विरासत - 1 श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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विरासत - 1

विरासत
पार्ट - 1

इतनी मुश्किल भरे इन दिनों के बाद अब जो जरा सी कमर सीधी करने की मोहलत मिली तो उसे लगा, लेटते ही सो जाएगा। मगर कुछ था जो दिमाग में लगातार टहोके मार रहा था और शायद फौरी व्यस्तता के सामने मुखर नहीं हो पाया था, अब चिंता बनकर सामने आ खड़ा हुआ। उसने महसूस किया कि एकाएक उसकी सोंच ने पाला बदल लिया है कि आज बाऊजी के प्रति वह नफरत, वह नाराजगी कहीं गुम सी हो गई थी... कैसे भी थे, आखिर उसके पिता थे! समय नहीं दिया, प्यार नहीं दिया, मगर इतने दिनों तक घर का खर्च तो निर्विरोध रूप से चलता रहा था और सिर पर छत तो थी! उस निश्चिंतता का अर्थ अब समझ में आ रहा था जब भविष्य विकराल होकर समक्ष आ खड़ा हुआ था।

दुनिया यूँ एकदम से कैसे बदल सकती है? कहीं उसको सबक सिखाने को, उसकी नफरत को विराम देने को ही तो नहीं चले गये वो? हफ्तों बाद कल घर लौटे थे, बिल्कुल अच्छे-भले थे... उनके चेहरे पर हमेशा छपा रहने वाला वह चिड़चिड़ापन भी तो वहीं मौजूद था, जिसका उसपर और माँ पर अलग-अलग प्रभाव हुआ करता था... जब उसके अंदर का क्रोध उसे बगावत करने पर उकसा रहा होता, माँ सहम कर कुछ और दयनीय सी हो जाया करती थी। उस समय क्या कोई सोंच भी सकता था कि कुछ ही पलों में क्या होने वाला है? तो क्या मृत्यु खींच कर लाई थी उनको, या जिसको कभी अपना समझा ही नहीँ, उस बेटे की बाहों में दम तोड़ना लिखा था उनकी किस्मत में?

"फोन क्यों किया था?" उन्होंने दहाड़ कर पूछा तो अम्मा का गला सूख गया था।
"निमोना बनाया था, आपको पसंद है... थोड़ा सा खा लेते तो..." आवाज़ गले में अटकी जा रही थी शायद जिसको पूरी तरह बंद कर देने के लिये तैश में भरे बाबूजी उठ खड़े हुए... "हम इतने-इतने लोगों का पेट भरने को मरे-खपे जा रहे हैं और यहाँ पकवान बन रहे हैं? जी चाहता है एक साथ सब को आग लगा कर फूँक दूँ जो मेरा खून पीने को पैदा हुए हैं!" वह फिर से चिढ़ गया था... इतने-इतने लोग? कौन से इतने-इतने लोग? फिर हमेशा की तरह उसकी मुट्ठियाँ भिंच गई थीं। न बोल सकने की, बर्दाश्त करने की मजबूरी आक्रोश बनकर आँखों में जलने लगी थी। कौन लोग? किसकी बात कर रहे हैं यह? वह और उसकी माँ? रुआँसा हो आया वह... कितना खा लेते हैं वे लोग? थोड़ी सी हरी मटर लेकर घंटों मेहनत करती रही है माँ ये निमोना बनाने को! सब्जी है न ये, तो इसको 'पकवान' क्यों कहा बाऊजी ने? माँ ने ही क्यों फोन कर के बुलाया इन्हें? क्यों वो जहाँ हैं, वहीं छोड़ नहीं देती उनको? पीछे-पीछे घूमती रहती है क्योंकि शायद इस डाँट-फटकार की आदत हो गई है इसे। खाना खिला-खिला कर उनको फिर से बाँध लेने के सपने देख रही है? क्या कभी इसका स्वाभिमान भी जागेगा?

पता नहीं क्या-क्या चीखते-चिल्लाते बाऊजी फिर शायद कुछ थक गए थे जो जेब से ऊपर वाले अपने कमरे की चाभी निकाल कर धम्-धम् कर सीढ़ियाँ चढ गए। पहली मंजिल पर स्थित घर का यह एक कमरा वो हमेशा ताला बंद कर के रखते हैं और जब भी आते हैं, काफी समय वहीं बिताते हैं। उसे नहीं पता, वहाँ क्या है और वह क्या करते हैं उधर... उसे मतलब भी नहीं है! वह जानता भी कितना है अपने पिता के बारे में... वह क्या काम करते हैं, कितना पढ़े-लिखे हैं, कहाँ रहते हैं और वह कौन सी नचनिया है जो माँ की गलियों, झगड़ों और आँसुओं में मौजूद रहा करती है, और ऐसी क्या खासियत है उसमें कि माँ को छोड़कर बाऊजी उसके सगे हो बैठे हैं?

अब वह हमेशा की तरह माँ से लड़ रहा था कि उससे पूछे बिना उसने बाऊजी को फोन क्यों किया और उससे नजरें चुराती माँ भी हमेशा की तरह विषयांतर करने का प्रयास करने में लगी थी... इस क्रम में उसने चम्मच से उसके मुँह में निमोना उझला जो उसे जहर से भी ज्यादा कड़वा लग रहा था कि अचानक धड़ाम से आवाज आई। कहाँ से? शायद सीढ़ी के पास से! बिल्ली ने कुछ गिराया होगा... वह टहलते हुए बाहर आया तो चीख पड़ा... बाऊजी गिरे हुए थे। शायद सीढ़ी का कोना लगने से सिर फट गया था सो हर तरफ खून की नदियाँ सी बह रही थीं। उसने दौड़ कर उन्हें गोदी में उठा लिया... आज पता चला काफी दुबले-पतले थे वह! माँ ने उनके सिर पर कसकर कपड़ा बाँध दिया पर खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था। आज पहली बार उनका चेहरा ध्यान से देख सका था वह, जो ऑंखें बंद करते ही काफी निरीह सा दिखाई दे रहा था। भक्-भक् करता गोरा रंग नीला और फिर काला पड़ता जा रहा था। उसे अब डर लगने लगा था... पसीने और पिता के खून से पूरा भीग गया था वो... उन्हें बाहों में उठा, दौड़ते हुए पहले मोड़ पर डाक्टर के क्लीनिक पर पँहुचा पर दरबान ने अंदर घुसने नहीं दिया। अब उसे ठीक से याद नहीं आ रहा कि कब आपा खोकर उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया था कि डाक्टर को उठकर बाहर आना पड़ा और फिर उन्होंने जब बाऊजी को मृत बताया, उसे विश्वास नहीं हुआ था। अपने क्लीनिक को खून और गंदगी से बचाने के लिए ऐसा बोल दिया होगा उन्होंने... फिर टैम्पो पकड़ कर अस्पताल पँहुचा था वह जहाँ से शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया था।

वह रात कैसी बीती याद नहीं! फिर शव और बाऊजी का कुछ सामान लेकर जब घर लौटा तो कुछेक पड़ोसी माँ को सांत्वना देने के लिए वहाँ जमा मिले। उसे कुछ आश्चर्य सा हुआ, इतने लोगों को माँ जानती है? आस-पास रहते होंगे! वह किसी को क्यों नहीं जानता? बचपन से ही सबसे इतना नाराज क्यों रहा है? फिर उन सब लोगों के सौजन्य से दाह- क्रिया संपन्न हो गई। उतरे हुए बालों की वजह से हाथ बार-बार सिर पर ही घूम रहा था। जलते हुए शव की चिराँध, गहरे लाल रंग के चमकते हुए कोयलों पर जमकर झड़ती हुई राख, उतने बड़े से शरीर का जलकर मिट्टी के कलश में समा जाना उसे बेचैन कर रहा था। यही है जिंदगी की हकीकत? अगर इस तरह अचानक सबकुछ समाप्त हो जाना है तो फिर जीने के इतने झमेले और ताम-झाम क्यों? उसे भी तो एक दिन ऐसे ही मर जाना होगा? पर अभी तो याद आ रहा है कि दो दिनों से मुँह में एक दाना डालने की भी मोहलत नहीं मिली है उसे... घूमता हुआ सर और चिपकी हुई आँतें... उल्टियाँ और पेट दर्द... और इस अकेले कमरे में जमीन पर कंबल बिछा कर लेटा हुआ नितांत अकेला वह! उधर माँ शायद अभी भी रो ही रही थी... दिन में कितनी ही बार रोते-रोते दाँत भी लग गये थे उसके! कोई है या नहीं उसके पास? कोई कब तक यहाँ रुकेगा भला? एक अंजाना भविष्य उसके और माँ के समक्ष मुँह फैलाए खड़ा हुआ है। अभी सिर्फ पच्चीस वर्ष की उम्र है उसकी। ग्रैजुएशन के बाद सीए की कुछ परीक्षाएँ पास कर चुका है, पर अब आगे क्या होगा? खाने-पीने के लाले पड़ने वाले हैं शायद! पढाई के, घरेलू खर्चों के पैसे भी कहाँ से आएँगें अब? ऋचा के साथ देखे गये सपनों का क्या होगा अब?

ॠचा! सोंच कहीं पर आकर थम गई। वह तो सपने में भी नहीं सोंच सकती कि क्या-क्या बीत चुका है इस बीच उसके साथ! कोचिंग में इंतजार करती रही होगी... शायद फोन भी किया हो... फोन? कहाँ है मोबाइल? होश ही कहाँ रहा उसे किसी चीज का? ऋचा कितनी परेशान हो गई होगी! अभी बातें हो सकती हैं क्या उससे? पर नहीं, इस समय तो रात काफी ज्यादा हो गई है। अभी फोन लगाने पर तो हो सकता है कि उसके मम्मी-पापा ही उठ कर बैठ जाएँ! वैसे भी मौका मिलने पर वही फोन लगाया करती है... हो सकता है कल सुबह-सुबह ही उसका फोन आ जाए। जल्दी उठकर सबसे पहले अपना फोन खोजना होगा।

नींद फिर भी नहीं आई। माँ का क्या होगा? अभी तक एक झूठी आशा के सहारे जीती रही है वह कि बाबूजी कभी तो लौट आएँगे, पर अब? अगले महीने का खर्च भी कैसे चलेगा, पता नहीं! तो क्या उसकी पढ़ाई भी छूट जाएगी? अभी और भी पता नहीं क्या-क्या बदलने वाला है उसकी जिंदगी में कि किसी कम पढ़े-लिखे, गरीब लड़के से ॠचा शादी क्यों करने लगी भला? तो क्या बाऊजी इतने जरूरी थे जिंदगी के लिए? उनकी उपस्थिति मात्र से जिंदगी सामान्य चल रही थी? उसे अपने उस नपुंसक क्रोध पर ही क्रोध आने लगा था अब, कि शायद माँ ही सही थी हमेशा...!

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पार्ट - 2

सोने की एक मोटी सी चेन... हाँ, बाऊजी इसे हमेशा पहने रहते थे, एक मँहगी घड़ी, दस-ग्यारह हजार रुपयों से भरा पर्स... इतने में तो चार-पाँच महीने काट लेगी माँ! बाबूजी के पोस्टमार्टम के बाद मिले सामानों का वह पैकेट उसने उलट कर झाड़ा तो झन्न की आवाज के साथ चाभियों का एक गुच्छा नीचे आ गिरा। अरे, यह तो वही चाभी है... ऊपर वाले कमरे की! तो क्या अब उस कमरे का मालिक वह है? क्या अब उस नचनिया का श्राप उन लोगों के सर पर से हमेशा के लिए उतर जाएगा? समाज और सिंदूर का बंधन क्या इतना सुदृढ़ होता है कि उसकी माँ, जो उनके दिल को कभी नहीं भाई, प्राणांत होते ही एकाएक सब कुछ की कानूनी मालकिन बन बैठी? पर ऐसा भी नहीं है, इतने दिनों में तो पता नहीं क्या-क्या कुछ दे चुके होंगे वह उस नचनिया को, जिसकी असली हकदार हमेशा से माँ थी।

उसके अनुमान के अनुसार शवदाह होते ही सभी लोग जा चुके थे। वह जानता है कि माँ की इतनी दारुण स्थिति के बावजूद जब कभी कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया तो अब कौन पूछेगा? पर जो भी हो, माँ का इस तरह बीमार हो जाना उसे अजीब लग रहा था। बाऊजी के होने ना होने से कभी भी उसको इतना फर्क क्यों पड़े... हमेशा अकेले ही तो रही है वह! तो क्या वह भी, उसी की तरह एक अनिश्चित भविष्य से डरी हुई है? पता नहीं क्या सोच कर उसने चाभियाँ अपनी जेब में छुपा ली और माँ के लिए चाय बनाने लगा। किस्मत ने उसे दो-चार महीनों की मोहलत दे दी है, तब तक तो हर हालत में कोई ना कोई नौकरी खोज ही लेनी होगी। सबसे पहले एक लिस्ट बनानी होगी कि नौकरी के लिए कहाँ-कहाँ मिला जा सकता है। अचानक एक उत्सुकता ने दिमाग में दस्तक दी... खोलकर देखना होगा ऊपर वाले कमरे में है क्या आखिर! मन ने एक दिवा स्वप्न भी देखा, ऐसा भी तो हो सकता है वह कमरे को खोले और हर तरफ नोटों की गड्डियाँ... या गहने.. कोई दूसरी कीमती चीज भरी मिल जाय और उसकी समस्या अपने आप सुलझ जाय? माँ से छिपते-छिपाते, धड़कते दिल से उसने धीरे से कमरे का ताला खोला। दिन में भी अंदर गहरा अँधेरा था पर उसने महसूस किया कि वहाँ किसी की गहरी साँसों की आवाज़ सी गूँज रही थी। उसे अब बहुत घबराहट सी महसूस होने लगी थी... जैसे चोरी करने आया हो। दीवार पर हाथ फिराया तो बिजली का स्विच मिल गया... पर यह क्या? बल्ब जलते ही चौंक उठा था वह कि सामने पड़ी चौकी पर एक मोटी, गहरे काले रंग की औरत, रस्सियों से बँधी छटपटा रही थी। वह तो चिल्ला भी रही थी... सुनहरी... सुनहरी...! डर के मारे वह ऊपर से नीचे तक पसीने से भीग गया और तुरंत कुछ नहीं सूझा तो जल्दी से कमरे से बाहर निकल, उसने फिर से उस में ताला बंद कर दिया और भागते हुए नीचे आ गया।

क्रमशः

मौलिक एवं स्वरचित
श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com