विरासत - 2 श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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विरासत - 2



विरासत

पार्ट - 2 (जारी)


ये क्या था? ऐसा कैसे हो सकता है? कौन थी वो औरत? गले में काँटे से उभर आए थे... उसके सामने ही तो बाऊजी ऊपर गए थे... बिल्कुल अकेले! कमरे में जाने का कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं है। इस बार वे आए भी कई दिनों के बाद थे... तो ये औरत वहाँ पँहुची कैसे? कौन थी वह? माँ को बताने का कोई फायदा होगा? ...सुनहरी... सुनहरी... काँपती, लरजती वह आवाज़, मदद को पुकारती सी एक आवाज़ कानों में लगातार गूँज रही थी... पूरे माहौल में व्याप्त थी... उसने दोनों हाथों से अपने कानों को दबा लिया।

शोर मचा कर बहुत सारे लोगों को बुला लेना चाहिए और उनकी उपस्थिति में दरवाजे को खोला जाय? पर उन लोगों को क्या जवाब देगा फिर? लोग तो यही कहेंगे कि उसी ने बाँध रखा है एक औरत को! पर वह इतना डर ही क्यों गया कि कमरा बंद कर के भाग आया? उस औरत को खोलकर उसीसे पूछा भी तो जा सकता था कि वो कौन है, कहाँ से आई है? इस उम्र दराज, भयंकर रूप से काली और बदसूरत उस औरत से बाऊजी का रिश्ता क्या था? क्या वही है नचनिया? माँ की खूबसूरती को इस कुरूपता ने हराया है? फिर बाँध कर क्यों रखा है उसे?

जो भी हो, उस औरत को मदद की जरूरत तो थी। कमरे का दरवाजा खोलकर, बिजली ऑन करते ही वह फिर चौंक गया... यहाँ तो कोई नहीं था। दीवार के साथ लगी हुई कुछ-एक अलमारियाँ और एक चौकी, बस! बिना खिड़कियों वाला, थोड़ा सीलन की बास मारता वह कमरा, पर एकाएक उसने महसूस किया कि कमरे में मृत्यु की गंध बसी हुई है... वही गंध जो उसने बाऊजी को गोदी में उठाकर महसूस की थी... तेज गंध में बस एक आवाज सरसरा रही थी ...सुनहरी... सुनहरी!

माँ के साथ बैठकर वह बाऊजी का पर्स खाली कर रहा था। दस हजार चार सौ तीस रूपये, कुछ नए-पुराने कागजों की कतरनें जिनका कोई अर्थ समझ में नहीं आया तो उसने वापस उन्हें पर्स में ही रख दिया। अचानक अंदर वाले पॉकेट से सात-आठ पासपोर्ट साइज फोटो निकालकर बिखर गईं... अरे! वह चौंक गया, उसी काली-मोटी औरत का स्थूल सा चेहरा! एक ही फोटो की इतनी सारी कॉपियाँ? क्यों? क्या है ये सब? कौन है ये? माँ भी कुछ नहीं बता सकीं। क्या यही है नचनिया? इतने भारी शरीर के साथ कैसे नाचती होगी भला?

कोई जोर-जोर से दरवाजा पीट रही थी । झाँककर देखा तो तीन-चार गुंडों के साथ एक दबंग सी औरत खड़ी हुई थी। माँ डर गई कि अब तो ये लोग उसे घर से निकाल देंगे, फिर कहाँ जाएगी वह? वह परेशान था, क्यों निकाल देंगे उसे घर से? यह लोग हैं कौन? अगर वे गुण्डागर्दी पर उतर आए तो क्या वह उनसे लड़ने में सक्षम हो सकेगा? कितने मिनट टिकेगा उनके सामने? विकट परिस्थिति है ये... किससे मदद माँगे? इतनी सारी परेशानियाँ कभी भी तो नहीं आई थी उस पर! एक बाबूजी के जाते ही क्या हो गया यह? दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था, दम साधे बैठा रहा। दरवाजा पीट-पीटकर चीख-चिल्लाकर वे लोग कुछ थक गये होंगे जो लौट गए पर कोई और रणनीति बना कर वापस तो आएँगे ही आएँगें, उसे अच्छी तरह से समझ में आ रहा है। कैसे बचाएगा वह अपना सब कुछ?

सुबह-सवेरे किसी सलमा का फोन आया था, मिलने के लिए बुला रही थीं। माँ ने बताया यह वही नचनिया है जो कल दरवाजा पीट रही थी। वह फिर डर गया... क्यों बुला रही है उसे? गुंडों से पिटवाएगी? मार डालेगी? क्यों जाए वह उसके बुलावे पर? पर न जाकर ही बच जाएगा क्या? दोबारा गुंडे लेकर यहाँ आई तो माँ की जान भी खतरे में पड़ सकती है। तो फिर मार ही डाले! वैसे ही कौन सी जिंदा है माँ? मकान चाहिए उसे, तो दोनों को मार कर ले जाए। वैसे किसके नाम पर है यह मकान? कुछ तो इसके कागजात वगैरह होंगे? माँ को कुछ भी पता क्यों नहीं है? कभी तो उसे बाबूजी प्यार करते रहे होंगे, तब उसने सब कुछ पूछ क्यों नहीं लिया था उनसे?

सिनेमा में उसने देखे हैं नचनियों के बड़े-बड़े महल जैसे घर, सजे-धजे विशाल हाॅल, मुजरा देखकर नोट उछालते लोग पर यहाँ वैसा कुछ तो नहीं था! पक्का बना हुआ दो मंजिला साधारण सा मकान... इसमें इतना बड़ा कमरा होगा क्या, जहाँ मुजरे होते हों? सीढ़ियों से चढ़ते हुए अजीब सा लग रहा था... तो यहीं रहा करते थे उसके पिता? अलग से एक और गृहस्थी चला रहे थे?

"आइए रमेश बाबू, तशरीफ़ रखिए! हमें तो डर लग रहा था कि आप आएँगे ही नहीं! हम आपके यहाँ गए तो आपने दरवाजा तक नहीँ खोला?"
उसके पास भी कितनी बातें थीं जवाब में कहने की, पर यह तो उसका हमेशा से स्वभाव है कि वक्त पर मुँह से आवाज ही नहीं निकलती। भले ही इतना सारा गुस्सा अंदर ही अंदर खौलता रहता हो।

"पानी पीजिए, आप बहुत परेशान नजर आ रहे हैं।"

"हमें अभी पानी-वानी नहीं चाहिये। आप गुंडा लेकर हमारे घर क्यों आई थीं?"

"गुंडे नहीं थे वो, हमारे भाई लोग थे। मातमपुर्सी के लिये गये थे तो हम अकेले कैसे जाते?"

"हमारे साथ मातमपुर्सी करनी थी आपको? छोड़िये, अब हमको क्यों बुलाया है यहाँ?"

"देखिए, हमारा पचास लाख रुपया निकलता है आप लोगों पर! बस, वो चुका दीजिए बात खत्म हो जाएगी। फिर हम आपको परेशान करने नहीं आएँगें।"

पचास लाख? सोने की चेन, घड़ी और पर्स के उन रुपयों से चुकेंगें पचास लाख? मकान बेचकर पूरा एक लाख भी न मिले शायद!

" किस बात के पचास लाख?"

"आपके बाबूजी पर निकलता है। उसी का इंतजाम करने में तो लगे थे वह!"

"हमारे पास कहाँ हैं इतने पैसे? कहाँ से इंतजाम कर रहे थे वह, मुझे क्या पता? उनकी देनदारी मैं क्यों चुकाऊँ? हमारे यहाँ तो उसी सुबह आए थे बस! कोई खास बातचीत भी नहीँ हुई थी कि कुछ बताते!"

"सुबह क्यों आए थे? कहीं चले गए थे क्या? कोई लड़ाई-वड़ाई हुई आप लोगों में? क्यों मार दिया उन्हें?" राज की बात करती नचनिया का मुँह उसके इतने पास आ गया था कि वह घबराकर उठ खड़ा हुआ। "क्या बोल रही है आप? हम क्यों मारेंगे उन्हें? वह सीढ़ियों पर से खुद ही गिर गए थे।"
"चार सीढ़ियों से गिरकर भी कोई मरता है क्या?" आँख दबाकर वह पूछ रही थी। रमेश ने दोनों हाथों से अपने सिर को दबा लिया... बस यही बचा था! कत्ल का इल्जाम भी लग गया। कैसे साबित करेगा कि यह दुर्घटना थी? लगा, जैसे अब कुछ नहीं बचेगा। आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया, सर फटा जा रहा था... सब्र रखना मुश्किल हो गया और वह बिलख पड़ा... "चार सीढ़ी से गिर कर ही मर गए वो! हमने कुछ नहीं किया है..."
हतप्रभ थी वह... "आप रो रहे हैं? गिरधारी लाल जैसे आदमी का बेटा रोता भी है? एकाएक उस गोरी, गुलगोथनी सी औरत का स्वर बदल गया। "मर्द का बच्चा है आप! रोते हुए अच्छे नहीं लगते। आपके बाप में हर मुसीबत से भिड़ जाने का हौसला था... उनका नाम मत खराब कीजिए।"
अब वह हतप्रभ था। जिस बाप को जानता तक नहीं था, उसका नाम रौशन करने की जिम्मेदारी है उसके ऊपर?
"उठकर हाथ-मुँह धोइये और एक कप चाय पीजिए। माशाअल्लाह खूबसूरत और जवान हैं आप, रोना-धोना आपके ऊपर नहीं सजता।"
इस बार स्वर में स्पष्ट आदेश था, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती थी।
"घर में कौन-कौन रहता है?"
"माँ और मैं बस!"
"हाँ, गिरधारी बाबू के इंतकाल से आप लोग अकेले हो गए हैं न?"
"पर वह तो हमारे साथ नहीं, आपके साथ रहते थे।" अब रमेश ने पूछ ही लिया।
"किसने कहा? वह मेरे साथ क्यों रहेंगें?"
"माँ ने बताया। आप नचनिया हैं न?" उसने महसूस किया कि वह अपने आपे में नहीं है। शब्दों का कोई दूसरा चयन करना चाहिए था... कुछ गलती तो हो ही गई कि वह हैरत से उसका चेहरा देख रही थी। फिर संजीदगी के साथ बोली, "आपने अपनी बहन को साथ क्यों नहीं रखा?"
अब ये एक नई बात? बहन कहाँ से आई? यह तो इसकी चाल ही लगती है, कहीं अपनी किसी बेटी को हमारे घर में घुसाना तो नहीं चाहती? कुछ असंगत से विचार मन में घूम रहे थे... क्या सबूत कि ये जिसकी बात कर रही हैं, वह बाऊजी की बेटी ही रही होगी, किसी और की नहीं? इनके पेशे में इस तरह की बात साबित की जा सकती है क्या?

"कौन सी बहन? आपकी बेटी?" पूछ कर लगा कि फिर कोई गलत बात मुँह से तो नहीं निकल गई कि सलमा का चेहरा बिल्कुल तन सा गया था। कुछ पल माहौल में स्तब्धता छाई रही, फिर काफी संजीदा स्वरों में वह बोलने लगीं, "पता नहीं मेरे बारे में आप लोगों का क्या सोंच है पर फिर भी, मैं आज आपको अपने बारे में सब कुछ बता ही देती हूँ। मेरा नाम सलमा है। मेरी माँ तवायफ थी पर मुझे इस पेशे में डालने के बजाय उसने मुझे पढ़ाने-लिखाने की लत पाल ली, जिसमें मेरा मन नहीं लगा और मैं आपके अब्बा के इश्क में पड़ गई। प्यार-मोहब्बत तो मुमकिन था पर दो अलग-अलग मजहब में ब्याह-शादी का होना मुमकिन नहीं था इसलिए उन्होंने आपकी वालिदा से ब्याह किया, पर मुझे भी नहीं छोड़ा। इसका मतलब यह नहीं है कि वह यहाँ आकर रहने लगे थे या मुझे पालना उनकी जिम्मेदारी थी। यह जो मकान आप देख रहे हैं न, मेरी अम्मा ने दिया है। मैं सलमा बेगम के नाम से गजलें गाती हूँ और मेरे गानों के रिकॉर्ड खूब बिकते हैं। हो सकता है, आपने मेरा नाम सुना भी हो।"
"और आपकी बेटी?" वह वापस अपने प्रश्न पर आ गया।
"मेरी बेटी नहीं, आपकी बहन, हीरा! आपकी माँ की जनी। उसे क्यों मेरे पास ला कर रखा था गिरधारी लाल ने?"
"मगर मैं तो अपनी माँ का इकलौता बेटा हूँ।"
"एक हफ्ते के लिए अपनी बेटी को मेरे पास छोड़ा था उन्होंने, कुछेक महीने पहले। फिर साथ ले गए!"
"कौन थी वह? तो क्या कोई और भी थी उनकी जिंदगी में?" उसने अचकचा कर पूछा, "रहते कहाँ थे वह? काम क्या करते थे?"
"काम तो नीलगंज की ठकुराइन का करते थे, पर रहते कहाँ थे, नहीं पता! मुझे तो कभी कहा नहीं कि आपके साथ नहीं रहते!"
"नीलगंज की ठकुराइन? वह कौन हैं?"
"अरे वही, ठाकुर रासबिहारी की विधवा! शुरू से तो वहीं मुनीमी करते रहे हैं वह। फिर ठाकुर साहब के इंतकाल के बाद ठकुराइन की जमीन-जायदाद देखने लगे।"
"आपसे पचास लाख रुपये क्यों लिये? इतनी बड़ी रकम आपके पास कहाँ से आई?इतने रुपयों की क्या जरूरत थी उनको?"
"तीन-चार किश्तों में लिए थे। कह कर गए थे कि जल्दी ही लौटा देंगे।"
"आपने क्या पूछा भी नहीं कि क्यों ले रहे हैं?"
"हाँ, पूछा तो नहीं! मैं अपनी जरूरतों से कुछ ज्यादा ही कमा लेती हूँ, ये उनको मालूम था इसलिए बीच-बीच में लेते-देते रहते थे, मुझे लगा इस बार भी लौटा ही देंगे!"
"पर मेरी हैसियत तो आपके पैसे लौटाने की नहीं है। सब कुछ बेच भी दूँ तो भी, लाख रुपया तक नहीं निकाल पाऊँगा।"
वह किसी गहरी सोच में थीं। उनकी चुप्पी से थोड़ी हिम्मत जुटाते हुए उसने पूछा, "आपके घर में और कौन-कौन है? आपके भाई लोग नहीं दिख रहे हैं?"
"वह यहाँ मेरे साथ नहीं रहते। हाँ, मेरा एक बेटा जरूर है। वह अंदर सो रहा है।" सलमा ने कहा तो वह जरा डर सा गया। "क्या मेरा भाई है वह?"
"हाँ, है तो! मगर वह सिर्फ मेरा बेटा है, आपकी जिम्मेदारी नहीं! आप बस मेरे पैसे लौटाने की चिंता करिए।"
"अगर आपके पैसे नहीं लौटे तो क्या आप हमारे मकान पर कब्जा कर लेंगीं?" डर मुँह पर आ ही गया था पर वह किसी गहरी सोंच में डूबी हुई थीं। अचानक खयाल आया कि यह भी तो एक सामान्य स्त्री ही है। दोस्त ना सही, दुश्मन भी नहीं लगती। बहुत डरने की भी शायद जरूरत नहीं है।
"अगर आप मेरे पिता को प्यार करती थीं, तो मैं भी तो आपके बेटे जैसा ही हुआ?आप कैसे हमें सड़क पर धकेल सकती हैं?'
"पैसे तो लौटाने ही होंगे रमेस बाबू! इंतजाम करिए... कुछ समय भी लगे तो बर्दाश्त कर लूँगी, मगर इस जिम्मेदारी से गाफिल मत हो जाइएगा।"
"मगर...मगर..." वह कुछ हड़बड़ा सा गया। "मेरी तो पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है। घर में अनाज-पानी खरीदने के पैसे नहीं है। मैं कहाँ से जुटाऊँगा इतनी रकम?"
" तो अपने वालिद वाली नौकरी ही पकड़ लीजिए न? उनको भी तो काम करने वाले की जरूरत होगी?"
बात तो सही है। कोशिश तो की ही जा सकती है। रमेश ने सोचा, कैसे संपर्क किया जा सकता है उन लोगों से? क्या सीधा जाकर खड़ा हो जाए और कहे, मैं गिरधारी बाबू का बेटा हूँ। वह तो अब नहीं रहे, तो मुझे नौकरी पर रख लीजिए!

क्रमशः

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com