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श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-१२)

जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
भगवान श्री कृष्ण के अशीम कृपा से श्रीमद्भगवतगीता जी के बारहवें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी बंधुवर इस अध्याय के अमृतमय शब्दो को पढ़कर, सुनकर और सुनाकर अपना और अपनों का जन्म कृतार्थ करे। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा आप सभी बंधुवर पे बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१२🙏
अर्जुन ने पूछा- इस प्रकार जो भक्त सदैव योग युक्त होकर आपकी उपासना विधिपूर्वक करतें है और जो व्यक्ति परब्रम्हा को भजतें है, इन दोनों में मकां सा योगी श्रेष्ठ है? श्री भगवान बोले- जो मेरे विषय में मन लगाकर परम् श्रद्धा पूर्वक मुझको भजतें हैं वे उत्तम योगी हैं में यह जानताबहूँ। परन्तु जो इन्द्रियों का संयम करके सर्वत्र समदृष्टि रखने वाले सब प्राणियों के हित में लगे हुए अकथनीय, अव्यक्त, सर्व व्यापी, अचिंतनीय, निर्विकार, अचल ध्रुव अक्षर का भंजन करते हैं वे भी मुझे प्राप्त होते हैं। अव्यक्त में जिनका चित्त आसक्त है, वह कष्ट अधिक पाते हैं क्योंकि अव्यक्त गति को प्राणी कष्ट से पाते हैं। हे पार्थ! अपने सब कर्मो को मेरे में अर्पण करके अनन्य भक्ति से मेरा ध्यान करते और पूजते हैं, उन शरण में आये हुए भक्तों का मैं थोड़े ही समय मे मृत्यु संसार सागर से उद्धार कर देता हूँ। मुझ ही में मन रखो, मुझमें ही बुद्धि रखो तुम मुझमे ही निवास करोगे, इसमें कुछ संदेह नहीं। हे धनंजय! यदि इस प्रकार तुम मुझमें अपने चित्त को करने में समर्थ न हो तो अभ्यास भी न कर सको तो मेरे उद्देश्य से व्रतादि ही करो। मेरे लिए तुम करोगे तो तुम्हें मुक्ति प्राप्त होगी और यदि ऐसा भी न कर सको तो मन को रोककर अनन्य भाव से मेरी शरण मे आओ और फल की आशा छोड़कर कर्म करो। क्योंकि अभ्यास से ज्ञान उत्तम है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से कर्मों के फल का त्यागना श्रेष्ठ है। त्याग से शांति प्राप्त होती है। जो द्वेष नहीं करता, सबका मित्र है ममता और अहंकार जिसमें नहीं है, सुख दुःख को समान जानता है समावान है, संतोषी है, स्थिर चित्त इन्द्रियों को वश में रखता है दृढ़ निश्चयवान है, मुझमें अपना मन और बुद्धि लगाए हुवे है ऐसा मेरा भक्त मुझेको प्रिय है। जिसमें न लोगो का भय है न डर है। ऐसा जो हर्ष ईर्ष्या दुष्टों से भय और विषाद से रहित है वह मेरा प्रिय है। जो कुछ मीले उसी में सन्तुष्ट, पवित्र, निष्पाप, फल की आशा त्यागकर कर्म करने वाला ऐसा जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है। जो लाभ से प्रसन्न न हो। किसी से द्वेष न करे, इष्ट पदार्थ के नष्ट होने से दुःखी न हो, किसी वस्तु की इच्छा न करे, अशुभ तथा शुभ दोनों दोनों का त्यागी भक्त मेरा परम प्रिय है, जिसको शत्रु और मित्र, मां और अपमान, सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख, समान है वासना से रहित जो निंदा और स्तुति को समान जानता है, जो मीले उसी पर संतोषी, जो यह नहीं समझता कि यह मेरा घर है, जो भक्तिमय है वह मेरा प्यारा है। जो मुझमें श्रद्धा करके मुझे मानकर इस अमृत के समान कल्याणकारक धर्म का आचरण मेरे उपदेशानुसार करते हैं वे मुझेको अत्यन्त प्रिय हैं।
श्रीमद्भगतगीता का बारहवां अध्याय समाप्त।
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🙏अथ बारहवें अध्यायय का महात्त्म्य🙏
श्री भगवान बोले- हे लक्ष्मी! अब बारहवें अध्याय का महात्त्म्य सुन, दक्षिण देश मे एक सुखानंद नाम का राजा रहता था। जिसके नगर में एक अवन्त नाम का लंपट रहता था एक गणिका से उसकी प्रीति थी वह दोनों एक देवी के मंदिर में जाकर मदिरापान किया करते मांस खाते भोग- भोंगे जो कोई पूछे तुम यहाँ क्या करते हो तो कहें, हम यहां रहतें है देवी की सेवा करते हैं झूठ कह देवें उसी मंदिर में एक ब्राम्हण देवी की सेवा करता था एकदिन उस ब्राम्हण ने देवी की स्तुति करी द्ववी प्रसन्न हुई। कहा वर मांगो जो मांगोगे सो देउँगी उसने द्घन सन्तान सुख मांगा देवी ने कहा- हे ब्राम्हण! अवश्य कर तुझे सन्तान सुख देऊंगी पर एक बात कर पहिले इन दोनों का उद्धार कर ले तब ब्राम्हण ने नारायण जी का तप किया भगवान जी प्रसन्न हुए। श्रीनारायण जी गरुड़ पर सवार होकर आगे और कहा गिरी क्या कामना है। ब्राम्हण ने पूछा- दोनों का उद्धार कैसे हो? नारायणजी ने कहा- हे ब्राम्हण! गीता के बारहवें अध्याय का पाठ सुनावों तो उन दोनों का उद्धार होगा तब उस विप्र ने भगवान की स्तुति कर धन्य किया तब विप्र ने दोनों गणिका और लम्पट को बैठाकर गीता के बारहवें अध्याय का पाठ सुनाया सुनते ही दोनों की देह छूटी। देव देह पाई और बैकुण्ठ को गये देखकर देवी प्रसन्न हुई। विप्र को कहो- हे पण्डित! आज से मेरा नाम वैष्णव देवी हुआ इस पाठ को सुनकर ऐसे अकर्मी तर गए हैं। इस नगरी का राज्य तुझको दिया। इतना कह कर अंतर्ध्यान हुई, वह विप्र घर गया उस राजा को कोई संतान न थी, राजा ने उस विप्र को बुलाया राज्य देकर आप तप करने को वन में गया, वन में विरक्त होकर रहा और विप्र राज्य करने लगा श्रीनारायणजी कहतें है- हे लक्ष्मी! यह गीता के बारहवें अध्याय का महात्त्म्य है जो मैंने कहा और तुमने सुना है।
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💝~Durgesh Tiwari~

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