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श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-७)

जय श्रीकृष्ण बन्धुजन!
भगवान श्रीकृष्ण के अशीम अनुकम्पा से आज श्री गीताजी के सातवें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी बन्धुजन इस अध्याय के अमृतमय शब्दो को पढ़कर अपने आप को तथा इसको पढ़के अपनो को सुनाकर सभी का जीवन कृतार्थ करें।
जय श्रीकृष्ण!

🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-७🙏
श्री कृष्ण जी बोले- है पार्थ! मुझमें मन लगा करके मेरे आश्रय होकर योगाभ्यास करते हुए मेरे स्वरूप का संसय रहित पूर्ण ज्ञान होगा सो सुनो। विज्ञान के रहित वह पूर्ण ज्ञान में तुम्हें सुनाता हूँ, जिसके जानने से तुमको इस लोक में और कुछ जानना शेष न रहेगा। सहस्त्रों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों में से भी क्वचित् ही मुझे ठीक जान पड़ता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह आठ प्रकार की मेरी प्रकृति(माया) है। इस प्रकृति को (अपार अचेतन) अर्थात जड़ कहते हैं और हे महाबाहो! इससे दूसरी प्रकृति चेतना है जिसने सम्पूर्ण जगत धारण किया है। इन्ही दोनों प्रकृतियों से सब प्राणी मात्र उत्पन्न होते हैं ऐसा जानो। यह प्रकृतियाँ मुझसे ही उत्पन्न हैं, इस प्रकार जगत की उत्तपत्ति और प्रलय का कारण मैं ही हूँ। है धनंजय! धागों में जिस प्रकार मणि पिरोई जाती है उसी भाँति यह संसार मुझमें गुथा हुआ है, मुझसे परे और कुछ भी नहीं है। है कुन्ती पुत्र! जल में रस में मैं ही हूँ, चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा में मैं ही हूँ, सब वेदों में प्रणव में ही हूँ, आकाश में शब्द तथा पुरुषों में पौरुष मैं ही हूँ। है अर्जुन! पृथ्वी में जो सुगन्ध है तथा अग्नि में तेज मैं ही हूँ, सब प्राणियों में जीवन और तपस्वियों में तप मैं ही हूँ। है पार्थ! सम्पूर्ण प्राणियों में सनातन बीजरूप मुझको ही जानना। बुद्धिमानों में बुद्धिरूप और तेजस्वियों में तेज मैं ही हूँ। हे अर्जुन! काम और रोग सहित बलवान पुरुषों में बल और पुरुष धर्म के विरुद्ध जाने वाला काम मैं ही हूँ। जितने सात्विक राजस तामस पदार्थ हैं वे सब मुझसे उतपन्न हुए हैं। परन्तु उनमें में नहीं रहता हूँ वे मुझमें है। सत्व, रज, तम इन तीनों के भावों से यह सारा संसार मोहित रहता है, इस कारण यह इससे पर मुझ अव्यय परमात्मा को नहीं जानता। मेरी यह गुणमयी और दिव्य माया अत्यन्त दुष्कर है जो मुझको अनन्य भाव से भजते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं। जो पापी इस मूढ़ नराधाम माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है और आसुरी भाव ग्रहण किये हुए हैं वे मुझको नहीं पाते। हे अर्जुन! चार प्रकार के मनुष्य मुझको भजते है।- दुखिया, जिज्ञासु, ऐश्वर्य की कामना करने वाला और ज्ञानी। इन में सदा मुझमें एकाग्रचित्त और केवल मेरी भक्ति करने वाला ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ है, क्योंकि मैं ज्ञानी को अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझको प्रिय हैं। यघपि वे सभी भक्त अच्छे हैं तथापि ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है, क्योंकि वह मुझमें ही मन लगाकर मुझको ही सर्वोत्तम गति मान, मेरा ही आश्रय ग्रहण करता है। अनेक जन्मों के अनन्तर ज्ञानी मुझे पा लेता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है, जो सब जगत को वासुदेव मय समझे। अपनी-२ प्रकृति के नियम के अनुसार मनुष्य भिन्न-२ काम वासनाओं से अज्ञान में डूबकर उन फलों की चाहना से अन्य देवताओं के अधीन होकर उनकी उपासना करते हैं। है अर्जुन! जो भक्त श्रद्धापूर्वक जिस-२ देवता का पूजन किया करते हैं उन पुरुषों की उस श्रद्धा को मैं दृढ़ कर देता हूँ। वह इस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की आराधना करता है, फिर उसको मेरे रचे हुवे काम फल प्राप्त होते हैं। परन्तु उन अल्पबुद्धि वालों का फल नाशवान है। देवताओं की आराधना करने वाले देवताओं को मिलते हैं और भक्तजन मुझमें मिल जाते हैं मेरे अव्यय अविनाशी अत्युत्तम स्वरूप को जानकर मंदबुद्धि लोग अव्यक्त को व्यक्त (देहधारी) मानते हैं। मैं योगमाया से आच्छादित होने के कारण सबको नहीं दीखता हूँ, उसी से मूढ़ लोग अनादि तथा अविनाशी मुझको नहीं जानते । हे अर्जुन! मैं भूत, भविष्य और वर्तमान के सब प्राणियों को जानता हूँ, पर मुझे कोई भी नहीं जानता। हे परंतप! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होने वाले सुख दुःख आदि द्वन्दों के मोह से जगत के प्राणी भ्रम में फंस जाते हैं। जिन पुण्यात्माओं के पाप नष्ट हो गए हैं वह पुरुष द्वन्द के मोह से छूटकर दृढ़ निश्चय करके मेरी भक्ति करते हैं। जो मेरा आश्रय लेकर जन्म मरण के दूर करने के अर्थ प्रयत्न करते हैं वे पुरुष पार्ब्रम्हा आत्मज्ञान और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं। जो अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ इन सब में व्यापक मुझे जान पाते हैं वे समाधिनिष्ठ पुरुष मरण काल में मुझको जानते हैं।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का सातंवा अध्याय समाप्त
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🙏अथ सातवें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायणजी बोले- है लक्ष्मी! अब सातवें अध्याय का महात्त्म्य सुनो, एक पटेल नाम का नगर है, जिस में संकूकर्ण को सर्प ने डसा वह मर गया उसके साथी उसकी दाह क्रिया कर आगे को सिधारे। जब लौट कर घर में आये उसके पुत्र ने पूछा मेरा पिता संकूकर्ण कहां है? उन व्यापारियों ने कहा तेरे पिता को सर्प ने डसा था वह मर गया और यह पदार्थ तेरे पिता का है तू ले। एक करोड़ रुपया दिया और उसकी गति कराने को कहा। क्योंकि वह अवगति मरा था उस बालक ने अपने घर आकर ब्राह्राणों से पूछा कि सर्प के डसे से मरे को गति कैसे करानी चाहिये? पंडितों ने कहा नारायणवली कराओ उर्द के आटे का पुतला बनाए चनियाँ चढ़ाए, जैसी विधि पंडितो ने कही तैसी करी बड़ायज्ञ किया बहुत ब्राम्हण जिंवाये, श्राद्धपिण्ड पत्तल कराया। बाकी द्रव्य जो रहा चारों भाइयों ने बांटा, एक पुत्र ने कहा जिस सर्प ने मेरे पिता को काटा है मैं उस को मारूँगा। उन व्यापारियों से कहा जिस सर्प ने मेरे पिता को काटा है में उस को मारूँगा। उन व्यापारियों से कहा चलो वह ठौर तुझे बता दें वहां ले जाय खड़ा किया। देखें तो वहां एक बामी है तीसे कुदालों के साथ खोदने लगा जब छेद बड़ा हुआ वहां से एक सर्प निकला । कहा तू कौन है मेरा घर क्यों खोदता है, उस बालक ने कहा मैं संकुकर्ण का पुत्र हूँ जिस सर्प ने मेरे पिता को मारा है में उसको मारूँगा तब सर्प ने कहा है पुत्र मैं तेरा पिता हूँ तू मुझे इस अधम देह से छुड़ा और मुझे मत मार, यह मेरा पूर्ण का कर्म था सो मैंने भोगा। तब पुत्र ने कहा- हे पिता कोई यत्न बाताओ जिससे तेरा उद्धार हो। तब सर्प ने कहा हे पुत्र! किसी गीता पाठी ब्राम्हण को घर में भोजन करावों और उसकी सेवा कर सजे आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा। तब उस बालक ने अपने घर और उस नगर में जितने गीता का पाठ करने वाले थे उन सब को बुलाकर श्रीगीताजी के सातवें अध्याय का पाठ कराया और उनको भोजन कराया। तब उन साधु ब्राम्हणों ने आशीर्वाद दिया तत्काल वह अधम देह से छूट कर देव देहि पाकर विमान पर चढ़कर आकाशमार्ग को जाता हुआ अपने पुत्र को धन्य-२ करता बैकुण्ठ धाम जा प्राप्त हुआ।
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💝~Durgesh Tiwari~

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