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अधिकार




अधिकार

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहाँ प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…। सच तो यह है कि प्रेम में जहाँ अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ प्रेम समाप्त हो जाएगा । उपरोक्त पंक्तियां पढ़ते-पढ़ते विनय ने आँखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का । क्या उसके साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा है ? अतीत का एक-एक पल विजय की स्मृतियों में विचरने लगा…

जब वह छोटा था तभी उसके पापा गुजर गए । उसे और उस की छोटी बहन संजना को उसकी माँ सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था ।

वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब माँ बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं । अपने जीवन काल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था । पेंशन भी ज्यादा नहीं थी । माँ को आज से ज्यादा कल की चिंता थी । उसकी और संजना की उच्चशिक्षा के साथ-साथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी । उनका मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है । कुछ रकम होगी तो दहेज लोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आज के युग में आसान नहीं है ।

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था । फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन दोनों को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया । माँ ने उनकी देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी । आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की । इसके लिए उन्होंने ट्यूशन भी पढ़ाए । उन दोनों ने भी माँ के विश्वास को भंग नहीं होने दिया । माँ की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उसे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया । स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उसको पहचान भी मिली । यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया ।

संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया
। उसने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया । बच्चों को अपने-अपने सपने पूरे करते देख माँ को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जायें कि उनकी अनदेखी करने लगें । अब वे उनके प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं । माँ स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उनके मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करने लगीं थीं ।

विनय और संजना ने कभी उनकी इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि माँ का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है । भला माँ को उनकी चिंता नहीं होगी तो किसे होगी.... ?

माँ की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उसकी एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई । संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था । माँ ने उसके विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…। संजना अभी विवाह नहीं करना चाहती थी । वह रिसर्च कर अपना कैरियर बनाना चाहती थी । उसने अपना पक्ष रखा तो माँ ने यह कहकर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए ।

संयोग से एक अच्छा घर-परिवार मिल ही गया । संजना के मना करने के बावजूद माँ ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया । विनय ने जब संजना का साथ देना चाहा तब माँ ने उससे कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो । मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूँ । तुम स्वयं जाकर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूँगी और जहाँ तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है । विनय तब समीर से मिला था...उसमें उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई । आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खाते पीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है , जानकर उसे संतुष्टि हुई ।

समीर इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है । माँ ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उसके अनुसार उसे उनका सोचना गलत भी नहीं लगा । वे एक माँ हैं, हर माँ की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें .. .आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. । संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया । संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त होकर माँ कुछ दिनों की छुट्टी लेकर विनय के पास आईं । एक दिन बातों-बातों में उसने अपने मन की बात उनके सामने रखते हुए कहा, ‘माँ अब आपकी सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं । अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो । ’

बेटे के मुख से यह बात सुनकर माँ भावविभोर हो गईं । आखिर इससे अधिक एक माँ को और क्या चाहिए !! उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया । कुछ ही दिनों में वे उस घर को किराए पर उठाकर तथा वहाँ से कुछ आवश्यक सामान लेकर उसके पास आ गईं । उसने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह माँ का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी । घर के खर्च के पूरे पैसे माँ को लाकर दे देता, हर जगह अपने साथ लेकर जाता, उनकी हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता । धीरे-धीरे पुत्र की जिंदगी में उनका दखल बढ़ता गया । वे उससे एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं । अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो माँ कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी ।'

माँ अपने जीवन का अनुभव बाँट रही थीं पर यह नहीं समझ पा रही थीं कि उनका बेटा अब बड़ा हो गया है, उसकी भी कुछ आवश्यकताएं हैं, इच्छाएं हैं । दिन में 3-4 बार फोन करतीं , रात को अगर आने में देर हो जाती तो 10 तरह के सवाल करतीं इसलिए वह मित्रों की पार्टी में भी सम्मिलित नहीं हो पाता था । झुंझलाहट तब और बढ़ जाती जब देर रात तक उसे आफिस में रुकना पड़ता और माँ को लगता कि वह अपने मित्रों के साथ घूमकर आ रहा है । माँ के तरह-तरह के प्रश्न उसे क्रोध से भर देते...विशेषतया तब, जब वे घुमा फिरा कर यह जानने का प्रयत्न करतीं कि उसके मित्रों में कोई लड़की तो नहीं है । उनका आशय समझ कर भी वह उन्हें कुछ नहीं कह पाता था तथा माँ का अपने प्रति अतिशय प्रेम, चिंता समझ कर टालने की कोशिश करता ।

माँ का उसकी जिंदगी में दखल और माँ के प्रति उसका अतिशय झुकाव भाँप कर मित्रों ने माँ की पूँछ कहकर उसका मजाक बनाना प्रारंभ कर दिया । कोई कहता यार, तू तो अभी बच्चा है, कब तक माँ का आँचल पकड़ कर घूमता रहेगा ? आँचल छोड़कर मर्द बन, कुछ निर्णय तो अपने आप ले !!

मित्रों की बात सुनकर उसका आत्मसम्मान डगमगाता, स्वाभिमान को चोट लगती पर चुप रह जाता । अब उसे लगने लगा था कि माँ का अपने बच्चे के प्रति प्यार स्वाभाविक है पर उसकी सीमा रेखा होनी चाहिए, बच्चे को एक स्पेस मिलना चाहिए । कम से कम उसे इस बात की तो छूट देनी चाहिए कि वह कुछ समय अपने हमउम्र मित्रों के साथ बिता सके । आज भी उस के मन में माँ का स्थान सर्वोपरि है । आखिर माँ ही तो है जिसने न केवल उसे जिंदगी दी, उसे इस मुकाम तक पहुँचाने में कितने ही कष्ट सहे । फिर मन में तरह-तरह के प्रश्न और शंकाएं क्यों ? वे अब भी जो कर रही हैं ,उसमें उनका प्यार छिपा है । माँ ने जीवन दिया है अगर वे ले भी लें तो भी इनसान उनके कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता ।

निदा फाजली ने यूँ ही नहीं लिख दिया… ‘मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार , दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार…। ’ साल दर साल बीतने लगे. उसके लगभग सभी मित्रों के विवाह हो गए । वे अकसर उससे कहते यार , कब मिठाई खिला रहा ह?'

वह मुस्करा कर कहता, ‘मुझे आजादी प्यारी है, अभी मैं बंधन में बंधना नहीं चाहता ।’

इस बीच कई रिश्ते आए पर माँ को कोई लड़की पसंद नहीं आती थी । कहीं परिवार अच्छा नहीं है तो कहीं लड़की….अगर सब कुछ ठीक रहा तो लेन-देन के मसले पर बात टूट जाती । उसे समझ में नहीं आ रहा था कि माँ ऐसा क्यों कर रही हैं , जिस दहेज की समस्या से वह संजना के समय त्रस्त थीं वही दहेज का लालच अब उनमें कैसे समा गया ?

एक रिश्ता तो उसकी कंपनी में ही काम कर रही एक लड़की विशाखा का था । उस के माता-पिता इस रिश्ते के लिए इसलिए ज्यादा उत्सुक थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दोनों के एक ही कपंनी में काम करने से वे एक दूसरे की समस्याओं को अच्छी तरह समझ पाएंगे, लेकिन माँ को वह लड़की ही पसंद नहीं आई ।

उसने कुछ कहना चाहा तो बोलीं, ‘तू अभी बच्चा है । शादी विवाह ऐसे ही नहीं हो जाता, बहुत कुछ देखना और सोचना पड़ता है । उसकी नाक इतनी मोटी और चपटी है कि अगर उससे तेरा विवाह हो गया तो आगे की सारी पीढि़यां चपटी नाक ले कर आएंगी ।’

उस ने कभी माँ की बात नहीं काटी थी तो अब उनसे कैसे कहता कि उसे लड़की का रंगरूप, सूरत सीरत ठीक ही लगी है । नाक भी ऐसी मोटी या चपटी तो नहीं है, जैसा आप कह रही हैं । पता नहीं माँ ने बहू के रूप में कैसी लड़की मन में बसा रखी है !! अब वे क्यों भूल रही हैं कि हर लड़की सर्वगुणसंपन्न नहीं होती ।

सच तो यह है वह इस रिश्ते के आने से पहले कई बार आफिस कैंपस में उस लड़की को देख चुका था । आँखें भी मिली थीं । शायद चाहने भी लगा था. ...उस दिन वह बहुत ही निराश हुआ था । उसे अपना एक सपना टूटता महसूस हो रहा था... पर माँ के खिलाफ जाकर कुछ कहने या करने का प्रश्न ही नहीं था । वह सब कुछ सहन कर सकता था पर माँ की आँखों में आँसू नहीं ।

दिन बीत रहे थे... बच्चों के स्कूलों की छुट्टी हो गई थी । माँ ने संजना को छुट्टियों में बुला लिया तो उसे भी लगा कि चलो, अच्छा है दिलदिमाग पर छाई नीरसता से मुक्ति मिलेगी । संजना के आते ही घर में रौनक हो गई । उसका 2 वर्षीय बेटा दीप तो उसे छोड़ता ही नहीं था… ‘मामा, हमें यह चाहिए, हमें वह चाहिए. । ’ और वह उस की डिमांड पूरी करते-करते थकता नहीं था ।

संजना ने उसके थके दिल को संजीवनी दे दी थी लेकिन आज की घटना ने उसके धैर्य के सारे बंधन तोड़ डाले थे...। एक फिर सुबह की घटना उसके मनमस्तिष्क में चलचित्र की भांति घूमने लगी….

‘‘भैया, कब तक यूँ ही अकेले रहोगे । अब तो भाभी ले आओ । आखिर माँ कब तक तुम्हारी गृहस्थी संभालती रहेंगी. इन्हें भी तो आराम चाहिए ? ’’ संजना ने बातों बातोें में उससे कहा ।

‘‘कोई लड़की पसंद आए तब न । विवाह गुड्डे गुडि़यों का खेल तो नहीं, जो किसी से भी कर दें ।’’उसकी जगह माँ ने उत्तर दिया ।

‘‘आखिर भैया को कैसी लड़की चाहिए. मुझे बता दो, मैं ढूँढ लूँगी ।’’

‘‘अरे, विनय, संजना को जलेबी पसंद है, आज छुट्टी है, अभी दीप सो रहा है, जा ले आ वरना वह भी तेरे पीछे लग जायेगा ।’’ माँ ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा ।

‘‘ठीक है माँ । ’’ उसने कपड़े बदले तथा चला गया । अभी आधी सीढ़ी ही उतरा था कि उसे याद आया कि बाइक की चाबी लेना तो भूल गया । चाबी लाने वह उलटे पैर लौट आया । घंटी बजाने ही वाला था कि माँ की आवाज सुनाई दी….

‘‘तू बार-बार विनय के विवाह के लिए मुझ पर क्यों दबाव डालती है । अरे, अगर उस का विवाह हो गया तो क्या तू ऐसे आकर यहाँ रह पाएगी या मैं घर को अपने अनुसार चला पाऊँगी । हर बात में रोक -टोक मुझ से सहन नहीं होगी ।’’ माँ की आवाज आई.

‘‘पर माँ यह तो ठीक नहीं है । भैया तुमसे बहुत प्यार करते हैं । भला तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो ?’’

‘‘इस दुनिया में हर इनसान स्वार्थी है, फिर मैं क्यों नहीं बन सकती ? मैंने इतने कष्ट झेले हैं अब जाकर कुछ आराम मिला है फिर कोई आकर मेरे अधिकार छीने यह मुझ से सहन नहीं होगा ।’’

‘‘माँ, अगर भैया को तुम्हारी इस भावना का पता चला तो !!’’ संजना ने आक्रोश भरे स्वर में कहा.

‘‘पता कैसे चलेगा… ? यह मैं तुझ से कह रही हूँ, अब तुझ पर इतना विश्वास तो कर ही सकती हूँ कि इस राज को राज ही रहने देगी.’’

‘‘पर माँ…’’

‘‘इस संदर्भ में अब मैं एक शब्द नहीं सुनना चाहती । तू अपनी गृहस्थी संभाल और मुझे मेरे तरीके से जीने दे ।’’

‘‘अगर ऐसा था तो तुमने मेरा विवाह क्यों किया ? तुम्हारे अनुसार मैंने भी तो किसी का बेटा छीना है ।’’

‘‘तेरी बात अलग है । तू मेरी बेटी है, तुझे मैंने अच्छे संस्कार दिए हैं ।’’ इससे आगे विनय से कुछ सुना नहीं गया वह उलटे पाँव लौट गया ।

लगभग 1 घंटे बाद माँ का फोन आया । मन तो आया बात न करे पर फोन उठा ही लिया....

‘‘कहाँ हो तुम, बेटे ? इतनी देर हो गई, चिंता हो रही है ।’’ आज माँ के स्वर की मिठास पर उसे वितृष्णा हो आई पर फिर भी आदतन सहज स्वर में बोला, ‘‘कुछ दोस्त मिल गए हैं, नाश्ते पर इंतजार मत करना, मुझे देर हो जाएगी ।’’

‘‘तेरे दोस्त भी तो तेरा पीछा नहीं छोड़ते । अच्छा जल्दी आ जाना वरना दीप उठते ही तुम्हें ढूँढेगा ।’’

माँ का कई बार फोन आते देख उसने स्विच औफ ही कर दिया। लगभग शाम को लौटा तो माँ के तरह-तरह के प्रश्नों के उत्तर में उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘अचानक बौस ने बुला लिया, उनके साथ किसी प्रोजैक्ट पर बात करते-करते गहमागहमी हो गई ।आज प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिए, बहुत थक गया हूँ ।’’

माँ को अचंभित छोड़कर वह अपने कमरे में चला गया तथा कमरा बंद कर लिया...

‘‘पता नहीं क्या हो गया है इसे, आज से पहले तो इसने ऐसा कभी नहीं किया ।’’

‘‘भैया कह रहे थे कि बौस से कुछ गहमागहमी हो गई है...हो सकता है कुछ आफिस की परेशानी हो ।’’

‘‘अगर कुछ परेशानी भी है तो ऐसे कमरा बंद करके बैठने से थोड़े ही हल हो जाएगी, आज तक तो हर परेशानी मुझ से शेयर करता था फिर आज… कहीं उस ने वह बात…।’’

‘‘माँ…तुम भी न जाने क्या क्या सोचती रहती हो…।’’

उसके कानों में दीदी के वाक्य पड़े । खाने के समय माँ व दीदी उससे खाने के लिए कहने आईं पर उसने कह दिया, ‘‘ मुझे भूख नहीं है, मैंने उनके साथ ही खा लिया था ।’’

विनय जानता था कि उसके इस व्यवहार से माँ और दीदी दोनों आहत होंगी पर वह अपने आहत मन का क्या करे? मन नहीं लगा तो वह किताब ले कर बैठ गया. वैसे भी किताबें उसकी सदा से साथी रही थीं.

उस की लाइब्रेरी शरतचन्द्र से लेकर चेतन भगत, शेक्सपियर से लेकर हैरी पौटर जैसे नए पुराने लेखकों की किताबों से भरी पड़ी थी । जब मन भटकता था तो वह किताब लेकर बैठ जाता । मन का तनाव तो दूर हो ही जाता, मन को शांति भी मिल जाती थी ।

मन को स्थिर करने के लिए हाथ में पकड़ी पुस्तक की उन पंक्तियों को वह पुनः पढ़ने के लिए विवश हो गया...तो क्या अब माँ के प्रेम में स्वार्थ आ गया है जिससे उनमें अनचाहा डर पैदा हो गया है ?

परिस्थितियों पर नजर डाली तो लगा माँ का डर गलत नहीं है पर उनका सोचना तो गलत है । उन्हें यह क्यों लगने लगा है कि कोई दूसरा आकर उनसे उनका अधिकार छीन लेगा । अगर वह अपना निस्वार्थ प्रेम बनाए रखती हैं तो अधिकार छिनेगा नहीं वरन उस में वृद्धि ही होगी । अगर मैं उन का सम्मान करता हूँ, उनकी हर इच्छा का पालन करता हूँ तो क्या उनका कर्तव्य नहीं है कि वे भी मेरी इच्छा का सम्मान करें, मुझे बंधक बना कर रखने के बजाय थोड़ी स्वतंत्रता दें । अगर माँ मेरे विवाह का प्रयास नहीं चाहतीं तो मैं स्वयं प्रयास करूँगा । आखिर मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं. मैं कर्तव्य के साथ अधिकार भी चाहता हूँ. माँ को मुझे मेरा अधिकार देना ही होगा । मैं संजना से बात करूँगा, अगर उसने साथ दिया तो ठीक वरना मर्यादा लांघनी ही पड़ेगी । आखिर जब बुजुर्ग अपने ही अंश की भावना को न समझना चाहें तो बच्चों को मर्यादा लांघनी ही पड़ती है ।

इस विचार ने उसके मन में चलती उथलपुथल को शांति दी, घड़ी की ओर देखा तो 2 बज रहे थे, वह सोने की कोशिश करने लगा । साल भर पश्चात विनय ने संजना और विशाखा के साथ अपने अपार्टमैंट के सामने कार खड़ी की । संजना ने कार से उतर कर कहा…

‘‘भैया, आप भाभी को ले कर पहुँचो तब तक मैं आरती का थाल सजाती हूँ ।’’

‘‘अरे, संजना तू, अचानक. न कोई सूचना…कहाँ है समीर और दीप…।’’ माँ ने दरवाजे पर उसे अकेला खड़ा देख कर प्रश्न किया ।

‘‘वे भी आ रहे हैं पर माँ अभी आरती का थाल सजाओ… भइया, भाभी लेकर घर आए हैं ।’’

‘‘भाभी…क्या कह रही है तू…. वह ऐसा कैसे कर सकता है ? मुझे बिना बताए इतना बड़ा फैसला…!! ऐसा करते हुए एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. ..क्या तू भी इस में शामिल है?’’ माँ ने बौखला कर कहा ।

‘‘हाँ, मैं भी…माँ अगर अपना सम्मान बनाए रखना चाहती हो तो खुशी खुशी बहू का स्वागत करो । मैं आरती का थाल सजाती हूँ और हाँ, तुरंत होटल ‘नटराज’ के लिए निकलना है, कोर्ट मैरिज हो चुकी है पर समाज की मुहर लगाने के लिए वहाँ हमें रिसेप्शन के साथ विवाह की रस्में भी पूरी करनी हैं । कार्ड बंट चुके हैं, थोड़ी देर में मेहमान भी आने प्रारंभ हो जाएंगे । यहाँ कोई हंगामा न हो जाए इसलिए समीर दीप को लेकर सीधे होटल चले गए हैं ।’’ जितनी तेजी से संजना का मुँह चल रहा था उतनी तेजी से उसके हाथ भी ।

‘‘पर लड़की कौन है, उस का परिवार कैसा है?’’ क्रोध पर काबू पाते हुए माँ ने पूछा ।

‘‘लड़की से तुम मिल चुकी हो. भैया के साथ ही काम करती है। ’’

‘‘क्या वह विशाखा….?’’

‘‘माँ तुम्हें वह चपटी नाक वाली नजर आई होगी पर मुझे बहुत ही सुलझी और व्यावहारिक लड़की लगी और सब से बड़ी बात वह भैया की पसंद है ।’’

‘‘शादी से पहले हर लड़की सुलझी नजर आती है ।’’

‘‘माँ, अगर अब भी तुमने अपना रवैया नहीं बदला तो मेरी बात याद रखना, घाटे में तुम्हीं रहोगी । बच्चे बड़ों से सिर्फ आशीर्वाद चाहते हैं, उसके बदले में बड़ों को सम्मान देते हैं । अगर उन्हें आशीर्वाद की जगह ताने और उलाहने मिलते रहे तो बड़े भी उनसे सम्मान की आशा न रखें । वैसे भी तुम्हारे रुख के कारण ही हमें अनचाहे तरीके से फैसला लेना पड़ा और तो और, विशाखा के माता- पिता को बड़ी कठिनाई से इस सबके लिए तैयार कर पाए हैं । अब चलो...।’’

कहते हुए संजना का स्वर कठोर हो गया था । वह आरती का थाल लिए तेजी से बाहर की ओर चल दी । कहने सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था । पंछी के पर निकल चुके हैं और वह अब बिना किसी की सहायता से उड़ना भी सीख चुका है । बहेलिया अगर चाहे भी तो उसे बाँध कर नहीं रख सकता ,सोचकर सपना ने संजना का अनुसरण किया । संजना बाहर आई तो देखा दरवाजे पर विनय विशाखा के साथ खड़ा है ।

आरती का थाल संजना माँ के हाथ में पकड़ा कर बोली, ‘‘भैया, पहले मेरी मुट्ठी गरम करो तब अंदर आने दूँगी। ’’

विनय से मोटा सा लिफाफा पाकर ही वह हटी तथा माँ की तरफ मुखातिब हो कर बोली...

‘‘माँ, अब तुम्हारी बारी । ’’

‘पूरी जादूगरनी निकली, अभी से मेरे बेटे को फांस लिया, आगे न जाने क्या क्या होगा...’ सोचकर सपना मन ही मन बुदबुदाई । तभी अंतर्मन ने उसे झकझोरा.... अब अपना और कितना अपमान करवाएगी सपना... आगे बढ़, ख़ुशियाँ तेरे द्वार खड़ी हैं, खुशी खुशी स्वागत कर... ।

उन्होंने संजना के हाथ से थाल लिया तथा आरती उतारते हुए बोलीं,

‘‘अच्छा सरप्राइज दिया तुम लोगों ने, मुझे हवा भी नहीं लगने दी । अगर तुझे इसी से विवाह करना था तो मुझ से कहता, क्या मैं मना कर देती ? संजना इसमें कुछ मीठा तो रखा ही नहीं है , अब बिना मुँह मीठा करवाए कैसे बहू को गृहप्रवेश करवाऊं ? आज मीठा तो कुछ भी घर में नहीं है , जा थोड़ा सा गुड़ ले आ ।’’

विनय और संजना ने एकदूसरे को देखा. माँ में आए परिवर्तन ने उन्हें सुखद आश्चर्य से भर दिया.

‘‘अब खड़ी ही रहेगी या लाएगी भी ।’’ माँ ने पुनः कहा ।

' अभी लाई माँ । ' कहकर संजना गुड़ लाने अंदर गई तथा विनय और विशाखा माँ के चरणों में झुक गए ।

सुधा आदेश


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