Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit -1 books and stories free download online pdf in Hindi

श्री मद्भगवतगीता माहात्म्य सहित (अध्याय-१)

जय श्रीकृष्ण बंधु-बांधवों
बहुत समय उपरांत फिर एक लेख लेके आपके सम्मुख उपस्थित हूँ। आप सब के स्नेह की अभिलाषा है।
बंधुओ मैन श्री मद्भगवतगीता जी को पढ़ा और मुझे ह्रदय से प्रेणा हुई कि इसको मैं लिखु और जैसे मैं इसके पूण्य और सद्कर्म भरे शब्दो से अनुग्रहित हुआ वैसे ही आप भी अनुग्रहित हो।

🙏भगवान के 108 नाम🙏

ॐ कन्हैया, कृष्ण, केशव, चक्रधारी, नन्दलाल, माधो, सुन्दरश्याम, मुरारी, राधावर, बंसीबजैया, रघुवीर, नटवर, नन्द नन्दन, गजाधर, अविनाशी, निरोत्तम, अर्जुनसखा, अमर-अजर, सांवरिया, सांवला, गोपाल, दामोदर, ब्रजनाथ, दयालु, दीनबन्धु, जगदीश, दीनानाथ, जगतपिता, नारायण, बावन, यशोदा लाल, बिहारी, मदन मोहन, कृपानिधान, सर्वरक्षक, ईश्वर, सर्व शक्तिमान, मन हरण, सर्व व्यापक, बांके बिहारी, गोपीनाथ, ब्रजवल्लभ, गोवर्धनधारी, घनश्याम, परमानन्द, पतितपावन, ज्योतिस्वरूप, राधारमण, माधव, मधूसूदन, रघुपति, राम, हरि, मुरली मनोहर, कल्याण कारी, श्यामा, अनन्त, परमपिता, प्रभु, परम पवित्र, गोसाई, भक्तवत्सल, वासुदेव, परमात्मा, विधाता, दुःखहरता, निरंजन, कालीनाग नथिया, अभै अंतर्यामी, सर्वाधार, अद्वैत, घटघट के वासी, दाता, दीनानाथ, परमेश्वर, रमणीक, निराकार, निर्विकार, अच्युत, न्यायकारी, जगतकर्ता, त्रिभुवननाथ, शंकर, विष्णु, सत्यनारायण, अंतरयामी, परमपिता, ब्रम्हा, संहरता, पालन करता, गोपी कल्लभ, सात्वित आनन्द स्वरूपा, केशव, राधेश्याम, सत्यस्वरूप, आनन्द दाता, कृपालु, अनादि, विश्वकर्ता, पूर्ण परमानन्द, नन्द किशोर, सुखदाता, नर नारायण, ब्रम्हा, महेश, श्री, स्वामीन्।।

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श्री मद्भगवतगीता अध्याय-1

श्री ॐ नमो भगवते वासुदेवाय विश्वेश्वराय।आदि पुरुष अपरम्पपार अलेख पुरुषाय नमः।।

दोहा- जगत बन्धु ज्योति स्वरूप जिय की जाननहार। हरि यश माँगन आयो, दास प्रभु के द्वार।।1।।
श्री भगवान् जी ने अर्जुन को गीता- ज्ञान दिया सो मुझ को मिले। हे भय भंजन भगवान श्रीकृष्ण! सो किशोर दास मांगता है। हे प्रभु! गीता ज्ञान के उच्चारण करने से तेरे भक्त पूर्ण ब्रम्हा को पाते है, हे प्रभो! मैं आपकी शरण मे पड़ा हूँ, किशोर दास और कृष्ण दास अति दीन गरीब हैं। और आप परम प्रवीण आरत दुःख भंजन हो। हे कमलापति कृपानिधान श्री कृष्ण भगवान! तेरे सन्तो और भक्तों के हेतु मैं यह ज्ञान भाषा मे कहता हूँ।
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🙏श्री गीता के ज्ञान की कथा प्रारम्भ🙏

जब कौरव और पाण्डव महाभारत के युद्ध को चले तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा- मैं भी युद्ध को देखने चलूंगा। तब श्री व्यासजी ने कहा- हे राजन्! नेत्र के बिना क्या देखोगे? राजा धृतराष्ट्र ने कहा- प्रभु जो देखूँगा नहीं तो श्रवण तो करूँगा, तब व्यासजी ने कहा- हे राजान्! तेरा सारथी संजय जो कुछ महाभारत के युद्ध की लीला कुरुक्षेत्र में होगी सो यहाँ बैठे ही श्रवण करायेगा, व्यासजी के मुख से ये वचन सुन संजय ने विनती करी- हे प्रभो! यहां हस्तिनापुर में बैठे कुरुक्षेत्र की लीला कैसे जानूँगा तथा राजा को किस भांति कहूँगा? तब व्यासजी ने प्रसन्न होकर संजय को यह वचन कहा- संजय मेरी कृपा से तुझे यहाँ ही सब दिखाई देगा। व्यासजी के इतना कहते ही उसी समय संजय की दिव्य दृष्टि हो गई। अब आगे महाभारत की कौतुक कहते हैं सो सुनो, सात अक्षोहिणी सेना पाण्डवो की और ग्यारह अक्षोहिणी सेना कौरवों की यह दोनों सेना कुरुक्षेत्र में जा एकत्र हुईं। धृतराष्ट्र ने पूछा- है संजय! धर्म के क्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? संजय ने कहा- पाँडवों की सेना को व्यूहित देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के समीप जाकर कहने लगे- हे आचार्य! देखिए आपके शिष्य बुद्धिमान द्रुपद पुत्र ने पांडवों की बड़ी सेना की कैसी व्यूह रचना की है। इस सेना में अर्जुन, भीम जैसे बड़े-बड़े धनुधारी, वीर विराट , महारथी द्रुपद धृष्टकेतु, चेकितान बलवान, काशीराज, पुरुजित कुन्तिभोज नरों में श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु, बलवान उत्तमौजा अभिमन्यु और द्रोपदी के पुत्र सबके सब महारथी हैं। हे ब्राम्हण श्रेष्ठ! आपके स्मरणार्थ अब मैं अपनी सेना के प्रधान सेनापतियों के नाम बताता हूँ आप स्वयं, भीष्म, कर्ण, युद्ध विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा और बहुत से शूरवीर मेरे लिए प्राण देने को तैयार हैं। ये लोग शस्त्र चलाने में अति निपुण हैं और सब युद्ध विद्या में प्रवीण हैं। हमारी सेना जिसके भीष्म रक्षक हैं, अपरमित बल है और उनकी सेना जिनके भीम रक्षक है, थोड़ा बल हैं। अब आप सब अपने-अपने मोर्चो पर सावधान रहकर सेनापति की रक्षा कीजिये, भीष्म पितामह ने दुर्योधन को प्रसन्न करते हुवे और ऊंचे स्वर से गरजते हुए शंख बजाया फिर वहाँ चारो ओर संख, नगाड़े, ढोल, गौमुखादि अनेक बाजे बजने लगे, जिनका भयंकर शब्द हुआ। जिनके अनंतर सफेद घोड़ो के बड़े रथ पर स्थित माधव (श्रीकृष्ण) और अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को बजाया। श्रीकृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख को और भीषण कर्म करने वाले भीम ने पौंड्र नामक बड़े भारी शंख को बजाया, कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अंनत विजय, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणि पुष्पक और धनुर्धर काशीराज , शिखण्डी, धृष्टघुम्न, विराट, अपराजिता सात्यकी, राजा द्रुपद और द्रोपदी के पांचों पुत्र और महाबाहु अभिमन्यु इन सब वीरो ने अपने-अपने शंखों को बजाया उन शंखों के भारी शब्दो से आकाश और पृथ्वी गूँज उठे और धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय काँप उठे। है राजन्! अर्जुन ने कौरवों को युद्ध के लिए प्रस्तुत देखकर धनुष उठा कर श्रीकृष्ण से कहा हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओ के बीच खड़ा कीजिए जिससे मैं युद्ध करने वालो को देख लूं की इस रणभूमि में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना चाहिए। दुर्बुद्धि दुर्योधन की प्रीति करने वाले जो युद्ध के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं उनको देखूँगा। संजय ने कहा- है राजन्! अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने भीष्म द्रोण आदि वीरों के सामने उत्तम रथ को करके कहा- कि है वीर! युद्ध के लिए उघत इन कौरवों को देख लो। अर्जुन ने चाचा, बाबा, गुरु, मामा, भाई, पुत्र, श्वसुर और स्वजनों को शस्त्रों से सुसज्जित खड़े देखा और उसने इन दोनों सेनाओ में अपने ही सब बंधाओ को खड़ा देखकर नरम दयाद्र हुए अत्यंत खेद के साथ यह वचन कहे- हे माधव! युद्ध की इच्छा से आए हुए इन अपने बंधुओ को देख मेरे अंग ढीले होते जाते हैं और मुख सूखा जा रहा है। मेरा शरीर बेकल होता है, रोमाँच खड़े होते हैं। गांडीव हाथ से गिरा जाता है, त्वचा जली जा रही है।है केशव! मुझमे यहाँ खड़े रहने का सामर्थ्य नहीं है, मेरा मन चक्कर खा रहा है और सब लक्ष्ण मैं उल्टे देख रहा हूँ और संग्राम में अपने स्वजनों का वध करके कोई लाभ नहीं होगा। है कृष्ण! मैं जीत, राज्य, भोग और सुख नहीं चाहता हूँ, हे प्रभो! हमको राज्य, भोग तथा जीवन से क्या काम है? क्योंकि जिनके लिए राज्य, भोग और सुख की इच्छा की जाती है, वे सब इस युद्ध मे प्राण और धन की ममता छोड़ मारने को तैयार हैं और आचार्य, पिता,पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुर, पौत्र, सारे सम्बन्धी ये सब मुझे मेरे तो भी है मधुसूदन! मैं इन्हें मारने की इच्छा नही करूँगा।
हे जनार्दन! त्रिलोकी के राज्य के लिए भी मैं इन्हें मारना नही चाहता फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या है? है जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमारा क्या भला होगा इन आतताइयों का वध करने से पाप होगा इसलिए हमें अपने धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना अनुचित है। हे माधव! स्वजनों को मारकर क्या हैम सुखी रह सकते हैं? ये सब लोभ के वशीभूत हैं कुल के नाश करने तथा मित्र-द्रोह करने में पाप को नही देखते।कुल नाश के दोष को जानते हुए भी हमको इस पातक से क्यों नहीं दूर रहना चाहिए? कुल का नाश होने से कुल के प्राचीन धर्म नष्ट हो जाते हैं, फिर धर्म नाश होने से कुल में पाप बढ़ता है। है कृष्ण! पाप से कुल की स्त्रियां व्यभिचारिणी होती हैं, जिनमे वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। यह वर्ण संकर जिन पुरुषों ने कुल को नष्ट किया है उनको तथा उस कुल को नरक में पहुँचाते हैं, क्योकि श्राद्ध तरपनादिबन्द हो जाते हैं। वर्णसंकर बनाने वाले दोषो से कुल ध्वंसकों के जाति धर्म और कुल धर्म निरन्तर नाश होते हैं। है जनार्दन! मैंने बराबर सुना है कि कुल धर्म नष्ट होने से निश्चय नरकवास करना होता है। हाय! हम बड़ा पातक करने को तैयार हैं जो राज्य सुख के लोभ से स्वजनों को मारने की कोशिश कर रहे हैं शास्त्रों को धारण किए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र यदि मुझ शस्त्र रहित और उपायहीन को रणभूमि में वध कर डालें तो मेरा बहुत कल्याण हो। संजय ने कहा- है राजन्! यह कहकर अत्यन्त दुःखित होकर अर्जुन ने उसी समय धनुष बाण फेंक दिया और रथ के पिछले भाग में जा बैठा।
~श्री मद्भगवतगीता प्रथमोअध्याय स्माप्तम्~
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🙏प्रथम अध्याय का माहात्म्य🙏
एक समय पार्वती ने पूछा- है महादेव जी! किस ज्ञान के बल से आपको संसार के लोग शिव कर पूजते हैं मृगछाला ओढ़े, अंगों में श्मशानों की विभूत लगाये, गले मे सर्प और मुंडों की माला पहिं रहे हो, इनमें तो कोई पवित्र नहीं फिर आप किस ज्ञान से पवित्र हो? वह आप कृपा करके कहिये। श्री महादेवजी बोले- है प्रिये! सुनो, गीता के ज्ञान को ह्रदय में धारण करने से मैं पवित्र हूँ और उस ज्ञान से मुझे बाहर के धर्म व्यापते नहीं। तब पार्वती ने कहा है- है भगवन! जिस गीता-ज्ञान की आप ऐसी स्तुति करते हैं उसके श्रवण करने से कोई कृतार्थ भी हुआ है तब श्री महादेवजी ने कहा- इस ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए और आगे भी होंगे। मैं रुझसे एक पुरातन कथा कहता हूँ तू श्रवण कर। एक समय पाताल लोक मे शेषनाग की शैय्या पर श्रीनारायणजी नैन मुद के अपने आनंद में मग्न थे उस समय भगवान के चरण चापती लक्ष्मी जी ने पूछा- है प्रभो! निद्रा और आलस्य उन पुरुषों को व्यापती है जो जीव तामसी हैं फिर आप तो तीनों गुणों से परे हो।श्री नारायण प्रभु वाशुदेव हो, आप जो नैन मूंद रहे हो यह मुझको बड़ा आश्चर्य है, श्री नारायण जी बोले- हे लक्ष्मी! मुझको निंद्रा आलस्य नहीं व्यपता एक शब्द-रूप
जो भागवत गीता है उसमें जो ज्ञान है उसके आनन्द में मग्न रहता हूँ जैसे चौबिष औतार मेरे आकार रूप है तैसे यह गीता शब्दरूप अवतार है इस गीता में यह अंग हैं- पांच अध्याय मेरा मुख है, पांच अध्याय मेरी भुजा है, पांच अध्याय मेरा ह्रदय और मन है, सोलहवाँ अध्याय मेरा उदर है सत्रहवाँ अध्याय मेरी जंघा है, अठारहवाँ अध्याय मेरे चरण हैं। सब गीता के जो श्लोक है सो मेरी नाड़ियां हैऔर जो गीता के अक्षर है सो मेरे रोम है, ऐसा जो मेरा शब्द रूपी गीता ज्ञान है जिसके मैं अर्थ ह्रदय में विचारता हूँ और बहुत आनंद को प्राप्त होता हूँ।
श्री लक्ष्मीजी बोली- है श्रीनारायणजी! जब श्री गीता का इतना ज्ञान है तो उसको सुनकर कोई जीव कृतार्थ भी हुआ है सो मुझको कहो। टैब श्रीनारायणजी ने कहा- है लक्ष्मी! गीता ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए हैं सो तू श्रवण कर।
शूद्रवर्ण एक प्राणी था। जो चांडालों के कर्म करता था और तेल लवण का व्यापार करता था उसने बकरी पाली, एक दिन वह बकरी चराने को बाहर गया वृक्षो के पत्ते तोड़ने लगा वहां सर्प ने उसे दस लिया तत्काल प्राण निकल गये। मरकर
उसने बहुत नरक भोगे फिर बैल का जन्म पाया उस बैल को भिक्षु ने मोल लिया। वह भक्षुक उस पर चढ़कर सारा डॉन मांगता फिरे जो कुछ भिक्षा मांगकर लाये वह कुटुम्ब के साथ मिलकर खा लेता था वह बैल सारि रात द्वार पर बंधा रहे। उसके खाने पीने का भी खबर नही लेता। कुछ थोड़ा सा भूसा उसके आगे डाल देता। जब दिन चढ़ता फिर बैल पे चढ़कर मांगता। कई दिन गुजरे तो बैल भूख के मारे गिर पड़ा पर उसके प्राण छूटे नहीं। नगर के लोग देखते तो कोई उसे तीर्थ का फल देता तो कोई व्रत का फल देता पर उस बैल के प्राण छूटे नहीं। एकदिन गणिका आयी उसने मनुष्यों से पूछा- यह भीड़ कैसी हैं तो उन्होनें कहा इसके प्राण जाते नही अनेक पुण्यो का फल दे रहे है तो भी इसकी मुक्ति नहीं होती। तब गणिका ने कहां- मैंने जो पूण्य किया है उसका फल इस बैल के निमित्त दिया। इतना कहते ही बैल की मुक्ति हुई टैब बैल ने एक ब्राम्हण के घर मे जन्म लिया। पिता ने इसका नाम सुशर्मा रखा। जब बाद हुआ पिता ने इसको विद्या दी, टैब इसको पिछले जन्म की सुध रही थी यह अति सुंदर हुआ इसने एक दिन मां में विचार किया जिस गणिका ने मुझे बैल के योनि से छुड़ाया था उसका दर्शन करुँ। विप्र चलता-चलता गणिका के घर गया और कहा तू मुझे पहचानती हैं गणिका ने कहा मैं नही पहचानती तू कौन है मेरी तेरी क्या पहचान है रुँ विप्र मैं वैश्या। तब विप्र ने कहा मैं वही बैल हु जिसे तुमने पूण्य। दिया था तब मैं बैल के योनि से छूटा था । अब मैने विप्र के घर जन्म लिया हेतु अपना वह पूण्य बता। गणिका ने कहा- मैं अपने जाने कोई पूण्य नही किया, पर मेरे घर एक तोता है वह कुछ पढता है मैं उसके वाक्य सुनती हूँ। उस पूण्य का फल मैंने तेरे निमित्त दिया था। तब विप्र ने तोते से पूछा- तू सवेरे क्या पढ़ता है? तोते ने कहा मैं पिछले जन्म में विप्र पुत्र था। पिटक ने मुझे गीता के पहिले अध्याय का पाठ सिखाया था। एकदिन मैंने गुरुजी से कहा मुझको आपने क्या पढ़ाया है? तब गुरुजी ने मुझे शाप दिया कि तू सूआ हो जा। टैब मैं सूआ हुआ एक दिन फंदक मुझे पकड़कर ले गया। एक विप्र ने मुझे मोल लिया यह विप्र भी अपने पुत्र को गीता का पाठ सीखाता था तब मैंने भी वह पाठ सिख लिया। एकदिन विप्र के घर चोर पड़े उन्हें धन तो प्राप्त नही हुआ पिंजरा उठा ले गए, उन चोरो की यह गणिका मित्र थी। मुझे इसके पास ले आये सो मैं नित्य गीता के पहले अध्याय का पाठ करता हूँ यह सुनती है, पर इस गणिका को समझ मे नही आता जो मैं पढ़ता हूँ वही पूण्य तेरे निमित्त दिया था, सो श्री गीताजी के पहले अध्याय के पतब का फल है। तक़ब् विप्र ने कहा है तोते! तू भी विप्र है, मेरे आशीर्वाद से तेरा कल्याण हो। सो है लक्ष्मी! इतना कहने से टोटे की मुक्ति हुई। गणिका ने भी भले काम ग्रहण किये नित्य प्रति स्नान करे और गीताजी के प्रथम अध्याय का पाठ करे । इससे उसकी मुक्ति हुई। श्रीनारायण ने कहा- है लक्ष्मी! जो कोई अजान के भी गीता का पाठ करे या श्रवण करे उसको भी मुक्ति मिलेगी।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
💝~Durgesh Tiwari~

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