डाले बैठी रहती। लेकिन जैसे ही काम ख़त्म हुआ, गृह प्रवेश की पूजा हुई, राहुल ने ये कहते हुए कुंती को गांव टरका दिया कि अब काम की थकान उतारने मियां बीबी कहीं घूमने जाएंगे तो तुम अकेली का करोगी अम्मा दादी?
नए बने, आधुनिक सुविधाओं से लैस घर में कुंती चार दिन भी न रह पाई।
राहुल के लिए किए गए बेहिसाब खर्चों को छोटू के बेटे सुबोध ने भी देखा, और अब जब उसका घर बनना था, तो उसने भी कुंती से उतने ही पैसों की मांग की जितना राहुल के लिए खर्च किया। कुंती तो पहले ही सब लुटा चुकी थी, अब उतना कहाँ से देती? फिर सुबोध पर उसका राहुल जितना प्यार भी न था। मामला बस यहीं बिगड़ गया। सुबोध और छोटू ने खूब खरी खोटी सुनाईं।
क्रमशः