मन की बात - 1 - वहां आकाश और है........ Kusum Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मन की बात - 1 - वहां आकाश और है........


अचानक से शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था। मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली। पेड़ -पौधों पर झर-झर गिरता पानी एक कुदरती फव्वारे सा हर पेड़-पौधे को नहला कर उसका रूप संवार रहा था। इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तन-मन भिगो ले।


मगर उसकी दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा। मानो कह रही हों, ‘हमें छोड़ कर कहां चली? पहले हमसे तो रूबरू हो लो।


‘रोज वही ढाक के तीन पात। मैं ऊब गई हूं इन सबसे। सुबह शाम बंधन ही बंधन। कभी तन के, कभी मन के। जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुमसे’ मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़कर वर्षा में भीगने का मानस बना लिया।


क्षितिज ऑफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी। जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथ-साथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था। हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी परंतु फिर भी वह क्षितिज के ऑफिस जाते ही स्वयं को बंधन मुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी।


और इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी। उसने बालों में से कल्चर निकाल दिया और अपने बालों को खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो की क्षितिज को बिल्कुल पसंद नहीं था। अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद वह फिल्मी संगीत लगा दिया जो कि क्षितिज की नजरों में बिल्कुल बेकार और फूहड़ था, अतः जब तक वह घर में रहता था ,नहीं बजाया जा सकता था। यानि कि अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूर्णतः भोग रही थी।


अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की। उसके लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई।


‘इस भरी बरसात में कौन हो सकता है? पोस्टमैन आने में तो अभी देरी है । धोबी नही हो सकता। दूध वाला भी नहीं। तो फिर कौन है?” , सोचती-सोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची।


और दरवाजे पर व्यक्ति था जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी।


‘आइए’ , उसने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा , और जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ, ‘पर ये तो ऑफिस चले गए हैं”, मानसी तपाक से बोली, मानो कि वह कोई बड़ी भूल करने जा रहा हो।


‘हाँ, मुझे पता है। मैंने उनकी गाड़ी निकलते हुए देख ली थी’ ,आगंतुक जो कि उनके मोहल्ले का ही था, ने अंदर आकर सोफे पर बैठते हुए कहा।


यह उत्तर सुनकर मानसी मन ही मन बड़़बड़ाई , ‘ जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो” वह मन ही मन आकाश जी के बे-वक्त यहाँ आने पर क्रुद्ध थी क्योंकि उनके आने से उसका वर्षा में भीगने का बना बनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था। परंतु मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई।


शिष्टाचारवश उसने बातचीत का सिलसिला शुरू किया।


“कैसे हैं आप, काफी दिनों बाद नजर आए?”


‘जैसा कि आप देख ही रहीं हैं, बिल्कुल ठीक हूं। काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई। सोचा यहीं रुक जाऊं। इस बहाने आपसे मुलाकात भी हो जाएगी।’


‘ ठीक किया जो चले आए। अपना ही घर है। चाय / कॉफी , क्या लेंगे आप?’


‘जो भी आप पिला दें। आपका साथ और आपके हाथ, हर चीज़ मंजूर है‘, जब आकाश जी ने मुस्कुरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया क्योंकि उस मुस्कुराहट में अपनापन था।


जल्दी ही मानसी दो कप चाय बना लाई। चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं। इसी बीच बूंदाबांदी भी कम हो गई थी।


‘आपकी इजाजत हो तो अब मैं चलूं’ , फिर वही मुस्कुराहट आकाश जी के चेहरे पर थी।


“जी’ , मानसी ने कहा, ‘फिर कभी फुर्सत से आइएगा, भाभी जी के साथ।’


‘अवश्य! यदि वह आना चाहेगी तो चसे भी ले आऊंगा। आप तो जानती ही है कि उसको कहीं आना-जाना पसंद नहीं’, कहते-कहते आकाश जी के चेहरे पर उदासी छा गई।



मानसी को लगा कि उसने आकाश जी की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो क्योंकि वह जानती थी कि आकाश जी की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ थी और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती थी।


‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’ अगले दिन भी जब उसी मुस्कुराहट के साथ आकाश जी ने पूछा तो प्रत्युत्तर में मानसी भी मुस्कुरा दी और दरवाजा खोल दिया।


‘चाय या कॉफी?’


‘कुछ नहीं’ औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं। आज भी तुमसे दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया।’


‘अच्छा किया। मैं भी बोर ही हो रही थी’ और अब मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वह घर पर नहीं है।


और इस तरह आकाश जी के आने-जाने का सिलसिला शुरु हो गया वरना इस मोहल्ले किसी के घर आने-जाने का रिवाज कम ही था। यहाँ अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थी या फिर छोटे बाल-बच्चों वाली। एक वही अपवाद थी जो कि ना तो कोई जॉब करती थी और ना ही छोटे बच्चों वाली थी।


मानसी का एकमात्र बेटा जो कि दसवीं कक्षा में था,एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था। अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अक्सर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश जी के आने से पूरी होने लगी थी क्योंकि वे घर-गृहस्थी की बातों से लेकर फिल्मों, राजनीति व साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे।


आकाश जी लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि वह क्षितिज जाते ही आकाश जी के आने का इंतजार करने लग जाती थी।


एक दिन जब आकाश जी नहीं आए तो अगले दिन उनके आते ही मानसी ने पूछा, ‘क्या हुआ? कल क्यों नहीं आए? मैने कितना इंतजार किया।


आकाश जी ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और बोले,’ क्या मतलब? मैंने रोज आने का वादा ही कब किया है ?’


‘सभी वादे किए नहीं जाते , कुछ स्वयं ही हो जाते हैं। अब मुझे आपके रोज आने की आदत जो हो गई है।’


‘आदत या मोहब्बत?’ आकाश जी ने मुस्कुरा कर कहा तो मानसी चौकी। उसने देखा आज उनकी मुस्कुराहट अन्य दिनों से कुछ अलग थी।


मानसी सकपका गई। पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हो या यह उसका मतिभ्रम हो। अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ’बैठिए। आज क्षितिज का जन्मदिन है। मैने केक बनाया है। अभी लेकर आती हूं।’


‘तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया?’ आकाश जी फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ।


‘क्या जवाब देती?


‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार करती हो क्योंकि तुम मुझे पसंद करती हो।‘


‘हां, दोनों ही बातें सही है।


‘यानि कि मोहब्बत है?’


‘नहीं, मित्रता।’


‘एक ही बात है। स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है’ , आकाश जी ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा।


‘हां दिया जाता है’ ,मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा। ‘क्योंकि साधारण स्त्री -पुरुष मित्रता का अर्थ इसी रुप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मोहब्बत में होता है।’


‘हम भी तो साधारण स्त्री-पुरुष ही है।’


‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है।’


‘सोच या डर?’


‘डर ! किस बात का?’


‘क्षितिज का। तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो ……..


‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते। सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उसके पीछे से क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं ना चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा।’


‘फिर अड़चन क्या है?’


‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है।’


‘मानसिकता बदली जा सकती है।’


‘हां, यदि आवश्यकता हो तो। परंतु मैं इसकी आवश्यकता नहीं समझती।’


‘इसमें बुराई ही क्या है?’


‘बुरा है आकाश। आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्री-पुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है। जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं क्योंकि उनके सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है इससे विचारों में विभिन्नता आती है। ऐसे में बातचीत का आनंद आता है। परंतु ऐसा नहीं होता।


अक्सर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने की बजाय प्रेमी बनकर रह जाते हैं और फिर हालातों के वशीभूत होकर कई बार एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लग जाते हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं होती।’


‘परंतु यह स्वाभाविक है। प्राकृतिक है। इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’


‘अपने हित के लिए । ठीक उसी प्रकार जैसे कि हमने अन्य प्राकृतिक चीजों,जिनसे हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है।’



‘यानि कि तुम्हें इंकार है?’ ऐसा लगता था आकाश जी कुछ बुझ से गए थे ।


‘इसमें इंकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आपकी मित्रता से अभी भी कोई आपत्ति नहीं है बशर्ते आप मुझसे अन्य कोई अपेक्षा ना रखें।’


‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है।’


“जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा।’


‘चलता हूं।‘


‘कल आओगे?’


‘कह नहीं सकता।’


सुबह के दस बजे हैं। क्षितिज ऑफिस चला गया है पर आकाश जी अभी तक नहीं आए। मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है।


‘लगता है आकाश जी आज नहीं आएंगे। शायद मेरा व्यवहार उनके लिए अप्रायश्चित था। उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी। काश कि वे मुझे समझ पाते।’


मानसी ने म्यूजिक ऑन कर दिया और सोफे पर बैठ कर एक मैगजीन के पन्ने पलटने लगी कि सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया।


मानसी दरवाजे की ओर लपकी।


देखा, दरवाजे पर सदा की तरह मुस्कुराते हुए आकाश जी ही थे। मानसी ने भी मुस्कुरा कर दरवाजा खोल दिया। उसने आकाश जी की ओर देखा। आज उनकी वही पुरानी, चिर-परिचित मुस्कान फिर लौट आई थी।


और इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया था कि अब समाज में स्त्री-पुरूष के रिश्तों की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी क्योंकि उन्हें वहाँ एक आकाश और मिल गया है।


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